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खण्ड ५ : नारी-त्याग, तपस्या, सेवा की सुरसरि
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धर्म रहा है, निवृत्तिपरक होने के कारण उसमें संन्यास और वैराग्य पर विशेष बल दिया गया है । संन्यास
और वैराग्य के लिए यह आवश्यक था कि पुरुष के सामने नारी का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जाय जिसके फलस्वरूप उसमें विरक्ति का भाव प्रस्फुटित हो । यही कारण था कि जैनाचार्यों ने आगमों और आगमिक व्याख्याओं और इतर साहित्य में कठोर शब्दों में नारी-चरित्र की निन्दा की किन्तु इसका यह अर्थ नहीं रहा कि जैनाचार्यों के सामने नारी-चरित्र का उज्ज्वलतम पक्ष नहीं रहा है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो शील-प्रध्वंसक चरित्रगत दोष नारी में पाये जाते हैं वे पुरुषों में भी पाये जाते हैं इसलिए वैराग्य मार्ग में प्रवर्तित स्त्रियों को भी पुरुषों से उसी प्रकार बचना चाहिए जिस प्रकार स्त्रियों से पुरुषों का बचने का उपदेश दिया गया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने नारी-चरित्र का जो विवरण प्रस्तुत किया है, वह मात्र पुरुषों में वैराग्य भावना जागृत करने के लिए ही है । भगवती आराधना में भी स्पष्ट रूप से यह कहा गया है-स्त्रियों में जो दोष होते हैं वे दोष नीच पुरुषों में भी होते हैं अथवा मनुष्यों में जो बल और शक्ति से युक्त होते हैं उनमें स्त्रियों से भी अधिक दोष होते हैं । जैसे अपने शील की रक्षा करने वाले पुरुषों के लिए स्त्रियाँ निन्दनीय हैं, वैसे ही अपने शील की रक्षा करने वाली स्त्रियों के लिए पुरुष निन्दनीय हैं। सब जीव मोह के उदय से कुशील से मलिन होते हैं
और वह मोह का उदय स्त्री-पुरुषों में समान रूप से होता है । अतः ऊपर जो स्त्रियों के दोषों का वर्णन किया है वह स्त्री सामान्य की दृष्टि से किया है । शीलवती स्त्रियों में ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं ? जैनाचार्यों की दृष्टि में नारी-चरित्र का उज्ज्वल पक्ष
स्त्रियों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है, जो गुणसहित स्त्रियाँ हैं, जिनका यश लोक में फैला हुआ है तथा जो मनुष्य लोक में देवता समान हैं और देवों से पूजनीय हैं, उनकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और श्रेष्ठ गणधरों को जन्म देने वाली महिलायें श्रेष्ठ देवों और उत्तम पुरुषों के द्वारा पूजनीय होती हैं । कितनी ही महिलाएँ एक-पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं, कितनी ही जीवनपर्यन्त वैधव्य का तीव्र दुःख भोगती हैं । ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवों के द्वारा सम्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शील के प्रभाव से शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदी के जल प्रवाह में भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आग में भी नहीं जल सकी तथा सर्प, व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके । कितनी ही स्त्रियाँ सर्वगुणों से सम्पन्न साधुओं और पुरुषों में श्रेष्ठ चरमशरीरी पुरुषों को जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं। अन्तकृत्दशा और उसकी वृत्ति में कृष्ण द्वारा प्रतिदिन अपनी माताओं के पाद-वन्दन हेतु जाने का उल्लेख है। आवश्यकचूणि और कल्पसूत्र टीका में उल्लेख है कि महावीर ने अपनी माता को दुःख न हो, इस हेतु उनके जीवित रहते संसार त्याग नहीं करने का निर्णय
१. एए चेव य दोसा पुरिससमाये वि इत्थियाणं पि ।
-सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा ६१ २. भगवती आराधना गाथा ६८७-८८ व ९६५-६६ ३. वही गाथा, ६८६-६४ ४. तए णं से कण्हे दासुदेवे ण्हाए जाव विभूसिए देवईए देवीए पायवंदाये हव्वमागच्छइ।
-~अन्तकृदशा सूत्र १८
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