Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Catalog link: https://jainqq.org/explore/210592/1

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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचारसंहिता अष्ट मूल गुण वृक्ष तभी तक हरे-भरे रहते हैं जब तक कि उनकी जड़ हरी-भरी व दृढ़ बनी रहती है। ऊँचे वृक्षों की जड़ भी छोटे वृक्षों की अपेक्षा गहरी और अधिक मजबूत होती है। गेहूं-चने के पेड़ छोटे होते हैं तो उनकी जड़ भी छोटी होती है। जड़ उखड़ जाने पर वृक्ष की शाखाएं, पत्ते आदि सभी अंग सूख जाते हैं, उस पर फल-फूल लगना बन्द हो जाता है । बड़े-बड़े विशाल मकान भी तभी खड़े मजबूत होती है । निन्यानवे हजार योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत इसी कारण अब तक अचल गहरी है। इसी प्रकार धर्माचरण भी तभी दृढ़ निश्चल रहता है जबकि उसके मूल यम, धर्माचरण चिरस्थायी नहीं रहता। रहते हैं जबकि उनकी जड़ (नींव) गहरी और खड़ा हुआ है कि उसकी जड़ एक हजार योजन नियम दृढ़ हों। मूलतों का आचरण किये बिना आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज घर-परिवार के साथ रहने वाले गृहस्थ व्यक्ति के लिए अपनी आत्मा को उन्नत करने के लिये उन मूलव्रतों का आचरण करना आवश्यक होता है जो उसके धर्माचरण के मूल आधार हैं। उन आधारभूत व्रतों को ही जिनवाणी में मूलगुण कहा गया है । मूल गुण होते हैं- १. मद्य त्याग, २. मांस त्याग, ३. मधु त्याग, ४. बड़, ५. पीपल, ६. ऊमर, ७. गूलर, ८. कडूमर लाग । इसी को ५ उदुम्बर ( बिना फूल के होने वाले फल बड़, पीपल, ऊमर, गूलर, कठूमर) फलों का तथा ३ मकार ( मद्य, मांस, मधु ) का त्याग कहते हैं। यानी न खाने योग्य आठ पदार्थों के त्याग रूप आठ मूलगुण हैं । मद्य-त्याग शराब पीने का त्याग करना मद्य-त्याग है। गुड़, जौ, महुआ आदि अनेक वस्तुओं को सड़ाकर शराब तैयार की जाती है । चीजों को सड़ाने से एक तो उनमें असंख्य छोटे कीटाणुओं की उत्पत्ति हो जाती है अथवा यों समझ लीजिये कि पदार्थों का सड़ना बिना कीटाणुओं (छोटे-छोटे जीवों की उत्पत्ति के होता ही नहीं है। इस कारण शराब अगणित जीवों का पिण्ड है। अतः शराब पीते समय उन असंखा त्रस जीवों की हिंसा हुआ करती है । शराब पीने में एक तो महान् त्रस जीव हिंसा का पाप होता है। दूसरे, शराब में बड़ा भारी नशा ( मूर्छित करने की शक्ति ) भी होती है जिससे कि शराब पीने के बाद विचार-शक्ति एवं विवेक लुप्त हो जाता है जिससे शराब पीने वाले को कुछ होश नहीं रहता कि मैं कहाँ पर पड़ा हूं ? क्या कर रहा हूं ? कौन मेरे सामने है ? शराब के नशे में शराबी चलते-चलते लड़खड़ा कर गंदे पानी की नालियों में गिर पड़ते हैं, तब भी उन्हें कुछ होश नहीं आता। शराब की गंध पाकर कोई कुत्ता उधर आ जाय तो शराबी का मुख सूंघ कर वह शराबी के मुख में मूत्र भी कर देता है। शराबी को उस बात का भी पता नहीं चलता । शराब पीने से कामवासना भी जाग उठती है। शराबी लोग प्रायः अपनी कामवासना जाग्रत करने के लिये ही शराब पिया करते हैं । वेश्याओं के पास जाने वाले व्यभिचारी लोग प्राय: शराब पी कर नशे में चूर रहते हैं। अनेक घटनाएं ऐसी भी हो जाती हैं कि यदि शराब में चूर शराबी के सामने उसकी अपनी बहिन या पुत्री भी आ जावे तो वह बदहोश उस बहिन या पुत्री को ही अपनी कामवासना का शिकार बनाने का प्रयत्न करता है । शराब पीने का व्यसन एक ऐसा दुर्व्यसन है जो कि एक बार लग जाने पर पड़ जाती है वह अपनी सारी सम्पत्ति नष्ट कर देता है, बिल्कुल बर्बाद हो जाता है। है, अत: शराब शरीर का स्वास्थ्य भी बिगाड़ देती है । ३६ इस तरह शराब किसी भी तरह लाभदायक नहीं । धर्म, विवेक, कुलाचार, धन, स्वास्थ्य आदि सभी को हानि पहुंचाती है । इस कारण शराब का त्याग किये बिना धर्माचरण की जड़ नहीं जम सकती । कितने दुःख की बात है कि इस युग के सभ्य शिक्षित लोग आचारत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ फिर छूटता नहीं। शराब पीने की आदत जिसको शराब का प्रभाव शरीर पर भी बहुत बुरा पड़ता Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पार्टियों (प्रीतिभोजों) में भी शराब का प्रयोग करने लगे हैं। जो व्यक्ति अपनी सन्तान तथा परिवार में सदाचार कायम रखना चाहता है उसको शराब से सदा दूर रहना चाहिये । मांस-त्याग स्थावर एकेन्द्रिय जीवों के शरीर में रक्त नहीं होता, अतः रक्त से बनने वाला मांस भी वृक्ष आदि एकेन्द्रिय जीवों में नहीं हुआ करता, न हड्डी उनके शरीर में होती है । किन्तु दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय तथा पांच इन्द्रिय जीवों के शरीर में रक्त बनता रहता है, अत: उनके शरीर में मांस तथा हड्डी भी होती है । जिस तरह रक्त में त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं, उसी तरह मांस में भी सदा असंख्य त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं । यह बात केवल कच्चे मांस के लिये ही नहीं है किन्तु प्रत्येक तरह के मांस के लिये है। यानी —-मांस चाहे कच्चा हो, चाहे पका हुआ हो अथवा सूखा मांस हो उसमें त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं। इस कारण मांस खाने से उन असंख्य त्रस जीवों की हिंसा हुआ करती है । श्री 'अमृतचन्द्र सूरि ने 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' में कहा है आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तज्जातीनां निगोदानाम् ||६७ || अर्थात् - कच्चे पक्के तथा सूखे हुए मांस में सदा उसी मांस जाति के अनन्त सम्मूर्छन जीव उत्पन्न होते रहते हैं । . इस कारण दयालुचित्त धार्मिक व्यक्ति को मांस भक्षण का त्याग करना अनिवार्य है । मनुष्य स्वभाव से शाकाहारी यानी अन्न, फल, दूध, घी आदि का भोजन करने वाला है । मनुष्य के दांत इस बात की साक्षो देते हैं । मांसाहारी पशुओं के दांत गोल नुकीले होते हैं, उनके चबाने वाली डाढ़े नहीं हुआ करती; किन्तु मनुष्य के दांत चपटे होते हैं। इस कारण मांस मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं है। मांस भक्षण से हृदय में निर्दयता आ जाती है। अतः हिंसाजनित तामसी पदार्थ मांस का त्याग किये बिना धर्म-आचरण की भूमिका नहीं बन सकती । इस कारण मांस-त्याग एक मूलगुण है । मधु-त्याग शहद खाने का त्याग करना मधु-त्याग है। मधुमक्खियाँ फूलों का रस चूस कर लाती हैं, फिर उस चूसे हुए रस को अपने - बनाये हुए छत्ते में आकर उगल कर रख देती हैं। मधुमक्खियों के मुख से उगला गया वह फूलों का रस ही मधु कहलाता है । मक्खियों के मुख का उगाल होने के कारण मधु (शहद) में असंख्य कीटाणु उत्पन्न हो जाते हैं क्योंकि मुख से उगले हुए रस में मक्खियों की -लार होती है । अत: उसके कारण त्रस जीव शहद में पैदा हुआ करते हैं । शहद खाने से उन असंख्य त्रस जीवों की हिंसा होती है | अतः - दयालु धार्मिक मनुष्य को शहद खाने का त्याग करना उचित है। उदुम्बर-फलश्याग आम, अनार, सेब, अंगूर आदि फल लगने से पहले उन वृक्षों पर बौर, फूल आते हैं । उन फूलों के झड़ जाने पर उनके स्थान पर फल लगते हैं । समस्त फलों की उत्पत्ति प्रायः इसी प्रकार हुआ करती है । परन्तु कुछ फल ऐसे भी हैं जो बिना फूल आये ही 'पेड़ों पर उत्पन्न हुआ करते हैं। उन फलों को उदुम्बर फल या अपने पेड़ के दूध से उत्पन्न होने के कारण उन्हें क्षीरी फल भी कहते हैं । २. पीपल पर लगने वाले फल, ३. गूलर, ४. ऊमर और बहुत-से फलों को तो तोड़ने पर उनमें से उड़ते हुए जीव स्पष्ट ऐसे फल ५ होते हैं - १. बड़ वृक्ष पर लगने वाले फल, ५. कठूमर (अंजीर ) । इन फलों के भीतर बहुत-से त्रस जीव होते हैं। दीख पड़ते हैं और कुछ फलों में सूक्ष्म जीव दिखाई भी नहीं देते। इस कारण इन उदुम्बर फलों के खाने से उन जस जीवों की हिंसा होती है। सूखे हुए उदुम्बर फलों में उनके भीतर के त्रस जीव भी मर जाते हैं। सूबे हुए त्रस जीवों का शरीर मांसमय होता है । अतः सूखे हुए उदुम्बर फल भी अभक्ष्य हैं । जो व्यक्ति धर्माचरण प्रारम्भ करता है उसको मद्य, मांस, मधु की तरह इन पांचों उदुम्बर फलों का भी त्याग करना चाहिए। इस तरह इन आठ अभक्ष्य वस्तुओं के त्याग रूप आठ मूल गुण प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति को कड़ाई के साथ आचरण करने - चाहियें । जगत में असंख्य निर्दोष भक्ष्य पदार्थ हैं, मनुष्य की भूख और जीभ की स्वाद-लालसा मिटाने के लिये वे पर्याप्त हैं । इस दशा में इन आठों अभक्ष्य वस्तुओं के खाने-पीने का परित्याग करना समुचित है । अमृत-कण i ३७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो व्यक्ति अपने धर्माचार में दृढ़ होते हैं, संसार की कोई भी शक्ति उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। प्रकृति उनकी सहायता करती है। इस कारण कम-से-कम धर्म-आचरण की मूल भूमिका रूप अष्ट मूलगुण प्रत्येक व्यक्ति को अविचल रूप से स्वीकार करने चाहिये। श्रावक धर्म कल्याण की इच्छा रखने वाले को सबसे पहले सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र का श्रद्धान करना चाहिए और भली-भांति कहे हुए उनके तत्त्वों को समझना चाहिए। जैन धर्म का पक्ष रखने वाले को मूल गुणों का पालन करना चाहिए। वे आठ मूल गुण इस प्रकार हैं ___ कई ग्रन्थों में बड़, पीपल, गूलर(ऊमर), कठूमर, पाकर-इन पांच उदुम्बर फलों (जिनमें प्रत्यक्ष जीव दिखाई देते हैं) तथा मद्य, मांस, मधु (जो त्रस जीवों के पिण्ड हैं) के त्याग करने को अष्ट मूल गुण कहा है। रत्नकरण्डश्रावकाचारादि कई ग्रन्थों में पंचाणुव्रत धारण करने तथा तीन प्रकार के त्याग को अष्टमूलगुण कहा है। महापुराण में मधु की जगह सप्त व्यसन के मूल जुआ खेलने की गणना की है । सागरधर्मामृतादि कई ग्रन्थों में मद्य, मांस, मधु-इन तीन प्रकार के त्याग के ३, उपर्युक्त पंच उदुम्बर फलों के त्याग का १, रात्रि भोजन के त्याग का १, नित्यवंदना करने का १, जीवदया पालने का १, जल छानकर पीने का १, इस प्रकार अष्ट मूल गुण कहे हैं। इन सा ऊपर कहे हए अष्ट मूलगुणों पर जब सामान्य रूप से विचार किया जाता है तो सभी का मत अभक्ष्य, अन्याय और निर्दयता के त्याग कराने और धर्म में लगाने का नियम एक समान ज्ञात होता है। अतएव सबसे पीछे कहे हुए त्रिकाल वन्दना तथा जीवदया-पालनादि अष्ट मूलगुणों में इन अभिप्रायों की भलीभाँति सिद्धि होने के कारण यहां उन्हीं के अनुसार वर्णन किया जाता है। (१) मद्यपान-त्याग-मद्य बनाने के लिए दाख छुआरे आदि पदार्थ कई दिनों तक सड़ाये जाते हैं। पीछे यन्त्र द्वारा उनसे शराब उतारी जाती है। वह महा दुर्गन्धित होती है । इसके बनने में असंख्यात अनन्त, त्रस स्थावर जीवों की हिंसा होती है। यह मद्य मन को मोहित करती है, जिससे धर्म-कर्म की सुध-बुध नहीं रहती तथा इसका सेवन करने से पच पापों में नि:शंक प्रकृति होती है। इसी कारण मद्य को पांच पापों की जननी कहते हैं । मद्य पीने से मूर्छा, कम्पन, परिश्रम, पसीना, विपरीतपना, नेत्रों के लाल हो जाने आदि दोषों के सिवाय मानसिक एवं शारीरिक शक्ति नष्ट हो जाती है। शराबी धनहीन और अविश्वास का पात्र हो जाता है। उसका शरीर प्रतिदिन अशक्त होता जाता है। अनेक रोग उसे घेरते हैं। आयु क्षीण होकर नाना प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ वह मरता है। प्रत्यक्ष ही देखो। मद्यपी मद्य पीकर उन्मत्त होकर माता, पुत्री, बहिन आदि की सुधि भूलकर निर्लज्ज हुआ यद्वातद्वा बर्ताव करता है। इस प्रकार मद्यपी स्व-पर को दुःखदाई होता हुआ जितने कुछ संसार में दुष्कर्म करता है, उससे कोई भी व्यसन बचा नहीं रहता। ऐसी दशा में धर्म की शुद्धि तथा उसका सेवन होना सर्वथा असम्भव है। मद्य पीने वाला लोक में निंद्य तथा दुःखी रहता है और मरने पर नरक को प्राप्त होकर अति तीव्र कष्ट भोगता है । वहां उसे संडासियों से मुंह फाड़-फाड़ कर गर्म तांबा तथा सीसा पिलाया जाता है । इस प्रकार मद्य-पान को लोक-परलोक को बिगाड़ने वाला जानकर दूर से ही त्याग देना योग्य है। स्मरण रहे कि चरस, चंड, अफीम, गांजा, तम्बाकू, कोकेन आदि नशीली चीजें खाना या पीना भी मदिरा-पान के समान धर्म-कर्म नष्ट करने वाला है । अतएव मद्यत्यागी को इन सब का त्यागना ही योग्य है। (२) मांस-भक्षण त्याग-मांस त्रस जीवों के वध से उत्पन्न होता है। इसके स्पर्श, आकृति, नाम और दुर्गन्धि से चित्त में महाग्लानि उत्पन्न होती है। यह जीवों के मूत्र, विष्ठा एवं सप्त धातु उपधातु रूप महा अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस का पिण्ड चाहे सूखा हुआ हो चाहे पका हुआ हो, उसमें हर हालत में त्रस जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है। मांस-भक्षण के लोलुपी बिचारे, निरपराध, दीन-मूक पशुओं का वध करते हैं। मांसभक्षियों का स्वभाव निर्दय व कठोर होने के कारण धर्म-धारण के योग्य नहीं रहता। मांस-भक्षण के साथ-साथ मदिरापानादि व्यसन भी लग जाते हैं । मांस-भक्षी इस लोक में सामाजिक एवं धार्मिक पद्धति में निंद्य गिना जाता है। मरने पर नरक में महान् दुस्सह दुःख भोगता है । वहां लोहे के गर्म गोले, संडासियों से मुंह फाड़-फाड़ कर खिलाये जाते हैं तथा दूसरे-दूसरे नारकी जीव, गृद्धादि मांसभक्षी पशु-पक्षियों का रूप धारण करके इसके शरीर को नोचते हैं तथा नाना प्रकार के दुःख देते हैं । अतएव मांस-भक्षण को अति निद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा ही त्यागना योग्य है। (३) मधु-भक्षण त्याग-मधु अर्थात् शहद की मक्खियां नाना प्रकार के फूलों का रस चूस-चूस कर लाती हैं और उन्हें उगल कर अपने छत्ते में एकत्र करती हैं। ये वहीं रहती हैं, उसी में संमूर्छन अण्डे उत्पन्न होते हैं । भील-गोंड आदि निर्दयी नीच जाति के मनुष्य उन छत्तों को तोड़, मधु मक्खियों को नष्ट कर, उनके अण्डों-बच्चों को बची-खुची मक्खियों समेत निचोड़ कर इस मधु को तैयार करते हैं । यथार्थ में यह त्रस जीवों के कलेवर (मांस) का पुंज अथवा थूक है। इसमें समय-समय पर असंख्यात त्रस जीवों ३८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की उत्पत्ति होती रहती है। इसके भक्षण करने का निषेध केवल जैन धर्म में ही नहीं, बल्कि अन्य मतों में भी किया गया है। मधुभक्षण के पाप से नीच गति में गमन होता है तथा नाना प्रकार के दुःखों की प्राप्ति होती है । अतएव इसे सर्वथा त्याग देना योग्य है । जिस प्रकार ये तीन 'मकार' त्यागने योग्य हैं, उसी प्रकार मक्खन भी है। यह महाविकृत, मद को उत्पन्न करने वाला और घृणा रूप है। तैयार होने पर यद्यपि इसमें अन्त के पीछे उस जीवों की उत्पत्ति होना शास्त्रों में कहा है, तथापि विकृत होने के कारण आचार्यों ने तीन मकार के समान इसे भी अभक्ष्य और सर्वथा त्यागने योग्य कहा है । 