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CRETESS-8-SEASESRO
कविराजश्रीशुभकर्णयतिना विरचिता. दादाजी श्री १००८ श्री रत्नप्रभसूरि आदि गुरुवरोंकी बृहत्पूजा और
लघुपूजा. EGARDS
मगटकर्ता. फलौधि नगरवास्तव्य शेठ चान्दमल्लजी बेद का सुपुत्र शेठ जोगराजजी बेद.
गहना
PRESIDEREDGESSESSESGRLS0
सदर बजार सिरोही प्रत सं०
संशोधक, पण्डित त्रिभुवनदास अमरचन्द सलोत
पालीताना.
यंत्रणे आनन्दमुद्रणालये लल्लुभ्रात्रात्मज-गुलाबचन्द्रद्वारा मुद्रायित्वा
प्रकाशितम्
वीरसंवत् २४४१ विक्रमसंवत् १९७२
मूल्य दो आना.
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प्रस्तावना.
उ अह. ॥ अहो भव्यजीवो ? सम्पूर्ण सृष्टि प्रवाहके चलाने वाले उसका हुंड्रा अवसर्पिणीकालमें देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग अर्हन् ऋषभदेव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुवे। जिनाने पुरुषोंकी बहुत्तर कला, स्त्रीयोंका चौसठ क्ला, शतशिल्पकार, अढारह लिपियां रचै । च्यारवर्ण स्थापित कोये।
और चौदह पूर्व द्वादशांगी वाणीकों गुथने वाले इन्हाके पुण्डरिकजी प्रथमगणधर हुए । इन्हीको आज्ञासें भरत चक्रवर्ती वैक्रीय लब्धिसें चार मुखवाला चार वेदोंका उच्चारण करता हुवा। और इन्हीके बंशमें तिर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, वलदेव आदि बड़े बडे पुरुष हुए। और इन्हीके वंशमें तेइस वें तिर्थकर पार्श्वनाथ स्वामी १ तिनके प्रथम गणघर शुभदत्तजी हुवै २ तिनके पाटपे हरदत्तनी हुवै ३ तिनके पाटपे आर्य समुद्रजो हुवै ४ तिनके पाटपे केसीगणधर परदेसो रासतानिक राजाको आदि ले केइ राजाओं को प्रतिबोध देणे वाले और चोइस वे तिथैकर महावीर स्वामी तिनके प्रथम गणधर गौतम स्वामोके साथ अधिकार उत्तराध्ययन २३ मे अध्यनमें है। तथा रायपसेगी सूत्रमें हैं । तिनके पाटपे स्वयंप्रभ मूरि हुवै, जिनोनें श्री श्रीमाल और पोरवाड श्रावक कीये । तिनके पाटपे दादा साहब युगप्रधान भट्टारक रत्नप्रभसूरि जातके विद्याधर हुवै, जिनाने ओएस्यां नगरीमें आयके उहडदेव मंत्री का पुत्र जीवायकर उपलदेव राजाकों प्रतिबोध दे, जैनधर्म स्थापित करके और ओसवाल किये । अठारह गोत्र स्थापे, तिनके नाम ये है-श्रेष्ठ गोत्र वेद-मूंथा १ तातेड २ बाफमा ३ 'मोराक्ष .
करणां ४ सांखला ५ कर्गावट ६ वलहमोत्र तया एका बांके रासेठोया ७ कुलहदगोत्र-विरहदगोत्र ८ श्री श्रोमालगोत्र ९ सुचंति-अप
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भ्रंश सदासचेति १० चोरडीया ११ भूरिगोत्र १२ भाद्रगोत्र १३ चींचटगोत्र १४ कुंभटमोत्र १५ कनोजगोत्र १६ डीडुगोत्र सांप्रते कोचर १७ लघुश्रेष्ठिगोत्र १८ ये है । इनमें से सर्व शाखा फुटी है, ये निश्चय बात है। इसका सारांश कमलागच्छकी बृहत् पटावलीमें है सो देख लेना । इनके पाटपे यक्षदेवसरि, उपकेश गच्छके धरने वाले यक्षराज मानभद्रको प्रतिबोध देने वाले हुवै । इनके पाटपे कितने ही अनेक आचार्य युगप्रधान लब्धिसंपन्न विद्यासंपन्न हुवे है। और जिनकी महिमा संपूर्ण भूमन्डल जानता है । और अमेरिकाके चिकागो सेहरमें ६०० विद्वानो अनेक मतके इकठे हुए, जिनों ने जैनमतकी प्राचीनता आजकलके चालु मतोंसे श्रेष्ठ बताइ है। और यूरोपियन विद्वान डाँक्टर मेक्षमूलर साहेबनें आपने बनाये हुवै धर्म परीक्षाके संस्कृत साहित्यमें जैनधर्मकी बडी भारो तारीफ लिखी है । और कहता है जैनधर्म बडा प्राचीन मत है । जैन शब्द “ जि" जये-धातुसे बनता है और यह जैन धर्म पृथ्वी पर रत्नके समान है। इस्के सेवन करने से प्राणी भवसमुद्रमें शीघ्र ही पार हो जाता है । अतः
हे भव्यजीवो मोक्षमार्गको देनेवाले तथा बतानेवाले ऐसे सद्गुरु महाराज उवकेशगच्छिया रत्नप्रभसुरिजि महाराजको शुद्धदिले पांचो हि पदधरो के चरणकमलोकों द्रव्य भावसे पूजन करके अपना जन्म सफल करो । युग प्रधानोके गुण जैसा ग्रन्थोमें लिखा है वैसा लिखते है। दुःख और कष्टको दूर करे । लक्ष्मी वा पुत्रादि कामना पूरण कर । विद्यासिद्धि, देवसिद्धि वचनसिद्धि और पचाचार पालनेवाले ऐसे युगप्रधान दो हज्जार च्यार पूर्वोक्त कुलमें होणा है । एसा वीरप्रभु कह गए है । जो प्रतिबोधके श्रावकधर्म बढाव इत्यलम्..
