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१९९१ १९९२ १९९: १९९९ 22822
* श्री वीतरागाय नमः *
योध्या का इतिहास ।
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लेखक व प्रकाशक लेखक
जेष्टाराम दलसुखराम मुनीम
न श्वेताम्बर मन्दिर अयोध्या
जि० फैजाबाद (ग्रु० पी०)
94040
कलासागरसूरि ज्ञानमन्दिर हावीर जैन आराधना केन्द्र ((गांधीनगर) पि ३८२००९
विक्रम संवत् १९६४
जैन संवत् २४६५
मूल्य 1)
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అవ్యాజమవ్వా
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* श्री वीतरागाय नमः *
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अयोध्या का इतिहास।
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हजुरक्षक
प्रकाशक
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पण्डित जेट राम दलसुखराम मुनीम श्रा जैन श्वेताम्बर मन्दिर अयोध्या
जि0 फैजाबाद ( यु० पी०)
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प्रति---१००० । विक्रम संवत् १६४ ) मूल्य ।।
जैन संवत् २४६५ ( .
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मुद्रक4. कालीशरण त्रिपाठी, साहित्यरत्न
कमला प्रेस, अयोध्या।
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प्रस्तावना . . संसार को सर्व- प्रधान और पुरातनी राष्ट्रभाषा संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थ पढने से निःसङ्कोच कहा जा सकता है कि जैनधर्म बहुत पुराना है। यद्यपि सनातन-धर्मके अन्थोंके अनुसार यह नास्तिक- धर्म माना जाता है किन्तु मूर्तिपूजा इसका आस्तिक्य द्योतित करती है। भलेही उसका ध्येय कुछ और हो । यही कारण है कि जैनसम्प्रदायावलम्वी आज हिन्दुओं में परिगणित होते हैं।
हमारा विश्वास है कि किसी समुदाय की उन्नति का कारण उसको आग्यन्तरिक सत्यता अवश्य है, भले ही वह आकर्षक वस्तु मों से आच्छन्न होकर उसकी माकर्षण शक्ति को द्विगुणित कर रही हो, क्योंकि अन्तः समाकर्षणके विना विशिष्ट समुदाय समुदायान्तर मे सद्यः सन्निविष्ट नहीं होता जैन इतिहास के पढ़ने और मनन करने से बोध होता है कि उसे स्वल्पबुद्धियों ने ही न अपनाया था अपि तु अनल्पमेधामों ने भी । यद्यपि वलसे अधिक स्थानका प्राधान्य माना गया है ता भी चिरकालतक सत्पात्रमे रहने वाले पदार्थ में भी भैयंशक्ति का आधिक्य बहरली चोलिक्षिा
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यह सगर्व कहना पड़ेगा कि अयोध्या अनेक आविष्कारों की भूमि है। यदि चक्रवर्ती सम्राट् सवसे पहिले प्रादुर्भाव अयोध्या में होता है तो भारत के लिये नवीननियमों का निर्माण भी सर्वप्रथम वहीं होता है। कुरुक्षेत्रके मैदान में समुत्पन्न और ब्रह्मावर्तमें प्रकटित वेदोंका सबसे उत्तम अर्थ अयोध्यामे ही होकर संस्कृतका राष्ट्रभाषात्व निखिल भूमण्ड र मे घोषित करताहै । अयोध्या यदि मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्र जी के उत्पन्न करने का गर्व करती है तो जैन-सम्प्रदाय के प्रथमप्रवर्तक ऋषभदेव, पार्श्वनाथ आदिकी जन्मभूमि भी यही है । अयोध्या यदि बुद्धकी तपस्थलो बन कर लगभग चार हजार भिक्षुओं का वौद्धविश्वविद्यालय रखती है तो मक्काखुर्द वनकर इस्लामधर्मको भारत में प्रधानपीठ वननेका अनल्प अभिमान उस में भरा है अयोध्या संसार की सव वातों में अनुपम और श्रेष्ठपुरी है।
जैनधर्म अयोध्या से उत्पन्न होकर सारे भारत में फैला समय के परिवर्तन से आज अयोध्या का सच्चा इतिहास लुप्त है। यदि कम से कम अयोध्या से सम्बन्ध रखने वाले तत् तत् सम्प्रदायानुयायी इस पुस्तक के लेखक पं० ज्येष्ठाराम जी का अनुगमन करें तो उनके इतिहास की स्पष्टता के साथ प्रयोध्या के इतिहास का भी खुलासा बटन कुछ भारतीयों के
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[ ख ]
सामने रखा जा सकता है जिसके अभाव के कारण भारतीय इतिहास की रूप रेखा अभी तक सर्वांशतः स्पष्ट नहीं हो सकी। हमारा विश्वास है कि 'अयोध्या का इतिहास” पुस्तक के लेखक उत्तरोत्तर अपने विषय की खोज करते रहेंगे जिससे एक बहुत बड़े प्रभाव के पूर्ण होने की पूरी सम्भावना है।
संस्कृत कार्यालय अयोध्या)
मकर संक्रान्ति . १९४४ विक्रमाब्द)
कमलाकान्त त्रिपाठी
- साहित्यालङ्कार ।
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ॐ सन्तव्य * परिवर्तनशील संसार अपने बलपर आगे बढ़ता जा. रहा है। पुसतत्ववेत्तामों की खोजसे प्राचीन नगरियों के खण्डहरों में से निकलते प्राचीन अवशेष, शिलालेख, स्तुप, कार्ति स्तम्भ मूर्तियाँ दानपत्रों के ऊपरसे, शिक्का, महोरसे, नगरियों के राजामों का राज्य कालकी शोध मिलती जारही है। सारनाथ, गजग्रही नालन्दा, तक्षशिला, मोहनजोडेरो, उसके प्रत्यक्षप्रमाण हैं जिस से इतिहास में भी नया प्राण आरहा है, साहित्य और इतिहास का विषय एक ऐसा है कि जिसमें कुछ न कुछ नया देखने को विचारने को मिलता है।
अयोध्या भी एक जगत को प्राचीन नगरियों में से एक अजोड़ नगरी है इस पवित्र भूमि में बैठकर का जैनधर्म के प्राचारियों ने शास्त्र, सूत्र रचे हैं ऐसी भूमि के तोर्थ का इतिहास लिखनेका साहस मेरे जैसे अल्पज्ञ ने किया है वोभी हिन्दी में, मेरी मातृभाषा गुजराती है अभ्यास चार किताब का है मगर अयोध्या का इतिहास लिखने की प्रेरणा मेरा
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[
घ ]
अयोध्या पास हुवा तब से हुई थी मगर साधन न मिलने पर लाचार था और पुस्तक लिखने का मेरा प्रथम प्रयास था इस तीर्थ में नौकर होने पर मेरी प्रेरणा प्रबल हुई देवगुरुकी कृपा से प्रथम तो गुजराती भाषा में छोटी सी किताब लिख दो जिलको सेठ कस्तूरचन्द त्रिभुवनदास को धर्मपत्नी बाई चल की तरफ से छपवाने का प्रबन्ध होगया और अहमदा. बाद मद्धे वाईवीजकोर वाईने १००० एकहजार कांपी छपवा दिया वो खप जाने पर इसका प्रमाण भूतइतिहास लिखने का शुरू किया, कईएक जैन ग्रन्थों का बौद्ध ग्रन्यों का और गुजराती पुस्तकों का मनन किया खासकर स्व० लालासीताराम वी० ए० का लिखा हुवा "अयोध्या का इतिहास" का सहारा मिला साथ में अवध गेझेटियर की शोध करके पुस्तक पूरा कर दिया मगर छपवाने के लिये कोई श्रावक श्राविका ने मदद नदी, कुछ भी सहायता न मिली।
पुस्तक छपवाने में मेरा कोई स्वार्थ नही है जैनधर्म की तीर्थकी सेवाकी खातर शासन धर्म के प्रचार की खातर किया है पुस्तक की कीमत वसूल होजाने पर जो रकम बचेगी जिसकी गुजराती कोपी छपवायेंगे और उसका हिसाब भी बाहर पड़ेगा और जो भाई वहिन मदद करने उसका भी नाम छप जायगा ।
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पुस्तक लिखने में जो जो पुस्तक का सहारा लिया है वो सव पुस्तक कर्ताओंका उपकार मानता हूं पुस्तक में कोई गलती हो गई होतो विद्वान महाशय मुझे खवर देगें मेरी भुल कबूल करके उसको जरूर सुधारने का प्रवन्ध किया जायगा शासन धर्म प्रेमियों से मेरी प्रार्थना है कि मुझे मदद करके मेरा उत्साह बढ़ायेंगें।
मकरसंक्रान्त-) शासन धर्मोनुप्रेमीविक्रम स० १६१४ अयोध्या तीर्थ । पं० जेष्ठाराम शर्मा
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विषय-सूची।
प्रथम सर्ग- ( आदिकाल ) क्रमखंख्या
विषय १- तीर्थ वन्दना
सरस्वती स्तोत्र ।
गुरु वन्दना । ४- तीय बृत्तांत ।
अयोध्या का महात्म्य । राजधानी का निर्माण ।
सांकेत पुर ८- कौशिल्या, विनीता नगरी।
श्रीरुषभदेवजी का जन्म लेना। श्रीरुषभदेव का प्रथम राजा होना श्रीषभदेव का साधू होना श्रीप्रभुका केवन्यज्ञान होना पुरीमताल- प्रयाग
भरतेश्वरजी को सिद्धचक्र की प्राप्ति १५ १५- माता मारुदेवा को केबल्यज्ञान १६- अयोध्या में प्रथम तीर्थको स्थापना
श्रीशेत्रअय का प्रथमोद्धार करना , १८- पांचभगवान के १९ कल्याणक
द्वितोय सर्ग ( पौराणिक काल ) १- अवतारी महापुरुषों का बास
१०.
