________________
अहिंसा
जैन संस्कृति की संसार को जो सबसे बड़ी देन है, वह अहिंसा है । अहिंसा का यह महान् विचार, जो आज विश्व की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और जिसकी अमोघ शक्ति के सम्मुख संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं, एक दिन जैन संस्कृति के महान् उन्नायकों द्वारा ही हिंसा -काण्ड में लगे हुए संसार के सामने रक्खा गया था ।
जैन संस्कृति का महान् सन्देश है कि कोई भी मनुष्य समाज से सर्वथा पृथक् रह कर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता। समाज में घुल-मिल कर ही वह अपने जीवन का आनन्द उठा सकता है। जब यह निश्चित है कि व्यक्ति समाज से अलग नहीं रह सकता, तब यह आवश्यक है कि वह अपने हृदय को उदार बनाए, विशाल बनाए और जिन लोगों से खुद को काम लेना है या जिनको देना है, उनके हृदय में अपनी ओर से पूर्ण विश्वास पैदा करे। जब तक मनुष्य समाज में अपनेपन का मान न पैदा करेगा, अर्थात् दूसरे उसको अपना आदमी नहीं समझेंगे और वह भी दूसरों को अपना आदमी न समझेगा तब तक समाज का कल्याण नहीं हो सकता । एक -बार नहीं हजार बार कहा जा सकता है कि नहीं हो सकता, एक दूसरे का आपस में अविश्वास ही तबाही का कारण बना हुआ है । संसार में जो चारों ओर दुःखों का हाहाकार है, प्रकृति की ओर से मिलने वाला वह तो मामूली-सा ही है । यदि अधिक अन्तर्निरीक्षण किया जाय तो प्रकृति दुःख की अपेक्षा हमारे सुख में ही अधिक सहायक है । वास्तव : मनुष्य के द्वारा ही लाया हुआ है । यदि हर एक व्यक्ति अपनी ओर से दूसरों पर किए जाने वाले ही नरक से स्वर्ग में बदल सकता है ।
जैन संस्कृति के महान् संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है। उनका आदर्श है कि प्रचार के द्वारा विश्व भर में प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह स्व में ही सन्तुष्ट रहे, पर की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे। पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है कि दूसरों के सुख-साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना। जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं । ज्योंही वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य आ खड़ा होता है । यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सब मनुष्य अपने स्व में ही प्रवाहित रहते हैं तब तक कहीं भी अशान्ति और संघर्ष का वातावरण पैदा नहीं होता । जहाँ मनुष्य स्व से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है, दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है, वहां संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष और कलह पनपने लगते हैं ।
में जो कुछ भी ऊपर का दुःख है, वह दुःखों को हटा ले तो यह संसार आज
प्राचीन जैन साहित्य उठाकर आप देख सकते हैं कि भगवान् महावीर ने इस दिशा में बड़े स्तुत्य प्रयत्न किये हैं । वे अपने प्रत्येक गृहस्थ शिष्य को पांचवें अपरिग्रह व्रत की मर्यादा सर्वदा स्व में ही सीमित रहने की शिक्षा देते हैं । व्यापार, उद्योग आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने अनुवादियों को प्राप्त अधिकारों में कभी भी आगे नहीं बढ़ने दिया प्राप्त अधिकारों से आगे बढ़ने का अर्थ है, अपने दूसरे साथियों के साथ संघर्ष में उतरना । जैन संस्कृति का अमर आदर्श है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी उचित आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही उचित साधनों का सहारा लेकर प्रयत्न करे । आवश्यकता से अधिक किसी भी सुख-सामग्री का संग्रह करना जैन संस्कृति में चोरी है । • व्यक्ति, समाज, राष्ट्र क्यों लड़ते हैं ? इसी अनुचित संग्रह वृत्ति के कारण ! दूसरों के जीवन की जीवन के सुख-साधनों की उपेक्षा करके • मनुष्य कभी भी सुख-शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । अहिंसा के बीज अपरिग्रह वृत्ति में ही ढूंढे जा सकते हैं। एक अपेक्षा से कहें तो अहिंसा और अपरिग्रह वृत्ति दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
1
आत्मरक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन जुटाना जैनधर्म के विरुद्ध नहीं है । परन्तु आवश्यकता से अधिक संगृहीत शक्ति - अवश्य ही संहारलीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुख बनावेगी । अतएव आप आश्चर्य न करें कि पिछले वर्षों में जो शस्त्रसंन्यास का आन्दोलन चला था, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्ध सामग्री रखने को कहा जा रहा था, यह जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो काम कानून के द्वारा, पारस्परिक विधान के द्वारा लिया जाता है उन दिनों वह उपदेशों के द्वारा लिया जाता था । भगवान् महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैनधर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम दिया गया था कि राष्ट्र रक्षा के काम में आने • वाले शस्त्रों से अधिक शस्त्र संग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उद्दण्ड बना देता है, प्रभुता की लालसा में आकर वह कहीं किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव संसार में युद्ध की आग भड़का देगा । इस दृष्टि से जैन तीर्थंकर हिंसा के मूल कारणों को उखाड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
૪૭
www.jainelibrary.org