वांचनेवाले विद्वानोसें तथा श्रावकोंसे निवेदन है कि जो कोई भो दृष्टि दोष रहा हो-उसे क्षमा करें, और सुधार लेवें।।
आपका शुभचिंतक उपकेश गच्छिया शुभकर्ण यति । समाप्त ।। स्थान लश्कर. गवालियर. सराफा ॥
संवत् १९७२ द्वितीय वैशाख अक्षय तृतीया॥
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श्रीजिनाय नमः दादाजी श्रीरत्नप्रभसूरिआदि गुरुवरोंकी अष्टप्रकारी पूजा,
•GDM विधि-प्रथमस्नात्रीया श्रीफल-नाणा यथाशक्ति हाथमें लेके खडा रहै । फिर गुरु आह्वानके श्लोक पढके स्थापना सुन्दर पट्टेपर करावे । श्लोक-रत्नप्रभान् सूरिगुरून् निधाय
सुरत्नपीठे कनकोज्ज्वलाभान् । प्रबोधपुष्टान् तपसा वरिष्ठान् गुणैर्गरिष्ठान् विमलान् नमामि ॥१॥ समस्तगुणमण्डितान् परमसत्तपस्कान्मुनीन् शमोपरतिनिष्ठया परमपूज्यपादाम्बुजान् । प्रदर्शितनिजप्रभावगतिकार्यसंसाधकान् हृदब्जकमले तथा रुचिरपीठके स्थापये ॥२॥
ॐ ह्री श्री श्रीजिनरत्नप्रभसूरि-श्रीजिनयक्षदेव सूरि-श्रीजिनसिद्धसूरि-श्रीजिनकक्कसूरि-श्रीजिन
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देवगुप्तसूरिगुरो ! अत्र अवतर अवतर स्वाहा ॥ १ ॥ ँ ह्रीं श्रीं श्रीजिनरत्प्रभसूरिगुरो ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ठः स्वाहा इति प्रतिष्ठापनम् ॥ २ ॥
ँ v
ॐ ह्रीं श्रीं श्रीजिनरत्नप्रभसूरिगुरो ! अत्र मम संनिहिंतो भव वषट् ! इति समिहितकरणम् ॥ ३ ॥
अथ स्तवनाप्रारम्भः
अब कलश लेके स्नात्रीया खडा होवे - दुहा - अर्हन सिद्ध सूरीश्वरा, पाठकमुनिगुणवंत । ए सेवे किल विष टर्ले, भाजे कुमति कुपन्थ ॥१॥ श्रीजिनप । सजिनन्द, शोभित छठे पाट । रत्नसूरि पद सेवतां होय सुचंगा ठाट ॥२॥ दस- चतुर-पुरव श्रुतिधरा, रत्नसूरि भये स्वाम । भूमणि दिनकर तुल्यसम, अमर रटे गुणग्राम ॥३॥ पद्मा अम्बा-सिद्धादिका, बहुदेवीं सुर साथ। पूजे स्वयंप्रभसूरि पद, करजोरे घर माथ ॥४॥ श्रीश्रीमाल स्वयंप्रभु-कीने अरु पोरवाड । चरम जिनेसर आंतरे- पहोंच्या स्वर्ग मजार ||५ ॥ त्रयलख श्रावक एकसम-चोराशी हजार । रत्नप्रभसूरिकिये, मिथ्याताप विडार ॥ ६ ॥
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गोत्र अठारे स्थापकर, विचरे महीयल सूर। इनमें सें शाखा चली, अनगिनती भरपूर ॥७॥ दूःख दोहग दूरि किया, पूरि भविजन आस। ऐसे सत्गुरु प्रणमतां, पावै लीलविलास. ॥ ८॥ तिनके पाट कलानिधि, यक्षसूरि भये स्वाम । प्रतिबोधे श्रावकबहुत, पाम्या सुख अभिराम ॥९॥ सिद्धसूरि सिद्धसम भये, तीजै पाट विशाल । शास्त्र रचे बहु अर्थरस, वाणी अमिय रसाल ॥१०॥ ककसूरि तिन पाटपे, कारज सारे अनेक । कुमति कुपन्थ हटायके, कीना जैन विवेक ॥११॥ देवगुप्ति भये देवसम, देव्यां पूजे पाय । पूजे भविजन भावसें, पातिक दूर पलाय ॥१२॥ ये गुरु नामें ओलखे, ये गुरु सेवै पाय । ये गुरु पूजै भावसें, दुःख-अरि दूर पलाय ॥१३॥ गंधोदक जल शुद्धसें, जो पूजे गुरुराय । मोह मदादिक दूरहो, पावै लच्छी अथाह ॥१४॥ अथ प्रथमजलपूजाप्रारम्भः
ढाल-पहली. श्रीसिद्धचक्र आराधो, मनवंछित कारज साधोरे भवियों ए देशी ॥