2
१४
१४
१७
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क्रम संख्या
विषय २- मादर्श महिलाओं का बास ३- पुण्य नगरी के पांच नाम । ४- अयोध्या का इतिहास ५- अयोध्या की सरहद ६- अयोध्या पर विपत्ति। । ७- बौद्ध और जैनधर्म की प्रवृत्ती।
वीर प्रभुका अयोध्या विहार । गौतम स्वामी की सूत्र रचना तृतीय सर्ग- ( इतिहास काल शिशुनाक वंश का गज्य काल पाटलीपुत्रमें राज्यारोहण भीस्थुलीभद्र स्वामी मौर्य कुलवंशी गुप्त राज्य काल युनानो राजा सिकन्दर
सोल्युकस एलची ७- महाराजा विक्रमादित्य
राजा कनिष्क श्रीरामचन्द्रजी का जन्म स्थान
चीनी यात्री फाहियान ११. महाराजा अशोक
१
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पृष्ठ
. ३२
३३
क्रमसंख्या
विषय १२. महाराजा कुणाल १३- महाराजा सम्प्रति १४- श्रीअयोध्या जी का समोवसरण १५. आर्य सुहस्ती सूरिजी १६ - गुप्तवंशियोंका मगध से टूटना साधुमोका बिहार ३४ १७- पुष्पमित्रका अश्वमेध यज्ञ १८- कलिङ्गपती खारवेल
उदयगिरि की हाथी गुफा २०. नन्दराजा केतुभद्र २१- युनानी राजा मानान्डर
विहार में १० साल का दुष्काल २३ . जगन्नाथपुरी में तीर्थ स्थापन २४. जावडशाका शेत्रञ्जय उद्धार २५.. रत्नप्रभा सूरिजी .
वौद्धों के साथ शास्त्रार्थ मागमोद्धार वैश्यगमा हर्षवर्धन
चीनी यात्री ह्यांनचांग ३०- कुमारिल भट्ट ३१- चैत्यवासी यती महाराज ३२-- श्रीवात्सव राजा
२६
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४३
क्रममंख्या -
विषय ३३- महम्मद गोरी का आक्रमण ३३.- जन्मस्थान का मन्दिर टूटना ३५- अयोध्या का ब्राह्मण राजा __ ... चतर्थ सर्ग-(वर्तमान काल)
काशी निवासी महाराजा
अयोध्या में जैन मन्दिर ३
समोवसरण जो बौद्ध ग्रन्थों में अयोध्या ह्यांन चांग का वर्णन विशाषा नगरी जिन प्रभव सूरिजी का अयोध्यावास काप नियुक्ति पर भाष्य प्राचीन प्रतिमायें
तीर्थ यात्रा . ११- तीर्य महात्म १२- अयोध्या का राज्यकाल १३- तीय काप में अयोध्या
कल्याणक म्तवन
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&....
.
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श्री वीतरागायनमः ।
अयोध्या का इतिहास।
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प्रथम सर्ग ( आदि-काल ) ream
तीर्थ-वन्दना। ॐ नमः श्रीतीर्थराजाय सर्व तीर्थमयात्मने । अहे ते योगिनाथाय, रूपातोतायतायिने ॥ १ ॥
सर्व तीर्थमय जिसका स्वरूप है ऐसें थ्रीतीर्थराज को परम योगीश्वर देहातीत और विश्वाता ऐसे अरिहंत परमात्मा को नमस्कार हो।
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अयोध्यो का इतिहास ।
॥- अथ सरस्वती स्तोत्र -॥
सरस्वती महाभागे, वरदे कामरूपिणी । विश्वरूपी विशालाक्षी, देबिद्धापरमेश्वरी ॥२॥ सरस्वती मयादृष्टा कोणापुस्तकधारिणी । हंसवाहनसंयुक्ता विद्यादाहिनकर प्रदा ॥३॥
॥ अथ गुरु वेदना ॥
सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वाभिष्टार्थदायिने । सर्वलब्धीनिधानाय, गौतम स्वामिने नमः ॥४॥ अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाम्जनशलाकया। नेत्रमन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरुवे नमः ॥५॥
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अयोध्या का इतिहास ।
[३]
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॥श्री तीर्थवृत्तांत । तीर्थमाहात्म्य ॥
6 सुवर्णवर्ण गजराजगामिनं
पलंबबाहु मुविशाललोचनं । नरमरेंद्र स्तनपादपंकजं -
नमानि भक्त्या ऋषभं जिनोत्तमन् ॥३॥ श्रीमवृषभसवज्ञ अषभांक वणरुक् । जादेवाधिदेवाहन्नाभिराजेन्द्रनन्दनः ॥७॥ युगस्यादी त्वयायेन ज्ञानत्रय युते नयत् । जनन्या मरुदेव्यश्च पावनं जठरं कृतं ॥८॥
तो दम्यत्यौ तदा तत्र भोग कर मतां गतौ भोगभूमि श्रियं साक्षाच्च कृतर्वियुताबपि ६॥९
श्री ऋषभदेव जो ( अ.दिना.) के माता पिता मक. देवी और नाभिरा जा इसमें भोगभूमि से युक्त होने पर बड़े आनन्द ले रहे। तस्या मलेकृते पुण्ये देशे कल्याङधि प्राप्यये । तत्पुण्यै मुहुराहत: पुरहूतः पुरीं दधात् ॥६६॥१०
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अयोध्या का इतिहास।
सुरा ससंभमा सद्यः पाकशासनशासनात् । तां पुरी परमानन्दाव्यदुः सुरपरी: विभाः ७०॥११
कल्प वृक्ष के नष्ट होने पर उस देश में ( आर्यावर्त में ) उन दोनों ने मलंकृत किया था, उन्हीं के पुण्यों से माहूत हो. कर इन्द्र नै पुरी रची जो स्वर्ग के देवताओं ने बड़े चाव से इन्द्र की माचा पाकर एफ. पुरो बनाई जो देव पुरी के समान थी। स्वर्गस्येव प्रतिच्छन्दं भूलोकेऽस्मिन्निधीमुभिः । विशेषरमणीयेच निर्ममे साऽमौः पुरी ॥७१॥ १२॥
देवताओं ने यह पुरी ऐसो बनाई कि भूलोक में स्वर्ग का प्रतिविम्ब हो। स्वस्वर्गस्त्रिदशाबासस्स्वलय हन्यवमन्यते । परः शतः जमावासभूमिका तान्तु ते वधुः ॥७२॥ इतस्ततश्च विक्षिप्तानानीयांनीय मानवान् । परा निवेशयामासुविन्यासः रिविधैः सुराः ॥७३॥
देवताओं ने अपने रहने की जगह का अपमान किया, क्योंकि यह त्रिदशा वास (त्रिदश ३३ देवतामों का
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अयोध्या का इतिहास।
[५
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वास ) थो इससे उन्होंने सैकड़ों मनुष्यों के रहने के लिये जगह बनाई । इधर उधर बिखरे मनुष्यों को इकट्ठा करके देवों ने मगर सजाया। नरेन्द्र भवनश्चास्या सुरैर्मध्ये निवेशितम् । सुरेन्द्रनगरस्पर्धि परार्ध विभवान्वितम् ॥७॥ सूत्रामा सूत्रधारोऽस्या शिल्पिनः कल्पजासुराः । बास्तुजातामही कृत्स्ना-सोद्यानस्त कथम्पुरी ॥१५॥
देवों ने इस पुरी के बीच में राजा का प्रासाद बनाया इसमें असंख्य धन धान्य भर दिया जिससे यह, इन्द्र के नगर अमरापुरो की टक्कर का होगया । जब इन्द्र इसके सूत्रधार थे। कल्प के उत्पन्नदेव कारीगर थे और सारी पृथयों में से जो सामान वाहा. सो.लिया । सं च स्कुरुश्च तां वन प्राकार परिखादिभिः । अयोध्यानगरं नाम्ना गुणे नायरिभिः सुराः ॥७॥
फिर देवों ने कोट और खाई से इसे मालकृत किया। . अयोध्या केवल नाम हो से अयोध्या नहीं थी बल्कि बैरियों के लिये अयोध्या थी जिसे कोई जोत न सके।
* श्री जिनसेनाचाय कृत "मादिपुराण' प्र० १२ श्लोक६८, ६९, ७०,७१, ७२, ७३, ७४, ७५, ७६, ७७, ७८ ।
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मयोध्या का इतिहास।
अयोध्या माहात्म्य ।
कलिकाल सर्वंश भगवान् श्रीमद हेमचन्द्रोचार्य कृत- “त्रिषटिशलाका पुरुषवरित्र प्रथमपर्व, सर्ग २, श्री आदीश्वर चरित्र स उद्धृत । विनीता साध्वमी तेन विनोताख्यां प्रभो परीम् । निर्मातुश्रीदमादिश्य मघवात्रिदिवं ययौ ॥११॥ बादश योजना यामां नव योजनबिस्तृताम् । अयोध्येत्यपराभिरख्यां विनोनां सोऽकरोत्पीम्११२ तां च निर्माय निर्मायः पूरयाणस यक्षराट । अक्षय्यवस्त्र-नेपथ्य-धन-धान्य निरंतर ॥९१३॥ अयोध्योनाम तत्रास्नि नगरी लोक विश्रना । मनुना मानवेन्द्रण परैव निमिता स्वयम् ॥ अायता दशच.दूय योजनानि महापरी । श्रीमती त्रीणि विस्तोर्णा नानो संस्थान शोभिता ।
-बाल्मो०- रा०- बा - का० । परमधिशदयोध्या मैथिली दर्शनीनाम |
