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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
१२१ गर्भाशय आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री है; जबकि पुरुष के साथ सहवासकी कामना को अर्थात् स्त्रियोचित काम-वासना को वेद कहा गया है। वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है।। जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की कामवासना के स्वरूप को चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत बताया गया है । जिस प्रकार उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती है उसी प्रकार स्त्री की कामवासना जागृत होने में समय लगता है, किन्तु जागृत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिये हुए है। यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी कामवासना सहगामी माने गये हैं ; फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक विशेप अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन कर्म सिद्धान्त में लिंग का कारण नाम कर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्व) और वेद का कारण मोहनीय कर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है । इस प्रकार लिंग, शारीरिक संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद में परिवर्तन सम्भव है। निशीथिचूणि के अनुसार लिंग परिवर्तन से चेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है (गाथा ३५६) । इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है। जिसमें शारीरिक संरचना
और स्वभाव की दृष्टि से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्त्रीत्व के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे जाने के लिए उसे निम्न एक या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आवश्यक है, यथा
(१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे-रमा, श्यामा आदि । (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे शीतला आदि की स्त्री-आकृति से युक्त या रहित प्रतिमा । (३) द्रव्य-अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना।
(४) क्षेत्र---देश-विशेष की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है।
(५) काल-जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे काल की अपेक्षा से स्त्री कहा जाता है ।
१. अभिधान राजेन्द्र, भाग २, पृ० ६२३ २. यद्वशात स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तव गान् मधुरद्र व्यं प्रति स फुफुमादाहसमः, यथा यथा चाते तथा तथा ज्वलति बृहति च । एवम् बलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषण तथा तथा अस्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, भुज्यमानायां तु छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषोः, मन्द इत्यर्थः इति स्त्रीवेदोदयः ।
-वही, भाग ६, पृष्ठ १४३० ३. संमत्त तिमसंधयण तियगच्छे भो बि सत्तरि अपुव्वे ।
हासाइछक्कअंतो छसट्ठि अनियट्टिवेयतिगं ।। ४ देखे--कर्मप्रकृतियों का विवरण ।
---कर्मग्रन्थ, भाग २, गाथा १८ खण्ड ५/१६ Jain Education International
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