___ तथा काफी-आशावरी रागेण गीयते ॥ सद्गुरु चरन पखालों। मनसुध पूजनने चालोरे
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भवियां। ए आंकडी ॥ प्रभुरत्नसूरि गुणवंता जिनगुण पाया ना अंतारे भवियां ॥ सद्गुरु० ॥ १ ॥ प्रभुरत्नसूरि सुखकारी, सबजीवनके उपकारीरे भवियां। सद्गुरु० ॥२॥ प्रभुरत्नसूरि नितपूजे,पापसन्ताप सु ध्रुजैरे भवियां। सद्गुरु० ॥३॥ प्रभुरत्नसूरि सुख दाया, गढ ओएश सुं आयारे भवियां। सद्गुरु० ॥ ४॥ प्रभुरत्नसूरि उपदेश सुनावै । पद्मा-अम्ब-सिद्धादिका आवेरे भवियां । सद्गुरु०॥५॥ प्रभु मास संलेखना लींनी । साचलने विनती कीनीरे भवियां सद्गुरु० ॥ ६ ॥ प्रभु मास चोमासे ठहरो । लाभ हुवै अति गहरोरे भवियां । सद्गुरु० ॥ ७॥ प्रभु उहडपुत्र जीवायो । नगर भेलो हुय आयोरे भवियां। सद्गुरु० ॥८॥ प्रभुसेवै उपलदे राजा । मनका संशय भाजारे भवियां । सद्गुरु० ॥९॥ प्रभु बारे व्रत उचरावे। नगरी सब श्रावक कहलावैरे भवियां । सद्गुरु० ॥ १०॥ प्रनु ओएश वंश स्थाप्यो । मिथ्या तम जडसें काप्योरे भवियां । सद्गुरु० ॥१॥ प्रभु चरन शरनकी आशा । यो शुभकरण सुवासारे भवियां । सद्गुरु ॥ १२॥
काव्य. शुभस्वर्धनीवारिपुण्यप्रवाह प्रमृष्टे प्रकृष्टे सदा लोकजुष्टे ।
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सदा पापतापापहेऽभीष्टदेहम् । । गुरूणां पदाब्जे भजे भङ्गलाय ॥ १ ॥
ॐ ही श्री श्रीजिनरत्नप्रभसूरीश्वराय, श्रीजिनयक्षदेवसूरीश्वराय, श्रीजिनसिद्धसूरीश्वराय, श्रीजिनककसूरीश्वराय, श्रीजिनदेवगुप्तसूरीश्वराय, देवान् प्रतिबोधकाय, मिथ्यात्वविद्वंसकाय, ओएशवंशस्थापकाय, जलं निर्वपामि ते स्वाहा ॥ १ ॥ अथ द्वितीयचन्दनपूजाप्रारम्भः
दुहा. चंदन मृगमद काश्मरी, घसी घनसार सुं भेल । जो चरचे गुरु चरन, लहै सुरंगा खेल ॥ १ ॥
___ ढाल दूसरी. विमलगिरि डग धरीए। ए देशी । सद्गुरु पूजन करिए सुघडजन । ए आंकड़ी। पूजा करतकरी भवफंदा । भव भव पातिक कटरिये. सुघडजन । सद्गुरु०॥१॥ तीन लाख अरु सहस चो. रासी । श्रावक गुरुगढ करिये सुघडजन । सद्गुरुः ॥ २ ॥ एकदिवस ऊहडदे श्रावक । करजोरे पद परिये सुघडजन । सद्गरु० ॥३॥ नाम नारायण देहरो बनाउं । दिवस बने निशि परियें । सुघडजन
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सद्गुरु० ॥ ४॥ ये विनति सुन श्रावककी। सद्गुरु वयण उचरिये सुधडजन । सद्गुरु०॥५॥ वीर नामसें देहरो बनावो । नाथ ठवि सुखभरिये सुघडजन सद्गुरु० ॥ ६ ॥ देवी चामुंडा बिम्ब बनावे । वेलु दुग्धसें धरीये सुघडजन । सद्गुरु० ॥ ७ ॥ हर्षसें पुछे संघ प्रभुसें । बिंब कहां शुभ धरिये सुघडजन । सद्गुरु० ॥८॥ये सुन सद्गुरु बोले वाणी । बिंब साचलदे करिये सुघडजन । सद्गुरु० ॥९॥ संघ कहे हम तुरत बतावो। ये इच्छा उर धरीये सुघडजन । सद्गुरु०॥ १०॥ देर आभिहे सात दिवसकी । जलदि ना श्रावक करिये सुघडजन। सद्गुरु० ॥ ११ ॥ करजोरे पुनःशीशनमावै । सब श्रावक पग परिये सुघडजन । सद्गुरु०॥१२॥ दरस करावो वीर प्रभुको । हय-गय-रथसुं उवरिये सुघडजन । सद्गुरु० ॥ १३॥ सद्गुरु संघ सकलसब मिलकर । वरघोडे लेउ विचरिये सुघडजन । सद्गुरु० ॥ १४ ॥ शुभ सम मुहूरत प्रभुकुं काढे । नाटक-नृत्य विस्तरिये सुघडजन । सदुगुरु०॥ १५॥ कोटि सोनैया दान जो देके । निछरावलमाण करिये सुघडजन । सद्गुरु० ॥१६॥ मनसुध भावे भावत याविध । बाह्य मंडपमें धरिये। सुघडजन । सद्गुरु० ॥ १७ ॥ करण कहे शुभ
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केसरपूजा । पूजनसें भवतरीये सुघडजन । सद्
गुरु० ॥ १८ ॥
काव्य.
मलयचन्दनकुङ्कुमवारिणा. निखिलजाड्यरुजात पहारिणा ।
बहुलगन्धपरम्परया युतं रचितमर्प्यत ईशपदाम्बुजे ॥ १ ॥
ँ ह्री श्री श्रीजिनरत्नप्रभुसूरीश्वराय, श्रीजिनयक्षदेवसूरीश्वराय, श्रीजिनसिद्धसूरीश्वराय, श्रीजिनकक्कसूरीश्वराय, श्रीजिनदेवगुप्तसूरीश्वराय देवान् प्रतिबोधकाय, मिथ्यात्वविध्वंसकाय, ओएशवंशस्थापकाय चन्दनं निर्वपामि ते ॥ स्वाहा२ ॥ इति द्वितीया चन्दनपूजा संपूर्णा अथ-तृतीयपुष्पपूजाप्रारम्भः दूहा.
बेला मरुवा मालती । केतकी जूही गुलाब । चंपा चमेली मोगरो । चाढो रूडे भाव ॥ १ ॥ ढाल तिसरी,
सदा भजो ब्रह्मचारी । ए देशी.
