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भ्रंश सदासचेति १० चोरडीया ११ भूरिगोत्र १२ भाद्रगोत्र १३ चींचटगोत्र १४ कुंभटमोत्र १५ कनोजगोत्र १६ डीडुगोत्र सांप्रते कोचर १७ लघुश्रेष्ठिगोत्र १८ ये है । इनमें से सर्व शाखा फुटी है, ये निश्चय बात है। इसका सारांश कमलागच्छकी बृहत् पटावलीमें है सो देख लेना । इनके पाटपे यक्षदेवसरि, उपकेश गच्छके धरने वाले यक्षराज मानभद्रको प्रतिबोध देने वाले हुवै । इनके पाटपे कितने ही अनेक आचार्य युगप्रधान लब्धिसंपन्न विद्यासंपन्न हुवे है। और जिनकी महिमा संपूर्ण भूमन्डल जानता है । और अमेरिकाके चिकागो सेहरमें ६०० विद्वानो अनेक मतके इकठे हुए, जिनों ने जैनमतकी प्राचीनता आजकलके चालु मतोंसे श्रेष्ठ बताइ है। और यूरोपियन विद्वान डाँक्टर मेक्षमूलर साहेबनें आपने बनाये हुवै धर्म परीक्षाके संस्कृत साहित्यमें जैनधर्मकी बडी भारो तारीफ लिखी है । और कहता है जैनधर्म बडा प्राचीन मत है । जैन शब्द “ जि" जये-धातुसे बनता है और यह जैन धर्म पृथ्वी पर रत्नके समान है। इस्के सेवन करने से प्राणी भवसमुद्रमें शीघ्र ही पार हो जाता है । अतः
हे भव्यजीवो मोक्षमार्गको देनेवाले तथा बतानेवाले ऐसे सद्गुरु महाराज उवकेशगच्छिया रत्नप्रभसुरिजि महाराजको शुद्धदिले पांचो हि पदधरो के चरणकमलोकों द्रव्य भावसे पूजन करके अपना जन्म सफल करो । युग प्रधानोके गुण जैसा ग्रन्थोमें लिखा है वैसा लिखते है। दुःख और कष्टको दूर करे । लक्ष्मी वा पुत्रादि कामना पूरण कर । विद्यासिद्धि, देवसिद्धि वचनसिद्धि और पचाचार पालनेवाले ऐसे युगप्रधान दो हज्जार च्यार पूर्वोक्त कुलमें होणा है । एसा वीरप्रभु कह गए है । जो प्रतिबोधके श्रावकधर्म बढाव इत्यलम्..
वांचनेवाले विद्वानोसें तथा श्रावकोंसे निवेदन है कि जो कोई भो दृष्टि दोष रहा हो-उसे क्षमा करें, और सुधार लेवें।।
आपका शुभचिंतक उपकेश गच्छिया शुभकर्ण यति । समाप्त ।। स्थान लश्कर. गवालियर. सराफा ॥
संवत् १९७२ द्वितीय वैशाख अक्षय तृतीया॥