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प्रस्तावना.
उ अह. ॥ अहो भव्यजीवो ? सम्पूर्ण सृष्टि प्रवाहके चलाने वाले उसका हुंड्रा अवसर्पिणीकालमें देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग अर्हन् ऋषभदेव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हुवे। जिनाने पुरुषोंकी बहुत्तर कला, स्त्रीयोंका चौसठ क्ला, शतशिल्पकार, अढारह लिपियां रचै । च्यारवर्ण स्थापित कोये।
और चौदह पूर्व द्वादशांगी वाणीकों गुथने वाले इन्हाके पुण्डरिकजी प्रथमगणधर हुए । इन्हीको आज्ञासें भरत चक्रवर्ती वैक्रीय लब्धिसें चार मुखवाला चार वेदोंका उच्चारण करता हुवा। और इन्हीके बंशमें तिर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, वलदेव आदि बड़े बडे पुरुष हुए। और इन्हीके वंशमें तेइस वें तिर्थकर पार्श्वनाथ स्वामी १ तिनके प्रथम गणघर शुभदत्तजी हुवै २ तिनके पाटपे हरदत्तनी हुवै ३ तिनके पाटपे आर्य समुद्रजो हुवै ४ तिनके पाटपे केसीगणधर परदेसो रासतानिक राजाको आदि ले केइ राजाओं को प्रतिबोध देणे वाले और चोइस वे तिथैकर महावीर स्वामी तिनके प्रथम गणधर गौतम स्वामोके साथ अधिकार उत्तराध्ययन २३ मे अध्यनमें है। तथा रायपसेगी सूत्रमें हैं । तिनके पाटपे स्वयंप्रभ मूरि हुवै, जिनोनें श्री श्रीमाल और पोरवाड श्रावक कीये । तिनके पाटपे दादा साहब युगप्रधान भट्टारक रत्नप्रभसूरि जातके विद्याधर हुवै, जिनाने ओएस्यां नगरीमें आयके उहडदेव मंत्री का पुत्र जीवायकर उपलदेव राजाकों प्रतिबोध दे, जैनधर्म स्थापित करके और ओसवाल किये । अठारह गोत्र स्थापे, तिनके नाम ये है-श्रेष्ठ गोत्र वेद-मूंथा १ तातेड २ बाफमा ३ 'मोराक्ष .
करणां ४ सांखला ५ कर्गावट ६ वलहमोत्र तया एका बांके रासेठोया ७ कुलहदगोत्र-विरहदगोत्र ८ श्री श्रोमालगोत्र ९ सुचंति-अप