सदा पूजो गुरुपाया । भवभय नाश दुरित
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विनाश । ए आंकडी । कोरंट श्रावक सबमिल आवे । विनति करै समुदाया हो ॥ भव० ॥१॥ भुवन रच्यो वहां चरमजिनंदको। चलिय तहां गुरुराया हो ॥ भव० ॥२॥ ये सुन सद्गुरु तब यु भाखै । वक्तपे आवे उंमाया हो ॥ भव०॥३॥ मूलरूपरख निज ओएस्यां। कोरंटवैक्री सुंधाया हो।भव०॥४॥ एकसम गुरु दोय भुवनमें। बिंबप्रतिष्ट कराया हो ॥ नव०॥५॥ ये देख अचरिज बहुत मिथ्यात्वी । शिष्य भये समुदाया हो । भव०॥६॥ देवी चांमुडासमकितकीनी।महिष-अजा छुडवाया हो ॥ भव० ॥७॥ छाणा उपर वासक्षेपसें । धन अगनित दरसाया हो ॥ भव०॥८॥ भूप करन गुरु इच्छा कीनी । देवी कहै हरखाया हो ॥भव० ॥९॥ वाणिक करो गुरुगोत्रअढारे । साख बढे बहु ताया हो ॥ भव० ॥१०॥ ग्राम-नगर-पुर-पाटन विचरे । जहां तहां संघ बनाया हो ॥ भव० ॥११॥ याग हिंसादिक दूर कराके। श्रावक व्रत उचराया हो॥भब० ॥ १२ ॥ जैन मीमांसा कुमति विध्वंसन । नवतत्व वृत्ति रचाया हो ॥ भव०॥ १३ ॥ बहुत देशकी कुमति हठाके । जैनधर्म झलकाया हो ॥ भव०॥ १४ ॥ संघ चतुरविध स्थापित करके। श्रीसंघ पद दरसाया हो। भव०॥ १५ ॥
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सिद्धगिरिपर डेढ मासकी। संलेखनाकर सुख पाया हो ॥ भव० ॥ १६ ॥ वरस चोरासी चरमप्रभुसें। माघसुदि सुख पाया हो ॥ भव० ॥ १७ ॥ उपजा द्वादशमें देवलोके । पूर्णा तीथि गुरुराया हो। भव० ॥ १८॥ तीजी पूजा विकसकुसुमकी। पूजन कर सुख पाया हो ॥ भव० ॥ १९ ॥ करन कहे मम पातिक भाजे । चरन शरन शुभ आया हो ॥ ॥ भव० ॥ २०॥
काव्यम्. मालती पाटलीं चैव केतकीसङ्गतोद्भवां । विकासामोदकुसुम-सन्तति निर्वपामि ते॥१॥ न ही श्री........पुष्पं निर्वपामि ते स्वाहा
इति तृतीया पुष्पपूजा समाप्ता. अथ-चतुर्थधूपपूजाप्रारम्भः
दहा. कृष्णागर मृगमद तगर। सेलारस लोंबान । जो खेवै गुरुचरनपे । वो लहे सुरपुरस्थान ॥१॥
' ढाल चौथी. सिद्धचक्रपद वन्दो । ए देशी। राग आशावरी रागण गीयते.
सद्गुरुपद नित वंदोरे भविका । चर्चित होत
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आनंदोरे ॥ भविका० स० ॥ राजगृहि सबसंघ मि. लकर । विनति पत्र पठावे । बहुतसे श्रीसंध सामा आवे। गुरु पद शिश झुकावेरे॥भविका० स० ॥१॥ करजोरे पुन विनति करत है । संघ उपद्रव टालो यक्ष मानभद्र नित्य सतावे । ताको विघन निवारोरे ॥ भविका स० ॥२॥ये सुन विनति सद्गुरु बोले। हम आवे तत्काल । लब्धि संपन्न लब्धिसे पहुंचे। पूर्णभद्र चैत्यालरे ॥ भविका स० ॥३॥ “नमिऊण" मंत्र गुरु तब भाखे । छांटे जलधर धारा, यक्ष प्रसन्न हों सबसें बोले । ये गुरु मोटो उपगाररे ॥ भविका स० ॥४॥ जीवन छोडे इन चरननसें । में हुं चाकर दास। समाकत लीनो कुमति हटाके। सेवे गुरु पद खासरे ॥ भविका स० ॥ ५ ॥ जो इन गुरुकी सेवा करेहै। ताके उपद्रव चुरूं। नित नित वित्त सुयश बढावु । मन इच्छा सब पुरंरे ॥ भविका० स० ॥ ६ ॥ बहुत नपद्रव शांति कीना। पुर पट्टण विच धामे। ऐसे सद्गुरु अष्टम पाटे। यक्षदेव भये स्वामिरे ॥ भविका० स०॥ ७॥ पाट अठारमें इण गुरुनामें पूर्ण भये गुणवान। पाटनमांहे दीक्षा दिधि । वज्रसेन शिष्य सुच्याररे । भविका० स० ॥ ८॥ नागेन्द्रचन्द्र निवृति विद्याधर शाखा चतुर गुरु थापे। उपज्या पंचमदेव विमानें । नामसें भाजे तापरे ॥ भवि
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का० स० ॥ ९ ॥ चोथी पूजा धूप सुगंधित । घूप खेयां पूरे आस । करण कहे शुभ सद्गुरु म्हारा । दीजो सुमति सुवास हो - भविका० स० ॥ १० ॥
| काव्यम् ।
वितीर्णदिक्सुसौरभम् प्रकीर्णमञ्जधूमकम् दशाङ्गधूपमुज्ज्वलं निवेदयामि रोचकम् ॥ १ ॥ ह्री श्री.... धूपं निर्वपामि तें स्वाहा. इति चतुर्थधूपपूजा समाप्ता.
अथ पञ्चमदीपकपूजा प्रारम्भ. दूहा.
