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________________ भूख से दुःखी जीवों को उनकी भूख मिटाने के लिए निरामिष, भक्ष्य, सात्विक भोजन देना आहार दान है। जगत् में ऐसे निर्धन स्त्री-पुरुष हजारों लाखों पाये जाते हैं जिनके पास अपने पेट भरने का कोई साधन नहीं होता। इस कारण यदि उनको भोजन न मिले तो वे भूख से छटपटा कर अपने प्राण दे देते हैं, अथवा अपना पेट भरने के लिये कोई अनर्थ या अकार्य कर डालते हैं। भूख का भयानक दृश्य बतलाते हुए कवि ने लिखा है त्यजेत्क्षु धार्ता महिला स्वपुत्र, खादेत्क्ष धार्ता भुजगी म्वमण्डम् । क्षुधातुराणां न भयं न लज्जा, क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति ।। अर्थात्---भूख से व्याकुल माता अपने औरस दुधमुंहे पुत्र को अरक्षित छोड़कर चली जाती है, भूखी सर्पिणी अपनी भूख शान्त करने के लिये अपने ही अंडे खा जाती है । भूख से पीड़ित मनुष्यों को न कोई भय रहता है, न किसी प्रकार की लज्जा रहती है, निर्भय निर्लज्ज होकर सब कुछ करने को तैयार हो जाते हैं । भूख से पीड़ित मनुष्यों में दया नहीं रहती। वे भूख के कारण निर्दय बन जाते हैं। ऐसी दशा में भूखे स्त्री-पुरुषों, भिखारियों को तथा पशु-पक्षियों को भोजन कराना महान् उपकार का कार्य है। अपने घर आये हुए भूखे को अवश्य थोड़ा-बहुत भोजन कराना चाहिये । अपने बनाये हुए भोजन में से थोड़ा-बहुत भोजन भूखे जीवों को दान करने के लिये अवश्य बचा कर रखना चाहिये। असमर्थ, रोगी स्त्री-पुरुषों को स्वस्थ बनाने के लिये उनकी मुफ्त चिकित्सा करना, गरीब रोगियों को दवा बांटना, रोगियों की सेवा करना, औषधालय खोलना जहां से सबको मुफ्त दवा मिलती रहे, हस्पताल खोलना जहां रहकर दरिद्र रोगी स्त्री-पुरुष अपनी चिकित्सा करावें, रोगी पशु-पक्षियों का इलाज करना इत्यादि औषध दान हैं। गरीब स्त्री-पुरुष वैद्य डाक्टरों के लिये फीस तथा दवा की रकम खर्च नहीं कर सकते । अतः भयानक रोगों के शिकार होकर तड़प कर मर जाते हैं । ऐसे रोगियों को यथासमय औषधि मिल जाने से उनके प्राणों की रक्षा हो जाती है । अतः औषधि दान भी बहुत उपयोगी है। अशिक्षित मूर्ख मनुष्य पशु के समान होता है । वह न तो कुछ धर्म आचरण करके या अन्य कोई अच्छा कार्य करके अपना भला कर सकता है और न अपनी जाति, समाज एवं देश की सेवा कर सकता है। ऐसे मनुष्यों को विद्या पढ़ाना, विद्यालय खोलना, अच्छी उपयोगी पुस्तकें छपाकर जनता में उनको बांटना, उपदेश देकर अच्छे ग्रन्थ या लेख लिखकर ज्ञान का प्रसार 'ज्ञान दान है। मूर्ख को ज्ञानी बनाना और ज्ञानी को अधिक ज्ञानी बनाने के लिये छात्रवृत्ति देना, विद्यार्थियों में उत्साह लाने के लिये उन्हें पारितोषिक देना ज्ञान-दान ही है । ज्ञान-दान से संसार का महान् उपकार होता है । अतः ज्ञान-दान श्रेष्ठ प्रशंसनीय दान है। किसी भयभीत स्त्री-पुरुष का भय दूर करके उसे निर्भय बनाना, किसी दुष्ट आक्रमणकारी से किसी दीन-दुर्बल की रक्षा करना, अनाथ बच्चों व असहाय स्त्रियों की सहायता करना, असहाय जीवों को सहायता देना अभयदान हैं। रात्रि को आने-जाने के मार्ग पर जहां अंधेरा हो जिससे आने-जाने वालों को डर लगता हो वहाँ प्रकाश कर देना, वन-पर्वतों में साधु-मुनियों के लिये मठ बनवा देना, धर्मशाला बनवाना आदि अभयदान है। दान करने से मनुष्य गरीब नहीं हो जाता, पुण्य कर्म से उसकी सम्पत्ति और भी बढ़ती है। अतः उदारता के साथ सदा यथाशक्ति दान करते रहना चाहिये। क्षमा संसार में प्रत्येक मानव के लिये क्षमा रूपी शस्त्र इतना आवश्यक है कि जिसके पास यह क्षमा नहीं होती वह मनुष्य संसार में अपने इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं कर सकता। क्षमा आत्मा का धर्म है। इसलिए जो मानव अपना कल्याण चाहता है उसे हमेशा इस भावना की रक्षा करनी चाहिये । क्षमावान् मनुष्य का इस लोक और परलोक में कोई शत्रु नहीं होता । क्षमा ही सर्व धर्म का सार है । क्षमा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप आत्मा का मुख्य सच्चा भण्डार है। जैसे कि आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210592
Book TitleJain Achar Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size3 MB
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