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________________ रसोई बनाने वाला व्यक्ति स्वस्थ भी होना चाहिये। किसी भी प्रकार के रोगग्रस्त व्यक्ति से भोजन कभी नहीं बनवाना चाहिये । भोजन बनाने वाले व्यक्ति में माता के समान उदार प्रेम होना चाहिये । माता स्वयं भूखी रहकर अथवा बचा खुचा अल्प आहार करके भी पुत्र 'को प्र ेम से पर्याप्त अच्छे से अच्छा भोजन कराकर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहती है। ऐसी ही भावना भोजन बनाने वाले स्त्री-पुरुष में होनी चाहिये। रसोइया भोजन बनाते हुए यों विचारा करता है कि भ जन करने वाले व्यक्ति जिसने थोड़े हों उतना ही अच्छा, जिससे मुझे भोजन थोड़ा बनाना पड़े। अच्छा स्वादिष्ट भोजन मेरे लिये अधिक बच जावे, ऐसे विचारों के कारण वह परोसते हुए भी कंजूसी करता है। ऐसी दुर्भावना वाले व्यक्ति के हाथ का बना हुआ भोजन कभी न करना चाहिये । खाद्य मर्यादा भोज्य पदार्थ भी सदा खाने योग्य नहीं बने रहते। कुछ समय पीछे उनमें विकृति आ जाती है। विकृत भोजन करने से जीव-हिंसा होती है तथा शरीर में अनेक प्रकार के रोग हो जाते हैं अतः जिस पदार्थ की जितनी मर्यादा हो उस पदार्थ को उतने ही - समय के भीतर खा लेना चाहिये । खाद्य पदार्थों की मर्यादा नीचे लिखे अनुसार है आटा शीत ऋतु में ७ दिन तक ठीक रहता है। गर्मी के दिनों में ५ दिन तक और वर्षा ऋतु में तीन दिन तक ठीक रहता है। रोटी, दाल, खिचड़ी, कढ़ी, चावल (भात) की मर्यादा छह घंटे की है । जिन पदार्थों में पानी का अंश कम हो किन्तु पी, तेल में तले गये हों उनकी मर्यादा पहर (२४ घंटे) की है। जैसे- बून्दी, लड़, पेवर, बाबर, मरी जिन चीज़ों में जल का अंश अधिक होता है ऐसी तली हुई वस्तुएं ४ पहर (१२ घंटे) तक खाने योग्य रहती हैं। जैसे— पूड़ी, पुआ, भुजिया, पकौड़ी आदि । जिन चीजों में पानी न पड़ा हो ऐसे पदार्थों को खाने की मर्यादा आटे के बराबर है। जैसे- घी, खांड, आटे, बेसन का बना हुआ मगद लड्डू (जाड़े के दिनों में ७ दिन तक, गर्मी में ५ दिन तक और सर्दी में ३ दिन तक ) । कच्चा दूध अन्तर्मुहूर्त्त (४५ मिनट) के भीतर पी लेना चाहिये। ओटा हुआ दूध २४ घंटे तक पीने योग्य रहता है । औटे हुए दूध में जामन देकर जमाये हुए दही की मर्यादा जामन देने से ८ पहर (२४ घंटे) तक की है। गर्म जल डालकर तैयार की गई दही की छाछ की मर्यादा ४ पहर की है। कच्चे पानी को डालकर तैयार की गई छाछ की मर्यादा २ घड़ी ( ४८ मिनट) की है। इसके सिवाय यदि किसी पदार्थ का स्वाद बदल जाए और रंग बदल जाए या उसमें गन्ध आने लगे अथवा जाला पड़ जाए तो उन पदार्थों को बिगड़ा हुआ समझकर कदापि ग्रहण न करना चाहिये क्योंकि ये बातें इसका प्रमाण या चिह्न हैं कि वह खाय पदार्थ बिगड़ गया है । उसमें छोटे कीटाणु उत्पन्न होने लगे हैं, उस चीज में विकार आ गया है । जो भोजन किया जावे वह न अधिक पका हुआ यानी जला हुआ हो, न वह कच्चा ही हो, ठीक पका हुआ हो। क्योंकि कच्ची या जली हुई रोटी आदि खाने से शारीरिक स्वास्थ्य को बहुत हानि पहुंचती है। इसके साथ ही भोजन नियत समय पर ही दिन के अच्छे प्रकाश में कर लेना चाहिये। जो व्यक्ति अनियत समय पर भोजन करते हैं, किसी दिन जल्दी और किसी दिन बहुत देर से भोजन करते हैं, उनकी पाचनशक्ति ठीक नहीं रहती, न उनके धार्मिक तथा व्यावहारिक दैनिक कार्य ठीक तरह हो पाते हैं । भोजन करने के स्थान पर अच्छा प्रकाश होना चाहिये जिससे खाने की वस्तुओं में पड़ा हुआ बाल या चींटी आदि जीवजन्तु स्पष्ट दिखाई पड़ सकें और उन्हें निकाला जा सके। भोजन प्रसन्नचित्त होकर करना चाहिये। कोध, शोक, शोभ, उद्वेग, व्याकुलता की दशा में भोजन करना उचित नहीं। अच्छी भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिये। यदि भूख न हो तो अमृत समान भोजन भी दुःखदायक होता है। भोजन सदा भूख से कम करना चाहिये। आधा उदर (पेट) भोजन से पूर्ण करे और चौथाई भाग पानी से भरना चाहिए तथा एक चौथाई भाग पेट वाली रखना चाहिये। ४० वर्ष की आयु के पश्चात् कम-से-कम एक तिहाई भोजन की मात्रा कम कर देनी चाहिये । इस तरह जो स्त्री-पुरुष शुद्ध भोजन ठीक समय पर ठीक मात्रा में करते रहते हैं, के जीव रक्षा के साथ-साथ अपने शारीरिक स्वास्थ्य की भी रक्षा किया करते हैं । ४९ Jain Education International आचार्य रत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210592
Book TitleJain Achar Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages23
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size3 MB
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