सुरभि घृत संयुक्तसें । वाती सूत्र नवीन ज्योतहीं दीपक अघ हरे । फैले सुयश भुव तीन ॥ १ ॥
ढाल पांचवी. रखता रागेण गीयते.
सुगुरु पद आज में पायो । भांज्यो मिथ्यात्व मोमनको । कलपतरु कलिकालमें देवा । गुरुसम और ना कोइ भाजे मिथ्यात्व चरणनसें । क्षमा सुघ सहजमें होइ ॥ सुगुरु ॥ १ ॥ ओएश गढ बीच लघु श्रावक करै । पूजा जिनंदकीं जी। पूरव कक्कसूरि कहि भाख्या । उप
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द्रव होयगा कीजी । सुगुरु ।। २ ।। छेदी तन गांठ जिनवरकी। वहीं जद रक्तकी धारा । अनिल सम कोप करे देवी । नगर सब शून्य कर डारा ॥ सुगुरु ॥३॥ गइ जद वात सद्गुरुपे । पादानुलब्धिसे आये कराइ शान्तिविध पूजन । सकलजन देख हरखाये ॥ सुगुरु ॥ ४॥ बजा ढक वाद्य घरघरमें । सुहागन गीत मील गावै। वधाइ देरही गुरुकुंजीवों ।युग सहस दुनिया ॥ सुगुरु ॥ ५॥ गुरु झट लेश संघ आज्ञा । चले अति शीघ्रगामीसें। मुहुर्तपद स्थानपे आये । हुवे लयलीन स्वामीसें !। सुगुरु ॥ ६ ॥धरा पर जैनका डंका। बजा गुरु ककसूरिका। हजारों भूपसुरसवें । भाज्या मिथ्यात्व पूरिका ॥ सुगुरु ॥ ७॥ श्रवण करोदासकी विनती। परंपद आपो स्वामिजी चरन रज रोज में मागुं । ये ही सुभ अरजी नामीजी ॥ सुगुरु ॥ ८॥ -
___ ॥काव्यम् ॥ . सुवर्णपात्रसंस्थितैः प्रभाहतान्धकारकैः . सुवतिसाज्यदीपकैः प्रदर्शयामि ते पदम् ॥१॥
न ही श्री....दीपं निर्वपामि ते । स्वाहा ।
इति पञ्चमी दीपकपूजा समाप्ता.
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अथ षष्ठाक्षतपूजा पारम्भः दूहा. स्वस्तिक विरचे भावसे । चाढे मुक्ता निधान ताघर कमला आनके । वास करें सत्यजान ॥ १ ॥ ढाल छडी.
आज आनंद भयो । सद्गुरु चरणसरोज भ्रमरमनमेरो लिपट रह्यो | आंकडी ॥ गुरु तारण तरण जिहाजा | सद्गुरु रखीये मेरि लाजा । मेंहुं अभागी सिरताजा ॥ आज० ॥ १॥ में आन पड्यो कारागारा । दुःख मोसें सह्यो नहिं जाय जरा । गुरु करना सुदृष्टि आजभला ॥ आज० ॥ २ ॥ लुलुलु ल सद्गुरु पावां लागुं । कक्क कक्क सूरि नामा भाखुं । दिन रात जपुं हियडे राखुं ॥ ॥ आज० ॥ ३ ॥ में अपराध कीया बहू तेरा सो । सब खमिये सद्गुरु मेरा । संकट काट करो निवेरा ॥ आज० ॥ ४ ॥ नाम जपत चट बेडि टूटी । सात पुडतकी भखसी फुटी । महीपति हाथ जोडे झट उठी आज० ॥ ५ ॥ सोम कहे धन धन गुरु राया । आप गुननके पार न पाया। नामसें भाजे संकट छाया । आज० ॥ ६ ॥ ये चित धार दरसकी ठानी। शंका आंनगि राखलमानी । साचलमात जरा रिसयानी ॥
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१४ आज०॥७॥ जब सद्गुरु साचलकुं ध्यावै । हाथ जोडकर देवी आवै । गुरु मुख्यसें फुरमावै॥आज० ॥८॥ गुरु मनसा जान जीवावे । करवट ले उठसो मा ध्याता । धनगुरु तुम जगविख्याता॥आज ॥९॥ करण कहे सुभ आशा पुरो। मोह प्रचंडसें करिय दूरो । यो गुरु अविचल पद नूरो ॥ आज०
काव्यम् नानारत्न समाकीर्णानिन्दुकुन्दद्युतीनहम् श्वेताक्षतान् मृदून सम्यग् । अर्पयामि शुभावहान ॐ ह्री श्री....अक्षतं निर्वपामि ते स्वाहा ॥
इति अक्षतपूजा समाप्ता. अथ सप्तनैवेद्यपूजापारम्भः
मोदक सुंदर नवनवा । पचधारी घृतपूर चाढे रूडे भावसे । जावे संकट दूर ॥१॥
ढाल सालवी.