2 (४) पंच उदुम्बर फल-भक्षण त्याग — जो वृक्ष की काठ को फोड़कर फले, वे उदुम्बर कहलाते हैं । यथा ( १ ) गुलर, ऊमर, (२) बट, बड़, (३) प्लक्ष या पाकर (४) कठूमर या अंजीर, (५) पिप्पल या पीपल इन फलों में हिलते चलते-फिरते, उड़ते सैकड़ों जीव आंखों से दिखाई देते हैं। इनका भक्षण हिंसा का कारण और आत्म-परिणाम को मलिन करने वाला है। जिस प्रकार मांसभक्षी के दया नहीं तथा नापी के पवित्रता नहीं, उसी प्रकार पांच उदुम्बर फल खाने वाले के महिला धर्म नहीं होता, अतएव इनका भक्षण तजने योग्य है । इनके सिवाय जिन वृक्षों से दूध निकलता हो, ऐसे क्षीण वृक्षों के फलों का अथवा जिनमें त्रस जीवों की उत्पत्ति होती हो, ऐसे सभी फलों का सूखी, गीली आदि सभी दशाओं में भक्षण सर्वथा त्याज्य है । उसी प्रकार सड़ा-घुना अनाज भी अभक्ष्य है क्योंकि इसमें भी त्रस जीव होने से माँस भक्षण का दोष आता है । (५) रात्रि-भोजन त्याग - दिन में भोजन करने की अपेक्षा रात्रि को भोजन करने में राग-भाव की उत्कटता, हिंसा और निर्दयता विशेष हाती है । जिस प्रकार रात्रि को भोजन बनाने में असंख्यात जीवों की हिंसा होती है, उसी प्रकार रात्रि को भक्षण करने में भी असंख्यात जीवों की हिंसा होती है । इसी कारण शास्त्रों में रात्रिभोजियों की उपमा निशाचरों से दी है। यहां कोई शंका करे, कि रात्रि को दापक के प्रकाश में भोजन किया जाय तो क्या दोष है ? दीपक के प्रकाश के कारण दीपक पर पतंगादि सूक्ष्म तथा बड़े-बड़े कीड़े उड़ कर आते और भोजन में गिरते हैं। रात्रि भोजन में अरोक (अनिवारित) महान् हिंसा होती है। रात्रि में अच्छी तरह न दिखने से हिंसा (पाप) के सिवाय शारीरिक नीरोगता में भी बड़ी हानि होती है। मनखी खा जाने से वमन हो जाता है, कीड़े खा जाने से पेशाब में जलन होती है, केश-भक्षण से स्वर का नाश होता है, जूआं खा जाने से जलोदर रोग हो जाता है, - मकड़ी भक्षण से कोढ़ हो जाता है और विषभरा आदि भक्षण से तो आदमी मर तक जाता है । धर्मसंग्रहश्रावकाचार में 'रात्रि भोजन प्रकरण' में स्पष्ट कहा है कि रात्रि में जब देवकर्म, स्नान, दान, होमकर्म नहीं किये जाते हैं (वजित हैं तो फिर भोजन करना कैसे सम्भव हो सकता है? कदापि नहीं वसुनन्दिश्रावकाचार में भी कहा है कि रात्रिभोज कसा भी प्रतिमा का धारी नहीं हो सकता। इसी कारण यह रात्रि-भाजन उतम जाति, उत्तम धर्म, उत्तम कर्म को दूषित करने वाला, नीच गति को ले जाने वाला है, ऐसा जानकर सर्वथा त्यागने योग्य है । (६) देव-वंदना - वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी श्री अरहन्त देव के साक्षात् प्रतिबिम्बरूप सच्चे चित्त से अपना पूर्ण पुण्योदय समझकर पुलकित मन से आनन्दित होते हुए दर्शन करने, गुणों के चितवन करने तथा उनको आदर्श मानकर अपने स्वभाव विभावों का चितवन करने से सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो सकती है । नित्य पूजन, दर्शन करने से सम्यक्त्व की निर्मलता, धर्म की श्रद्धा, चित्त की शुद्धता तथा धर्म में प्रीति बढ़ती है । इस देव - वंदना का अन्तिम फल मोक्ष है । अतएव मोक्षरूपी महानिधि को प्राप्त करने वाली यह देववंदना अर्थात् जिन-दर्शनपूजादि प्रत्येक धर्मेच्छु पुरुष को अपने कल्याण के निमित्त योग्यतानुसार नित्य नियमित रूप से करना चाहिये तथा 'शक्ति एवं योग्यता के अनुसार पूजन की सामग्री, एक द्रव्य अथवा अष्ट द्रव्य नित्य अपने घर से ले जाना चाहिये । किसी-किसी ग्रन्थ में प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों समयों में देववंदना प्रतिपादित की गई है तो सन्ध्यावन्दन से कोई रात्रि पूजन न समझ ले, क्योंकि रात्रि पूजन का निषेध धर्मसंद्रावकाचार वसुनन्दिश्रावकाचारादि प्रत्यों में स्पष्ट रूप से किया है तथा प्रत्यक्ष हिंसा का कारण भी है इसलिये सन्ध्या के पूर्वकाल में यथाशक्ति पूजन करना ही सन्ध्यावन्दन है । रात्रि को पूजन - का आरम्भ करना अयोग्य और अहिंसामय जिन धर्म के सर्वथा विरुद्ध है । अतएव रात्रि को केवल दर्शन करना ही योग्य है । नोट- यह बात भी विशेष ध्यान रखने योग्य है कि मन्दिर में विनय-पूर्वक रहे, यद्वा तद्वा उठना-बैठना, बोलना, चलना आदि कार्य न करें, क्योंकि शास्त्रों का वाक्य है अन्यस्थाने कृतं पापं धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति । (७) जीवदया पालन – सदा सब प्राणी अपने-अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं । जिस प्रकार अपने प्राण अपने को प्रिय हैं उसी प्रकार एकेन्द्री से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। जिस प्रकार हम जरा-सा भी कष्ट नहीं सह -अमृत-कण ३६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते, उसी प्रकार वृक्ष, लट, कीड़ी, मकोड़े, मक्खी, पशु, पक्षो मनुष्यादि कोई भी प्राणी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न सह सकते हैं । अतएव सब जीवों को अपने समान जानकर उनको जरा भी दुःख कभी मत दो, कष्ट मत पहुंचाओ, सदा उन पर दया करो। जो पुरुष दयावान् हैं, उनके पवित्र हृदय में ही पवित्र धर्म ठहर सकता है, निर्दयी पुरुष धर्म के पात्र नहीं । उनके हृदय में धर्म की उत्पत्ति अथवा स्थिति कदापि नहीं हो सकती । ऐसा जानकर सदा सर्व जीवों पर दया करना योग्य है। दया-पालक के झूठ, चोरी, कुशीलादि पंच पापों का त्याग सहज ही हो जाता है। (८) जलगालन अनछने जल की एक बूंद में असंख्य छोटे-छोटे त्रस जीव होते हैं । अतएव जीवदया के पालन तथा अपनी शारीरिक आरोग्यता के निमित्त जल को दोहरे छन्ने से छानकर पीना योग्य है । छन्ने का कपड़ा स्वच्छ, सफेद, साफ़ और गाढ़ा हो। खुरदरा, छेददार, पतला, पुराना, मैला-फटा तथा ओढ़ा-पहिना हुआ कपड़ा छन्ने के योग्य नहीं है। पानी छानते समय छन्ते में गुड़ी न रहे । छन्ने का प्रमाण सामान्य रीति से शास्त्रों में ३६ अंगुल लम्बा और २४ अंगुल चौड़ा कहा है, जो दोहरा करने से २४ अंगुल लम्बा और १८ अंगुल चौड़ा होता है। छन्ने में रहे हुए जीव अर्थात् जीवाणी (बिलछानी) रक्षापूर्वक उसी जलस्थान में डाले जिसका पानी भरा हो । तालाब, बावड़ी, नदी आदि जिसमें पानी भरने वाला जल पहुंच सकता है, जीवाणी डालना सहज है। कुएं में जीवाणी बहुधा ऊपर से डाल दी जाती है सो या तो वह कुएं में दीवालों पर गिर जाती है अथवा कदाचित् पानी तक भी पहुंच जाय, तो उसमें के जीव इतने ऊपर से गिरने के कारण मर जाते हैं, जिससे जीवाणी डालने का अभिप्राय अहिंसा धर्म नहीं पल पाता। अतएव भंवरकड़ी हाल लोटे से कुएं के जल में जीवाणी पहुंचाना योग्य है। पानी छानकर पीने से जीवदया पलने के सिवाय शरीर भी नीरोगी रहता है। वैद्य तथा डाक्टरों का भी यही मत है।। अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया ज्वर, नहरुवा आदि दुष्ट रोगों की उत्पत्ति होती है। इन उपयुक्त हानि-लाभों का विचार कर हर एक बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छानकर पीवे । छानने के पीछे उसकी मर्यादा दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट तक होती है। इसके बाद जीव उत्पन्न हो जाने से वह जल फिर अनछने के समान हो जाता है। इन अष्ट मूलगुणों में देव-दर्शन, जल-छानन और रात्रि-भोजन-त्याग ये ३ गुण तो ऐसे हैं जिनसे हरएक सज्जन पुरुष जैनियों के दया धर्म की तथा धर्मात्मापन की पहिचान कर सकता है। अतएव आत्महितेच्छु धर्मात्माओं को चाहिए कि जीव मात्र पर दया करते हुए प्रामाणिकतापूर्वक बर्ताव करके इस पवित्र धर्म की सर्व जीवों में प्रवृत्ति करें। इस प्रकार की सद्भावना करने से शीघ्र ही कर्मों का बन्धन नष्ट होकर अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। शद्ध भोजन मनुष्य जैसा भोजन करता है उसका वैसा ही प्रभाव उसके शरीर तथा मन पर पड़ता है । शुद्ध सात्त्विक भोजन करने वाले स्त्री-पुरुषों के मन में बुरी नीच वासनाएं नहीं आने पातीं । इसी कारण यह एक लौकिक किंवदन्ती है जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन । जैसा पीओ पानी, वैसी होवे बानी॥ इस कारण मन में अच्छे शुभ विचार लाने के लिये शुद्ध भोजन करना भी आवश्यक है । मांस एक घृणित तामसिक पदार्थ है । अत: धार्मिक व्यक्ति मांस-भक्षण से सदा दूर रहते हैं किन्तु उन्हें मांस-भक्षण-त्याग व्रत को निर्दोष रखने के लिये ऐसे पदार्थों को भी भोजन में न लेना चाहिये जिनमें सूक्ष्म त्रस जीवों के उत्पन्न होने की सम्भावना हो । क्योंकि त्रस जीवों का कलेवर ही तो मांस कहलाता है। अतः जिन पदार्थों में नेत्रों से स्पष्ट दिखाई न दे सकने वाले भी कीटाणु उत्पन्न हो जावें उन पदार्थों के खाने से मांस-भक्षण का दोष लगता है। इस कारण नीचे लिखी वस्तुओं को आहार-पान में न लेना चाहिये । चर्म पात्र का निषेध चमड़ा गाय, बैल, भैस, बकरी, हरिण, ऊँट आदि पशुओं के शरीर से उतारा जाता है, अतः उस चमड़े से बने हुए कुप्पा, मशक आदि बर्तनों में यदि पानी, तेल, घी आदि पदार्थ रक्खे जावें तो उनमें नमी तथा चिकनाई से सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस कारण चमड़े में रक्खे हुए पानी, घी, तेल, हींग आदि पदार्थ न खाने चाहिये । अन्न-शोधन गेहूं, चना, जौ, उड़द, मूंग आदि अनाजों तथा दालों में कुछ खार (क्षार तत्त्व) होता है। वह क्षार तत्त्व जब तक अनाजों में बना रहता है तब तक वे अनाज ठीक रहते हैं। उनमें जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति नहीं हो पाती। किन्तु जब उनका वह क्षार तत्त्व कम हो जाता है अथवा सारा नष्ट हो जाता है तब उनमें भीतर त्रस कीटाणु उत्पन्न होने लगते हैं, जिनको कि घुन कहते हैं। आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चना, उड़द, मूंग, मोठ में जब घुन लगने वाला होता है तब पहले उन पर सफेद फुल्ली आ जाती है। यह सफेद फुल्ली ही इस बात का चिह्न है कि इस अन्न में घुन लगना प्रारम्भ हो गया है। अनाज या दालों को ठीक तरह से शोधा या बीना न जावे तो उनको पीसते समय या दलते समय अथवा उबालते समय उनके भीतर वे घुन के सूक्ष्म कीटाणु भी पिस जाते हैं या उबल कर मर जाते हैं और भोजन करते समय उन जीवों का कलेवर खाने में आ जाता है । इस कारण बिना शोधा, बीना, फटका अनाज न पिसाना चाहिये, न दलना चाहिये और न उबालना चाहिये । बिना शोध हुए गेहूं आदि अनाजों में कंकड़ियां भी रह जाती हैं जो कि अन्न के साथ पिस कर आटे में मिल जाती हैं। ऐसे आटे का भोजन करने से पथरी रोग होने की भी आशंका रहती है। इस प्रकार के अनाज का भोजन भी शरीर के लिए हानिकारक होता है । अतः जीवदया की दृष्टि से तथा शरीर-रक्षा की दृष्टि से भी शोधा हुआ अन्न ही भोजन के लिये लेना चाहिये । जलादि-शोधन कच्चे पानी में त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं । उनमें से कुछ तो बिना छाने पानी में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं और कुछ बहुत सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं पड़ते । अतः पानी दोहरे कपड़े से छान कर पीना चाहिये । किन्तु यह ध्यान रहे कि छाना हुआ जल दो घड़ी ( ४८ मिनट) तक ही ठीक रहता है, उसके बाद उसमें फिर जीव उत्पन्न होने लगते हैं । यदि उस छने हुए पानी में लौंग, इलायची, इमली आदि कषायली वस्तु पीसकर मिला दी जाये, जिससे कि उसका स्वाद बदल जाये, तो उस जल में ६ घंटे तक त्रस जीव उत्पन्न नहीं होते। छने हुए पानी को गर्म कर लिया जावे तो १२ घंटे तक उसमें जीव उत्पत्ति नहीं होती और छने हुए पानी को उबाल लेने पर २४ घंटे तक उस जल में त्रस जीव उत्पन्न नहीं हो पाते । घी और तेल में भी मक्खी-मच्छर आदि जीव-जन्तु गिर पड़ते हैं । कभी-कभी चूहे भी तेल घी के पीपे में गिर कर मर जाते हैं । अतः घी और तेल भी कपड़े से छानकर खाने-पीने के काम में लेने चाहिये जिसमें मांस के दोष से बचा जा सके तथा शरीर को भी हानि न पहुंचे । दूध, शर्बत, ईख का रस, फलों का रस आदि पेय पदार्थ भी कपड़े से छानकर ही पीने चाहियें । पाक विधि शुद्ध भोजन तैयार करने के लिये जहां अनाज, आटा, दाल, जल, घी, तेल की शुद्धता का ध्यान रक्खा जावे वहां भोजन बनाने की निर्दोष विधि का भी विचार रखना आवश्यक है । इसके लिये रसोई बनाने के स्थान पर एक तो छत में चादर तनी रहनी चाहिये जिससे मकड़ी, छिपकली, छत की मिट्टी आदि भोज्य पदार्थों में न गिरने पावे। छतों तथा पक्की दीवालों पर भी मकड़ी के जाले आदि न लगने पावें इसका भी ध्यान रखना चाहिये । रसोईघर में पर्याप्त प्रकाश होना चाहिये जिससे शाक, रोटी आदि बनाते समय दाल, आटा, शाक में आकर गिरा हुआ जीव-जन्तु, बाल आदि साफ़ दिखाई दे सके । सूर्य उदय से कम-से-कम दो घड़ी पीछे और सूर्य अस्त से घड़ी पहले तक के दिन के समय में भोजन बनाना चाहिये । रात्रि के समय में भोजन तैयार न करना चाहिये । और कोई चीजें बिखरी हुई ठीक तरह से मंजे हुए साफलगी हुई हो, रोशनदानों में साफ शीशे लगे हों धुंआ रसोईपर रसोईघर साफ़-सुथरा होना चाहिये, न वहां कूड़ा-कर्कट हो, न कीचड़ हो, न हों। रसोईघर में मनिखयां न आने पायें चीटियां न एकत्र हो सकें, पानी बिखरा हुआ न हो, वर्तन सुधरे यथास्थान रखते हुए हों, खिड़कियों पर बारीक तार की जाली से बाहर ठीक निकलता हो । रसोईघर से पानी निकालने की नाली ठीक हो जिससे रसोईघर में दुर्गन्ध न होने पावे । इन सब बातों का ध्यान रखना चाहिये । } रसोइया ऊपर लिखी बातों के अतिरिक्न भोजन बनाने वाली स्त्री या पुरुष की शुद्धता का भी ध्यान रखना चाहिये। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनने के बाद ही रसोईघर में जाकर भोजन बनाना चाहिये । रसोई बनाने के लिये यदि कोई व्यक्ति रक्खा जावे तो जहां तक हो सके वह साधर्मी हो जिससे कि ठीक विधि से रसोई बनाना वह जानता हो क्योंकि जो लोग स्वयं पानी छानकर पीते हैं तथा जीव दया का पूर्ण ध्यान रखते हैं उनके हाथ से बने हुए भोजन में शुद्धता अनायास आवेगी ही । जो स्त्री-पुरुष साधर्मी नहीं हैं उनको छने हुए जल आदि का कुलाचार के अनुसार विचार नहीं होता । अतः उनका बनाया हुआ भोजन उतना शुद्ध नहीं बनता । अमृत-कण ve Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई बनाने वाला व्यक्ति स्वस्थ भी होना चाहिये। किसी भी प्रकार के रोगग्रस्त व्यक्ति से भोजन कभी नहीं बनवाना चाहिये । भोजन बनाने वाले व्यक्ति में माता के समान उदार प्रेम होना चाहिये । माता स्वयं भूखी रहकर अथवा बचा खुचा अल्प आहार करके भी पुत्र 'को प्र ेम से पर्याप्त अच्छे से अच्छा भोजन कराकर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहती है। ऐसी ही भावना भोजन बनाने वाले स्त्री-पुरुष में होनी चाहिये। रसोइया भोजन बनाते हुए यों विचारा करता है कि भ जन करने वाले व्यक्ति जिसने थोड़े हों उतना ही अच्छा, जिससे मुझे भोजन थोड़ा बनाना पड़े। अच्छा स्वादिष्ट भोजन मेरे लिये अधिक बच जावे, ऐसे विचारों के कारण वह परोसते हुए भी कंजूसी करता है। ऐसी दुर्भावना वाले व्यक्ति के हाथ का बना हुआ भोजन कभी न करना चाहिये । खाद्य मर्यादा भोज्य पदार्थ भी सदा खाने योग्य नहीं बने रहते। कुछ समय पीछे उनमें विकृति आ जाती है। विकृत भोजन करने से जीव-हिंसा होती है तथा शरीर में अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं अतः जिस पदार्थ की जितनी मर्यादा हो उस पदार्थ को उतने ही - समय के भीतर खा लेना चाहिये । खाद्य पदार्थों की मर्यादा नीचे लिखे अनुसार है आटा शीत ऋतु में ७ दिन तक ठीक रहता है। गर्मी के दिनों में ५ दिन तक और वर्षा ऋतु में तीन दिन तक ठीक रहता है। रोटी, दाल, खिचड़ी, कढ़ी, चावल (भात) की मर्यादा छह घंटे की है । जिन पदार्थों में पानी का अंश कम हो किन्तु पी, तेल में तले गये हों उनकी मर्यादा पहर (२४ घंटे) की है। जैसे- बून्दी, लड़, पेवर, बाबर, मरी जिन चीज़ों में जल का अंश अधिक होता है ऐसी तली हुई वस्तुएं ४ पहर (१२ घंटे) तक खाने योग्य रहती हैं। जैसे— पूड़ी, पुआ, भुजिया, पकौड़ी आदि । जिन चीजों में पानी न पड़ा हो ऐसे पदार्थों को खाने की मर्यादा आटे के बराबर है। जैसे- घी, खांड, आटे, बेसन का बना हुआ मगद लड्डू (जाड़े के दिनों में ७ दिन तक, गर्मी में ५ दिन तक और सर्दी में ३ दिन तक ) । कच्चा दूध अन्तर्मुहूर्त्त (४५ मिनट) के भीतर पी लेना चाहिये। ओटा हुआ दूध २४ घंटे तक पीने योग्य रहता है । औटे हुए दूध में जामन देकर जमाये हुए दही की मर्यादा जामन देने से ८ पहर (२४ घंटे) तक की है। गर्म जल डालकर तैयार की गई दही की छाछ की मर्यादा ४ पहर की है। कच्चे पानी को डालकर तैयार की गई छाछ की मर्यादा २ घड़ी ( ४८ मिनट) की है। इसके सिवाय यदि किसी पदार्थ का स्वाद बदल जाए और रंग बदल जाए या उसमें गन्ध आने लगे अथवा जाला पड़ जाए तो उन पदार्थों को बिगड़ा हुआ समझकर कदापि ग्रहण न करना चाहिये क्योंकि ये बातें इसका प्रमाण या चिह्न हैं कि वह खाय पदार्थ बिगड़ गया है । उसमें छोटे कीटाणु उत्पन्न होने लगे हैं, उस चीज में विकार आ गया है । जो भोजन किया जावे वह न अधिक पका हुआ यानी जला हुआ हो, न वह कच्चा ही हो, ठीक पका हुआ हो। क्योंकि कच्ची या जली हुई रोटी आदि खाने से शारीरिक स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुंचती है। इसके साथ ही भोजन नियत समय पर ही दिन के अच्छे प्रकाश में कर लेना चाहिये। जो व्यक्ति अनियत समय पर भोजन करते हैं, किसी दिन जल्दी और किसी दिन बहुत देर से भोजन करते हैं, उनकी पाचनशक्ति ठीक नहीं रहती, न उनके धार्मिक तथा व्यावहारिक दैनिक कार्य ठीक तरह हो पाते हैं । भोजन करने के स्थान पर अच्छा प्रकाश होना चाहिये जिससे खाने की वस्तुओं में पड़ा हुआ बाल या चींटी आदि जीवजन्तु स्पष्ट दिखाई पड़ सकें और उन्हें निकाला जा सके। भोजन प्रसन्नचित्त होकर करना चाहिये। कोध, शोक, शोभ, उद्वेग, व्याकुलता की दशा में भोजन करना उचित नहीं। अच्छी भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिये। यदि भूख न हो तो अमृत समान भोजन भी दुःखदायक होता है। भोजन सदा भूख से कम करना चाहिये। आधा उदर (पेट) भोजन से पूर्ण करे और चौथाई भाग पानी से भरना चाहिए तथा एक चौथाई भाग पेट वाली रखना चाहिये। ४० वर्ष की आयु के पश्चात् कम-से-कम एक तिहाई भोजन की मात्रा कम कर देनी चाहिये । इस तरह जो स्त्री-पुरुष शुद्ध भोजन ठीक समय पर ठीक मात्रा में करते रहते हैं, के जीव रक्षा के साथ-साथ अपने शारीरिक स्वास्थ्य की भी रक्षा किया करते हैं । ४९ आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रात्रि भोजन 1 जीवन के लिए भोजन आवश्यक है। बिना भोजन किये मनुष्य का दुर्बल जीवन टिक नहीं सकता। आखिर मनुष्य अन्न का कीड़ा ही तो ठहरा। परन्तु भोजन करने की भी सीमा है। जीवन के लिए भोजन है न कि भोजन के लिए जीवन खेद की बात है कि आज के युग में भोजन के लिए जीवन बन गया है। आज का मनुष्य भोजन पर मरता है। खाने-पीने के सम्बन्ध में सब प्राचीन नियम प्रायः भुला दिये गये हैं। जो कुछ भी अच्छा-बुरा सामने आता है, मनुष्य चट करना चाहता है। न मांस से घृणा है, न मद्य से परहेज । न भक्ष्य का पता है, न अभक्ष्य का निषेध धर्म की बात तो जाने दीजिए, आज तो भोजन के फेर में पड़कर अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रक्खा जा रहा है । आज का मनुष्य प्रातःकाल बिस्तर से उठते ही खाने लगता है और दिनभर पशुओं की तरह चरता रहता है। घर में खाता है, मित्रों के यहाँ खाता है, बाजार में खाता है। और तो और बिस्तर पर सोते-सोते भी दूध का गिलास पेट में उडेल लेता है। पेट है या कुछ और फिर भी सन्तोष नहीं । भारत के प्राचीन शास्त्रकारों ने भोजन के किया है। भोजन में शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, स्वाद का नहीं। माँस और शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों से सर्वथा घृणा रखनी चाहिए । शुद्ध भोजन भी भूख लगने पर ही खाना चाहिए। भूख के बिना भोजन का एक कौर भी पेट में डालना पापमय अन्न का भक्षण करना है। भूख लगने पर भी दिन में दो-तीन बार से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए, और रात में भोजन करना तो कभी भी उचित नहीं है । क्या, दिन छिपते खाता है, रात को खाता है, दिन-रात इस गड्ढे की भरती होती रहती है, सम्बन्ध में बड़े ही सुन्दर नियमों का विधान जैन धर्म में रात्रि भोजन के निषेध पर बहुत बल दिया गया है। पहचान के लिये आवश्यक था। बात है भी ठीक । वह जैन कैसा, जो रात्रि में का दोष बतलाया है । प्राचीन काल में तो रात्रि भोजन न करना जैनत्व की भोजन करे ? रात्रि में भोजन करने से जैन धर्म ने हिंसा रात्रि बहुत-से इस प्रकार के छोटे और सूक्ष्म जीव होते हैं, जो दिन में सूर्य के प्रकाश में तो दृष्टि में आ सकते हैं, परन्तु रात्रि में तो वे कथमपि दृष्टिगोचर नही हो सकते। में मनुष्य की आँखें निस्तेज हो जाती हैं । अतएव वे सूक्ष्म जीव भोजन में गिरकर जब दाँतों के नीचे पिस जाते हैं और अन्दर पेट पहुंच जाते हैं तो बड़ा ही अनर्थ करते हैं जिस मनुष्य ने मांसाहार का त्याग किया है, वह कभी-कभी इस प्रकार मांसाहार के दोष से दूषित हो जाता है। बिचारे जीवों की व्यर्थ ही अज्ञानता से हिंसा होती है और अपना नियम भंग होता है। कितनी अधिक विचारने की बात है। में आज के युग में कुछ मनचले लोग तर्क किया करते हैं कि रात्रि में भोजन करने का निषेध सूक्ष्म जीवों को न देख सकने के कारण ही किया जाता है न ? अगर हम दीपक आदि जला लें और प्रकाश कर लें, फिर तो कोई हानि नहीं ? उत्तर में कहना है कि दीपक आदि के द्वारा हिंसा से नहीं बचा जा सकता। दीपक, बिजली और चन्द्रमा आदि का प्रकाश चाहे कितना ही क्यों न हो, परन्तु यह सूर्य के प्रकाश जैसा सार्वत्रिक, अखण्ड, उज्ज्वल और आरोग्यप्रद नहीं है । जीव रक्षा और स्वास्थ्य की दृष्टि से सूर्य का प्रकाश सबसे अधिक उपयोगी है। कभी-कभी तो यह देखा गया है कि दीपक आदि का प्रकाश होने पर आस-पास के जीव-जन्तु और अधिक सिमिट कर आ जाते हैं। फलतः भोजन करते समय उनसे बचना बड़ा ही कठिन कार्य हो जाता है। त्याग- धर्म का मूल सन्तोष में है । इस दृष्टि से भी दिन की अन्य सभी प्रवृत्तियों के साथ भोजन की प्रवृत्ति को भी समाप्त कर देना चाहिए तथा सन्तोष के साथ रात्रि में पेट को पूर्ण विश्राम देना चाहिए। ऐसा करने से भली-भांति निद्रा आती है, ब्रह्मचयंपालन में भी सहायता मिलती है और सब प्रकार से आरोग्य की वृद्धि होती है। जैन धर्म का यह नियम पूर्णतया आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि को लिए हुए है। शरीर शास्त्र के ज्ञाता लोग भी रात्रि भोजन को बल, बुद्धि, आयु का नाश करने वाला बतलाते हैं । रात्रि में हृदय और नाभिकमल संकुचित हो जाते हैं, अतः भोजन का परिपाद अच्छी तरह नहीं हो पाता । धर्म शास्त्र और वैद्यक शास्त्र की गहराई में न जाकर यदि हम साधारण तौर पर होने वाली रात्रि भोजन की हानियों को देखें, तब भी यह सर्वथा अनुचित ठहरता है। भोजन में कीड़ी (चिउंटी) खाने में आ जाय तो बुद्धि का नाम होता है, जूं खाई जाय तो जलोदर नामक भयंकर रोग हो जाता है, मक्खी चली जाय तो वमन हो जाता है, छिपकली चली जाय तो कोढ़ हो जाता है, शाक आदि में मिलकर बिच्छू पेट में चला जाय तो वेध डालता है, बाल गले में चिपक जाय तो स्वर-भंग हो जाता है, इत्यादि अनेक दोष रात्रि भोजन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। रात्रि का भोजन अन्धों का भोजन है। एक-दो नहीं, हजारों ही दुर्घटनाएं देश में रात्रि भोजन के कारण होती है। सैकड़ों लोग अपने जीवन तक से हाथ धो बैठते हैं। अमृत-कण ४३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतः रात्रि-भोजन सब प्रकार से त्याज्य है। जैन धर्म में तो इसका बहुत ही प्रबल निषेध किया गया है । अन्य धर्मों में भी इसे आदर की दृष्टि से नहीं देखा गया । कूर्म पुराण आदि वैदिक पुराणों में भी रात्रि-भोजन का निषेध है। आज के युग के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष महात्मा गांधी भी रात्रि-भोजन को अच्छा नहीं समझते थे। लगभग ४० वर्ष की आयु से जीवन पर्यन्त रात्रिभोजन के त्याग के व्रत को गांधी जी बड़ी दृढ़ता से पालन करते रहे। यूरोप में गये तब भी उन्होंने रात्रि-भोजन नहीं किया। अतः प्रत्येक जैन का कर्तव्य है कि वह रात्रि-भोजन का त्याग करे, न रात्रि में भोजन बनाए और न खाए । दैनिक नियम संसार के प्रायः समस्त प्राणी इन्द्रियों के दास बने हुए हैं। जो उद्योगपति अपने आपको अपनी मिल के हजारों मजदूरों का स्वामी समझते हैं और जो पूंजीपति अपने आपको यह मानते हैं कि मैं किसी का चाकर नहीं हूं, अपनी इच्छा का स्वतन्त्र सर्वतन्त्र स्वामी हूं, एवं जो सर्वोच्च राज-अधिकारी (वे चाहे सम्राट हों या राष्ट्रपति हों) अपने आपको सब का संचालक नेता मानते हैं वास्तव में देखा