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१२० जैन आगमिक व्याख्या साहित्य में नारी की स्थिति का मूल्यांकन : प्रो० सागरमल जैन
१. पूर्व युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक । २. आगम युग-ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर ई० सन् की तीसरी शताब्दी तक । ३. प्राकृत आगमिक ध्याख्या युग-ईसा की चौथी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक । ४. संस्कृत आगमिक व्याख्या एवं पौराणिक कथा साहित्य युग-आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक ।
इसी सन्दर्भ में एक कठिनाई यह भी है कि इन परवर्ती आगमों के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एव संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की तीसरी व चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुनः इस कालविशेष में भी सभी जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है । प्रथम तो उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वही दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है। इसके लिए अचेलता का आग्रह
और देशकाल-गत परिस्थितियाँ दोनों ही उत्तरदायी रही हैं, अतः आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपू क तथ्यों का विश्लेषण करना होगा। पुनः आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी के सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी एक भ्रान्त धारणा होगी। जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया है, जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु जो जैन धर्म की धार्मिक मान्यताओं के विरोधी हैं। उदाहरण के रूप में बहु-विवाह प्रथा, वेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा गोमांस भक्षण एवं मद्यपान आदि के उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं; किन्तु वे जैन धर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः इस साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं, जिन्हें अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
अतः नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है । नारी लक्षण
नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है। सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और चूणि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्यस्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक चिन्ह) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी स्वभाव (वेद) से है। आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं। जैन परम्परा में स्त्री की शारीरिक संरचना को लिंग कहा गया है। रोमरहित मुख, स्तन, योनि,
१. दव्वाभिलावचिन्धे वेए भावे य इत्थिणिक्खेवो ।
अहिलावे जह सिद्धी भावे वेयम्मि उवउत्तो।। Jain Education International
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--सूत्रकृतांग नियुक्ति ५४.
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