राग केरबा. . सद्गुरु चरणसु मेरे मन वसीया । शैल अचल मुरुराज पधारे। दर्शनकुं संघ आवै नहसिया॥ सद्गुरु
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॥१॥ करजोडे पुन विनति करतहैं । लुल लुल लागे पावें फरसिया ॥ सद्गुरु० ॥२॥ बहुत तृषा व्याधि श्रीसंघकुं। चट उठ गुरु पय स्थान दरसिया ॥सदूगुरु० ॥३॥ डांग इसारे अमिजल निकला। लख यश गावत देत हरसिया । सद्गुरु० ॥ ४॥ पीकर नीर हए संघ खुसीमें। जल अगाध विलोकि तरसिया ॥ सद्गुरु० ॥५॥ पंच प्रमाणिक ग्रन्थके कर्ता । तरणि प्रकासिक तेज वरसिया ॥ सद्गुरु० ॥६॥ तर्क सुक्षेत्र समासकी टीका । रच-बहु अर्थ गंभीर दरसीया ॥ सद्गुरु० ॥७" दधि सम गुणगण. ककसूरिके । नामसे भाजे कलुष कुरसिया ॥ सद्गुरु० ॥ ८॥ उपज्या पंचम देव विमाने । गावत गुणजन प्रात उहसिया ॥ सद्गुरु० ॥९॥ त्रय चतु पाट सूरि गुरुराया। शासन मंगल सकल वरतिया ॥ सदगुरु० ॥ १० ॥ धन धन करण कहे शुभ स्वामी । मुज मनमन्दिर तुम गुण वसिया ॥ सद्गुरु० ॥११॥
काव्यम् प्रभूतभेदभोज्यकै-वटैर्यवैस्सुसंस्कृतम् सुसर्पिपक्वमादकम् निवेदयामि तुष्टिदम् ॥१॥ ॐ ह्री श्री....नैवेद्यं निर्वपामि ते स्वाहा.
इति नैवैद्यपूजासमाप्ता.
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अथ अष्टमफलपूजाप्रारम्भः
दूहा. फल ढोके पातिकगले । नूतन मिष्ट अनूप पग पग पामें संपदा । निर्धनियां धनरूप ॥ १ ॥
ढाल आठवीं. __ श्री रागेण गोयते
गुरुपदपूजा सुरतरु कन्द । धन धन सद्गुरु अतिशय धारी । तेज प्रताप अखंड ॥ गु० ॥१॥ दोय पुरवधर पेंतिस पाटे। विद्या गुण निधि बन्ध । गु० ॥२॥ दैव ऋद्धि गणि इनकने पढिया। डेढ पूरव श्रुति छन्द ॥ गु० ॥३॥ क्षमाश्रमण पद सद्गुरु दीना । विद्या वकसी गुप्त प्रबन्ध । गु० ॥४॥ आप तखत जिस दिवस विराज्या । थाप्या पाठक पंच ॥ गु० ॥ ५॥ बहुत उपद्रव रोग निवार्या । कहेतां न आवे खंच ॥ गु०॥ ६ ॥ भुवन शंखेश्वर ध्यान करंता । भाखे पद्मावती वंच ॥ गु०॥७॥ संघ उद्योत कीया जब गुरुने । हटिया कुमति कुपन्ध । गु०॥८॥ बहुत मिथ्यात्वी मिथ्या तजके । समकित लीना नन्द ॥ गु० ॥९॥ भैसा साहका कष्ट मि. टाया। भाज्या दलिद्र अखंड॥ गु० ॥१०॥ विषापहार लब्धिका धारी । पाटवान नभतेज अखंड ॥ गु०॥११॥ सुगुरु मेहरसे भेसा साने । कीना नाम
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अखंड । गु० ॥ १२ ॥ धन धन देवगुरु महाराजा। पायो सुर पुर तीज अनन्द । गु० ॥ १३ ॥ करण कहे सुभ आशा पुरो । द्यो गुरु समकितानन्द ॥ गु० ॥ १४ ॥..
काव्यम् सदाम्रजम्बूमोचकैः । श्रियः फलै विभूषितम् सुखर्जुरी-सुकर्कटी-फलोधमर्पयामि ते ॥ १ ॥ ॐ ह्री श्री .... फलं. निर्वपामि ते । स्वाहा.
इति अष्टमी फलपूजा समाप्ता. अथ नवमवस्त्रपूजाप्रारम्भः
दूहा. केसवगन्ध संयुक्त सें । उज्ज्वल वस्त्र अनुप चाढे सद्गुरु चरणपे । भाजे व्यथा स्वरुप. ॥१॥
ढाल नवमी. . कव्वाली रागण गीयते. धन धन सद्गुरु हे महाराज । अनुभव ज्ञान जचाने वाले। नव लख सूरि मंत्रको जाप। जपकर सूरि भये हैं आप । नामसें भाजे कुष्ट : संताप । आगम पन्थ बताने वाले ॥ धन०॥१॥ गुर्जर देश
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१८
रोग अति भारी । ता पर कोप्या देव विकारी । दुःखि भये सबहि नर नारी । भागके जान बचाने वाले ॥ धन० ॥ २ ॥ सुनके सिद्धसूरिका नाम । चलके आये संघ तमाम | बिनति वंदन करे अति गाम । भवदधि पार लगाने वाले ॥ धन० ॥ ३ ॥ सुगुरु कहे संघ क्युं धरावे। इति उपद्रव तुरत नसावे । चइत्ता भार पाठ बतावे । तत्क्षण फंद हटाने वाले ॥ धन० ॥४॥ सद्गुरु वासक्षेप जिहां डाले । रोग उपद्रव तुरत पुलावे । खुस हो के श्रीसंघ घर जावै । गुरुसें नेह बढानें वाले ॥ धन० ॥ ५ ॥ पुनम दिवसे संथारा करके । उपजे सुरपुर चोथे विचरके। संघ करे भक्ति बहु घरकें । सुभकुं दरस दिखाने वाले ॥ धन० ॥ ६ ॥
॥ काव्यम् ॥
सकलभुवनलज्जावारणं सद्दशाकं मद्गुरुचिरसुगन्धं कुन्दचन्द्रप्रकाशम् विमलशुचि सुधौतं प्रांशु दीर्घं सुवर्ण वसनमिदममौलं सुन्दरं ते ददामि ॥ १ ॥
वस्त्रं निर्वपामि ते स्वाहा.
॥ इति नवमी वस्त्रपूजा समाप्ता ॥
ँ हाँ श्रीँ
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अथ दशमध्वजपूजाप्रारम्भः
दूहा.
कनक रजत ध्वज दंडमय । पंच वरण ध्वजपुर मृदु समिर लयके गगन । देखत अरि वसु दूर ॥१॥ . ढाल दशमी.