-रघुबंश १० सगे ७६ श्लोक।
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अयोध्या का इतिहास।
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REAL
वज्रेन्द्र-नील-चैडूर्य-हर्ग-किओररश्मिभिः । भित्ति बिनापि खेतत्र चित्र कर्मविरच्यते ॥९४॥
इन्द्र देव की माला से कुबेरजी १२ योजन चौड़ो । योजन लम्बी विनोता पुगे बनाई जो जम्बुद्रोपके भरस खंड में जिसमे अक्षय धन धान्य भरदीया ऐसी इन्द्र पुरी जिसका दूसग नाम अयोध्या था। तत्रोश्चः कांचनहाय मेरुशल शिरांस्यभि: पत्रालंबन लोवेव ध्वज व्याजाद्वितन्यते ॥१५॥ तत्रप्रेदीप्तमाणिक्य कपिशीर्ष परंपराः। प्रयत्ना दर्शनां यान्ति चिर खेचर योषिताम् ॥९१६ तस्यां गृहां गणभुवि स्वस्तिकन्या स्त मौक्तिकः। स्वैरं ककारिक क्रोमां कुरुते वालिका जन ॥९१७ तत्रोद्यानोच्चबृक्षाग्रस्खल्यमानान्यहनिशम् । नेचरीणां विमानानि क्षणं यांति कुलायताम् ६१८ तत्र दृष्ट्वा हर्मेषु रत्नराशीन समुत्थितान् । तदावर अकुटोऽयं तय॑ते रोहणाचलः ॥९१९॥
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]
अयोध्या का इतिहास
जलकेलिरतस्त्रीणां त्रुटित हीरमौक्तिकैः । ताम्रपणी श्रियं तत्र दयते गृहदीधिकाः ॥२०॥ तत्रैभ्याः संति तं येषां कस्याप्येकतमस्य सः । व्यवहतगतो मन्ये वणिक पुत्रो धनाधिपः ॥९२१॥ नकमिंदु दृषद्भित्ति मंदिरस्यं दिवारिभिः । प्रशांतपशवो रथ्याः क्रियते तत्र सर्गतः ।।२२।। पापीकूप सरोलः सुधा सोदरवारिभिः । नागलोकं नवसुधाकुम्भं परिवभूव सां ॥९२३॥
कयेरै नै पड़तालीस कोस लम्बी छत्तीस कोस चौड़ी अस्ति नाम्नां विनीतेति शिरोमणिरिवावनः ।
-द्वी पर्व। राजधानी का निर्माण।
- - कधेरै नैं पड़तालीस कोस लम्बी छत्तीस कोस चौड़ी “विनीता नामक नगरी तैयारकी यक्षपति कवेर ने उस नगरी को अक्षयवस्त्र, नेपथ्य और धन्य धान्य से पूर्ण किया। उस नगरी में हीरे इन्द्र नोलमणि और वैडयं मणि की बड़ी २ हवेलियां अपनी विचित्र किरणों से मांकाश में भीतके विना
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अयोध्या का इतिहास |
[]
हो विचित्र चित्र क्रियायें रचती थी अर्थात् उस नगरी की
रत्नमय हवेलियों का कलं
विना
आकाश में पड़ने से चित्र बने हुये
दीवारों के अनेक प्रकार के
दिखाई
देते थे ।
मेरु पर्वत को
चोटी के
समान
अंत्री
ध्व' -
-
पोने को होलियां जामों के भिवसे चारों तरफ से पत्रालम्बन की लीला का विस्तार करती थी, जो विद्याधरों की सुन्दरीयों को विना यत्न के दर्पण का काम देती थी, नगरी के घरों के प्रांगन में मोतियों की स्वस्तिक बनती थी और मोतियों से वान्तिकार्ये इच्छानुसार पोची का खेल खेलतीयी नगरीके बागीची गत दिन पड़नेवाले खेचरियों के विमान क्षणमात्र पक्षियों के घोसलों की शोभा देते थे वहां की प्रटारियों और बेलियों में पड़े हुये रत्नों के ढेरों को देखकर रत्न - शि-खर वाले रोहणाचल का ख्याल होता था, वहां की ग्रह - afपकायें, जलक्रीड़ा में आसक्त सुन्दरियों के मोतियों के हार टूट जाने से ताम्रपर्णी नदी की शोभा को धारण करतीथी asi रात में चन्द्रकान्तयो की दीवारों से भरने वाले पानी से राह की धूल साफ होती थी नगरी अमृत समान जलवाले लाखों कुए बावलो और तालाबों से नवीन अमृत
.
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________________
अयोध्यो का इतिहास।
कुण्ड वाल नाग लोक के समान शोभा देती थी*
!! सांकेत पुर॥
सांकेत रुठी रयझ्या श्लाध्यव मुनिकेतनः। स्वनिकेत इवा हातु साकूतेः केत वाहुभिः ॥७७॥
-भादिधुर । भ० - १२ ॥ इसको सांकेत इसलिये कहते थे कि इनमें मच्छे २ मान थे उनपर झण्डे फहराते थे जिस से जानपड़ता था कि देवताओं को नीचे भूलोक में बुलाते हैं।
* प्रष्ट का नवद्वारा देवानां पुः अयोध्या । लस्यां हिरण्मयः कोश सों ज्योतिषावृतः ॥
[प्रथोद द्वितीय स्वरड]
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अयोध्या का इतिहास |
[ १ ]
|| कौशल्या नगरी | विनता नगरी ॥
सुकोशलेति विख्यातिं सादेशाभि स्वया गता । विनीत जनता की विनतेवि च सामता ॥७८॥ - ब्रादिपुराण ॥ ३० १२ ॥
इसका नाम सुकोशल इस कारण था कि उसी नाम के देश क ( उतर कौशल का ) प्रधान नगर था और वित बनों के रहने से इसका विनीता नाम पड़ा *ि
*सांकेत नाञ्जिलिभिः प्रणेमुः ॥
- रघुवंश सर्ग - १६
स्वयमागतं स्वयमागतं साकेतमिति संज्ञा संवृता ।
- बौध ग्रंथ दिव्यावदान
कोसलो नान बिदितः स्त्रीतो जनपदो महान् । निविष्टा सरयूती प्रभूत धनधान्यवान् ॥
- वाल्मीकीय रामायण ॥
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। १२ ।
अयोध्या का इतिहास।
॥ ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो (यजुर्वेद) ।
प्रियव्रतो नामसुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः । तस्याग्निघ्रस्ततो नाभि ऋषभस्तत्सुतः स्मतः ॥ तभाहुर्वासुदेवांश मोक्षधर्म विवक्षया । अवतीर्ण पुत्रशतं तस्यासीद्ब्रह्मपारगम् ॥ तषां वैभरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः ।
-श्रीमद्भागवत पुराण १ स्कन्द ।
धुन्वंत उत्तरासंगां पर्ति वीक्ष्य चिरागत्तम् । उत्तरा कोसला माल्यैः किरतो नन्तुः मुदा ॥२०
-श्रीमद्भागवतपुराण : स्कन्दा १० अ० बृद्धकोशला जादाज व्यङः ।
-पाणिनिसूत्र ४ । १ । १७१ कायन्दी, मायन्दी, चम्पा, भोज्झा, यउज्जैणी॥४॥ सिरिमइ समराइच्च कहा ।।
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अयोध्या का इतिहास।
[ १३ ]
नाभिस्तु जनयेत्पुत्रं मरुदेव्या मनोहरम् । ऋषभं क्षत्रियश्रेष्ठं सर्वक्षत्रस्य पूर्वकम् ॥ ऋषभाद् भारतो जज्ञ वीरः पुत्र शनाग्रजः । सोऽभिषिच्यार्षभः पुत्र महा प्रबृज्जयांस्थितः ॥ हिमाद्रः दक्षिणं वर्ष भरताय न्यरेयत् । तस्मात् भारतं वर्ष तस्य नाम्ना बिदुर्बुधाः ॥ *
___-ब्रह्मांड रण पूर्वभाग अ०६४। ॐ अहं तो मंगलं नित्यं सिद्धा जगति मंगलम् । मंगलं साधवो मुख्यं धर्म सर्वत्र मंगलम् ॥१॥ लोकोत्तमाइहाहन्तः सिद्धा लोकोत्तमाः सदा । लोकोत्तमा यतीशानां धर्मों 'लोकोत्तमोहतां ॥२॥ शरणं सर्जदार्हन्ता सिद्धा शरण मंगलम् । साधवः शरणं लोके धर्म शरणं हन्तान् ॥३॥
~~~~~~ ~~~~~~ * अष्टषष्टि यु तोर्थेषु यात्रार्या तत्फलं भवेत् । श्रादिनाथस्य देवस्य स्मरणेनापि तदुभवेत् ॥
-- शिम्युराण ।
Page #27
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। १४ ]
. अयोध्या का इतिहास ।
पूर्वे इन्द्र, कुबेर देवताओं की बनाई हुई ( १२ योजन चौड़ी ६ योजन लम्बी ) जहां विनीत जन सर्वदा वाम करने रहे दंव, गंधर्व और किन्नर जिम भूमि में प्रवर. णीय के लिये लालायित रहते सनं जगत् में सर्ग स्त्र डो में श्रेष्ट- सर्व नगरियों की शिरोमणि लन तीर्थो में गांजा जैनधर्म की जन्मदा- ऐसी इन्द्र रंगे जर अमर र अयोध्या नगरी में श्रीत्रिभुवन पूनित इवाक बंशके स्थापक मजे क्षात्र में भ पूर्वज क्षत्रियों में श्र युग्लोदि धर्म के प्रणेता शासननायक अनन्त उपकारी अननः बानी श्रमिनेश्व-देव ऋषभ जी गजा नाभी के दरबार माता मारूदेव्या की कक्षी से मनोहर ऐसे भगवान् प्रगट भये। वह भी आर्यावर्त के अहो भाग्य !!
