SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव न हो तो विवाह कर लेना चाहिए । विवाहविधि के सम्बन्ध में जैनाचार्यों की स्पष्ट धारणा क्या थी, इसकी सूचना हमें आगमों और आगमिक व्याख्याओं में नहीं प्राप्त होती है । जैन-विवाह-विधि का प्रचलन पर्याप्त रूप से परवर्ती है और दक्षिण के दिगम्बर आचार्यों की ही देन है जो हिन्दू-विवाह-विधि का जैनीकरण मात्र है। उत्तर भारत के श्वेताम्बर जैनों में तो विवाह विधि को हिन्दू धर्म के अनुसार ही सम्पादित किया जाता है। आज भी श्वेताम्बर जैनों में अपनी कोई विवाह पद्धति नहीं है। जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं से जो सूचना हमें मिलती है उसके अनुसार यौगलिक काल में युगल रूप में उत्पन्न होने वाले भाई-बहन ही युवावस्था में पति-पत्नी का रूप ले लेते थे। जैन पुराणों के अनुसार सर्वप्रथम ऋषभदेव से ही विवाह प्रथा का आरम्भ हुआ। उन्होंने भाई-बहनों के बीच होने वाली विवाह-प्रणाली को अस्वीकार कर दिया। उनकी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी ने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का निर्णय किया । फलतः भरत और बहुबलि का विवाह अन्य वंशों की कन्याओं से किया गया । जैन साहित्य के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आगमिक काल तक स्त्री विवाह सम्बन्धी निर्णयों को लेने में स्वतन्त्र थीं और अधिकांश विवाह उसकी सम्मति से ही किये जाते थे जैसाकि ज्ञाता में मल्लि और द्रौपदी के कथानकों से ज्ञात होता है। आगम ग्रन्थों से जो सूचना मिलती है उसके आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि प्रागैतिहासिक युग और आगम युग में सामान्यतया स्त्री को अपने पति का चयन करने में स्वतन्त्रता थी। यह भी उसकी इच्छा पर निर्भर था कि वह विवाह करे या न करे। पूर्वयूग में ब्राह्मी, सन्दरी, मल्लि, अ मिक यग में चन्दनबाला, जयन्ती आदि ऐसी अनेक स्त्रियों के उल्लेख प्राप्त होते हैं जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यपालन स्वीकार किया और विवाह अस्वीकार कर दिया। आगमिक व्याख्याओं में हमें विवाह के अनेक रूप उपलब्ध होते हैं। डॉ० जगदीशचन्द जैन ने जैन आगमों और आगमिक व्याख्याओं में उपलब्ध विवाह के विविध रूपों का विवरण प्रस्तुत किया है यथा-स्वयंवर, माता-पिता द्वारा आयोजित विवाह, गन्धर्व विवाह (प्रेमविवाह), कन्या को बलपूर्वक ग्रहण करके विवाह करना, पारस्परिक आकर्षण या प्रेम के आधार पर विवाह, वर या कन्या की योग्यता देखकर विवाह, कन्यापक्ष को शुल्क देकर विवाह और भविष्यवाणी के आधार पर विवाह । किन्तु हमें आगम एवं आगमिक व्याख्याओं में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिल सका जहाँ जैनाचार्यों ने गुण-दोषों के आधार पर इनमें से किसी का समर्थन या निषेध किया हो या यह कहा हो कि यह विवाह-पद्धति उचित है या अनुचित है। यद्यपि विवाह के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई स्वतन्त्र दृष्टिकोण नहीं था पर इतना अवश्य माना जाता था कि यदि कोई ब्रह्मचर्य पालन करने में असफल हो तो उसे विवाह बन्धन मान लेना चाहिए । जहाँ तक स्वयंवर विधि का प्रश्न है निश्चित ही नारी-स्वातन्त्र्य की दृष्टि से यह विधि महत्वपूर्ण थी। किन्तु जनसामान्य में जिस विधि का प्रचलन था वह माता-पिता के द्वारा आयोजित विधि ही थी। यद्यपि इस विधि में स्त्री और पुरुष दोनों की स्वतन्त्रता खण्डित होती थी। जैनकथा साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख उपलब्ध हैं जहाँ बलपूर्वक अपहरण करके विवाह सम्पन्न हुआ। इस विधि में नारी की स्वतन्त्रता पूर्णतया खण्डित हो जाती थी; १. आवश्यकचूणि, भाग १, पृष्ठ १५२ । २. आवश्यकचूणि भाग १, पृ० १४२-४३ । ३. जैनागम में भारतीय समाज, -डा. जगदीशचन्द्र जैन, पृ० २५३-२६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210572
Book TitleJain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain woman
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy