________________
यत्न करो। इतना भी न हो सके तो अपने मन में तो उनके लिये सहानुभूति रक्खो। तन-मन-धन यदि दीन-दुःखियों की सेवा में लग जाए तो इससे अधिक और अच्छा इनका उपयोग क्या होगा? साधु सेवा
जगत् में सदाचार फैलाने वाले तथा स्वयं सच्चरित्र मुनि तपस्वियों व्रतियों महात्माओं की सेवा करने से अपने हृदय में उनके सद्गुण अनायास आ जाते हैं, ज्ञान का विकास होता है, सदाचार स्वयं प्रगट होता है, धर्म में श्रद्धा होती है, दुर्विचार दूर हो जाते हैं। इस कारण मुनि, व्रती, त्यागी महात्माओं की सेवा करने में कभी प्रमाद न करो।
अपने माता-पिता, पुत्र-पुत्री, बहिन-भाई आदि की उनके योग्य सेवा करो। जो पुरुष अपने परिवार के साथ अपना उचित कर्तव्य-पालन नहीं कर सकता वह अपने समाज, देश, जाति की सेवा भी नहीं कर सकता। परिवार का कोई भी व्यक्ति दुःखी न हो, तथा कोई भी कुमा पर न लगे, सभी प्रसन्न, कर्तव्यपरायण और सन्मार्ग पर चलें-ऐसा यत्न करना चाहिये।
सेवा करके उसका बदला चाहने वाले व्यक्ति तो नौकर हुआ करते हैं। जिन व्यक्तियों के हृदय में उपकार करने की भावना होती है, वे कभी अपनी सेवा का फल नहीं चाहते, निष्काम सेवा करते हैं । परन्तु बिना चाहे भी उनको फल अवश्य मिलता है और उससे अधिक मिलता है जितना कि वे चाहते हैं । निष्काम सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती।
दान
संसारी जीव को चार रोग अनादि से लगे हुए हैं-१. जन्म, २. मरण, ३. भूख, ४. प्यास । इनमें से जन्म-मरण की चिकित्सा तो संसार-भ्रमण के कारण कर्मबन्धन को नष्ट करना है । कर्मबन्धन का नाश आत्म-श्रद्धा, आत्मज्ञान तथा तपश्चर्या से होता है। किन्तु ये तीनों बातें प्रत्येक प्राणी को प्राप्त होना सरल नहीं है । अतः जन्म-मरण की परम्परा समाप्त करना भी हर एक प्राणी का काम नहीं। हां, भूख-प्यास की चिकित्सा (इलाज) प्रत्येक जीव किया करता है। पहले भोगयुग में मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को अपनी भूख-प्यास मिटाने के लिये कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता था। उनको भूख-प्यास दूर करने की सामग्री कल्पवृक्षों से मिल जाया करती थी। किन्तु जब कर्मयुग आया तब वह सामग्री कल्पवृक्षों से मिलनी बन्द हो गई। उस समय मनुष्यों को परिश्रम करके भोजन-पानी प्राप्त करने की विधि सीखनी पड़ी।
___ सबसे प्रथम खेती आदि करने की विधि भगवान् ऋषभनाथ ने सिखलाई थी। इसी कारण उन्हें 'आदि ब्रह्मा' कहते हैं। तत्काल उत्पन्न हुए बच्चे को भी भूख-प्यास लगती है और उसको मिटाने के लिये वह बिना सिखाये पूर्व भव के संस्कार से अपनी माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है खाने-पीने की दूसरी विधियाँ भी सीखता जाता है। देवों को जैसे ही भूख लगती है वैसे ही उनके गले से स्वयं अमृत झरने लगता है और उनकी भूख शान्त हो जाती है। इस तरह भूख-प्यास मिटाने का इलाज सब किसी को करना पड़ता है।
किन्तु कर्मभूमि में प्यास मिटाने के लिये पानी तो पृथ्वी के नीचे से कुओं द्वारा, पृथ्वी के ऊपर नदियों, झीलों द्वारा तथा आकाश से जल-वर्षा द्वारा सरलता से मिल जाता है। अतः उसके लिए मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों को विशेष परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती और न उसके अधिक इकट्ठा करने की आवश्यकता दीखती है। परन्तु भोजन की सामग्री इतनी सरलता से प्रकृति से नहीं मिल पाती, अतः उसके लिये खेती-बाड़ी आदि कठोर परिश्रम करने का सहारा लेना पड़ता है। किसान खेती करके इतना अन्न उत्पादन करता है कि अपने परिवार के अतिरिक्त अन्य बहुत-से परिवारों को भूख शान्त करने के लिये अन्न दे सकता है। अतः वह अपने लिये आवश्यक अन्न-वस्त्र, बर्तन आदि पदार्थों के बदले में अपना अन्न दूसरों को दे देता है। इस तरह भूख मिटाने के लिये प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी तरह का परिश्रम अवश्य करना पड़ता है।
परिश्रम करते हुए मनुष्य कभी बीमार भी हो जाता है। उस दशा में वह भोजन प्राप्त करने के लिये परिश्रम नहीं कर पाता। ऐसे अवसर के लिये मनुष्य को कुछ भोजन-सामग्री अपने पास एकत्रित रखने की आवश्यकता अनुभव होती है। अतः वह अपने कठिन समय के लिये कुछ न कुछ इकट्ठा भी करता जाता है। इसी संचय-वृत्ति (इकट्ठा करने) की भाग-दौड़ में जो दूसरों से आगे बढ़ जाते हैं वे धनवान् भाग्यवान् कहे जाते हैं। उनके पास पदार्थों का संचय दूसरों की अपेक्षा अधिक होता है और जो पदार्थ-संचय की दौड़ में पीछे रह जाते हैं उनके पास पदार्थों का संचय थोड़ा हो पाता है या सर्वथा नहीं हो पाता, अत: वे निर्धन, गरीब, दरिद्र कहलाते हैं।
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org