आदिमं पृथ्वीनाथमादिमं निः परिग्रहं । धादिमं तीर्थनाथन ऋषभस्वामिनं स्तमः ।।
-सलाह ।।. आदि + नाम प्रथम ऐ२ प बोके नाय परिग्रहप्रथम परिग्रह रहित- यांनी प्रथम साधु बमान चौवीसी में जैन धर्मकी दीक्षा लेकर प्रथम साधु भये मादिमं तीर्थ जापं च- प्रथम के श्ल्य नप्त करके प्रथम तीर्थ की स्थापनो कर प्रथम तोर्शकर कहलाये ।
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अयोध्यो का इतिहास :
[ १५ ]
पवित्र विनता नगरी में गजानाभि के वहां भगवंत कुमारावस्था में जब रहे तय एक दिन युगलीये माकर , माकर प्रौर धिक्कार- इन तान नीतियों को उलहन करने लगे इस कारण यगलीये प्रभु के पास आये । और प्रभु से अनुचित बातों के सम्बन्ध में निवेदन किया जाति स्मरण पान प्रभु ने कहा
"लोक में जो मर्यादा का उलंघन करते हैं, उन्हें शिक्षा देनेवाला राजा होता हैं।
युगलियो ने कहा- "स्वामिन् आप हो हमारे राजा है। यह बात सुनकर प्रभु ने कहा- "तुम नाभिकलकर के पास जाकर प्रर्थना करो वही तुझे राजा देंगे। "
यगलियों ने प्रभु की माझानुसार नाभिकुलकर के पास जाकर सारा हाल निवेदन किया जबाब में यही मिला कि "ऋषभ तुलारा राजा हो* युगलिये खुश होते हुये भगवान् के सन्मुख प्राकर नमन किया । सौधर्म करप के उस इन्द्र ने सोने की देरी रचकर पाण्डक बला शिला के समान सिंहासन बनाकर तीर्भ जल से प्रभु का राज्याभिषेक किया । तब श्रीमादि मानव श्रेष्ठ भगवंत ऋषभ देव इस संसार का बंधारण और जेन मार्य संस्कृति की रचना कर समस्त जीवों पर अनन्त उपकार किया।
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अयोध्या का इतिहास।
शस्त्रधारी और लोक रक्षा मे दक्ष ऐसे क्षत्रियों को धर्मतत्व और क्रिया में निष्ट ब्रह्मचर्ययुक्त ऐसे ब्राह्मणों को कृषी वाणिज्य और गोपालन करने वाले ऐले वैश्यों को
और अन्य सर्व प्रकार का काम करने वाले ऐसे शूद्रों के लिये चातुर्वर्ण की व्यवस्था कर श्री जैन आर्य संस्कृति का प्रवाह चालू किया पूर्व के महा पुण्य योग से अपने को अजोड जैन शासनकी प्राप्ती हुई है बोभी अपने अहो भाग्य !
जगत पिता किंवा जगतगुरु श्रीजीनेश्वर भगवान् ऋषभदेवजी का जन्म अयोध्या में हुआ इस पवित्र भूमि में भगवान् ने दिक्षालिया। इन्द्र और देवताओं ने समवसरण - को रचना की शासन नायक श्रीआदिश्वरे शासन व्यवस्था के लिये चतुर्विध संघकी ८४ चौरासी गणधरकी दुनिया के आगे दृष्टांत दिखाने के खातिर शासन प्रणाली की जड़ कायम करने के लिये अपने १०० वोर पुत्र में से ज्येष्ट पुत्र परम प्रिय भरतेश्वरजी को विनीता नगरी का प्रधीष्टाता स्थापी मार्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट को गद्दी देकर बाकी १९ पुत्रो को मायर्यावर्त मन्तरर्गत अलग २ प्रान्त राज्य कायम कर कारोबार सौंप दिया और भरतजी के पुत्र पुण्डरीकजी को प्रथम गणधर की पदवी देकर सम्मानित किया।
भगवान् विहार करते एक समय फिर विनीता नगरी
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भयोध्यो का इतिहास ।
। १७
।
के एक महल्ले में जिसका नाम था + पुरीमताल यहां आके ठहरे वहां वट वृक्ष के नीचे त्रिवेणो सङ्गम पर भगधान् को प्रथम कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुमा उसी वक्त तीर्थ
+ पुरीमताल~ वर्तमान काल में प्रयाग के नाम से मशहूर हिन्दु सनातनधर्म का तीर्थराज कहलाता है जहां त्रिवेणी संगम पर किले के भीतर मौर्य सम्राट्महाराज अशोक को बनाई हुई गुफा मन्दिर में अछयवट (अक्षयवट ) के नीचे कैवलय ज्ञान कल्याणक को चरण पादुकायें विराज मान हैं ।
ऋषभदेव अयोध्यापुरी; समोसयी सामी हितकारी। भरत गयो वन्दने काज; ए उपदेश दियो जिनराज ।। जगमा मोहटो अरिहंत देव; चौसठ इन्द करे जसु सेव। तेहसी मोहोटो संघ कहाय; जेहने प्रणमें जिनपर राय ॥ लेहथी मोहोटो संघवी कहायो; भरत सूणीने मन गहगह्यो । भरत कहेते किम पामिये, प्रभु कहे शेत्रुज यात्रा किये ।। भरत कहे संघवी पद मुज; ते आपो हुँ अंगज तुझ । इन्द्र आठया अक्षत वास; प्रभु श्राये संघवी पद तास ॥ इन्द्र तेणी बोला तत्काल; भरत सुभद्राबेहुने माल ॥ पहरावा धर संपेडिया; सखर सोनाना रथ अापीयां ॥ ऋषभदेवनी प्रतिमावली; रत्नतणी कीधी मनरली । भरते गणधर घर तेडीया; शांतिक पुष्टिक सहुतिहांकिया ।।
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[ १८ ]
अयोध्या का इतिहास
रूप मायदेव्या माता के पास, श्रीभर श्वरजी के पास अनु. घर मागये दूसरी तरफ से सिद्धि चक्रको वधाई लकर अनुचर माये भरतजी विचार में पड़गये "पहिले रिद चक्र की भेट कीजाय कि भगवान् की वन्दना कीजाय" ?
माता मारुदेव्या के पास भी अनुचर आये थे माताजी वृद्ध होचुकी थी भगवान् अपने प्रिय पुत्र का माम सुनकर ही माताजी को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुवा, और भरतजी को पास बुलाकर भगवानकी वन्दनांकी तैयारी का आदेश दिया गया ।
कंकोतरी मूकी सहुदेस; भरते तेडयो संघ अशेष । श्राव्यो संघ अयोध्यापुरी, प्रथम तीर्थंकर यामाकरी ॥ संघ भक्ति कीधी अति घणी; संघ चलायो शेत्र जय भणी । गणधर बाहुवली केवली, मुनिवर कोडीसाथे लियावली ॥ चक्रवर्तिनी सघली ऋद्धि; भरते साथे लीधी सिद्धि । हयगज रथ पायक परिवार, तेतो कहत न आवे पार ॥ भरतेश्वर संघवी कहेबाय; मार्गे चैत्य उधर तो जाय । संघ श्राव्यो शेत्रजय पास; सहुनीपुरी मननी श्रास || नयणे निरिख्यो शेजूंजो राय; मणी माणिक मोतीशं वधाय । निणे ठामे रही महोत्सव कियो; भरतें बाँद पुर वासियो ।
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अयोध्या का इतिहास।
। १६ ]
समस्त आर्यावर्त अन्तर्गत राजा महाराजाओं को साय: लेकर सम्राट- श्रीभरतेश्वरजी वन्दना को पधारे तो क्या देखा कि अमरापुरी के देवताओं ने मण्डप और समवसरण वनाया है त्रीगडापर भावमण्डप में भगवान
संघशेत्रंजय ऊपर चढ्यो; फरसंतां पताक उडपडयो । केवल ज्ञानी पगलातिहां; प्रणम्या रायण रुखघेजिहां ॥ केवल ज्ञानी स्नात्र निमित्त; इशानेन्द्र प्राणी सुपवित्त । नदी शेत्रंजी सोहामणी भरते दीठी कौतुक भणी ॥ गणधर देवतणे उपदेश; इन्देवलिदीधो आदेश । आदिनाथ तणो देहरो; भरते काराव्यो गिरि सेहरो ॥ सोनाना प्रासाद उत्तंग; रत्नतणी प्रतिमा मनरङ्ग । भरते श्रीअादीश्वरतणी; प्रतिमा स्थापी सोहामणी ॥ . मरुदेविनी प्रतिमावली; माहीपुनम थापी रली । ब्राह्मि सुंदरी प्रमुख प्रासाद; भरत थाप्या नवले नाद ॥ एम अनेक प्रतिभा प्रासाद; भरकराव्या गुरु प्रासाद ।
एह भण्यो पहेलो उद्धार; सघलोही जाणे संसार ॥ ... सवतचार सत्योतरे (४७७ ) हुवाधनेश्वर सूरि । .. तिण शेर्बुजय महात्म; कहयुं शिलादित्य हुजूर ॥ शेजय महात्म ग्रन्थथाये; रासरच्यो अनुसार ।
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[२० ।
योध्या का इतिहास
अरिहंतविरामान हैं। भरतेश्वरजी प्रथम वन्दना कर सन्मुख बैठे वहां पर भगवाने ११ पुत्र प्रमुख वाहुवलीजी प्रातः स्मरणीय सती ब्राह्मी सती सुन्दरी जैसी सुशील पुत्रियों को दीक्षा देकर प्रथम आर्या- औ शिष्य वनाके दीक्षित किये श्रीभरतेश्वरजी ये श्रीमयोध्याजी में भगवान के आदेशानुसार कनकमय मन्दिर प्रथम तीर्थराज की स्थापना की जव
उवणेउ मङ्गलं वा; जिरणारण मुहलालि जाल संवलिया । तित्थ पवत्तण समये, तिस विमुक्का कुसुम बुट्टी ॥
ऊपर