जाए तो उन सब की मान्यता असत्य है क्योंकि वे भी एक दरिद्र मजदूर की तरह स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें भी अपनी इन्द्रियों की गुलामी करनी पड़ती है। इन्द्रियों की प्रेरणा जैसी उनको मिलती है, उनको उसी तरह कार्य करना पड़ता है। __ घोड़े से सम्पर्क रखने वाले मनुष्य संसार में दो प्रकार के होते हैं-१-रईस, २-सईस । सईस तो घोड़े की सेवा में लगा रहता है, घोड़े को घास खिलाता है, पानी पिलाता है, उसकी मालिश करता है, उसे स्नान कराता है, उसकी लीद उठा कर साफ करता है, घोड़े का स्वामी जब कहता है तब घोड़े पर जीन कस देता है, इत्यादि घोड़े के सभी सेवा कार्य वह करता है। परन्तु उस पर सवारी करने का अधिकार उसको नहीं होता । वह कभी घोड़े पर सवारी नहीं करता। घोड़े पर सवारी का सौभाग्य रईस को होता है। वह कभी घोड़े की सेवा नहीं करता किन्तु अपनी इच्छानुसार उस पर सवार होकर उसको चलाता है । इसी तरह जो स्त्री-पुरुष इन्द्रियों के दास होते हैं उन्हें अपना जीवन इन्द्रियों की सेवा व गुलामी में बिताना पड़ता है। वे अपने आत्मकल्याण के लिये अपनी इच्छानुसार उन इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रख सकते। उन्हें इच्छा पूर्ण करने के लिये इन्द्रियों के संकेत पर चलना पड़ता है। परन्तु, व्रती त्यागी पुरुष इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके उन पर शासन करते हैं । इन्द्रियां उनकी दासी बनी रहती हैं। उनके व्रत, तप, संयम में बाधा नहीं करतीं, सहायक बनी रहती हैं। यदि व्रती त्यागी मुनि भी इन्द्रियों के दास बने रहते तो वे न तो महान् उपसर्ग और परीषहों पर विजय प्राप्त कर पाते और न अनादिकालीन कर्म-बन्धन को छिन्न-भिन्न करके संसार से मुक्त हो पाते। अतः प्रत्येक स्त्री-पुरुष का कर्तव्य है कि वह आत्म-शुद्धि के लिए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे । कदाचित् गृहस्थाश्रम की बेड़ो तोड़ कर वह स्वतन्त्र मुनि-जीवन में नहीं आ सकता तो उसे इन्द्रियों पर आंशिक विजय प्राप्त करने का अभ्यास अवश्य करना चाहिये । उस अभ्यास के लिये जिनवाणी में हमारे पूर्वाचार्यों ने कुछ नियमों का निर्देश किया है। समस्त विषयों के प्रसिद्ध उद्भट विद्वान् आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में लिखा है भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु । ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसङ्गीतगीतेषु ॥ ८ ॥ अद्य दिवा रजनी वा पक्षोमासस्तथतुरयनं वा । इति कालपरिच्छित्याप्रत्याख्यानं भवेनियमः ।। ८६ ॥ आज, दिन, रात, सप्ताह (सात दिन), पक्ष (१५ दिन), मास, ऋतु (दो महीना या ४ महीना), अयन (६ महीना), वर्ष आदि समय की मर्यादा रख कर भोजन-पान, वाहन(सवारी), शयन (सोना), स्नान, लेप,फूल, ताम्बूल, वस्त्र, आभूषण, कामसेवन, गायन, वादन का नियम करके शेष विषयों का त्याग करना चाहिये । जैसे १. आज मैं इतनी बार भोजन करूंगा। इतने से अधिक बार न खाऊंगा । भोजन में अमुक-अमुक रस (घी, तेल, दूध, दही, खांड, नमक ये छह रस हैं) ग्रहण करूंगा। अमुक-अमुक व्यञ्जन (मिठाई आदि) खाऊंगा। अमुक-अमुक खाद्य (रोटी, परांवठा, पूड़ी, भात, दाल, शाक आदि) भोजन में लूंगा, और कुछ नहीं लूंगा। १. “गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएं आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से न चिगना परीषह-जय है।" -जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ३-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ३६ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २. मैं आज आम, अंगूर, अनार, सेब, अमरूद, नारियल आदि सचित्त फलों तथा किशमिश, बादाम, छुआरा, पिश्ता, अखरोट, चिलगोजा, काजू आदि सूखे फलों में से अमुक फल खाऊंगा, शेष नहीं। ३. आज मैं जल इतनी बार पीऊंगा। दूध, शिकंजवीन, शर्बत, जीरे का पानी, गन्ने का रस आदि पेय पदार्थों में अमुक पदार्थ "पीऊंगा, इनके सिवाय और कोई चीज़ नहीं पीऊंगा। ४. आज मैं घोड़ा, हाथी, ऊंट, बैलगाड़ी, तांगा, रिक्शा, मोटर, ट्राम, रेलगाड़ी, हवाई जहाज आदि सवारियों में से अमुक सवारी काम में लूंगा, उसके सिवाय अन्य किसी पर सवारी न करूंगा। ५. मैं आज खाट, तख्त, पलंग, जमीन में से अमुक चीज़ पर सोऊंगा। ६. मैं आज कुर्सी, चौकी, मूढ़ा, सोफा आदि आसनों में से अमुक आसन पर बैलूंगा। ७. मैं आज इतनी बार ठंडे या गरम जल से स्नान करूंगा। ८. मैं आज चन्दन, केसर, मिट्टी आदि में से अमुक वस्तु का इतनी बार शरीर पर लेप करूंगा। ९ मैं आज गुलाब, चमेली, चम्पा, गेंदा, बेला, कमल आदि के फूलों में से अमुक-अमुक फूल का हार या माला पहनूंगा या * सूंघने, गुलदस्ता बनाने आदि में अमुक फूलों को काम में लूंगा। १०. मैं आज पान, सुपारी, इलायची, लोंग, सोंफ आदि में से अमुक-अमुक वस्तु इतनी बार ही खाऊंगा, और नहीं - लूंगा। ११. मैं आज कुर्ता, कमीज, बनियान, धोती, पगड़ी, साफा, टोपी, अङ्गरखा, कोट, पाजामा, पैन्ट, नेकर आदि में से अमुक -कपड़ा पहनूंगा, और नहीं पहनूंगा। १२. मैं आज हार, जंजीर, अंगूठी, चैन, अनंत, करधनी, कड़े आदि आभूषणों में से अमुक-अमुक आभूषण पहनूंगा, उसके सिवाय और नही पहनूंगा। १३. मैं आज ब्रह्मचर्य से रहूंगा, या मैं आज इतनी बार ही कामसेवन (मैथुन) करूंगा।' १४. मैं आज इतनी बार गाना गाऊंगा, या गाना इतनी बार सुनूंगा। १५. मैं आज सितार, तबला, बांसुरी, हारमोनियम, बेला आदि बाजों में से अमुक-अमुक बाजों को बजाऊंगा, या अमुक -बाजे की ध्वनि सुनूंगा। १६. मैं आज नर्तकी, नर्तक, नट, नटी आदि में से अमुक कलाकार की कला देखूगा, अन्य की नहीं। १७. मैं आज नाटक, चलचित्र, खेल, तमाशे, दौड़ आदि में से अमुक-अमुक देखूगा या कोई भी नहीं देखूगा। इन ऊपर लिखी बातों का नियम रात, दिन, घंटे, सप्ताह, पखवाडा, महीना, ऋतु, अयन आदि समय की मर्यादा करके भी किया जाता है। __ऐसे नियम करते रहने से इन्द्रियों को अपने वश में करते रहने का अभ्यास होता जाता है, क्योंकि इन्द्रियां संसार के • सभी इष्ट विषयों की ओर बे-लगाम होकर दौड़ती रहती हैं । जिस सुन्दर वस्तु को अपने सामने पाती हैं उनको ही ग्रहण करने के लिये तैयार हो जाती हैं । यदि पदार्थों का नियम करके उन इन्द्रियों पर लगाम लगा दी जाती है तो नियमित वस्तुओं के सिवाय अन्य वस्तुओं की लालसा उत्पन्न नहीं होने पाती और इन्द्रियां उनकी ओर नहीं दौड़ने पातीं। इस तरह जिस इन्द्रिय-संयम को बहुत कठिन समझा • जाता है उस इन्द्रिय संयम का सरलता से आचरण हो जाता है । इन्द्रिय-संयम होते ही प्राणो-संयम तो हो ही जाता है। उपर्युक्त नियमों के साथ-साथ नीचे लिखी बातों का भी प्रतिदिन नियम करते रहना उपयोगी है- . १. मनोरंजन या समय बिताने के लिये ताश, चोपड़ आदि खेलना, तोता-मैना की कथायें, आल्हा की कथायें, श्रृंगार रस की कथा उपन्यास आदि पढ़ना। २. अश्लील हँसी, मजाक, दिल्लगी करना। ३. किसी की अनुकृति यानी नकल करके मजाक उड़ाना । ४. किसी का अपवाद (बदनामी) करना, बुराई करना, चुगली खाना, गाली देना। अमृत-कण , Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. झूठी साक्षी (गवाही) देना। ६. क्रोध करना, मारना, पीटना आदि । ७. असत्य भाषण, धोखा देना, विश्वासघात करना । ८. अन्य व्यक्ति के अधिकार को छीनना। १. अन्य का अहित यानी जानबूझ कर दूसरे का बुरा करना। इन नौ बातों का तथा इनसे मिलती-जुलती अन्य बातों के न करने का भी नियम करते रहना चाहिये जिससे कि मन की शुद्धि होती रहे, व्यर्थ में पापबन्ध न होने पाए, और सद्गुणों का अभ्यास होता जाए। निम्नलिखित बातों का यम रूप से (जन्म भर के लिये) त्याग करना चाहिये--- १. परस्त्री शरीर स्पर्श का त्याग, अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों के शरीर को छूने का त्याग। इसमें अपनी माता, दादी, नानी आदि बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों तथा ७-८ वर्ष तक की बच्चियों को छूने की छूट है। स्रियों की अपेक्षा से 'पर पुरुष स्पर्श त्याग' है यानी अपने पति के सिवाय अन्य पुरुष के शरीर को छूने का त्याग । इसमें पिता, बाबा, नाना आदि बड़े-बूढ़े पुरुषों तथा ५-६ वर्ष तक के बच्चों तथा छोटी अवस्था के पुत्र-पौत्र आदि को छूने की छूट है। २. भंग, चरस, तम्बाखु , सिगरेट, बीड़ी, गांजा, अफीम आदि नशीली वस्तुओं का त्याग । ३. चूत का त्याग-जुआ खेलना, सट्टा-फाटका के व्यापार का त्याग करना । ४. अभक्ष्य-भक्षण त्याग- शराब, मांस, शहद सर्वथा त्याग करना चाहिये तथा प्याज, लहसुन का भक्षण भी न करना चाहिये। अन्य कन्द-मूल आदि पदार्थों के त्याग का प्रयत्न करना चाहिये । विवाह का भोजन, प्रीतिभोज, धर्म-उत्सवों के जीमनवार, पंचायती जीमनवार आदि सामूहिक भोजन में आलू, गोभी, गाजर आदि कन्दमूल का शाक न बनाना चाहिये। ५. रात्रि-भोजन त्याग-जहां तक हो सके रात्रि में सब तरह के भोजन-पान करने का त्याग करना श्रेष्ठ है। यदि इतना न हो सके तो औषधि आदि के रूप में जल पीना रख लेवे, इतना भी न निभ सके तो जल और दूध की छूट ले लेवे। इतने से भी निर्वाह न होता दीखे तो आवश्यकता के समय फल-मेवा आदि के सिवाय कुछ न ले। रात्रि में अन्न के बने हुए भोजन का त्याग तो प्रत्येक जैन स्त्री-पुरुष को अवश्य करना चाहिये । रात्रि के समय जीमनवार करना सर्वथा त्याज्य है। ६. चर्म का त्याग-उत्तम तो यही है कि प्रत्येक तरह के चमड़े के बने जूते पहनने का त्याग करके या तो नंगे पैर रहा जाए अथवा कपड़े, रबड़ के बने हुए जूतों का उपयोग हो । कदाचित् कोई इतना भी त्याग न कर सके तो जो कसाई लोग जीवित गाय, बछडे आदि जानवरों को बड़ी वेदना देकर उनके शरीर से चमड़ा उतारते हैं अथवा गाय, भेड़, बकरी आदि के बच्चों को दवा खिलाकर गर्भ में से निकाल कर उन बच्चों के शरीर से जो चमड़ा उतारा जाता है उस काफलैदर, क्रोम लैदर, चमकीले, चटकीले हिरन, बाघ आदि के चमड़ों से बने हुए जूतों के पहनने का त्याग अवश्य कर देना चाहिये। ७. चर्म वस्त का त्याग-जते के सिवाय अन्य सब चमडे की वस्तुओं (कमर पेटी, हैण्डबैग आदि) के व्यवहार का त्याग कर देना चाहिये, जिससे पशु-हिंसा के पाप से बचा जा सके। इसमें रेल, मोटर, जहाज आदि की सीटों पर लगे हुए चमड़े पर बैठने की छूट दी जा सकती है। धार्मिक जैन को ऊपर लिखे ७ प्रकार के त्याग को अवश्य क्रियात्मक रूप देना चाहिये, जिससे अनेक पाप-बन्ध और निन्दनीय कामों से बचाव हो सके। प्रतिज्ञापूर्वक थोड़ा-सा त्याग भी आत्मा के उत्थान में बहुत-कुछ सहायक हो जाता है । इसके लिये एक प्राचीन प्रसिद्ध घटना अच्छा उदाहरण रखती है । एक बार एक मुनिराज का प्रभावशाली उपदेश सुनकर उपस्थित स्त्री पुरुषों ने अनेक प्रकार के व्रत-नियम लिये । सबसे अंत में एक भील भी मुनि महाराज के पास आया और उसने भी कोई व्रत लेने की इच्छा प्रकट की । मुनि महाराज ने कहा कि भाई ! तू शिकार खेलना छोड़ दे। भील ने कहा कि महाराज जंगल में रहकर परिवार का पालन-पोषण किस तरह करूंगा? तब मुनि श्री ने कहा तो अच्छा तू मांस खाना छोड़ दे। भील ने उत्तर दिया कि यह भी नहीं कर सकता । तब मुनि बोले किसी जीव का मांस खाना तो छोड़ दे। भील ने सोच-विचार कर कहा कि महाराज ! कौए का मांस छोड़ सकता हूं। मुनि महाराज ने उसको धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देते हुए कहा कि अच्छा कौए का मांस खाना ही छोड़ दे। भील ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। एक बार भील बहुत बीमार पड़ गया। तब एक वैद्य ने भील को कौए का मांस खाना बतलाया। भील अपने त्याग पर दृढ़ रहा । उसने कौए का मांस खाना स्वीकार न किया। वैद्य की सम्मति में उसके रोग की और औषधि न थी। भील ने मुनि से ली हुई प्रतिज्ञा का पालन किया और शान्ति तथा सन्तोष के साथ प्राण त्याग किया। वह मर कर एक यक्षदेव हुआ। ४६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनम्बन अन्य Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा जैन संस्कृति की संसार को जो सबसे बड़ी देन है, वह अहिंसा है । अहिंसा का यह महान् विचार, जो आज विश्व की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और जिसकी अमोघ शक्ति के सम्मुख संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं, एक दिन जैन संस्कृति के महान् उन्नायकों द्वारा ही हिंसा -काण्ड में लगे हुए संसार के सामने रक्खा गया था । जैन संस्कृति का महान् सन्देश है कि कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रह कर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। समाज में घुल-मिल कर ही वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है। जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह आवश्यक है कि वह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए और जिन लोगों से खुद को काम लेना है या जिनको देना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे। जब तक मनुष्य समाज में अपनेपन का मान न पैदा करेगा, अर्थात् दूसरे उसको अपना आदमी नहीं समझेंगे और वह भी दूसरों को अपना आदमी न समझेगा तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता । एक -बार नहीं हजार बार कहा जा सकता है कि नहीं हो सकता, एक दूसरे का आपस में अविश्वास ही तबाही का कारण बना हुआ है । संसार में जो चारों ओर दुःखों का हाहाकार है, प्रकृति की ओर से मिलने वाला वह तो मामूली-सा ही है । यदि अधिक अन्तर्निरीक्षण किया जाय तो प्रकृति दुःख की अपेक्षा हमारे सुख में ही अधिक सहायक है । वास्तव : मनुष्य के द्वारा ही लाया हुआ है । यदि हर एक व्यक्ति अपनी ओर से दूसरों पर किए जाने वाले ही नरक से स्वर्ग में बदल सकता है । जैन संस्कृति के महान् संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है। उनका आदर्श है कि प्रचार के द्वारा विश्व भर में प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह स्व में ही सन्तुष्ट रहे, पर की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे। पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है कि दूसरों के सुख-साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना। जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं । ज्योंही वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य आ खड़ा होता है । यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सब मनुष्य अपने स्व में ही प्रवाहित रहते हैं तब तक कहीं भी अशान्ति और संघर्ष का वातावरण पैदा नहीं होता । जहाँ मनुष्य स्व से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है, दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है, वहां संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष और कलह पनपने लगते हैं । में जो कुछ भी ऊपर का दुःख है, वह दुःखों को हटा ले तो यह संसार आज प्राचीन जैन साहित्य उठाकर आप देख सकते हैं कि भगवान् महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुत्य प्रयत्न किये हैं । वे अपने प्रत्येक गृहस्थ शिष्य को पांचवें अपरिग्रह व्रत की मर्यादा सर्वदा स्व में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं । व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुवादियों को प्राप्त अधिकारों में कभी भी आगे नहीं बढ़ने दिया प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है, अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना । जैन संस्कृति का अमर आदर्श है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही उचित साधनों का सहारा लेकर प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह करना जैन संस्कृति में चोरी है । • व्यक्ति, समाज, राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह वृत्ति के कारण ! दूसरों के जीवन की जीवन के सुख-साधनों की उपेक्षा करके • मनुष्य कभी भी सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रह वृत्ति में ही ढूंढे जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें तो अहिंसा और अपरिग्रह वृत्ति दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। 1 आत्मरक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन जुटाना जैनधर्म के विरुद्ध नहीं है । परन्तु आवश्यकता से अधिक संगृहीत शक्ति - अवश्य ही संहारलीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुख बनावेगी । अतएव आप आश्चर्य न करें कि पिछले वर्षों में जो शस्त्रसंन्यास का आन्दोलन चला था, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्ध सामग्री रखने को कहा जा रहा था, यह जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानून के द्वारा, पारस्परिक विधान के द्वारा लिया जाता है उन दिनों वह उपदेशों के द्वारा लिया जाता था । भगवान् महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैनधर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम दिया गया था कि राष्ट्र रक्षा के काम में आने • वाले शस्त्रों से अधिक शस्त्र संग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड बना देता है, प्रभुता की लालसा में आकर वह कहीं किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव संसार में युद्ध की आग भड़का देगा । इस दृष्टि से जैन तीर्थंकर हिंसा के मूल कारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं । ૪૭ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहां अन्य अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बनकर राजा को परमेश्वर का अंश बताकर उसके लिए सब कुछ अर्पण कर देने का प्रचार करते आए हैं, वहाँ जैन तीर्थंकर इस सम्बन्ध में काफ़ी कट्टर रहे हैं । यदि थोड़ा-सा कष्ट उठाकर जैन साहित्य देखने का प्रयत्न करेंगे तो बहुत-कुछ युद्ध-विरोधी विचारसामग्री प्राप्त कर सकेंगे। आप जानते हैं, मगधाधिपति अजातशत्र कुणिक भगवान महावीर का कितना अधिक उत्कट भक्त था। प्रतिदिन भगवान् के कुशल-समाचार जानकर फिर अन्न-जल ग्रहण करना कितना उग्र नियम था। परन्तु वैशाली पर कुणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भगवान् ने जरा भी समर्थन नहीं किया । अजातशत्र इस पर रुष्ट भी हो जाता है, किन्तु भगवान् महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला पूर्ण अहिंसा के अवतार रोमांचकारी नर-संहार का कैसे समर्थन कर सकते थे? जैन तीर्थंकरों की अहिंसा का भाव आज की मान्यता के अनुसार निष्क्रियता रूप भी न था। वे अहिंसा का अर्थ प्रेम, परोपकार, विश्वबन्धुत्व करते थे । स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो, जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित न था। उनका आदर्श था-दूसरों को जीने में मदद करो बल्कि अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो । वे उस जीवन को कोई महत्त्व नहीं देते थे जो जन-सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रह कर एक मात्र अर्थशून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझा रहता हो । महावीर का यह महान् ज्योतिर्मय सन्देश आज हमारी आंखों के सामने है। अहिंसा के अग्रगण्य सन्देश-वाहक भगवान् महावीर हैं। आज तक उन्हीं के शिष्यों का गौरव-गान गाया जा रहा है। आपको मालूम है, आज से ढाई हजार वर्ष पहले का समय भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक महान् अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है। देवी-देवताओं के आगे पशुबलि के नाम पर रक्त की नदियां बहाई जाती थीं, मांसाहार और सुरा-पान का दौर चलता था, स्त्रियों को भी मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या, अनेक रूपों में सब ओर हिंसा का विशाल साम्राज्य छाया हुआ था। भगवान् महावीर ने उस समय अहिंसा का अमृतमय सन्देश दिया जिससे भारत की काया पलट गई। मनुष्य राक्षसी भावों से हट कर मनुष्यता की सीमा में प्रविष्ट हुआ । क्या मनुष्य, क्या पशु सबके प्रति उसके हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अहिंसा के सन्देश ने सारे मानवीय सुधारों के महल खड़े कर दिए । दुर्भाग्य से आज वे महल फिर गिर रहे हैं । जल, थल, आकाश अभी-अभी खून से रंगे जा चुके हैं और भविष्य में इससे भी भयंकर रंगने की तैयारियां हो रही हैं। तीसरे महायुद्ध का दुःस्वप्न अभी देखना बन्द नहीं हुआ। परमाणु बम के आविष्कार की सब देशों में होड़ लग रही है । सब ओर दुर्भाव चक्कर काट रहे हैं । अस्तु, आवश्यकता है आज फिर जैन संस्कृति के, जैन तीर्थंकरों के, भगवान् महावीर के, जैनाचार्यों के 'अहिंसा परमो धर्मः' की । मानव जाति के स्थायी सुखों के स्वप्नों को एकमात्र अहिंसा ही पूर्ण कर सकती है - 'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्' -समन्तभद्र सत्य धर्म प्रामाणिक हितकारक सद् वचन बोलना 'सत्य' है। असत्य भाषण के त्याग से सत्य वचन प्रगट होता है। मनुष्य अनेक कारणों से असत्य बोला करता है। उनमें से झूठ बोलने का एक प्रधान कारण तो लोभ है। लोभ में आकर मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये असत्य बोला करता है। असत्य भाषण करने का दूसरा कारण भय है। मनुष्य को सत्य बोलने से जब अपने ऊपर कोई आपत्ति आती हुई दिखाई देती है, अथवा अपनी कोई हानि होती दीखती है, उस समय वह डरकर झूठ बोल देता है। झूठ बोलकर वह उस विपत्ति या हानि से बचने का प्रयत्न करता है। असत्य बोलने का तीसरा कारण मनोरंजन भी है। बहुत-से मनुष्य हँसी मजाक में कौतूहल के लिये भी झूठ बोल देते हैं । व्यक्ति को भ्रम में डालकर या हैरान करके अथवा किसी को भय उत्पन्न कराने के लिये या दूसरे को व्याकुल करने के लिये झूठ बोल देते हैं। इसी में उनका मनोरंजन होता है। इसके सिवाय कुछ झूठ अज्ञानता के कारण भी बोला जाता है । जिस बात को मनुष्य न जानता हो उस विषय में चुप रह जाना तो अच्छा है, परन्तु अपना महत्त्व (बड़प्पन) या सम्मान रखने के विचार से, न जानते हुए भी उस बात को कुछ-का-कुछ बतला देना तो हानिकारक है। इसके अतिरिक्त क्रोध में आकर मनुष्य ऐसे कुवचन, गाली-गलौज मुख से निकाल बैठता है जिनको सुनकर जनता में क्षोभ फैल जाता है; निर्बल मनुष्य का हृदय तड़प उठता है ; बलवान मनुष्य को वैसे दुर्वचन सुनकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है जिससे कि बहुत भारी दंगाफसाद हो जाता है, मारपीट हो जाती है, यहाँ तक कि मरने-मारने की भी तैयारी हो जाती है । ४८ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्या Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमान में आकर भी मनुष्य दूसरों को अपमानकारक असह्य वचन कह डालता है जिससे सुनने वाला यदि शक्तिशाली मनुष्य होता है तो वह भी उत्तर में उनसे भी अधिक अपमानकारक वचन कह डालता है। यदि सुनने वाला व्यक्ति कमजोर दीन-दुःखी होता है तो उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है, उसको मार-पीट से भी अधिक दुःख होता है। तलवार का घाव तो मरहम-पट्टी से अच्छा हो जाता है किन्तु वचन का घाव अच्छा नहीं होता । द्रौपदी ने दुर्योधन को व्यङ्गरूप से इतना कह दिया था कि 'अन्धे (धृतराष्ट्र राजा दुर्योधन का पिता) का पुत्र भी अन्धा है ।' यह बात दुर्योधन को लग गई और इसका बदला लेने के लिए उसने जुए में पांडवों से द्रौपदी को जीतकर अपनी सभा में अपमानित किया । उसकी साड़ी उतार कर सबके सामने उसने द्रौपदी को नंगा करना चाहा। इसी असह्य अपमान का बदला लेने के लिए कौरव पांडवों का महायुद्ध हुआ जिसमें दोनों ओर की बहुत हानि हुई, सभी कौरव योद्धा मारे गये । इस तरह अन्य व्यक्ति को दुःखकारक, निन्दाजनक पापवचन भी असत्य में सम्मिलित हैं । ऐसे वचन भी मुख से उच्चारण न करने चाहियें । आचार्यों ने असत्य वचन ६ प्रकार के बतलाये हैं १. मौजूद बीज को गैर मौजूद कहना। जैसे घर में नेमिचन्द बैठा है, फिर भी बाहर द्वार पर किसी ने पूछा कि नेमिचन्द है ?" तो उत्तर में कह दिया कि वह यहां नहीं है।' इस कारण सत्यवादी मनुष्य को २. गैर मौजूद वस्तु को मौजूद बतला देना। जैसे नेमिचन्द घर में नहीं था फिर भी किसी ने पूछा कि नेमिचन्द घर में हैं क्या ? तो उत्तर में कह दिया कि 'हां, घर में हैं।' ३. नेमिचन्द है। ४. गर्हित - दूसरे को दुःखदायक हँसी-मजाक करना, चुगली खाना, गाली-गलौज देना, निन्दाकारक बात कहना । जैसे—तेरे कुल में वद्धिमान कोई हुआ ही नहीं, फिर तू मूर्ख है तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। कुछ का कुछ कह देना । जैसे घर में विमलचन्द था । किसी ने पूछा कि घर में कौन है तो उत्तर में कह दिया कि यहां ५. सावद्य – पापसूचक या पापजनक शब्द उच्चारण करना । जैसे- तेरा सिर धड़ से अलग कर दूंगा, तुझे कच्चा खा जाऊंगा । तेरे घर-बार को आग लगा कर तुझे जीवित जला दूंगा । ६. अप्रिय - दूसरे जीवों को डराने वाले, द्वेष उत्पन्न करने वाले, क्लेश वाले, क्लेश बढ़ाने वाले, विवाद बढ़ाने वाले, क्षोभजनक शब्द कहना । जैसे - निर्दय डाकुओं का दल इधर आ रहा है । वह सारे गांव को लूट-मार कर जला देगा । ऐसे वचनों से कभी-कभी बड़ी अशान्ति और महान् अनर्थ फैल जाता है। झूठ बोलने वाले मनुष्य के वचन पर किसी को विश्वास नहीं रहता । अतः वह कभी सत्य भी बोले तो भी सुनने वाले उसे असत्य ही समझते हैं । एक गांव में एक धनवान बुड्ढा रहता था। उसके परिवार में उसके सिवाय और कोई न था । एक समय रात को वह झूठ मूठ चिल्लाया कि 'मेरे घर में चोर आ गये हैं, जल्दी आकर मुझे बचाओ ।' पड़ोस के आदमी उसका चिल्लाना सुनकर उसके घर पर दौड़े आये तो उनको देखकर बूढ़ा हंस कर बोला कि मैं आप लोगों की परीक्षा लेने के लिये झूठ-मूठ चिल्लाया था, चोर-चोर कोई नहीं आया । कुछ दिन पीछे फिर उसने ऐसा ही किया। दूसरी बार भी लोगों ने बूढ़ों की बात सत्य समझी और इसी विचार से वे बचाने के लिये उसके घर पर दौड़े आये । किन्तु वहां आकर वही बात देखी कि बुड्ढे ने अपना जी बहलाने के लिये उन सब को व्यर्थ हैरान किया है । यह देखकर लोगों को बहुत बुरा मालूम हुआ । सब चुपचाप अपने घर लौट गये । संयोग से एक रात को सचमुच ४-५ चोर उस धनी बूढ़े के घर घुस आये । उनको देखकर बूढ़ा अपनी रक्षा के लिए बहुतेरा गला फाड़ कर चिल्लाता रहा परन्तु सब पड़ोसियों ने उसकी बात झूठ ही समझी। इस कारण एक भी पड़ोसी उसकी रक्षा करने के लिये उसके घर नहीं पहुंचा। चोरों ने बुड्ढे को मार-पीट कर उसका सारा धन उससे मालूम कर लिया और सब धन लेकर बूढ़े का भी गला घोंट कर वहां से चले गये । एक झूठी बात को सत्य सिद्ध करने के लिये मनुष्य को और बीसों असत्य बातें बनानी पड़ती हैं, जिससे एक असत्य पाप के साथ अन्य अनेक पाप स्वयं हो जाते हैं और यदि असत्य का त्याग कर दिया जाय तो मनुष्य से अन्य अनेक पाप भी स्वयमेव छूट जाते हैं । इस कारण सत्य धर्म आत्म- हित के लिये बहुत उपयोगी है । ૪ 16. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार एक नगर के बाहर एक साधु आये । नगर के सभी स्त्री-पुरुष उनका दर्शन करने के लिए तथा उपदेश सुनने के लिये उनके निकट गये । उपदेश सुन कर प्रायः सभी ने मुनि महाराज से यथाशक्ति व्रत-नियम ग्रहण किये । जब सब स्त्री-पुरुष वहाँ से चले गये तब वहां जो एक मनुष्य रह गया था बड़े संकोच के साथ वह मुनि महाराज के पास आया और नम्रता के साथ बोला कि महाराज मुझे भी कुछ व्रत दीजिये । मुनि महाराज ने उससे पूछा कि तू क्या काम करता है ? उसने उत्तर दिया कि मैं चोर हूं, चोरी करना ही मेरा काम है। साधु ने कहा कि फिर तू चोरी करना छोड़ दे। चोर ने विनय के साथ कहा कि गुरुदेव ! चोरी मुझ से नहीं छूट सकती क्योंकि चोरी के सिवाय मुझे और कोई काम करना नहीं आता। मुनिराज ने कहा कि अच्छा भाई ! तू चोरी नहीं छोड़ सकता तो झूठ बोलना तो छोड़ सकता है ? चोर ने प्रसन्नता के साथ उत्तर दिया कि हाँ महाराज ! असत्य बोलना मैं छोड़ सकता हूं। मुनि ने कहा कि बस तू झूठ बोलना ही छोड़ दे। कैसी ही विपत्ति आए पर तू कभी असत्य न बोलना। चोर हर्ष के साथ हाथ जोड़ कर मुनि महाराज के सामने असत्य बोलने का त्याग करके अपने घर चला गया। रात को वह चोर राजा की अश्वशाला में चोरी करने के लिये गया । घुड़साल के बाहर सईस सो रहे थे। चोर को घुड़साल में घुसते देखकर उन्होंने पूछा कि कौन है ? चोर ने उत्तर दिया कि मैं चोर हूं । सईसों ने समझा कि यह मजाक से कह रहा है, घुड़साल का ही कोई नौकर होगा, इसलिये चोर को किसी ने न रोका। चोर ने घुड़साल में जाकर राजा की सवारी का सफेद घोड़ा खोल लिया और उस पर सवार होकर चल दिया। बाहर सोते हए सईसों ने फिर पूछा कि घोड़ा कहां लिये जा रहा है। चोर ने सत्य बोलने का नियम ले रक्खा था । इस कारण उसने कह दिया-"मैं घोड़ा चुरा कर ले जा रहा हूं" । सईसों ने इस बात को भी हँसी-मजाक समझा । यह विचार किया कि दिन में घोड़े को पानी पिलाना भूल गया होगा सो अब पानी पिलाने के लिये घोड़ा ले जा रहा है । ऐसा विचार कर उन्होंने उसे चला जाने दिया। चोर घोड़ा लेकर एक बड़े जंगल में पहुंचा और घोड़े को एक पेड़ से बांध कर आप एक पेड़ के नीचे सो गया । जब प्रभात हुआ तब घुड़साल के नौकरों ने देखा कि घुड़साल का मुख्य सफेद घोड़ा नहीं है । नौकर बहुत घबड़ाये। उनको रात की बात याद आ गई और वे कहने लगे सचमुच रात वाला आदमी चोर ही था और सचमुच वह घोड़ा ले गया। अन्त में यह बात राजा के कानों तक पहुंची। राजा ने घोड़े को खोजने के लिये चारों ओर सवार दौड़ाये । कुछ सवार उस जंगल में जा पहुंचे। उन्होंने चोर को सोता देखकर उठाया और पूछा कि तू कौन है ? सत्यवादी चोर ने उत्तर दिया कि मैं चोर हूं। राजा के नौकरों ने पूछा कि रात को तूने कहीं से कुछ चोरी की थी? चोर ने कहा कि 'हाँ', राजा की घुड़साल से घोड़ा चुराया था। नौकरों ने पूछा कि घोड़ा किस रंग का है और कहां है ? चोर ने कहा घोड़े का रंग सफेद है और वह उस पेड़ के साथ बंधा हुआ है। देवों ने चोर के सत्य की परीक्षा लेने के लिये घोड़े का रंग लाल कर दिया । अतः राजकर्मचारियों ने जब वह घोड़ा देखा तो वह लाल था। उन्होंने चोर से पूछा कि भाई ! घोड़ा तो लाल है। चोर ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया कि मैं तो सफेद घोड़ा चुरा कर लाया हूं। देवों ने उस चोर के सत्यव्रत से प्रसन्न होकर चोर के ऊपर फूल बरसाये और घोड़े का रंग फिर सफेद कर दिया। यह चमत्कार देखकर राजा के नौकरों को आश्चर्य हुआ। वे चोर को अपने साथ ले कर राजा के पास पहुंचे । ५० आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने चोर से सब समाचार पूछे। चोर ने साधु महाराज से सत्य व्रत लेने से लेकर अब तक का सब बात सच-सच कहो राजा चोर की सत्यवादिता पर बहुत प्रसन्न हुआ और पारितोषिक में उसको बहुत-सा धन देकर उससे चोरी करना छुड़ा दिया । इस तरह एक झूठ के छोड़ देने से चोर का इतना राज-सम्मान हुआ और उसका चोरी करना भी छूट गया । डाली । बहुत-से लोग अपने छोटे बच्चों के साथ झूठ बोल कर अपना चित्त बहलाया करते हैं परन्तु बच्चों का हृदय कोमल, स्वच्छ, निर्मल होता है । उस पर जैसे संस्कार माता-पिता जमाना चाहें वैसे जमा सकते हैं। तदनुसार जो बात मनोरंजन के लिये बच्चों से की जाती है बच्चे उसको सत्य समझ कर अपने हृदय में धारण कर लेते हैं। इस कारण मनोरंजन के लिये भी बच्चों से झूठ न बोलना चाहिये। सत्यभाषी मनुष्य यदि धनहीन हो तो भी सब कोई उसका विश्वास करता है और असत्यवादी बहुत बड़ा धनिक हो तब भी कोई उसका विश्वास नहीं करता । संसार का व्यवहार, व्यापार सत्य के आधार पर ही चलता है । सत्यवादी मनुष्य बिना हस्ताक्षर किये तथा बिना साली या लिखा-पढ़ी के लाखों करोड़ों रुपयों का लेन-देन किया करते हैं, जब कि असत्यवादी के साथ बिना पक्की लिखापढ़ी के कोई भी व्यवहार नहीं करता । अतः अपना विश्वास फैलाने के लिए सदा सत्य बोलना चाहिये । परन्तु ऐसा सत्य नहीं बोलना चाहिये जिससे किसी को दुःख पहुंचे । जिस तरह नेत्रांध पुरुष को अन्धा कहना अथवा एकाक्षी को काना कहना असत्य नहीं है परन्तु उन अन्धे व काने पुरुषों को अन्धा काना शब्द बहुत बुरा मालूम होता है । अतः उनको अन्धा काना नहीं कहना चाहिये । इसके अतिरिक्त जिस सत्य बोलने से किसी का प्राण-नाश होता हो अथवा धर्म के विनाश होने की आशंका हो तो वैसा सत्य वचन भी न कहना चाहिये । एक जंगल में एक मुनि बैठे स्वाध्याय कर रहे थे। इतने में एक हिरण भागता हुआ उनके सामने से एक ओर निकल गया । कुछ देर पीछे एक शिकारी धनुषवाण लिये वहाँ आया। उसने मुनिराज से पूछा महाराज ! हिरण किधर गया है ? मुनिराज ने विचार किया यदि मैं सत्य कहता हूं तो इसके हाथ हिरण मारा जायगा और यदि हिरण को बचाता हूं तो मुझे असत्य भाषण करना पड़ता है । इसके लिये उन्होंने उत्तर दिया कि भाई ! मेरी आंखों ने हिरण देखा है परन्तु आंखें कुछ कह नहीं सकतीं, और जीभ कह सकती है किन्तु उसने कुछ देखा नहीं, इसलिए मैं तुझे क्या बताऊं । इस ढंग से उन्होंने हिरण के प्राण बचा दिये । कोई बात सिद्धान्त विरुद्ध भी नहीं कहनी चाहिये । यदि कोई बात मालूम न हो तो कि 'यह बात हमको मालूम नहीं'। उस विषय में अंट-संट उत्तर देना उचित नहीं । सरलता के साथ कह देना चाहिए इस तरह मुख से प्रामाणिक, सत्य, स्व-परहितकारी मीठे वचन बोलने चाहियें। अपने नौकर-चाकरों से, भिखारी, दीनदरिद्र व्यक्तियों से सान्त्वना तथा शान्तिकारक मीठे वचन कहने चाहियें। पीड़ाकारक कठोर बात न कहनी चाहिये, क्योंकि उनका हृदय पहले ही दुःखी होता है। कठोर वचनों से उन्हें और भी अधिक दुःख होगा। यह जीभ यदि अच्छे वचन बोलती है तो यह अमूल्य है । अगर वह झूठे, भ्रमकारक, भय-उत्पादक, पीड़ादायक, कलहकारी, क्षोभकारक, निन्दनीय वचन कहती है तो यह जी चमड़े का अशुद्ध टुकड़ा ही है । निष्काम सेवा यह महान् जगत् अनन्त पदार्थों के सहयोग से बना है । बिखरे हुए धूलिकण भी जब जल का संयोग पा जाते हैं तब मिट्टी का रूप धारण करके बड़े-बड़े भवन बना देते हैं । प्यास बुझाने के लिये सुन्दर घड़ा बन जाते हैं । अन्न उत्पादन के लिये खेत की मिट्टी बन जाते हैं । आकाश से गिरने वाले जल-कण मिल कर नदी, झील, समुद्र का रूप धारण कर लेते हैं । बिखरे हुए अणु मिलकर ऊँचे पर्वतों, विशाल वनों और विस्तृत पृथ्वी का रूप धारण कर लेते हैं जो कि असंख्य जीवों तथा जड़ पदार्थों के ठहरने का आधार बन जाती है । वाली मनुष्यों, पशु-पक्षियों तथा अन्य समस्त कीड़ों-मकोड़ों, यहां तक कि वृक्षों के लिये, प्रतिक्षण श्वास द्वारा जीवन सुरक्षित रखने किसी से भी बिना कुछ मूल्य लेकर सब की सेवा करती है । यदि वायु एक घण्टे भर भी जीवों को न मिले तो कोई भी वायु अमृत-च ५१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राणी जीवित न बचे, साँस घुट कर तुरन्त मर जावें । वायु यदि हजार रुपये तोले बिके तो भी मनुष्य को अवश्य लेनी पड़े। किन्तु वह वायु बिना कुछ लिये समस्त प्राणियों की निष्काम सेवा करती है। जल समस्त मनुष्यों, पशु-पक्षियों, वृक्षों आदि के जीवन का आधार है। बिना जल के न अन्न उत्पन्न हो सकता है, न वृक्ष फल-फूल सकते हैं, न जगत् के अन्य अनेक आवश्यक कार्य हो सकते हैं । सब की प्यास और सन्ताप मिटाने वाला जल भी सब किसी की निष्काम सेवा करता है । किसी से कुछ नहीं लेता और जो भी पीने, नहाने, धोने, सींचने की सेवा लेना चाहे उसे इनकार नहीं करता । वृक्ष स्वयं धूप सहते हैं, किन्तु अपने नीचे बैठने वाले को गर्मियों के दिन में शीतल छाया और सर्दियों में रात्रि समय गर्म छाया देते हैं। अपने मधुर फल, सुगन्धित पुष्प, कोमल पत्ते सभी कुछ दूसरों को दे डालते हैं जिनसे भूखे प्राणी अपनी भूख मिटाते हैं । वृक्ष अपना चर्म (छाल) देकर अनेक उपयोगी उपकार करते हैं । यहाँ तक कि अपना सारा शरीर (लकड़ी) जला कर मनुष्य का भोजन बना देते हैं, सर्दियों में ठंडक दूर कर देते हैं। उनके फल, फूल, पत्ते, छाल, लकड़ी आदि विविध औषधियों के रूप में मनुष्यों - तथा अन्य प्राणियों के अनेक रोगों को अच्छा कर देते हैं । इन सेवाओं के बदले में वृक्ष मनुष्य से लेशमात्र भी बदला नहीं चाहते । इस तरह जीवन भर हरे-भरे रहकर और सूख कर मर जाने पर भी जगत् की निष्काम सेवा करने वाले वृक्ष जगत् का आधार बने हुए हैं । पृथ्वी को कोई रौंदता है, कोई कूटता है, कोई खोदता है, कोई उस पर मल-मूत्र करता है, कोई उसका हृदय विदारण करके उसके अमूल्य खनिज पदार्थ निकाल लेता है, कोई उस पर ऊँचे-ऊँचे भारी मकान बनाता है तो कोई उस पर सड़क बनाता है। कोई उस पर आग जलाता है, परन्तु पृथ्वी किसी को कुछ नहीं कहती। समस्त कष्ट सह कर भी किसी का कुछ अहित नहीं करती । समस्त जीवों को तथा जड़ पदार्थों को अपने ऊपर ठहराये हुए है । इसके बदले में पृथ्वी ने न किसी से कुछ माँगा, और न किसी ने उसकी कुछ दिया । वह सब की निष्काम सेवा करती है । अग्नि भी मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जीवन का सहारा है । यदि अग्नि न हो तो समस्त प्राणी ठंडक से सिकुड़ कर या अकड़ कर मौत के मुख में चले जाएँ। गर्मी भी जीवन के लिए अति उपयोगी है। शरीर की गर्मी समाप्त होते ही शरीर की जीवनशक्ति विदा हो जाती है । रेल तथा कारखानों के चलाने में, भोजन पकाने में, धातुओं को गलाने में, कूड़ा-कर्कट जलाने में अग्नि ही - काम आती है । वह अग्नि भी बिना कुछ मूल्य लिये सब की सेवा करती है । सूर्य-चन्द्र का प्रकाश धूप चाँदनी भी प्राणियों के जीवन का आधार है। धूप फलों, अनाजों को पकाती है, सीलन को सुखाती है, अनेक रोगों को उत्पन्न होने से रोकती है, जगत् को प्रकाश और गर्मी प्रदान करती है । चान्दनी रात्रि को प्रकाशित करती है, औषधियों में रस की वृद्धि करती है। रात्रि में सूर्य के अभाव की पूर्ति करती है। ये प्रकाश, धूप, चाँदनी की अमूल्य सेवायें भी हमको बिना कुछ दिये लिये बिना मूल्य प्राप्त होती हैं। इस जीवन के लिये अनिवार्य आधारभूत वायु, जल, भोजन, गर्मी और प्रकाश - ये पांचों चीजें मनुष्य को प्रकृति स्वयं बिना मूल्य प्रदान करती है। माता अपने पुत्र की कितनी सेवा करती है । कदाचित् स्वयं भूखी रह जाए तो रह जाए परन्तु अपने पुत्र को अपना दूध पिला कर उसे भूखा नहीं रहने देती। रात को जब उसका पुत्र पेशाब करके बिछौने गीले कर देता है तब वह उसे सूखे बिछौने पर सुला देती है । आप स्वयं गीले पर लेट जाती है । बच्चे को जरा-सा कोई रोग या कष्ट होता है तो वह रात भर जागती रहती है । माता पुत्र कितनी सेवा करती है, इसका अनुमान आप निम्नलिखित पद्य से लगा सकते हैं । एक हिरणी को जाल बिछा कर एक शिकारी ने पकड़ लिया तब वह हिरणी शिकारी से कहती है कि T आदाय मांसमखिलं स्तनवर्णमङ्गात्, मां मुच्च वागुरिक यामि कुरु प्रसादम् । अद्यापि शस्यकवलग्रहणःनभिज्ञा:, मन्मार्गवीक्षणपरा: शिशवो मदीयाः ॥ भावार्थ :- हे शिकारी ! तू मेरे दूध भरे स्तनों को छोड़कर मेरे शरीर का शेष सब मांस ले ले और कृपा करके मुझे जाने दे । मेरे दुधमुंहे मेरे आने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे, क्योंकि वे अभी तक घास खाना नहीं जानते। मैं उन्हें जाकर दूध पिलाऊँगी । अपनी सन्तान के लिये माता की अनुपम निष्काम सेवा कवि ने उक्त श्लोक में हिरणी के वचन द्वारा रख दी है। इसी • कारण नीतिकार ने कहा है ५२ आचार्यरन श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृपितृसमं तीर्थ विद्यते न जगत्त्रये । यतः प्राप्नोति सुलभो नृभवः शिवशर्मदः ।। अर्थात्-माता-पिता के समान मनुष्य के लिये दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। क्योंकि माता-पिता से मुक्ति-सुख तक देने वाला मानव शरीर प्राप्त होता है। विश्व-उद्धारक तीर्थंकर भगवान् का जगत्-हितकारी दिव्य उपदेश बिना किसी के आग्रह, अनुरोध तथा अनुनय-विनय के स्वयं होता है । उनकी इतनी इच्छा भी नहीं होती कि जनता हमारी वन्दना-नमस्कार करे, हमारा यश-विस्तार करे। तीर्थंकरों के अनुयायी गणधर, श्रुतकेवली, आचार्य, मुनि आदि भी तीर्थंकर देव का अनुकरण करके समस्त संसार में बिना किसी लालसा इच्छा के धर्म-प्रचार करते रहते हैं । थोड़ा-सा रूखा-सूखा भोजन, वह भी दिन में एक बार और वह भी कभी-कभी, लेकर अपना समस्त समय जनता के कल्याण में लगाते रहते हैं। उनके इसी महान् उपकार से आभारी होकर समस्त संसार उनके चरणों में शिर झुकाता है और उनकी बिना इच्छा तथा संकेत के उनका निर्मल यश विश्वव्यापक बना देता है। ___ इस तरह प्रकृति के जड़ पदार्थ तथा उच्च कोटि की परम महान् आत्माएँ हमको निष्काम सेवा करने का सुन्दर पाठ पढ़ाती हैं । यदि हम उस पाठ को हृदय पर अंकित करके उसका आवरण करें तो हम भी संसार में महान् व्यक्ति बन सकते हैं और संसार का तथा अपना बहुत कुछ उद्धार कर सकते हैं । सबसे प्रथम अपने विश्वकल्याणकारी जैनधर्म की सेवा करनी चाहिए । जैनधर्म ही प्राणीमात्र की रक्षा करने का उपदेश देता है और आत्मा को परमात्मा बनाने की विधि बताता है। अत: निर्दोष रूप से अपनी शक्ति अनुसार धर्म का स्वयं आचरण करना धर्म की मुख्य सेवा है, क्योंकि स्वयं आचरण किये बिना धर्म का प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर नहीं डाला जा सकता। अतः स्वयं धर्माचरण करके ऐसे शुभ कार्य करने चाहिये जिससे दूसरे व्यक्ति भी जैनधर्म की ओर स्वयं आकर्षित हों, जैनधर्म की प्रशंसा करें। इसके सिवाय जैनधर्म के सत्य सिद्धान्त सरल भाषा में प्रकाशित करके जनता में उन्हें वितरण करें, जैन साहित्य जैनेतर विद्वानों को भेंट करें । जैनेतर भद्र पुरुषों के साथ सम्पर्क जोड़कर, उनके साथ प्रेम स्थापित करके उनको मोक्षमार्गप्रकाशक आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय कराएँ, जैनधर्म आचरण करने की प्रेरणा देते रहें । जैनेतर सभाओं में जैनधर्म के महत्त्व को प्रगट करने वाले भाषण दें । जो अपने जैन बन्धु धर्म से विचलित या शिथिल हो रहे हों उनको समझा-बुझाकर धर्म में दृढ़ करें। समाज-सेवा अपने समाज की निष्काम सेवा करना भी मनुष्य का प्रधान कर्तव्य है । व्यक्ति की उन्नति तभी होती है जबकि समाज की उन्नति होती है । यदि अपने समाज में अविद्या, दुराचार, ईष्या, द्वेष फैला हुआ होगा, दरिद्रता फैली हुई होगी तो उसका प्रभाव उस समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर थोड़ा-बहुत अवश्य पड़ेगा । समाज में अपने अनेक मित्र और सम्बन्धी होते हैं, उन पर आये कष्ट में अवश्य थोड़ा-बहुत भाग लेना ही पड़ता है। इस कारण मनुष्य को अपना स्वार्थ गौण करके समाज के हित को प्रधानता देनी चाहिये। इसके लिये समाज में शिक्षा का प्रचार करना चाहिये । समाज में फैली हुई कुरीतियों को दूर करना चाहिये। अपने समाज में अनाथ बच्चों, महिलाओं के शिक्षण, आजीविका आदि का प्रबन्ध कर देना चाहिये जिससे अपने समाज में कोई दुःखी न रहे । समाज में ऐसे नियमों का प्रचार करना चाहिये जिनके द्वारा निर्धन व्यक्ति भी अपने पुत्र-पुत्रियों के विवाह-सम्बन्ध आदि सामाजिक कार्य सरलता से कर सकें। सारांश यह है कि समाज को हम अपना बड़ा परिवार समझ कर उसके प्रत्येक बच्चे को अपना बच्चा, उसकी प्रत्येक स्त्री को अपनी बहिन, पुत्री और प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई समझना चाहिये । दीन-दुःखी सेवा मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म दीन-दुःखी स्त्री-पुरुषों की सेवा करना है। धर्म का चिह्न दयाभाव है। जिसका चित्त दीन-दुःखी जीवों को देखकर नहीं पसीजता, उसके हृदय में लेशमात्र भी धर्मवासना नहीं । ऐसे मनुष्य का जप, तप, संयम केवल बाहरी ढोंग है। दीनदुःखियों के दुःख दूर करके जो मनुष्य उनका शुभ आशीर्वाद लेता है वह कभी दुःखी नहीं होता। अतः दुःखी स्त्री-पुरुषों के साथ मीठे नम्र शब्दों में बातचीत करो, यदि वे भूखे हों तो उनको रोटी खिलाओ, प्यासे हों तो पानी पिलाओ, नंगे हों तो उनको वस्त्र दो, यदि रोगी हों तो उनको औषधि दो। स्वयं जितना कर सकते हो उतना स्वयं करो, जितना तुम से न हो सके उतना दूसरों से उनका भला कराने का अमृत-कण Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्न करो। इतना भी न हो सके तो अपने मन में तो उनके लिये सहानुभूति रक्खो। तन-मन-धन यदि दीन-दुःखियों की सेवा में लग जाए तो इससे अधिक और अच्छा इनका उपयोग क्या होगा? साधु सेवा जगत् में सदाचार फैलाने वाले तथा स्वयं सच्चरित्र मुनि तपस्वियों व्रतियों महात्माओं की सेवा करने से अपने हृदय में उनके सद्गुण अनायास आ जाते हैं, ज्ञान का विकास होता है, सदाचार स्वयं प्रगट होता है, धर्म में श्रद्धा होती है, दुर्विचार दूर हो जाते हैं। इस कारण मुनि, व्रती, त्यागी महात्माओं की सेवा करने में कभी प्रमाद न करो। अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री, बहिन-भाई आदि की उनके योग्य सेवा करो। जो पुरुष अपने परिवार के साथ अपना उचित कर्तव्य-पालन नहीं कर सकता वह अपने समाज, देश, जाति की सेवा भी नहीं कर सकता। परिवार का कोई भी व्यक्ति दुःखी न हो, तथा कोई भी कुमा पर न लगे, सभी प्रसन्न, कर्तव्यपरायण और सन्मार्ग पर चलें-ऐसा यत्न करना चाहिये। सेवा करके उसका बदला चाहने वाले व्यक्ति तो नौकर हुआ करते हैं। जिन व्यक्तियों के हृदय में उपकार करने की भावना होती है, वे कभी अपनी सेवा का फल नहीं चाहते, निष्काम सेवा करते हैं । परन्तु बिना चाहे भी उनको फल अवश्य मिलता है और उससे अधिक मिलता है जितना कि वे चाहते हैं । निष्काम सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती। दान संसारी जीव को चार रोग अनादि से लगे हुए हैं-१. जन्म, २. मरण, ३. भूख, ४. प्यास । इनमें से जन्म-मरण की चिकित्सा तो संसार-भ्रमण के कारण कर्मबन्धन को नष्ट करना है । कर्मबन्धन का नाश आत्म-श्रद्धा, आत्मज्ञान तथा तपश्चर्या से होता है। किन्तु ये तीनों बातें प्रत्येक प्राणी को प्राप्त होना सरल नहीं है । अतः जन्म-मरण की परम्परा समाप्त करना भी हर एक प्राणी का काम नहीं। हां, भूख-प्यास की चिकित्सा (इलाज) प्रत्येक जीव किया करता है। पहले भोगयुग में मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिये कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता था। उनको भूख-प्यास दूर करने की सामग्री कल्पवृक्षों से मिल जाया करती थी। किन्तु जब कर्मयुग आया तब वह सामग्री कल्पवृक्षों से मिलनी बन्द हो गई। उस समय मनुष्यों को परिश्रम करके भोजन-पानी प्राप्त करने की विधि सीखनी पड़ी। ___ सबसे प्रथम खेती आदि करने की विधि भगवान् ऋषभनाथ ने सिखलाई थी। इसी कारण उन्हें 'आदि ब्रह्मा' कहते हैं। तत्काल उत्पन्न हुए बच्चे को भी भूख-प्यास लगती है और उसको मिटाने के लिये वह बिना सिखाये पूर्व भव के संस्कार से अपनी माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है खाने-पीने की दूसरी विधियाँ भी सीखता जाता है। देवों को जैसे ही भूख लगती है वैसे ही उनके गले से स्वयं अमृत झरने लगता है और उनकी भूख शान्त हो जाती है। इस तरह भूख-प्यास मिटाने का इलाज सब किसी को करना पड़ता है। किन्तु कर्मभूमि में प्यास मिटाने के लिये पानी तो पृथ्वी के नीचे से कुओं द्वारा, पृथ्वी के ऊपर नदियों, झीलों द्वारा तथा आकाश से जल-वर्षा द्वारा सरलता से मिल जाता है। अतः उसके लिए मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को विशेष परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती और न उसके अधिक इकट्ठा करने की आवश्यकता दीखती है। परन्तु भोजन की सामग्री इतनी सरलता से प्रकृति से नहीं मिल पाती, अतः उसके लिये खेती-बाड़ी आदि कठोर परिश्रम करने का सहारा लेना पड़ता है। किसान खेती करके इतना अन्न उत्पादन करता है कि अपने परिवार के अतिरिक्त अन्य बहुत-से परिवारों को भूख शान्त करने के लिये अन्न दे सकता है। अतः वह अपने लिये आवश्यक अन्न-वस्त्र, बर्तन आदि पदार्थों के बदले में अपना अन्न दूसरों को दे देता है। इस तरह भूख मिटाने के लिये प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी तरह का परिश्रम अवश्य करना पड़ता है। परिश्रम करते हुए मनुष्य कभी बीमार भी हो जाता है। उस दशा में वह भोजन प्राप्त करने के लिये परिश्रम नहीं कर पाता। ऐसे अवसर के लिये मनुष्य को कुछ भोजन-सामग्री अपने पास एकत्रित रखने की आवश्यकता अनुभव होती है। अतः वह अपने कठिन समय के लिये कुछ न कुछ इकट्ठा भी करता जाता है। इसी संचय-वृत्ति (इकट्ठा करने) की भाग-दौड़ में जो दूसरों से आगे बढ़ जाते हैं वे धनवान् भाग्यवान् कहे जाते हैं। उनके पास पदार्थों का संचय दूसरों की अपेक्षा अधिक होता है और जो पदार्थ-संचय की दौड़ में पीछे रह जाते हैं उनके पास पदार्थों का संचय थोड़ा हो पाता है या सर्वथा नहीं हो पाता, अत: वे निर्धन, गरीब, दरिद्र कहलाते हैं। आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस तरह संसार की सारी भाग-दौड़ और अनेक तरह के परिश्रमों का मूल कारण भूख मिटाने का प्रयास है। इसी में धनिक, निर्धन की समस्या छिपी हुई है । धनिक अधिक द्रव्य संचय करके दूसरों को अपना दास बना लेता है और दूसरे मनुष्य अपने पास कम सचय होने के कारण धनिकों के दास बन जाते हैं । इसी आर्थिक विषमता के कारण संसार में लड़ाई, झगड़े, लूट, चोरी, अनीति, अन्याय, अत्याचार, धोखेबाजी आदि बुरे कामों की सृष्टि होती है। क्रोध, मान, मायाचार, लोभ आदि दुर्गुण भी इसी के फल हैं । । धन की अत्यधिक विषमता को दूर करने के लिये जैन धर्म में कुछ मौलिक आचरणीय सिद्धान्त बतलाये गये हैं। महाव्रती साधु के लिये धन-सम्पत्ति का पूर्ण त्याग रूप अपरिग्रह रक्खा है। तदनुसार जैन साधु फूटी कौड़ी भी अपने पास नहीं रख सकता । गृहस्थ के लिये जो ११ श्रेणियाँ ( प्रतिमायें) बताई हैं उनमें से १-१०-११वीं श्रेणी का व्यक्ति योग्य वस्त्र तो अपने पास रख सकता है परन्तु रुपयापैसा आदि जरा भी नहीं रख सकता । नीचे की श्रेणी के जैन गृहस्थों के लिये धन के विषय में दो नियमों का पालन करना पड़ता है१. परिग्रह का परिमाण, २. दान । अपनी आवश्यकता के अनुकूल रुपया-पैसा, सोना-चांदी, मकान, पशु, वस्त्र, बर्तन आदि गृहस्थ उपयोगी पदार्थों का नियम करना, कि मैं इतना रुपया अपने पास रक्ंंगा, इतने रुपये हो जाने के बाद और अधिक संचय करना त्याग दूंगा, इतना सोना-चांदी, मकान आदि रक्खूंगा, उससे अधिक नहीं परिग्रह परिमाण व्रत है । धार्मिक व्यक्तियों तथा दीन-दुःखी जीवों को उनकी आवश्यकतानुसार भोजन, औषधि आदि देना दान है। वैसे दान के चार भेद किये हैं- १. अन्वयदान, २. समदान, ३. पात्र दान, ४. दयादान । अपने पुत्र, भाई-भतीजे आदि को अपनी सम्पत्ति देना अन्वय दान है। अपने समाज जाति के योग्य वर को अपनी कन्या देना, कन्या लेना, जीमनवार खिलाना, प्रेम-व्यवहार के लिये कोई वस्तु अपनी जाति-बिरादरी में बाँटना आदि समानता का सामाजिक लेन-देन समदान कहलाता है । मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका क्षुल्लिका आदि धर्मात्मा पुरुषों के लिये आहार, उपकरण आदि प्रदान करना पात्रदान है और दीन-दुःखी अनाथ असहाय स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षियों के दुःख संकट दूर करने के लिये उनकी आवश्यकता के योग्य वस्तुएं दान करना दयादान है । इनमें से प्रारम्भ के दो दान तो ऐसे हैं जिनको सभी मनुष्य स्वार्थ साधन के लिये किया ही करते हैं। ऐसा किये बिना उनका समाज में निर्वाह नहीं हो सकता । इन दानों में तो केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अपनी वंश-परम्परा में धर्म-आचरण चलता रहे और कोई सामाजिक दोष न उत्पन्न होने पाए तथा कन्या के योग्य गुणी, स्वस्थ, सदाचारी वर को ही प्रमुखता दी जाए, केवल धन देखकर दुर्गुणी, रोगी, अशिक्षित, दुर्जन, प्रौढ़, वृद्ध आदि अयोग्य वर के साथ कन्या का विवाह न किया जाए। इसी तरह अपने पुत्र के लिये कन्या लेते समय दहेज के धन पर दृष्टि न रख कर शिक्षित, गुणी, विनीत, सुन्दर कन्या को विशेषता देनी चाहिये । यहां इतना और ध्यान रखना चाहिये कि विवाह सगाई आदि करते समय सामाजिक नियमों का उल्लंघन न किया जाए जिससे समाज के साधारण व्यक्तियों को तंगी न होने पावे । विवाह शादी आदि के ऐसे सरल, कम खर्चीले नियम बनाने चाहियें जिससे समाज का गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह सम्बन्ध कर सकें । परोपकार रूप दान तो पात्रदान दयादान ही हैं । 