ख्यालकी चालमें. सरने आया की लजा राख ल्यो सद्गुरुजी मारा | ए आंकडी । सिंधुदेश मुलतान नगरमें । मुगल बडे उत्पाती। जाको देखे तिलक लगाया। जव वन आन मिटातेजी ॥ स० ॥१॥ बहुत उपद्रव संघकुं दीना। दुःखी हुए नर नारी। मिलकर संघ गुरुपेआया। विनति करे अति भारीजी।स०॥२॥ लाहोर नगर साहका लडका। मृतक हुवा उस बारी सुनकर नामें गुरुपे आया। लास धरी इणवारी जी ॥स० ॥३॥ दृष्टि मात्रसें तुरत जिवाया। उठा पुत्र तत्काल। सोगन लीना मदिरा मांसका। पुत सहित पातसाहजी ॥ स० ॥४॥ रोग उपद्रव तुरत भंजाया। यवन दुःख सब रोका। श्री संघ साथे आये कानन । नदी तीर तप कीघा जी ॥ सः ॥५॥
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अष्टम भक्तकी करी तपस्या। पद्मा साचल आइ । सरिता तटपे मूर्ति बताइ । सर्व धात सुखदाइजी ॥ स०॥६। श्री ऋषहेसर स्तुति करके । काढी मूर्ति पयाल । तिनका स्नान कराके सद्गुरु । छांय नगरमें हालजी ॥ स० ॥ ७॥ भजा उपद्रव हाल मारिका । खुसी हुए नरनारी । मुलतान शहेरमें महिमा केलि। जैन धर्मकी भारिजी ॥स०॥ ८॥ चतु मुनि पाट सूरि युगराया। सिद्धसूरि महाराज लाहोर अंदर सब जन पूजै। सिद्धगुरु सुभ आजजी ॥ स०॥९॥
काव्यम्. नानावाद्यनिनादकैः सुखकरैर्गन्धर्वलीलायितम् सौधैर्लेपविशेषकैस्सुरभिभिर्वारिप्रवाहैर्मुदा सद्वस्त्रादिविचित्ररत्नराचितैः सौगन्धसन्दोहकै युक्तं श्रीगृहमीदृशं तदुपरिच्छत्रध्वजे स्थापये ॥१॥ ॐ ह्री श्री. ध्वजां निर्वपामि ते स्वाहा इति इति दशमी ध्वजपूजा समाप्ता ॥
कलश.
( रागधन्यासरी) सुगुरु तेरो तेज दिवाकर छाजे । पार्श्व प्रभुके निज सन्तानी। रत्नप्रभु सूरिराज । तिनके गूण
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११
माणि भूमें पसरे । नाम सुनत अघ भाजे ॥ सु० ॥ १॥ नपकेश गच्छ विद्याधर शाखा । कमला बिरुद सुछाजै । तिनके पाट पाटानुक्रमसें । देव गुप्तसूरिराज सु०॥२॥ तिनके शिष्य पाठक पद सोहे। मा. मसुन्दर गूरुराज । ताके शिष्य कल्यानसुन्दरमुनि । पाठक बिरुद समाज ॥ सु० ॥३॥ लब्धिसुन्दर तिनके पदसेवक । नाम लेवत होय काज । तिनके शिव्य पाठक पद उत्तम । खुश्यालसुन्दर महाराज ॥ सु० ॥४॥ माता साचल जाय मनाइ । सकल गणि शिरताज । देश देशके भूप नमाये । गावत गूण गौरी आज ॥ सु० ॥५॥ वखत सुन्दर लघुकनक किरति मुनि । गणिपद पेटी सुसाज । तिनके शिष्य विद्यागुण पूरण । लक्ष्मीसुन्दर कविराज ॥ सु० ॥ ६ ॥ भवानीसुन्दर तिनके लघु भ्राता। पंडित शीलविराज । नेमसुन्दर अनुज न्यालसुन्दर गणि । किरति चहुं दिस गाज ॥ सु० ॥ ७॥ तिनके चरण कज सेवक नायक।सुन्दरगणि अति छाजे। तिनके शिष्य गितारथ पंडित। विवेकसुन्दर गणिराज ॥ सु० ॥८॥ तास चरन रज सुमति सुन्दर वर । पूजा रचि सुख आज । संवत् शशि नव रस ग्रह (१९६८) फागण। चोथ वदि सुसमाजे ॥ सु० ॥ ९॥ संध्या लश्कर
१ पाठान्तरे ककसरि गुरुराज ।
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२२
माधव राज्ये । खाफ बजारमें गाजे । सद्गुरु पूजा प्रेम कीनी । शुभकरण कहे आज ॥ सु० ॥ १० ॥
इति सुगुरुमहाराज दादाजी रत्नप्रभसूरि आदि गुरुवरोंकी वृहत्पूजा शुभकर्णयतिकृता संपूर्णा ॥
आरति.
जय गुरु हितकारा । आरति मंगलचारा । सब जन सुखकारा ॥ प्रथम आरति रत्नप्रकी । धर्मधुरंधर धीरा। शासन नायक जग गुरु स्वामी । शिव रमणी वरवीरा ॥ जय० ॥ १ ॥ द्वितीय आरति यक्षगुरुकी । ढाले संकट रोगा । निर्धनीयांकुं भूप करत है । आप अविचल भोगा ॥ जय० ॥ २ ॥ तृतीय आरति देवगुरुकी । वन्ध्या पुत्रको पामे । कारज सारे जगके स्वामी । मनवांछित हो काम || जय० ॥ ३ ॥ तूर्य आरति सिद्धगुरुकी । जावै कुमति मोहा । ध्यान करंता सुमति आवे | लोहा कंचन होवे ॥ जय० ॥ ४ ॥ पंचमी आरत कक्क गुरुकी । कर्म हटावे सारा । आवागमनसें दूर करत है । ऐसे सद्गुरु म्हारा ॥ जय० ॥ ५ ॥ करण कहै शुभ सद्गुरु पदको । नित न कर जोडा । भव भव व्याधि मेटो हमारी । आपो अनुभव तोरा ॥ जय० ॥ ६॥
|| पंच पाटकी आरति संपूर्णा ॥ आरति.
