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अतः रात्रि-भोजन सब प्रकार से त्याज्य है। जैन धर्म में तो इसका बहुत ही प्रबल निषेध किया गया है । अन्य धर्मों में भी इसे आदर की दृष्टि से नहीं देखा गया । कूर्म पुराण आदि वैदिक पुराणों में भी रात्रि-भोजन का निषेध है। आज के युग के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष महात्मा गांधी भी रात्रि-भोजन को अच्छा नहीं समझते थे। लगभग ४० वर्ष की आयु से जीवन पर्यन्त रात्रिभोजन के त्याग के व्रत को गांधी जी बड़ी दृढ़ता से पालन करते रहे। यूरोप में गये तब भी उन्होंने रात्रि-भोजन नहीं किया। अतः प्रत्येक जैन का कर्तव्य है कि वह रात्रि-भोजन का त्याग करे, न रात्रि में भोजन बनाए और न खाए । दैनिक नियम
संसार के प्रायः समस्त प्राणी इन्द्रियों के दास बने हुए हैं। जो उद्योगपति अपने आपको अपनी मिल के हजारों मजदूरों का स्वामी समझते हैं और जो पूंजीपति अपने आपको यह मानते हैं कि मैं किसी का चाकर नहीं हूं, अपनी इच्छा का स्वतन्त्र सर्वतन्त्र स्वामी हूं, एवं जो सर्वोच्च राज-अधिकारी (वे चाहे सम्राट हों या राष्ट्रपति हों) अपने आपको सब का संचालक नेता मानते हैं वास्तव में देखा जाए तो उन सब की मान्यता असत्य है क्योंकि वे भी एक दरिद्र मजदूर की तरह स्वतन्त्र नहीं हैं। उन्हें भी अपनी इन्द्रियों की गुलामी करनी पड़ती है। इन्द्रियों की प्रेरणा जैसी उनको मिलती है, उनको उसी तरह कार्य करना पड़ता है।
__ घोड़े से सम्पर्क रखने वाले मनुष्य संसार में दो प्रकार के होते हैं-१-रईस, २-सईस । सईस तो घोड़े की सेवा में लगा रहता है, घोड़े को घास खिलाता है, पानी पिलाता है, उसकी मालिश करता है, उसे स्नान कराता है, उसकी लीद उठा कर साफ करता है, घोड़े का स्वामी जब कहता है तब घोड़े पर जीन कस देता है, इत्यादि घोड़े के सभी सेवा कार्य वह करता है। परन्तु उस पर सवारी करने का अधिकार उसको नहीं होता । वह कभी घोड़े पर सवारी नहीं करता। घोड़े पर सवारी का सौभाग्य रईस को होता है। वह कभी घोड़े की सेवा नहीं करता किन्तु अपनी इच्छानुसार उस पर सवार होकर उसको चलाता है ।
इसी तरह जो स्त्री-पुरुष इन्द्रियों के दास होते हैं उन्हें अपना जीवन इन्द्रियों की सेवा व गुलामी में बिताना पड़ता है। वे अपने आत्मकल्याण के लिये अपनी इच्छानुसार उन इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं रख सकते। उन्हें इच्छा पूर्ण करने के लिये इन्द्रियों के संकेत पर चलना पड़ता है। परन्तु, व्रती त्यागी पुरुष इन्द्रियों पर नियन्त्रण करके उन पर शासन करते हैं । इन्द्रियां उनकी दासी बनी रहती हैं। उनके व्रत, तप, संयम में बाधा नहीं करतीं, सहायक बनी रहती हैं। यदि व्रती त्यागी मुनि भी इन्द्रियों के दास बने रहते तो वे न तो महान् उपसर्ग और परीषहों पर विजय प्राप्त कर पाते और न अनादिकालीन कर्म-बन्धन को छिन्न-भिन्न करके संसार से मुक्त हो पाते।
अतः प्रत्येक स्त्री-पुरुष का कर्तव्य है कि वह आत्म-शुद्धि के लिए इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करे । कदाचित् गृहस्थाश्रम की बेड़ो तोड़ कर वह स्वतन्त्र मुनि-जीवन में नहीं आ सकता तो उसे इन्द्रियों पर आंशिक विजय प्राप्त करने का अभ्यास अवश्य करना चाहिये । उस अभ्यास के लिये जिनवाणी में हमारे पूर्वाचार्यों ने कुछ नियमों का निर्देश किया है। समस्त विषयों के प्रसिद्ध उद्भट विद्वान् आचार्य समन्तभद्र ने 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' में लिखा है
भोजनवाहनशयनस्नानपवित्राङ्गरागकुसुमेषु । ताम्बूलवसनभूषणमन्मथसङ्गीतगीतेषु ॥ ८ ॥ अद्य दिवा रजनी वा पक्षोमासस्तथतुरयनं वा ।
इति कालपरिच्छित्याप्रत्याख्यानं भवेनियमः ।। ८६ ॥ आज, दिन, रात, सप्ताह (सात दिन), पक्ष (१५ दिन), मास, ऋतु (दो महीना या ४ महीना), अयन (६ महीना), वर्ष आदि समय की मर्यादा रख कर भोजन-पान, वाहन(सवारी), शयन (सोना), स्नान, लेप,फूल, ताम्बूल, वस्त्र, आभूषण, कामसेवन, गायन, वादन का नियम करके शेष विषयों का त्याग करना चाहिये । जैसे
१. आज मैं इतनी बार भोजन करूंगा। इतने से अधिक बार न खाऊंगा । भोजन में अमुक-अमुक रस (घी, तेल, दूध, दही, खांड, नमक ये छह रस हैं) ग्रहण करूंगा। अमुक-अमुक व्यञ्जन (मिठाई आदि) खाऊंगा। अमुक-अमुक खाद्य (रोटी, परांवठा, पूड़ी, भात, दाल, शाक आदि) भोजन में लूंगा, और कुछ नहीं लूंगा।
१. “गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएं आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से न चिगना परीषह-जय है।"
-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग ३-क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, पृ० ३६
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रंथ
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