1 पात्र के तीन भेद हैं- १. उत्तम, २. मध्यम ३ जघन्य । उत्तम पात्र ( धर्म के भाजन) महाव्रती मुनि होते हैं । निर्ग्रन्थ तपस्वी मुनि सदा ज्ञान-आराधन, आत्मसाधना तथा धर्म उपदेश देना आदि स्व-उपकार, पर उपकार करने में लगे रहते हैं। किसी से कुछ नहीं लेते किन्तु सबको सत्ज्ञान, अभयदान देते हैं। जनता को कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाते हैं। ऐसे सर्वोच्च धर्मात्मा मुनि उत्तम पात्र हैं । उनको भोजन कराना, कमंडलु, पीछी तथा स्वाध्याय करने के लिये शास्त्र देना, उत्तम पात्र दान है । व्रताचरण करने वाले श्रावकों को उनकी आवश्यकता के अनुसार भोजन, औषधि, शास्त्र आदि देना मध्यम पात्र दान है । व्रतरहित सम्यक् धर्मं श्रद्धालु व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुकूल वस्तु प्रदान करना जघन्य पात्र दान है । पात्र दान द्वारा जगत् का उपकार करने वाले धार्मिक सज्जनों, साधु-सन्तों की सुरक्षा तथा वृद्धि होती है, जिससे कि जगत् में सदाचार, शान्ति का प्रसार होता है, दुराचार और अशान्ति में कमी होती है । अतः पात्र दान सब दानों में श्रेष्ठ दान है । दीन-दुःखी जीवों पर दया करके दुःख मिटाने के लिये चार प्रकार की वस्तुओं का दान करना चाहिये - १. आहार दान, २. औषधि दान, ३. विद्या दान, ४. अभय दान । अमृत-कण ५५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूख से दुःखी जीवों को उनकी भूख मिटाने के लिए निरामिष, भक्ष्य, सात्विक भोजन देना आहार दान है। जगत् में ऐसे निर्धन स्त्री-पुरुष हजारों लाखों पाये जाते हैं जिनके पास अपने पेट भरने का कोई साधन नहीं होता। इस कारण यदि उनको भोजन न मिले तो वे भूख से छटपटा कर अपने प्राण दे देते हैं, अथवा अपना पेट भरने के लिये कोई अनर्थ या अकार्य कर डालते हैं। भूख का भयानक दृश्य बतलाते हुए कवि ने लिखा है त्यजेत्क्षु धार्ता महिला स्वपुत्र, खादेत्क्ष धार्ता भुजगी म्वमण्डम् । क्षुधातुराणां न भयं न लज्जा, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति ।। अर्थात्---भूख से व्याकुल माता अपने औरस दुधमुंहे पुत्र को अरक्षित छोड़कर चली जाती है, भूखी सर्पिणी अपनी भूख शान्त करने के लिये अपने ही अंडे खा जाती है । भूख से पीड़ित मनुष्यों को न कोई भय रहता है, न किसी प्रकार की लज्जा रहती है, निर्भय निर्लज्ज होकर सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं । भूख से पीड़ित मनुष्यों में दया नहीं रहती। वे भूख के कारण निर्दय बन जाते हैं। ऐसी दशा में भूखे स्त्री-पुरुषों, भिखारियों को तथा पशु-पक्षियों को भोजन कराना महान् उपकार का कार्य है। अपने घर आये हुए भूखे को अवश्य थोड़ा-बहुत भोजन कराना चाहिये । अपने बनाये हुए भोजन में से थोड़ा-बहुत भोजन भूखे जीवों को दान करने के लिये अवश्य बचा कर रखना चाहिये। असमर्थ, रोगी स्त्री-पुरुषों को स्वस्थ बनाने के लिये उनकी मुफ्त चिकित्सा करना, गरीब रोगियों को दवा बांटना, रोगियों की सेवा करना, औषधालय खोलना जहां से सबको मुफ्त दवा मिलती रहे, हस्पताल खोलना जहां रहकर दरिद्र रोगी स्त्री-पुरुष अपनी चिकित्सा करावें, रोगी पशु-पक्षियों का इलाज करना इत्यादि औषध दान हैं। गरीब स्त्री-पुरुष वैद्य डाक्टरों के लिये फीस तथा दवा की रकम खर्च नहीं कर सकते । अतः भयानक रोगों के शिकार होकर तड़प कर मर जाते हैं । ऐसे रोगियों को यथासमय औषधि मिल जाने से उनके प्राणों की रक्षा हो जाती है । अतः औषधि दान भी बहुत उपयोगी है। अशिक्षित मूर्ख मनुष्य पशु के समान होता है । वह न तो कुछ धर्म आचरण करके या अन्य कोई अच्छा कार्य करके अपना भला कर सकता है और न अपनी जाति, समाज एवं देश की सेवा कर सकता है। ऐसे मनुष्यों को विद्या पढ़ाना, विद्यालय खोलना, अच्छी उपयोगी पुस्तकें छपाकर जनता में उनको बांटना, उपदेश देकर अच्छे ग्रन्थ या लेख लिखकर ज्ञान का प्रसार 'ज्ञान दान है। मूर्ख को ज्ञानी बनाना और ज्ञानी को अधिक ज्ञानी बनाने के लिये छात्रवृत्ति देना, विद्यार्थियों में उत्साह लाने के लिये उन्हें पारितोषिक देना ज्ञान-दान ही है । ज्ञान-दान से संसार का महान् उपकार होता है । अतः ज्ञान-दान श्रेष्ठ प्रशंसनीय दान है। किसी भयभीत स्त्री-पुरुष का भय दूर करके उसे निर्भय बनाना, किसी दुष्ट आक्रमणकारी से किसी दीन-दुर्बल की रक्षा करना, अनाथ बच्चों व असहाय स्त्रियों की सहायता करना, असहाय जीवों को सहायता देना अभयदान हैं। रात्रि को आने-जाने के मार्ग पर जहां अंधेरा हो जिससे आने-जाने वालों को डर लगता हो वहाँ प्रकाश कर देना, वन-पर्वतों में साधु-मुनियों के लिये मठ बनवा देना, धर्मशाला बनवाना आदि अभयदान है। दान करने से मनुष्य गरीब नहीं हो जाता, पुण्य कर्म से उसकी सम्पत्ति और भी बढ़ती है। अतः उदारता के साथ सदा यथाशक्ति दान करते रहना चाहिये। क्षमा संसार में प्रत्येक मानव के लिये क्षमा रूपी शस्त्र इतना आवश्यक है कि जिसके पास यह क्षमा नहीं होती वह मनुष्य संसार में अपने इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता। क्षमा आत्मा का धर्म है। इसलिए जो मानव अपना कल्याण चाहता है उसे हमेशा इस भावना की रक्षा करनी चाहिये । क्षमावान् मनुष्य का इस लोक और परलोक में कोई शत्रु नहीं होता । क्षमा ही सर्व धर्म का सार है । क्षमा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप आत्मा का मुख्य सच्चा भण्डार है। जैसे कि आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तम खम गुण गण सहयारी । उतम खम मुणि बिंद पयारी ॥ उत्तम खम बहुयन चिन्तामणि । उत्तम खम सर्व जह मणि ।। उत्तम क्षमा गुणों के समूह के साथ रहने वाली है अर्थात् उत्तम क्षमा के होने से अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं। यह उत्तम क्षमा मुनियों को बड़ी प्यारी है। श्रेष्ठ मुनिजन इसका पालन करते हैं। यह उत्तम क्षमा विद्वानों के लिये चिन्तामणि रत्न के समान इच्छित पदार्थों को देने वाली है। इसी तरह विद्वानों को उत्तम क्षमा से इच्छित ज्ञानादिक प्राप्त होते हैं। ऐसी यह उत्तम क्षमा चित्त की एकाग्रता होने से उत्पन्न हो जाती है । क्षमा वीरस्य भूषणम् क्षमा धर्म वीर पुरुष का भूषण है। जिनके पास क्षमारूपी शस्त्र है, उनका शत्रु क्या कर सकता है ? वैरी को जीतने में देर नहीं लगती। क्षमावान् मनुष्य हमेशा सुखी रहता है। क्षमा वाले पुरुष का संसार में कोई भी शत्रु नहीं है। क्षमावान् पुरुष हमेशा गम्भीर रहता है। क्रोधी मनुष्य हमेशा दुबला-पतला रहता है। क्रोधी मनुष्य का कोई भी विश्वास नहीं करता । क्रोधी अपने और पर का भी घात कर डालता है। क्रोधी मनुष्य की आँख हमेशा लाल रहती है। जिस समय उसको क्रोध आता है तब उसका सारा शरीर कांप उठता है और उसको सुध-बुध नहीं रहती, अनेक अनर्थ कर बैठता है आर धर्म-कर्म आदि सभी बातों को भूल जाता है । ये सात्त्विक प्रवृति का मनुष्य धृतियुक्त होता है। अनेक विघ्न आने पर भी उसकी अन्तःकरण प्रवृत्ति में तिलमात्र भी अंतर नहीं पड़ता, खेद - खिन्न नहीं होता। वह शान्तिपूर्वक सभी विघ्नों को सह लेता है। इस प्रकार शांति पाने के लिये संयम का अभ्यास करना पड़ता है। इसके अभ्यास के लिए तथा अपनी इन्द्रियों को काबू में लाने के लिये बाहरी विषयलोलुपता को घटाना आवश्यक है। इन्द्रिय-वासना कम होने पर द्रव्य के प्रति लालसा घट जाती है। तब क्रोध की मात्रा भी कम होती जाती है । अपनी आत्मा में उत्सुकता और शरीरादि पर-द्रव्य में निरुत्सुकता होती है। इस स्थिति में व्यक्ति संपूर्ण प्राणी मात्र को अपने समान मानता है, और पर को पर वस्तु । व्यक्ति के जब मन में शत्रु या मित्र के प्रति समानता होती है तब वह दूसरे जीवों के प्रति क्रोध या द्वेष व अहंकार भावना नहीं करता । क्रोध ही महान् शत्र ु है । यह क्रोध चारों गतियों में भ्रमण कराने वाले कौन-कौन से अनर्थ नहीं करता ? इसलिये सज्जन पुरुष क्रोध से दूर रहता है । ज्ञानी सज्जन पुरुष पर यदि कोई शत्रु दुष्टता से प्रहार करे या अनेक उपद्रव खड़े कर दे तो भी वह अपनी क्षमावृत्ति का कभी त्याग नहीं करता । जैसे कहा भी है कि वधं बन्धं त्यजति न पुनः कांचनं विष्यवर्णम् । घुष्टं घुष्टं त्यजति न पुनश्चंदनं चागन्धम् ॥ खंड खंडं त्यजति न पुनः स्वातामिल बंद प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोतमानाम् ॥ बार-बार जलाये और तपाये जाने पर भी सोना अपने सौन्दर्य को नहीं छोड़ता बल्कि जितना तपाया चमकता है । बार-बार घिसने पर भी चन्दन अपना स्वभाव न छोड़कर सुगन्ध को ही फैला देता है। ईख (गन्ना) अपने मीठेपन को नहीं छोड़ता । इसी प्रकार उत्तम पुरुषों की प्रकृति किसी भी अवस्था में विकारमय नहीं होती । अर्थात् कैसी भी आपत्ति आने पर जो क्षमावान् मनुष्य अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता और शान्तिपूर्वक अपने ऊपर आई हुई आपत्ति को सहन कर धैर्यशाली या बलशाली बन जाता है, उसी को लोग शूरवीर कहते हैं। पूर्व जन्म में किये हुए कर्म का बदला यह मनुष्य मुझ से ले रहा है सो कोई बात नहीं। क्योंकि मैंने पूर्व जन्म में इसके साथ क्रोध किया होगा इसलिए मुझसे बदला ले रहा है । यदि कोई मुझे पापी, चांडाल, अन्याय, अत्याचारी, असभ्य, सुवचन बोलता है तो कोई हर्ज नहीं है इससे मेरे कर्म की निर्जरा ही होती है। जाता है टुकड़े-टुकड़े करने पर यदि सज्जन क्षमावान् मनुष्य को कोई दुर्वचन कहे या अकुलीन कहे तो वह अपने मन में ऐसा विचार करता है कि ये तो मेरा नाम ही नहीं है, और जाति नहीं है। मैं तो परम पवित्र स्वरूप आत्म-ज्योतिरूप परमानन्द अविनाशी परब्रह्मस्वरूप परमात्मा रूप हूं । वही मेरा आत्मा है | आत्मा का नाम तो नहीं है । फिर मुझे गाली से, निंदा से, दुर्बचनों से उन पर क्रोध करना उचित नहीं । फिर ५७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने आत्मा को समझाता है कि हे आत्मन् ! तुम बनेक जन्म में चोर, जार, जुगार तथा कूकर, सूकर आदि योनियों में तिर्यंच पापी व अधर्मी आदि नीच पर्याय को धारण करके आये हो, तो कूकर-सूकर व चांडालादि कहने से दु:खी क्यों होते हो? क्योंकि जीव इस प्रकार के कुवचन कहने से संक्लेशित होता है उसे पुनः चतुर्गति में पड़कर नाना प्रकार के दुःख उठाने पड़ते हैं। अतः जब हम सब उपरोक्त नीच-ऊंच योनियों में जन्म ले चुके हैं तब हम शोक क्यों करें? निन्दक लोगों को हमारे प्रति ऐसा समझना चाहिये कि वे हमारे भीतर के मैल को बिना रुपया-पैसा व साबुन के ही साफ कर रहे हैं / ऐसे उपकारियों के साथ यदि हम ईर्ष्या या द्वेष करें तो हमारे जैसा अधम और कौन होगा? इस प्रकार क्षमावान् पुरुष अपनी आत्मा को समझाकर अपने क्षमा-भाव से च्युत नहीं होता / आज के युग में महात्मा गांधी ने केवल निःशस्त्र अर्थात् क्षमारूपी शस्त्र से भारत भूमि को स्वतंत्र करा दिया। जिन-जिन महान् ऋषि-मुनियों ने आत्म-सिद्ध कर लिया उन्होंने केवल क्षमारूपी शस्त्र से कर्म-वैरी को जीतकर अखंड मोक्षरूपी साम्राज्य को हस्तगत कर लिया / अगर मानव प्राणी सम्पूर्ण विश्व को हस्तगत करना चाहता है तो उसे वश में करने के लिये क्षमा मन्त्र ही एक महामन्त्र है अन्य कोई साधन नहीं। इससे दुर्जन भी सज्जन बन जाता है। इसलिये मानव प्राणी को अपने और पर-हित के लिये क्षमा का साधन भी करते रहना चाहिये / नीतिकार ने भी कहा है कि जो धीर वीर पुरुष है वह क्षमा भाव से नहीं डिगता कथितस्यापि हि धैर्यवृत्तेवुद्धविनाशो नहि शंकनीयोः / अधःकृतस्यापि तननपातो नाधःशिखा याति कदाचिदेव / / धीर वीर मनुष्य की प्रकृति या बुद्धि उत्पीड़ित होने पर भी किसी प्रकार से विकृत हो सकती है इस प्रकार की आशंका करना व्यर्थ है / अग्नि को कितना ही नीचे की ओर क्यों न दबाइये, उसकी लपट सदा ऊपर को ही जायगी। ऐसे ही महापुरुषों की वृत्ति (भीतर का क्षमारूपी तेज) शत्र से न डरकर शत्र से दवाये जाने पर भी हमेशा दूसरों के उपकार के प्रति ही दौड़ती है। __ क्रोधी क्या-क्या नहीं करता? सब कुछ कर डालता है। क्रोधी सम्पूर्ण धर्म का लोप कर देता है। माता, पिता, स्त्री, पुत्र, बालक, स्वामी, सेवक तथा अन्य मित्र, कुटुम्ब इत्यादि किसी को भी नहीं छोड़ता, सभी को मार डालता है। तीव्र क्रोधी स्वतः ही विष खाकर शस्त्र से या छुरी या चाकू इत्यादि से अपनी आत्म-हत्या कर लेने में पीछे नहीं हटता। पर्वतादि से नीचे गिरकर प्राण भी दे देता है। अगर कोई अन्य मनुष्य उसको समझाने भी जाय तो उसका भी घात करता है। जिनकी क्रोध प्रकृति है वे मनुष्य किसी का उपकार, दया या अन्य सेवा-सुश्रूषा भी नहीं करते / क्रोध ऐसा है कि ये अग्नि के समान मनुष्य के भीतर से उत्पन्न होकर शरीर तक को पूरा जला देता है। बड़े-बड़े महान् तप से युक्त तपस्वियों को भी इस क्रोध ने नहीं छोड़ा है / जिसने क्रोध को जीता वह अपने कर्म शत्रुओं को जीतकर निर्वाण पद प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं। क्षमावान् पुरुष को पृथ्वी की उपमा दी गई है / जैसे पृथ्वी पहाड़, पत्थर, वृक्ष, नदी, सरोवर, मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि का सम्पूर्ण भार अपने आप सह लेती है, उसी प्रकार क्षमावान् मनुष्य पृथ्वी के समान ऊँचे-नीचे लोगों के द्वारा होने वाले असह्य उपसर्ग, भव में इसका कुछ अपकार किया है। उसी का यह बदला चुका रहा है। इसे शान्तिपूर्वक सह लेने से मेरे अशुभ कर्मों की निर्जरा होगी। फिर मैं क्रोध क्यों करूं? 55 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ .