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जैन तीर्थकरों ने कभी भी युद्धों का समर्थन नहीं किया। जहां अन्य अनेक धर्माचार्य साम्राज्यवादी राजाओं के हाथों की कठपुतली बनकर राजा को परमेश्वर का अंश बताकर उसके लिए सब कुछ अर्पण कर देने का प्रचार करते आए हैं, वहाँ जैन तीर्थंकर इस सम्बन्ध में काफ़ी कट्टर रहे हैं । यदि थोड़ा-सा कष्ट उठाकर जैन साहित्य देखने का प्रयत्न करेंगे तो बहुत-कुछ युद्ध-विरोधी विचारसामग्री प्राप्त कर सकेंगे। आप जानते हैं, मगधाधिपति अजातशत्र कुणिक भगवान महावीर का कितना अधिक उत्कट भक्त था। प्रतिदिन भगवान् के कुशल-समाचार जानकर फिर अन्न-जल ग्रहण करना कितना उग्र नियम था। परन्तु वैशाली पर कुणिक द्वारा होने वाले आक्रमण का भगवान् ने जरा भी समर्थन नहीं किया । अजातशत्र इस पर रुष्ट भी हो जाता है, किन्तु भगवान् महावीर इस बात की कुछ भी परवाह नहीं करते । भला पूर्ण अहिंसा के अवतार रोमांचकारी नर-संहार का कैसे समर्थन कर सकते थे?
जैन तीर्थंकरों की अहिंसा का भाव आज की मान्यता के अनुसार निष्क्रियता रूप भी न था। वे अहिंसा का अर्थ प्रेम, परोपकार, विश्वबन्धुत्व करते थे । स्वयं आनन्द से जीओ और दूसरों को जीने दो, जैन तीर्थंकरों का आदर्श यहीं तक सीमित न था। उनका आदर्श था-दूसरों को जीने में मदद करो बल्कि अवसर आने पर दूसरों के जीवन की रक्षा के लिए अपने जीवन की आहुति भी दे डालो । वे उस जीवन को कोई महत्त्व नहीं देते थे जो जन-सेवा के मार्ग से सर्वथा दूर रह कर एक मात्र अर्थशून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझा रहता हो । महावीर का यह महान् ज्योतिर्मय सन्देश आज हमारी आंखों के सामने है।
अहिंसा के अग्रगण्य सन्देश-वाहक भगवान् महावीर हैं। आज तक उन्हीं के शिष्यों का गौरव-गान गाया जा रहा है। आपको मालूम है, आज से ढाई हजार वर्ष पहले का समय भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक महान् अन्धकारपूर्ण युग माना जाता है। देवी-देवताओं के आगे पशुबलि के नाम पर रक्त की नदियां बहाई जाती थीं, मांसाहार और सुरा-पान का दौर चलता था, स्त्रियों को भी मनुष्योचित अधिकारों से वंचित कर दिया गया था। एक क्या, अनेक रूपों में सब ओर हिंसा का विशाल साम्राज्य छाया हुआ था। भगवान् महावीर ने उस समय अहिंसा का अमृतमय सन्देश दिया जिससे भारत की काया पलट गई। मनुष्य राक्षसी भावों से हट कर मनुष्यता की सीमा में प्रविष्ट हुआ । क्या मनुष्य, क्या पशु सबके प्रति उसके हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा। अहिंसा के सन्देश ने सारे मानवीय सुधारों के महल खड़े कर दिए । दुर्भाग्य से आज वे महल फिर गिर रहे हैं । जल, थल, आकाश अभी-अभी खून से रंगे जा चुके हैं और भविष्य में इससे भी भयंकर रंगने की तैयारियां हो रही हैं। तीसरे महायुद्ध का दुःस्वप्न अभी देखना बन्द नहीं हुआ। परमाणु बम के आविष्कार की सब देशों में होड़ लग रही है । सब ओर दुर्भाव चक्कर काट रहे हैं । अस्तु, आवश्यकता है आज फिर जैन संस्कृति के, जैन तीर्थंकरों के, भगवान् महावीर के, जैनाचार्यों के 'अहिंसा परमो धर्मः' की । मानव जाति के स्थायी सुखों के स्वप्नों को एकमात्र अहिंसा ही पूर्ण कर सकती है -
'अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम्'
-समन्तभद्र सत्य धर्म
प्रामाणिक हितकारक सद् वचन बोलना 'सत्य' है। असत्य भाषण के त्याग से सत्य वचन प्रगट होता है।
मनुष्य अनेक कारणों से असत्य बोला करता है। उनमें से झूठ बोलने का एक प्रधान कारण तो लोभ है। लोभ में आकर मनुष्य अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये असत्य बोला करता है।
असत्य भाषण करने का दूसरा कारण भय है। मनुष्य को सत्य बोलने से जब अपने ऊपर कोई आपत्ति आती हुई दिखाई देती है, अथवा अपनी कोई हानि होती दीखती है, उस समय वह डरकर झूठ बोल देता है। झूठ बोलकर वह उस विपत्ति या हानि से बचने का प्रयत्न करता है।
असत्य बोलने का तीसरा कारण मनोरंजन भी है। बहुत-से मनुष्य हँसी मजाक में कौतूहल के लिये भी झूठ बोल देते हैं । व्यक्ति को भ्रम में डालकर या हैरान करके अथवा किसी को भय उत्पन्न कराने के लिये या दूसरे को व्याकुल करने के लिये झूठ बोल देते हैं। इसी में उनका मनोरंजन होता है।
इसके सिवाय कुछ झूठ अज्ञानता के कारण भी बोला जाता है । जिस बात को मनुष्य न जानता हो उस विषय में चुप रह जाना तो अच्छा है, परन्तु अपना महत्त्व (बड़प्पन) या सम्मान रखने के विचार से, न जानते हुए भी उस बात को कुछ-का-कुछ बतला देना तो हानिकारक है।
इसके अतिरिक्त क्रोध में आकर मनुष्य ऐसे कुवचन, गाली-गलौज मुख से निकाल बैठता है जिनको सुनकर जनता में क्षोभ फैल जाता है; निर्बल मनुष्य का हृदय तड़प उठता है ; बलवान मनुष्य को वैसे दुर्वचन सुनकर क्रोध उत्पन्न हो जाता है जिससे कि बहुत भारी दंगाफसाद हो जाता है, मारपीट हो जाती है, यहाँ तक कि मरने-मारने की भी तैयारी हो जाती है ।
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आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्या
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