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________________ खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि १३१ स्त्री-पुरुष सहभागी होकर जीवन जीते थे । आगम ग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा में राजा द्रुपद द्रौपदी से कहते हैं कि मेरे द्वारा विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दुःख हो सकता है अतः अच्छा हो अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन के लिये नारी - स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं। इसी प्रकार हम देखते हैं कि उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ रेवती अपनी मायके से मँगाकर मद्य-मांस का सेवन करती है वहाँ महाशतक पूर्ण साधनात्मक जीवन व्यतीत करता है। इससे ऐसा लगता है कि आगम युग तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर लादने का प्रयास करते हैं। चूणि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता है। ___ इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था किन्तु छेदसूत्र एवं आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमशः बढ़ता जाता है । इन ग्रन्थों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी क्षेत्रों में आचार्य का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है । फिर भी बौद्ध भिक्ष णी संघ की अपेक्षा जैन भिक्षणी संघ में स्वायतत्ता अधिक थी। किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रायश्चित्त, शिक्षा और सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्ष संघ से स्वतन्त्र विचरण करते हुए धर्मोपदेश देती हैं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे। ___ यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य हिन्दू परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है जाया पितिव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा। विहवा पुत्तवसा नारी नत्थि नारी सयंवसा ॥ अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अतः वह कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता सीमित की गयी है। पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप ३/२३३ १. जस्स णं अहं पुत्ता! रायस्स वा जुवरायरस वा भारियत्ताए सयमेव दलइस्सामि, तत्थ णं तुमं सुहिया वा दुक्खिया वा भविज्जासि । ज्ञाताधर्मकथा १६/८५ २. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमंसेहिं सोल्लेहिं य ४ सुरं च आसाएमाणी ४ विहरइ। -उवासगदसाओ २४४ तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वइक्कंता । एवं तहेव जेठं पुत्त ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्ति उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । ' -उवासगदसाओ, २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210572
Book TitleJain Agamik Vyakhya Sahitya me Nari ki Sthiti ka Mulyankan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf
Publication Year1989
Total Pages24
LanguageHindi
ClassificationArticle & Jain woman
File Size3 MB
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