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रात्रि भोजन
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जीवन के लिए भोजन आवश्यक है। बिना भोजन किये मनुष्य का दुर्बल जीवन टिक नहीं सकता। आखिर मनुष्य अन्न का कीड़ा ही तो ठहरा। परन्तु भोजन करने की भी सीमा है। जीवन के लिए भोजन है न कि भोजन के लिए जीवन खेद की बात है कि आज के युग में भोजन के लिए जीवन बन गया है। आज का मनुष्य भोजन पर मरता है। खाने-पीने के सम्बन्ध में सब प्राचीन नियम प्रायः भुला दिये गये हैं। जो कुछ भी अच्छा-बुरा सामने आता है, मनुष्य चट करना चाहता है। न मांस से घृणा है, न मद्य से परहेज । न भक्ष्य का पता है, न अभक्ष्य का निषेध धर्म की बात तो जाने दीजिए, आज तो भोजन के फेर में पड़कर अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रक्खा जा रहा है ।
आज का मनुष्य प्रातःकाल बिस्तर से उठते ही खाने लगता है और दिनभर पशुओं की तरह चरता रहता है। घर में खाता है, मित्रों के यहाँ खाता है, बाजार में खाता है। और तो और बिस्तर पर सोते-सोते भी दूध का गिलास पेट में उडेल लेता है। पेट है या कुछ और फिर भी सन्तोष नहीं । भारत के प्राचीन शास्त्रकारों ने भोजन के किया है। भोजन में शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता और स्वास्थ्य का ध्यान रखना चाहिए, स्वाद का नहीं। माँस और शराब आदि अभक्ष्य पदार्थों से सर्वथा घृणा रखनी चाहिए । शुद्ध भोजन भी भूख लगने पर ही खाना चाहिए। भूख के बिना भोजन का एक कौर भी पेट में डालना पापमय अन्न का भक्षण करना है। भूख लगने पर भी दिन में दो-तीन बार से अधिक भोजन नहीं करना चाहिए, और रात में भोजन करना तो कभी भी उचित नहीं है ।
क्या, दिन छिपते खाता है, रात को खाता है, दिन-रात इस गड्ढे की भरती होती रहती है, सम्बन्ध में बड़े ही सुन्दर नियमों का विधान
जैन धर्म में रात्रि भोजन के निषेध पर बहुत बल दिया गया है। पहचान के लिये आवश्यक था। बात है भी ठीक । वह जैन कैसा, जो रात्रि में का दोष बतलाया है ।
प्राचीन काल में तो रात्रि भोजन न करना जैनत्व की भोजन करे ? रात्रि में भोजन करने से जैन धर्म ने हिंसा
रात्रि
बहुत-से इस प्रकार के छोटे और सूक्ष्म जीव होते हैं, जो दिन में सूर्य के प्रकाश में तो दृष्टि में आ सकते हैं, परन्तु रात्रि में तो वे कथमपि दृष्टिगोचर नही हो सकते। में मनुष्य की आँखें निस्तेज हो जाती हैं । अतएव वे सूक्ष्म जीव भोजन में गिरकर जब दाँतों के नीचे पिस जाते हैं और अन्दर पेट पहुंच जाते हैं तो बड़ा ही अनर्थ करते हैं जिस मनुष्य ने मांसाहार का त्याग किया है, वह कभी-कभी इस प्रकार मांसाहार के दोष से दूषित हो जाता है। बिचारे जीवों की व्यर्थ ही अज्ञानता से हिंसा होती है और अपना नियम भंग होता है। कितनी अधिक विचारने की बात है।
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आज के युग में कुछ मनचले लोग तर्क किया करते हैं कि रात्रि में भोजन करने का निषेध सूक्ष्म जीवों को न देख सकने के कारण ही किया जाता है न ? अगर हम दीपक आदि जला लें और प्रकाश कर लें, फिर तो कोई हानि नहीं ? उत्तर में कहना है कि दीपक आदि के द्वारा हिंसा से नहीं बचा जा सकता। दीपक, बिजली और चन्द्रमा आदि का प्रकाश चाहे कितना ही क्यों न हो, परन्तु यह सूर्य के प्रकाश जैसा सार्वत्रिक, अखण्ड, उज्ज्वल और आरोग्यप्रद नहीं है । जीव रक्षा और स्वास्थ्य की दृष्टि से सूर्य का प्रकाश सबसे अधिक उपयोगी है। कभी-कभी तो यह देखा गया है कि दीपक आदि का प्रकाश होने पर आस-पास के जीव-जन्तु और अधिक सिमिट कर आ जाते हैं। फलतः भोजन करते समय उनसे बचना बड़ा ही कठिन कार्य हो जाता है।
त्याग- धर्म का मूल सन्तोष में है । इस दृष्टि से भी दिन की अन्य सभी प्रवृत्तियों के साथ भोजन की प्रवृत्ति को भी समाप्त कर देना चाहिए तथा सन्तोष के साथ रात्रि में पेट को पूर्ण विश्राम देना चाहिए। ऐसा करने से भली-भांति निद्रा आती है, ब्रह्मचयंपालन में भी सहायता मिलती है और सब प्रकार से आरोग्य की वृद्धि होती है। जैन धर्म का यह नियम पूर्णतया आध्यात्मिक और वैज्ञानिक दृष्टि को लिए हुए है। शरीर शास्त्र के ज्ञाता लोग भी रात्रि भोजन को बल, बुद्धि, आयु का नाश करने वाला बतलाते हैं । रात्रि में हृदय और नाभिकमल संकुचित हो जाते हैं, अतः भोजन का परिपाद अच्छी तरह नहीं हो पाता ।
धर्म शास्त्र और वैद्यक शास्त्र की गहराई में न जाकर यदि हम साधारण तौर पर होने वाली रात्रि भोजन की हानियों को देखें, तब भी यह सर्वथा अनुचित ठहरता है। भोजन में कीड़ी (चिउंटी) खाने में आ जाय तो बुद्धि का नाम होता है, जूं खाई जाय तो जलोदर नामक भयंकर रोग हो जाता है, मक्खी चली जाय तो वमन हो जाता है, छिपकली चली जाय तो कोढ़ हो जाता है, शाक आदि में मिलकर बिच्छू पेट में चला जाय तो वेध डालता है, बाल गले में चिपक जाय तो स्वर-भंग हो जाता है, इत्यादि अनेक दोष रात्रि भोजन में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। रात्रि का भोजन अन्धों का भोजन है। एक-दो नहीं, हजारों ही दुर्घटनाएं देश में रात्रि भोजन के कारण होती है। सैकड़ों लोग अपने जीवन तक से हाथ धो बैठते हैं।
अमृत-कण
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