इन्द्र और देवताओं ने श्रीतीर्थपती राज के कुसुम वृष्टि की श्रीजीनेश्वर ऐसे तीर्थ की स्थापना की कि समस्त जीव तीर्थ की आराधना द्वारा संसार के मोह जाल से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो ।
सम्म सोलछियासि (१६८६ ) श्रावण सुदी सुखकार । रास भय्यो शेत्रुजातगोये; नगर नागरे मझार ॥
खरतर गच्छीय श्रीपूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरिश्वर तस्शीष्य सकल चन्द सुजगीस तासशिष्य उपाध्याय समय सुन्दर रास रच्यो जेसल - र म और भयो नागोर मद्धे सं० १६८६ श्रावण सुदी में
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[२१]
कनक भवन मंदिर में प्रतिमा स्थापना कर भगवान के आदेशानुसार रत्नप्रतिमा साथ लेकर श्रीशेगंजय तीर्थ की स्थापनार्थ संघनी काल कर सिद्धक्षेत्र श्रीशेजय तीर्थ पर प्रथमोद्वार कर प्रथम सिद्धेश्वरजी के पवित्र कर कमलों से श्री ऋषभदेवजीकी, श्रीगणधर स्वामी पुंडरीकजी की प्रतिमा स्थापन की ।
अयोध्या का इतिहास ।
श्रीपांच भगवान के १६ कल्याणक ।
आर्यावर्त के भरत क्षेत्र में उत्तर कोशल की प्रजोड पवित्र भूमि में ऋषभदेव के व्यवन, जन्म और दिक्षा ऐसे तीन कल्याणक । २-भगवान श्री अजितनाथजी के ३-भगवान श्रीमभिनन्दन, ४ - भगवान श्रीसुमतिनाथ, १४- भगवान श्रीमनंत नाथजी के व्यवन, जन्म, दिक्षा और कैवल्य ऐसे चार करके १६ मिल कर ११ कल्याणक हुये ।
इति प्रथम सर्ग |
कनकभवन – सत्ययुग में श्री ऋषभदेवजी के देशनानुसार श्रीभरतेश्वरजी ने कनक-सुवर्ण मन्दिर वनवाकर रत्नजटित प्रतिमा स्थापनकी वाद द्वापर में युधिष्ठिर संवत् पूर्वे ६१४ श्रीकृष्णवासुदेवे यात्राकर कलस चढाया युधिष्ठिर संवत् १४३१ - इ - स- पूर्व २४८ महाराजाविक्रमादित्य जब महाकविकुल भूषण कालीदास के साथ आकर उसका arriaार किया ।
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दितीय सर्ग।
मध्य (पौराणिक ) कोल श्रीअयोध्याजी में अवतारी महापुरूषों काबास
पूर्व काल मे नाभिराय भगवान ऋषभदेव से लेकर भरत चक्रवर्ती, वाडवली, पुंडरीकजी सूर्ययशाराजा, श्रे यासकुमार जितशत्रराजा श्रीअजितनाथभगवान संवरराया श्रीमभिनन्दन, भेघरमा श्रीमतिनाथ, सिंहसेनराया, श्रीअनन्तनाश, सगरच कवी, सत्यवादी राजाहरिश्चन्द्र, महाकवी सभा दिीप, दिग्विजयी पूर्णकुलभूषण
हाः बालिश गी: बहानगीरथजी, बाजी
का धाबी मर्यादा गुरुयो का शा? अशा अवाजा राजा चन्दावतन्त, रा सुमित्र, श्री रहावीर स्वामी के १ मे गण-- घर अचलजी, श्रीवृताबाजी, श्रीजिनप्रभामुनिजी, इत्यादि अनेक राजा महाराजा, साधु अचार्य जैसे महान अवतारी पुरुष होगये हैं।
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अयोध्या का इतिहास ।
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सन्नारी पतिबा आदर्श महिलाओं को बास
श्री मारुदेव्या माता से लेकर रानी सुनन्दा, रानी-- सुमङ्गला, ऋषभनन्दिनी भरतेश्वरजी की वहेनड़ी वालकुमारी ब्राह्मी, सुमङ्गला सुता वाहुवलीजी की वहेनडी साच्या प्रथम आर्या सुन्दरी, माता वजिया, मातासिध्यारथ, माता मङ्गला, माता सुयशा सती तारामती, सती कौशिल्या, सती सीताजी, जैसी आदर्श आदर्श महिलाये होगई हैं महा समर के वादमे अनेक ऐतिहासिक चरित्रपुरुष, महिलाये होगई हैं जो इतिहास के पन्ने खोलने से मालूम होगा यों तो जो कुछ ज्ञान हुआ है वह आगे लिखा जायगा
पुण्यनगरो के पांच नाम।
पूर्व काल से लेकर वर्तमान काल तक इस नगरी के पाच नाम होगये हैं। १- इन्द्र पुरी, २-विनीता नगरी, ३-- साकेतपुर, ४- कौशिल्या नगरी, ५- अयोध्याजी, . योतो प्राकृतमे ओझा पालीमे ओयुटो, और विशास्त्रा, भी कहा जाता है
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[ २४ ]
अयोध्या का इतिहास।
श्राअयोध्या को ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन । श्रीमयोध्याजीका इतिहास (सूर्यवंशी इक्ष्वाकु कुल) ___श्रीअयोध्याजी मृत्युलोककी अमरापुरीथी जिसको स्वायं भुवमनु-मानवेन्द्रण के लिये इन्द्रमहाराज के हुक्म से कुबेर जी ने १२ योजन चौड़ी- योजन लम्बी बनवाया था उत्तर सरहद श्रावस्ती, जहांगंडकी राप्ती, सिरगी का प्रवाह था मध्य में त्रिवेणी, शारदा, सरयू, घाघरा, दक्षिण सरहद में गोमती कौशिकी के पास पुरीमताल पर त्रिवेणी संगम, गङ्गा, यमुना, सरस्वती था, पूर्व में गोरखपुर (कसिया) नगरी पश्चिमसरहद में लखनऊ और कपिलापुरी तक था, जिसमें बनारस श्री अयोध्याजी का स्मशान घाट रहा इतनी बड़ी नगरी के जो सृष्टी की शिरोमणि थी जिसमें प्रथम राजा, प्रथम साधू प्रथम केवरी, प्रथम तीर्थ कर श्री ऋषभदेवजी ने वास किया था अमरावती से बढकर भुमण्डल पर कोई पुरी थी तो अयोध्या थी षट धर्म गत्रों में ग्रन्थों में उसको भूयसी की प्रशंसा की गई है भूधर-शिखर-समदेव निकेतन पुरी की शोभा चैत्य भूमि वरा रही थी जहां साप्त भौमिक कनकभवन विद्यमान थे जहां प्रथम आयं साधु पुंडरीकजी, प्रथम भार्या साधवी बाह्माप्रथम सिद्ध चक्रवर्ती भरत जैसे पूण्यपुरुष होगये। जिसभूमि में सगर चक्रवर्ती ने अनेक दिशामों तथा देशान्तरों तक में
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अयोध्यो का इतिहास ।
दिग्विजयकी थी-जहां दिलीप जैसे महाराजा ने युनानतक सर हद बढ़ाया था। जहां पर राजा भगीरयजी ने अपनी प्रतिज्ञाके बल गर माकाश गङ्गा को हिमालय से पृथ्वी पर मारोहण किया था और इसी भूमिपर आदर्श गमचन्द्रजी ने मगज्य स्थापन किया था तब तक अयोध्या जी अमगपुरो सभ रही।
अयोध्या पर विपत्तिा
श्रीगमचन्द्रजा को रामलीला मरण के बाद हो अयोध्यापर विपत्ति आई कौशलराज्य के दो भाग हुये । श्रीरामचन्द्रजी के ज्येष्ठपुत्र कुशजी ने अपनी राजधानी कुशभवन पर ( कोशाम्बी ) बनाई जो अयोध्या से दक्षिण में २० कोसको दूरी पर गोमतो के किनारे बनाई और कनिष्ठपत्र लवजी ने अपनी राजधानी अयोध्या से उत्तर नेपाल की तबई में राप्ती और सिरगी नदी के बीच में श्रावस्ती नगरी बनाई जो तुषारन और नैमिषारण्य तक विस्तृत थी कुछ काल बाद इस अयोध्या मे कोई राज्य कतो न रहा यजा के विना राजधानी कैसी ? अयोध्या थोड़े ही दिनों पीछे आपसे आप भी हीन होगई अयोध्या के दुर्दशा के समा-- चार सुनकर महाराज कुश फिर अयोध्या आये और
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अयोध्या का इतिहास
[२६]
कोणामिव ब्राह्मणों को दान देदी तब से महाभारत तक वरावर सूर्यवंशी ( इक्ष्वाकुओं) की राजधानी रहा जिसमे १३ राजा महाभारत के पहिले होगये ई- मन् पूर्व ११०० वर्ष मे महासमर मे वाणावली अर्जुन के पुत्र कुमार अभि मन्यु के हाथ से अयोध्या का सूर्यवंशी गजा मारा गया इसके बाद इस नगरी की ऐसी कि अयोध्या बिलकुल उजड़ गई सूर्यकुल लोन होगया इसके वाद सूर्यकुल वंशी ३१ राज रहे जिस वक्त का राज्य कारोवार डामाडोल रख ।
वृद्धल
तवाही आई
अन्धकार मे
शिशुनाकवंशी राजा ।
इ- सनपूर्व शिशुवंश का वा राजा नन्दिवधन जैन धर्मी रहा
बौद्ध और जैन धर्म की प्रवृत्ती ।
इ- सन् पूर्व ६०० के अरसे मे शाक्यसिंह का जन्म कपिलवस्तु ( हालवस्ती ) मे हुवा जिनने शाक्त संप्रदाय बालों का सामना कर "अहिंसा परमोधर्मं " " अरिहंत" धर्मं की घोषणा की स्थापनाको जिनका दूसरा नाम
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अयोध्यो का इतिहास।
[ २७ ]
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भगवान सिद्धार्थ बुद्धदेव थ श्रावती में रहे और माधु हुये अयोध्या [ प्रो युटो] विश पा मे १६ साल चतुर्मास करके सूत्रोंकी रचनाकी धर्मोपदेश किया और कुशीनगर मे ( कुसिया गोरखपुर के पास मे ) निर्माण को प्राप्त हुये तब से कुछ अयोध्या का पता चलता है और वौदों के समय अपोध्या अच्छी रही।
