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५. झूठी साक्षी (गवाही) देना। ६. क्रोध करना, मारना, पीटना आदि । ७. असत्य भाषण, धोखा देना, विश्वासघात करना । ८. अन्य व्यक्ति के अधिकार को छीनना। १. अन्य का अहित यानी जानबूझ कर दूसरे का बुरा करना।
इन नौ बातों का तथा इनसे मिलती-जुलती अन्य बातों के न करने का भी नियम करते रहना चाहिये जिससे कि मन की शुद्धि होती रहे, व्यर्थ में पापबन्ध न होने पाए, और सद्गुणों का अभ्यास होता जाए।
निम्नलिखित बातों का यम रूप से (जन्म भर के लिये) त्याग करना चाहिये---
१. परस्त्री शरीर स्पर्श का त्याग, अपनी विवाहित स्त्री के सिवाय अन्य समस्त स्त्रियों के शरीर को छूने का त्याग। इसमें अपनी माता, दादी, नानी आदि बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों तथा ७-८ वर्ष तक की बच्चियों को छूने की छूट है।
स्रियों की अपेक्षा से 'पर पुरुष स्पर्श त्याग' है यानी अपने पति के सिवाय अन्य पुरुष के शरीर को छूने का त्याग । इसमें पिता, बाबा, नाना आदि बड़े-बूढ़े पुरुषों तथा ५-६ वर्ष तक के बच्चों तथा छोटी अवस्था के पुत्र-पौत्र आदि को छूने की छूट है।
२. भंग, चरस, तम्बाखु , सिगरेट, बीड़ी, गांजा, अफीम आदि नशीली वस्तुओं का त्याग । ३. चूत का त्याग-जुआ खेलना, सट्टा-फाटका के व्यापार का त्याग करना ।
४. अभक्ष्य-भक्षण त्याग- शराब, मांस, शहद सर्वथा त्याग करना चाहिये तथा प्याज, लहसुन का भक्षण भी न करना चाहिये। अन्य कन्द-मूल आदि पदार्थों के त्याग का प्रयत्न करना चाहिये । विवाह का भोजन, प्रीतिभोज, धर्म-उत्सवों के जीमनवार, पंचायती जीमनवार आदि सामूहिक भोजन में आलू, गोभी, गाजर आदि कन्दमूल का शाक न बनाना चाहिये।
५. रात्रि-भोजन त्याग-जहां तक हो सके रात्रि में सब तरह के भोजन-पान करने का त्याग करना श्रेष्ठ है। यदि इतना न हो सके तो औषधि आदि के रूप में जल पीना रख लेवे, इतना भी न निभ सके तो जल और दूध की छूट ले लेवे। इतने से भी निर्वाह न होता दीखे तो आवश्यकता के समय फल-मेवा आदि के सिवाय कुछ न ले। रात्रि में अन्न के बने हुए भोजन का त्याग तो प्रत्येक जैन स्त्री-पुरुष को अवश्य करना चाहिये । रात्रि के समय जीमनवार करना सर्वथा त्याज्य है।
६. चर्म का त्याग-उत्तम तो यही है कि प्रत्येक तरह के चमड़े के बने जूते पहनने का त्याग करके या तो नंगे पैर रहा जाए अथवा कपड़े, रबड़ के बने हुए जूतों का उपयोग हो । कदाचित् कोई इतना भी त्याग न कर सके तो जो कसाई लोग जीवित गाय, बछडे आदि जानवरों को बड़ी वेदना देकर उनके शरीर से चमड़ा उतारते हैं अथवा गाय, भेड़, बकरी आदि के बच्चों को दवा खिलाकर गर्भ में से निकाल कर उन बच्चों के शरीर से जो चमड़ा उतारा जाता है उस काफलैदर, क्रोम लैदर, चमकीले, चटकीले हिरन, बाघ आदि के चमड़ों से बने हुए जूतों के पहनने का त्याग अवश्य कर देना चाहिये।
७. चर्म वस्त का त्याग-जते के सिवाय अन्य सब चमडे की वस्तुओं (कमर पेटी, हैण्डबैग आदि) के व्यवहार का त्याग कर देना चाहिये, जिससे पशु-हिंसा के पाप से बचा जा सके। इसमें रेल, मोटर, जहाज आदि की सीटों पर लगे हुए चमड़े पर बैठने की छूट दी जा सकती है।
धार्मिक जैन को ऊपर लिखे ७ प्रकार के त्याग को अवश्य क्रियात्मक रूप देना चाहिये, जिससे अनेक पाप-बन्ध और निन्दनीय कामों से बचाव हो सके।
प्रतिज्ञापूर्वक थोड़ा-सा त्याग भी आत्मा के उत्थान में बहुत-कुछ सहायक हो जाता है । इसके लिये एक प्राचीन प्रसिद्ध घटना अच्छा उदाहरण रखती है ।
एक बार एक मुनिराज का प्रभावशाली उपदेश सुनकर उपस्थित स्त्री पुरुषों ने अनेक प्रकार के व्रत-नियम लिये । सबसे अंत में एक भील भी मुनि महाराज के पास आया और उसने भी कोई व्रत लेने की इच्छा प्रकट की । मुनि महाराज ने कहा कि भाई ! तू शिकार खेलना छोड़ दे। भील ने कहा कि महाराज जंगल में रहकर परिवार का पालन-पोषण किस तरह करूंगा? तब मुनि श्री ने कहा तो अच्छा तू मांस खाना छोड़ दे। भील ने उत्तर दिया कि यह भी नहीं कर सकता । तब मुनि बोले किसी जीव का मांस खाना तो छोड़ दे। भील ने सोच-विचार कर कहा कि महाराज ! कौए का मांस छोड़ सकता हूं। मुनि महाराज ने उसको धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देते हुए कहा कि अच्छा कौए का मांस खाना ही छोड़ दे। भील ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
एक बार भील बहुत बीमार पड़ गया। तब एक वैद्य ने भील को कौए का मांस खाना बतलाया। भील अपने त्याग पर दृढ़ रहा । उसने कौए का मांस खाना स्वीकार न किया। वैद्य की सम्मति में उसके रोग की और औषधि न थी। भील ने मुनि से ली हुई प्रतिज्ञा का पालन किया और शान्ति तथा सन्तोष के साथ प्राण त्याग किया। वह मर कर एक यक्षदेव हुआ।
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनम्बन अन्य
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