जय जय आरति सुगुरु तुमारी । तोरा चरन कमल जाउं बलिहारी । महेन्द्र चूड - लक्ष्मीवती जन्दा । वदन कमल मुख पूनमचन्दा ॥ जय ० ० ॥ १ ॥ सात हाथ तनु सोवन काया । ले दीक्षा गुरु धर्म दीपाया | जय || २ || तुम गुण पुरन तुम गुण हंसा | विद्याधर कुल
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५३ उत्तम सा || जय || ३ || केशि गणधर पाट उजारा । रत्नप्रभ सूरि नाम तुम्हारा ॥ जय० ॥ ४ ॥ देवी चामुंडा समकित कीनी । सुगुरु चरण रज लुलु लुल लीनी ॥ जय० ॥ ५ ॥ पद्मा - अम्बा यक्षादिका देवी | सुर मुनि भूपति करत है सेवा ॥ जय० ॥ ६॥ इक अवतारी कारज सिद्धा । बारमा सुर सुख भोगें न चिन्ता ॥ जय० ॥ || जो कोइ आरति करे करावे । मन इच्छा फल तुरते पावे ॥ जय० ।। ८ ।। करण कहत शुभ सद्गुरु नामी । तुम पद सेवा दीजै स्वामी ॥ जय० ॥ ९ ॥
॥ इति दादाजी रत्नप्रभसूरीणां आरात्रिका संपूर्णा ॥
सुगुरु महाराजकी लघुपूजा प्रारंभ.
जलपूजा.
शुभस्वर्धुनीवारिपुण्य प्रवाह - प्रमृष्ठे प्रकृष्टे सदा लोकजुष्टे । सदा पापापापदेऽहं गुरुणां पदाब्जे भजे मङ्गलाय ॥ १ ॥
७ ७
ँ ही श्री श्रीरत्नप्रभसूरीश्वराय, जन्मजरामृत्युनिवारणाय, जलं जामहे ॥ स्वाहा ॥ १ ॥
चन्दनपूजा. ॥२॥
मलयचन्दन कुङ्कुमवारिणा । निखिलजाड्यरुजातपहारिणा बहुलगन्धपरम्परया युतं । रचितमर्प्यत ईशपदाम्बुजे ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीं ....... चन्दनं यजामहे | स्वाहा ॥ २ ॥
पूष्पपूजा. ॥३॥
मालती पाटली चैव केतकीं यहतद्भव विकासामोदकुसुमसन्ततिं निर्वपामि ते ॥ ३ ॥
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ँ ही श्री .... पुष्पं यजामहे स्वाहा ॥ ३ ॥
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२४ धूपपूजा ॥ ४ ॥
वितीर्णदिक सौरभं प्रकीर्णमजधूमकम् । दशाङ्गधूपमुज्ज्वलं निवेदयामि रोचकम् ॥ ४ ॥ धूपं यजामहे स्वाहा ॥ ४ ॥ दीपक पूजा. ॥५॥
ॐ ही श्री.......
सुवर्णपात्रसंस्थितैः प्रभाहतान्धकारकैः सुवर्तिसाज्यदीपकैः प्रदर्शयामि ते पदम् ॥ ५ ॥
ॐ ह्रीं श्रीं ... दीपं यजामहे स्वाहा ॥ ५ ॥
ँ
अक्षतपूजा. ॥ ६ ॥ नानारत्नसमाकीर्णा - निन्दुकुन्दद्युनीनहम् श्वेताक्षतान्मृदुन्सम्यग् अर्पयामि शुभावहान् ॥ ६ ॥
ॐ श्री .... अक्षतं यजामहे स्वाहा ॥ ७ ॥ नैवेद्यपूजा. ॥७॥
प्रभूतभेद भोज्यकै - र्व टैर्य वैस्सुसंस्कृतम् सुसर्पिपक्वमोदकं निवेदयामि तुष्टिम् ॥ ७ ॥
ॐ श्री ... नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ॥ ७ ॥ फलपूजा. ॥ ८ ॥
सदाम्रजम्बू मोचकैः श्रियः फलैर्विभूषितम् मुखर्जुरीं सुकर्कटीं फलौघमर्पयामि ते ॥ ८ ॥
ॐ श्रीं .... फलं यजामहे स्वाहा ।। ८ ।।
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________________ बांचीए बांचीए प्राचीन तीर्थ ओशीयाजी. ओसवाल भाइओंकी उत्पत्तिका स्थान ओशीया नगरी पूर्वका ठमें महा समृद्धिसे भरपूर थी जहाँपर देव प्रभ के मंदिर और सचिया देवी का मंदीर बहुत :और बड़ा प्रभावशाली त्रिखंड पृथ्वीमें भव्यतासें / यह तीर्थ फलौधी निवासी श्री संघकी देखरेख बहुत जैन भाइओंकी सहायतासें देवविमान तुल्य वि हो रहा है. यह तीर्थकी यात्रा करने लायक है. ऐसे किक और बडाही चात्कारीक दीय तीर्थ भूमंडल। चित् दृष्टिगोचर होते है. महान् पुन्यके उदय होने / है तीर्थकी यात्रा करनेके लोर मनुष्य भाग्यशाली है। जोधपुरसे ओशीया और वहांसे फलौधि तक रेल का है, इसीसे यात्रा करनेको जोसकी इच्छा होवे उसको भी प्रकारकी तकलीफ नही है. निवेदक. शेठ जोगराजजी बेद फलोधी. ॐ अहम् नमः / श्री जयविजयजी ज्ञान मन्दिर