इ० म पर्व ५ ७ में साम्प्रतकल में चर्मतीर्थ र भगवान श्रीमहावीर स्वामी कुगड ग्राम में जन्म लिया दिक्षालेकर जैन धर्म का "अरिहंत" धर्म का सिद्धांत समझ.कर 'असा परमो धर्म' का झंडा सारेभारतवर्ष मे फहराया श्रीमहावीर प्रभुने १२ वर्ष छमस्थ अवस्थामें वि र कर गांव के बाहर चैत्य के पास ऋजु वालुका नदी के तट पर श्यामक ग्रहपती के क्षेत्र मे श लत के नीचे बैसाष शुक्ल १० हस्त उत्तरा नक्षत्र मे कैवल्य ज्ञान हुवा - इस वक्त और भगवान पार्श्वनाथ के वक्त उत्तर प्रान्त मे जैन धर्म अच्छा चला और श्रीअयोध्याजी में ( लब्धी शास्त्री ) गौतम गणधर स्वामी ये शास्त्रों- सूत्रों की रचना स्वर्ग: द्वारी के श्रीआदिश्वरजो के चैत्यालय में बैठकर किया था उस वक अयोध्या अच्छी रही श्रीमहावीरप्रभु और भगवान बुद्ध के समय में अयोध्या छोड़कर श्रवस्ती नगरी उत्तर कौशल देश का रजधनी रही उपयुक्त शहरों में श्रीमहायो
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प्राध्या का इतिहास
२म 2 अख्य धामिक प्रवचनकर अनेक मुमुक्षों को सन्मार्गपर लाये थे इनसव शहरों में जैसे बुद्ध भगवानके अनुयायी थे जैसे ही जैन श्रावक और श्राविकाये मी अगणित थी
इति द्वितीय सर्ग ।
Auran
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तृतीयसर्ग। नन्दवंश।
ऐतिहासिक काल ।
शिशुनाक वंश के राजाओं का रोज्यकाल
इ. स. पूर्व ४६५ में शिशुनाक वंश का ९ वा राजा नन्दीवर्धन वौद्धधर्म अंगीकार कर श्रीअयोध्याजी में मणीपर्वत पर एक स्तूप और मन्दिर वनवाया था ।
इ० स० पूर्व ४६३ से४२० पूर्व तक में शिशुनाक वंश का १० वा राजा हानन्द जिसने राज्य क्रान्ति की और इक्ष्वाकु वंश का ६.त्रिय राजा को (महासमर के वाद का ३१ वा } सुमित्रको मारकर अयोध्या की राजगद्दी पर से सूर्यवंशियों का नाश कराया उसके बाद के राजा महापद्म नन्दने पाटलीपुर (पटना) मगध में राज्य
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अयोध्या का इतिहास |
[३०]
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कायम कर इस पूर्व ४२२ में नन्दवंश चलाया जो राजा वौद्ध और जैनधर्म पालना था इस राज्य काल मं ३६ वर्ष तक अयोध्या को कोई सझालने वाला न रहा नन्द राजा के भद्र चक में राज ग्रहीनगरी में इ० स० पूर्व ६०० की श्री अरिहंत की प्रतिमा स्थापनकर चैत्यालय वनवाया था और नन्द राजा के प्रधान शकाडल के पुत्र ने जैनधर्म अंगीकार कर श्रीस्थूलिभद्र स्वार्म) हुये इ० स° पूर्व ४०० जिन ने जैनधर्म का प्रचार किया ।
मौर्यकुल वंशी गुप्त राज्य काल ।
इ० स० पूर्व ३२२ में कोलिय चाणक्य ब्राह्मण के हाथ से नन्द वंश का नाश हुआ पाटलीपुर मगध देश की गद्दी पर प्रथम राजा चन्द्रगुप्त भारूढ हुये आप के समय अलेकझएडर माया था और सिकन्दर युनानी राजा के साथ लड़ाई में सन्धि करली और सोल्युकस नाम का एलची भारतकी राज्य सभा में दाखिल किया आपने सोल्युकस की वहिन के साथ व्याह करके एशिया खण्ड का समस्त हिन्दुवों का साथ छुड़ा हुम्री सम्बन्ध फिरसे जोड़लिया भाप के पुत्र विन्दुसार भद्रसार ने मण्डलेश्वरोंसे लड़ाईको और आपके वाद गद्दावर वैठे
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[ ३१ ]
अयोध्या का इतिहास ।
इ-स-पूर्व २९० से २७३ तक में विक्रमादित्य ने राज्य किया। आपका नाम दूसरा चन्द्रगुप्त आपके राज्यकाल में अच्छे विद्वान कवि गज्यदरबार में रहे, आप समस्त एशिया पर विजय किया था और आपके साथ महा कवि कालिदास सब जगह घूमे थे, तक्षशिला नगरीका राजा कनिष्क जो क्षत्रप शाक्यकुल का रहा जिसने अपने नाम का सम्वत् चलाया था और पश्चिम भारत एशिया-देशपर आधिपत्य रहा आपके वक्त के बहुत कुछ शिलालेखसिक्के मिलते हैं । जिसमें से मथुरा की श्रीमहावीरजी की प्रतिमा पर का लेख है । जिसका राज्यका ई-स-पूर्व-२१६ का है।
"सिद्ध महाराजा कनिष्कस्य राज्ये सम्वत्सरे नवमो ९॥"
चन्द्रगुप्तदूसरे ने कनि क र जा को जीतकर उज्जैनीका राजा विक्रमको जीतकर और श्रावस्ती नगरी के राजाको जीतकर, उत्तर कौशल की राजधानी श्रावस्ती में से राज्य छोडकर अयोध्यामे अपना राज्य कायम किया उजडी हूई अयोध्याका उद्धार किया और मापने सम्वत् चालूकर विक्रमा दित्य नाम धारण का मापक वक्त में प्रथम श्रीरामचन्द्रजी का जन्मस्थान पर बडा भारो मन्दिर बनवाया जिसका द्वार पूरा कसोटी काला सङ्गमरमर पत्थर का रक्षा दूसरा मन्दिर श्री आदिश्वर जो का दीताकल्याणक वाला बनवाया जो हाल में मौजूद है और तीसरा कनकभवन वनवाण और दूसरे
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अयोध्या का इतिहास।
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भनेक मन्दिर बनवाकर अयोध्या आबाद किया । मापके गज्यकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत भ्रमण को माये थे जिसका वृत्तांत जेम्स लेग साहब ने "फाह्यान की यात्रा" नामक पुस्तक में लिखा है मापने जैन, बौद्ध, शैव धर्मपर समान प्रेम कहा था।
इ-स-पूर्व-२७३ से २३७ तक आपके उत्तराधिकारी महाराज अशोक हुए आपने बौद्धधर्म अङ्गीकार कर अरिहन्तको प्रतिमा स्थापनकर बहुत से चैत्यालय, बौद्धमठ, शिलालेख स्तूप कीतिम्तम्भ बनवा ये मापका बनाया हुमा-प्रथम स्थान श्री आदिश्वरजी का मन्दिर, स्वर्गद्वारी पर का और २००फोट उचा कीर्तिस्तम्भवनवाया रहा और आपके समयमें भारतवर्ष में एशिया खण्ड में चीन, जापान, तिब्बत मंगोलिया वमा, सिलोन मलायावी, देशोपर वौदधर्म का प्रचार किया भाप धर्म प्रेमी रहे २०० फाट ऊचा कीर्तिस्तम्भ स्वर्गद्वारी पर बनवाया था।
मापके बाद महाराज कुणाल ( दशरथ-वधु पालित ) हुये और भापती सोतीली मां के कारण दश वटा लेना पड़ो बड़ी कठिनाइयां उठाई और माता का हुक्म सुनकर भांखें फोड़ देना पड़ा माखोर घूमते २ उज्जैनों के राजा की लड़की
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प्रणेध्या का इतिहास।
[
३]
के साथ न्याहकर दिया आपसे जो पुत्र हुआ वो जज्जैन को गद्दी पर बैठा जिसका नाम था प्रगत-या-इन्द्रपालीत-संप्रति
___ इ.स-पूर्व २२१ से २२२ पूर्व तक महाराजा सम्प्रती दादा के साथ लड़ाई कर पाटलिपुत्र की गद्दीपर घेठे मापने उज्जैनीनगर मध्ये जैनाचार्य श्री प्रार्य सुहस्तीसूरिजी के प्रति वौद्धसे जैनधर्म अङ्गीकार किया मापने अयोध्या में प्रथम श्री आदिश्वरजी का दिक्षा कल्याणवाला मन्दिर बम वाया हालमें आपके वक्तकी प्रतिमायें मौजूद है, मापने व्रत लिया था कि रोज एक मन्दिर में जैन प्रतिमा स्थापन कर श्रवण करके दतून धरते आपने सवालक्ष जैन मन्दिर, सवा फरोड़ नवीन प्रतिमायें भराई ३६ हजार जीर्णोद्धार किये १५ हजार धातु प्रतिमाये भराई १लक्षदान शालायें बनवाई जैनधर्म का शासन धर्म को प्रचार के खातिर काबुल ग्रीकदेश एयंत उपदेशक भेजे, बहुत से परधर्मी महान सागर सम जैन प्राय शासन में मिल गये मार्य जैन संस्कृतीका प्रवाह इतना वढ़ाके सारा एशिया खण्ड में जैन शासन झण्डा फहराने लग गयों उसवत का आर्यावर्त का एक एक वच्चा अपने को "अहिंसा परमोधर्मः” कहने में गौरव समझता था मार्यावर्त के कोने कोने में जैनधर्म की वीरहाक सुनाई पडती थी मगर क्या ? प्रति पक्षियों से ये कुछ सहन न हो सका !?
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[ ३४ ]
अयोध्या का इतिहासा
गुप्तवंशियोंका मगधमें से टूटना साधुओंका बिहार भुशांग वंशका जोर जुल्म - कलिङ्गपती का
युनानी का धावा ।
इ.स. पूर्व १८५ में मौर्यवंशी १ मां राजा ब्रहद्रथ का सेनापती पुष्पमित्र अपने स्वामी को कमजोर समझ कर दगा से मारकर मौर्य वंशियों को भगाकर पाटलीपुत्र की गद्दी पर जवरदस्ती से बैठ गया गज्य में गड़बड़ी पड़ गई धर्म में धक्का पहुंचा साधु महाराजाओं को विहार में दुःख होने लगा पुष्पमित्र कट्टर सनातनी रहा उसके साथ में पाणिनी नाम का भाचार्य रहो जिसकी सहायता से प्रथम वार वौद्धोंको सताया पूर्व मगध से लेकर पश्चिम जालन्धर तक मेसे बहुत से बौद्ध मठ जला दिये वौद्ध भिक्षु मार डाले गये और अयोध्या में २ + अश्वमेध यज्ञ किया जिसका वर्णन "माल्विकाग्निमित्र नाटक में आयो है
+ "पुष्पमित्रं याजयामः " | --पतञ्जलि सूत्र "अरुणद् यवनः साकेतम् । पतञ्जलि सूत्र
अयोध्या का इतिहास पृष्ट १०१
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प्रयोध्या का इतिहास |
[३५]
जिस नाटक का नायक अग्निमित्र पुष्यमित्र का लडका रहा जिसका जिक्र काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका में दिया है उस समय जैनधर्म पर धक्का जरूर लगा है विहार में बाधायें जरूर पड़ी हैं पुष्पमित्र ने सारा मगध पर अपना अधिकार जमालिया उत्तर कौशल राज्य के जो राजायें रहे वो अपने मंडलेश्वर खण्डिये बनाये गये मगर कोई भी धर्म पर प्रहार करने वाला का दौर ज्यादा दिन टिक नहीं सकता ।
इ० . पूर्व १६५ में कलिङ्गपति x 'खारवेल' का आक्रमग हुमा उस लड़ाई में पुष्पमित्र भागकर मथुरा में जाकर छिप गयो उस अरसे मे इ. स. पूर्व ६०० की राज ग्रही तीर्थ में स्थापित श्रीमरिहंतकी प्रतिमो वचाकर अपने साथ लेकर लड़ाई शान्त होने पर पाटलीपुत्र में गज्या रोहण के साथ भुवनेश्वर के निकट प्राची नदी के तटपर उदयगिरि ( कुमारीगिरि) की हाथी गुफा में एक प्रासाद
x “भारत भूमि और उसके निवासी” पृष्ट १८ - में श्रीजयचन्द्र विद्यालङ्कार - रोयल एशियाटीक सोसाइटी कलकत्ता - बिहार, प्रोडसा की रीचर्स सोसाइटीका जनरल का तृतीय बिभाग चतुर्थ संख्या- पृष्ठ ४३५-५०७ में आर्कोलोजिकल फइण्डिया एन्युअल रिपोर्ट सन् १९०२,३ प्रचीन जैनलेख संग्रह भाग १ - उपोद्घात पृष्ट ३८ (गुजराती)
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[३६]
अयोध्या का इतिहास
बनवा कर " नन्दू राजा केतुमद्रकी स्थापित प्रतिमा चैत्यालय में स्थापित की । अरिहंत मन्दिर बनवाया और गुफा में उची कलिङ्गचक्रवर्ती राजो खारवेल के त्रयोदश वर्ष व्यापी रोजत्व के विवरण वाला शिलालेख खुदवाया जे। लिपि अर्धमागधी जैन प्राकृत लक्षणों से युक्त अपभ्रंश भाषा मे है । बाद में अपने को दोमराज, भिक्षुराज धर्मराज घोषित करना |
इ. स. पूर्व १५४ में युनानी राजा मीनान्दर भारत पर आक्रमण किया और पुष्पमित्र से मीनान्दर का कठोर युद्ध हुवा जिसमें युनानी राजा को अपने देश भागना पड़ा जिसका उल्लेख पतञ्जली ने अपने योग सूत्र में दिया है
इ- सनकी १ ली सदी में गुप्तराजायें मगधदेश से भाग कर मध्य प्रान्त मध्यभारत में होकर पश्चिमभरतमें आये और वहां के छोटे २ राज्यों को जीतकर बल्लुमिपुर में राजशानी बनाया जो इ-स-१२० से ४१० तक राज्यचलाया | मगध-पूर्व उत्तरभारत के राज्यों में गढ़बड़ी पड गई वर्मो में आपस में झगडो हुमा प्रभु को प्रसन्न न हुआ कुछपती कोपहुमा विहार में १० दस सालका दुष्काल पडा बरसात बुन्द्र भर न माया वौद्ध जन धर्मी राज्यकर्ताओं का भाग जाने से दुष्काल पडने से साधु विहार में बाधाये पड गई और
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अयोध्या का इतिहास।
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श्रमण संघमे गड़बड़ी पडं गई इस वक्त धर्मधुरन्धर जीर्णो. द्धारक तीर्थ रक्षक महाश्रतधर श्री आयर क्षत सूरजी जैनधर्म की रक्षा के लिये खड़े हुये आपने शुरू मे ४५ ग्रागमों को ग्रन्थिन किये और बहुतसा काम किया जो जैनधर्म का इतिहोस में अमर नाम रखा है।
बादमें दुष्काल के वक्त साधु शिष्य समुदाय को लेकर एक बडे प्राचार्य खडे हुये जिनका नाम श्री आर्य वज्रस्वामी मापन शुरू में ही लम्बा विहार शुरू किया और प्रथम कलिङ्ग उडीसा के राजा को जैनी बना कर पुरी, नेमीनाथजी की प्रतिमा स्थापन की और आगे विहार शुरू किया आपने श्री महान धावक विद्यागामी श्री वज्रस्वामीजी हये आपको बाल्यावस्था में जाती स्मरण का ज्ञान हुमा मापने ओस. वालवंश जैनी जावडशाके हाथ श्रीशेनंजय तीर्थ का उद्धार कराकर आप वहांसे रास्तेमें कइएक राजाओंको जैनधर्मी बना कर शिष्य समुदाय बड़ाकर द्राविड़देशमें जाकर वहां के बहुत राजाओं को जैनी बनाया आपके बाद श्रीरत्न प्रभा सुरिश्वरजी ने इ-स-१६५ में ओसियानगरी में ओसवालों को जैनी बनायें और पश्चिम भारत के कोने २ जैनधर्म का झंडा शुरू किया बाद में फिर वहां पर बौद्ध-जैनधर्म में झगड़ा पैदा हुआ इ-स-२५३ में श्रीमलवादी सूरिजी वलभिपुर की सभा मद्धे बौद्धों को शास्त्रार्थ करके हराया वाद फिर ग्रागमों में सभा में गडवड़ी
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अयोध्या का इतिहास।
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पड़गई इस वक्त इ-स- ४५३ में वल्लभिपुर की धर्म सभा में जैन आगमों को श्रीदेवर्धि क्षमा श्रमणे उद्धार किया लिपीबद्धइस वीच में पांचसो वर्ष के राज्यकारोबार में अयोध्या पर वहुत विपत्ति आई कोई तीर्थ को-राज्यकारोवार को अच्छी तरह सभालने वाला न रहा क्षत्रिय राजा भाग जाने पर वैश्यराज्य कर्ताओं का कारोवार चला और अयोध्या वैश्यों के हवाले गई।
इ-स-६०१ से ६४७ तक वैश्यराजा हर्षवर्धन का राज्य कन्नौज नगर में रहा अयोध्या का कारोवार अपने हस्तक रहा आपके वक्त में दूसरा चीनी यात्री ह्यानचांग भारत भ्रमण को आया था उसने अयोध्या का वृत्तांत करुण कथनी के साय में लिखा है जब वो वल्लभिपुर में गया तब वहां पर का जैनधर्म के लिए अच्छा लिखा है वहां राजा वालादित्य था
कुमारिलभट्ट और श्रीमच्छङ्कराचार्य
इ-स-५२१ से ६५५ तक में कुमारिलभट्ट नामका ब्राह्मण प्रथम बौद्ध भिक्षुवनकर अभ्यास कर धर्म छोडकर अपने गुरु बौद्धों से शास्त्रार्थ कर हराया और उसने बौद्धधर्म का बहुत खएडन किया और वैदिकमत का पुनः स्वीकार-संस्कार कराकर भट्टपाद की उपाधि से अलंकृत किया आपने मीमांस दर्शन पर वार्तिक भाष्य लिखा आपके दो बड़े शिष्य रहे जिन
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[३९]
अयोध्या का इतिहास ।
का नाम था प्रसिद्ध मीमांसक प्रभाकर,
मिश्र
और मुरारी इ-स-६११ में केरल मलवार देशमें चिदम्बरम् ग्राम मद्धे श्रीशङ्कराचार्य का जन्म हुआ आपके पांचवर्ष की कुमार बाल्यावस्था में पिता श्रीमरगये और आठ वर्ष की उमर में द्राविडदेश त्यागकर उत्तर दिशा प्रयाण किया कुमारिलभट्ट से शास्त्रार्थ हुमा और दोनों ने मिलकर वौद्ध-जैनधर्म पर कुठारा• घात शुरू किया । x
10%
( चैत्यवासी यती महाराज ) श्रीवास्तव कायस्थ राज्यकर्ता *
इ-स- की सातवीं शताब्दी सारा भारतवर्ष में धर्म परिवर्तन- राज परिवर्तन की शताब्दी कही जाती है जहां देखो
* अवधगेटीयर वोल्युम - १ - पेज ३ - अयोध्या का इतिहास । रायले एशियाटिक सोसाइटी जनरल १२ -- पृष्ठ ७ - रासमाला पृष्ठ ५४ गीता रहस्य -- धर्मयोग--तिलक महाराज कृत ।
* श्रवधगेझेटियर वोल्युम १ - पृष्ट ६०७ अयोध्या का इतिहास पृष्ठ ११५
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अयोध्या का इतिहास।
( ४० )
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वहां राज्य के लिये मारा मारी में आचार्यों में धर्मग्रन्थों में मारा मारी परिवर्तनमें सब कुछ हो गया, उस वक्त अपनी अयोध्या उत्तराखण्ड की अजोड भूमि हो रही थी साधु-शिष्य समुदाय को लेकर विहार कर गये श्रावक श्रमण संघ में धर्म परिवर्तन होने लग गया जहां वहुत श्रावक रहे वो वदल गये और जहां नहीं थे वहां नये हो गये ऐसे वक में तीर्थों को सम्भालने वाला न रहा कल्याणक की पवित्र भूमियों को कोई वचाने वाला भी न रहा तब ई-स-६४७ से ११०० तक में श्रीवास्तव कायस्थ राज्यकर्ता रहे आये अयोध्या पर राज्य अमल चलाया आप सब जैनी रहे आप शाकाहारी थे और संध्याको भोजन करते नहीं आपके वंशजों में से इ-स-११४२में इलाहावाद जिले के गढ़वायाम में और एक मेहवड में श्री सिद्धेश्वरजी का मन्दिर श्रीवास्तव जैनियों ने बनवाया था जिसका शिला लेख हाल इलाहाबाद अजायबघर में है आप सब राज्यकर्ताओं ने जैनधर्म का अच्छा रक्षण किया अयोध्या का मन्दिर का कारोवार आपके पास था
ऐसे मौके पर धर्म का तीर्थभूमिका समालनेवाला न रहा सब कोईके चले जाने पर भी चैत्यवासी यतीवयं महाराजाओं ने चैत्यवासी मूरिश्वरों ने धर्मका रक्षण किया प्रादर्श महात्माओं ने प्राणांत कष्टों को सहन कर. जैनशासन की धर्म ध्वजा विस्तीर्ण प्रदेश में फहराया इन पुण्य
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अयोध्यो का इतिहास |
/ ४१
लोक जगदवंद महर्षियों ने अधापि पर्यंत प्रभुका त्रिकालाबाधित अविकारी शासनको अविच्छिन्न परम्परायेटकावी - रखा धन्य हो ! ऐसे परम योग निष्ठ शासनप्रेमी महात्माओं को
इ० स० १०३० में महमुद गजनवी के भांजे संयदसालार इस देश पर चढआया उसने प्रथम मुस्लिम सिपाही ने श्रीअयोध्या पर वार किया- बाद में श्रावस्ती गया वहां पर जैनी राजा सुहेलदेव के हाथ से बहरायच में मारा गया वहां पर भाप की कबर वनी हुई है ।
ई० स० ११६५ महम्मदगोरी भारत पर चढाई कर आया और हिन्दू राजा पृथ्वीराज को मारकर दिल्ली की गद्दी पर श्रारूढ हुआ आप के साथ में आप का भाई मखदूमशाहगोरी आया था इसने मयोध्या में आकर स्वर्ग द्वारवाला श्रीश्रदिश्वरजी का जन्मस्थान का मन्दिर, वा सम्राट अशोक का बनवाया हुआ कीर्तिस्थम्भबौद्धमठ और चैत्यालय को नष्ट कर दिया और उस जगह पर मसजिद वो घनवाया जो हाल में शाहजूरनका टीला के नाम से मशहूर है उस जगह वीरान टीला और मकवरें टूटीफूटी मौजूद है । टोला के धं भाग में फिर से इ० स० ७२१ में नवाव शुजाउद्दौला के खजाची संठ केसरसिंह अग्रवाल दिल्ली वाले ने नवाव के हुक्म स
मकवरा
P
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[ 8 ]
अयोध्या का इतिहास
वनवाया और चरण स्थापित किये यहां पर लिखने की जरूरत है कि शाह एक छोटी सी सेना लेकर इस तरफ. आया और सनातनियों की कोई हानि न पहुंची और जैन धर्म पर इस का वार क्यों हुआ ? जिसका कारण यही मिलता है कि जैन लोगों को सनातन धर्मियों से कुछ सहायता नमिली मौर हिन्दू जो जैन मन्दिर का घण्टा सुनना पातक समझते थे वो लोग जेन मन्दिर नष्ट होने पर खुश हुये
इ० स० १५२६ में बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई दो वर्ष बाद अयोध्या मे ई० स० २५२८ मे खास श्रीरामचन्द्रजी का जन्मस्थान ( जिसको महाराज विक्रमादित्य ने बनवाया था ) वो तोड़कर मसिजद घनवाई जो खंभे कसोटी के थे जिसमे से दो स्तम्भे फाटक पर लगे हैं दो दिल्ली लेगये दो प्रजायवघर फैजावाद में हैं दो वशिष्ट कुण्ड सड़कको पूर्व कारिस्तानमें उजडे पडे हैं :
इ० स० १७३१ मे दिल्ली के बादशाह ने नये मन्दिर मसजिद बनवाया तव से लखनऊ की नवावी शुरू हुई और नवाब शुजाउद्दौला ने उसे परिवर्धित कर फल
= अवध गेझेटिय बोलगुन १- पृट १३काइतिहास पृष्ट १०६ फारसी ग्रन्थ दृरवाहस्त
अयोध्या
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अयोध्या का इतिहास।
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[ ४३ ]
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पाया मम्प्ररमलीखां के समय मे प्रवधकी राजधानी फैजावाद हुई भयोध्या की राजेश्वरी लोप होगई मन्दिगें के स्थान पर मसजिद वनवाई और मुसलमानों के लिये अयोध्या करवला हुई मकानों की जगह कवरों ने वास किण अयोध्या का स्वरूपही बदल गयो बाद में इ० स० १८०० में शाकलद्वीपीय ब्राह्मण राजो के राज्य काल में अयोध्या माये सो प्राज तक मापके राज्यवंशिमों के पास है और आपके साथ सरकार बहादुर ब्रिटिश गवर्नमेन्ट के राज्य में सव प्रजा सुख चैन से प्रावाद है
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चौथा सर्ग।
वर्तमान काल ।
इस तीर्थ को धीआदीश्वरजी से लेकर आजतक में जिस महाराजाओं ने बनवाया । उसका प्रमाण वता चुके हैं और एक बताता हूं इस समोवथरय को
अरिहापण नमे तीर्थनेरे समवसरण नाभूप- जहां सकलाक्ष जिन मन्दिरारे जिन मरिडत पुर. ग्राम । सवा कोडी जिनबिंवनेरे भरावे सम्पतिराय शाल भण्डार एकवीश कर्यारे कुमार नरेन्द्र शुभठाय
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[ ४५ ]
अयोध्या का इतिहास।
"१-भरत २-सागरलेन ३-महापद्म ४-हरीषेण ५-सम्प्रति ६--कुमारपाल ७- वस्तुपाल"
मुसलमानी राज्यकाल में बहुत सम्वेगी साधु आचार्यों ने तीयों के रक्षणार्थं शाही हुक्म निकाले दिल्ली के वादशाहों को शिष्य बनाया जिसमें श्री ही विजय सूरिश्वरजी, श्रीजीन चन्द्र सुरिश्वरजी, श्रीजीनदत्त सुरिश्वरजी मौर श्री जीनकुशल चन्द्र सुरिश्वरजी मुख्य हैं आप सुरिश्वरोंकी तरफ से तीर्थीका रक्षण हुन तो जरूर है मगर जो काम चैत्यवासियों ने किण था वैसा उत्तर भारत के तीर्थों के लिये किसी ने नहीं किया जिसमें इ-स-१८२० वी-सं-१८७७ में काशीनिवासी ब्रहद खरतर गच्छीभट्टारक श्रीजीन लाभ सरि शिष्योपाध्याय श्रीहीरधर्म परिजी तत्शिष्य श्री वृहद् खरतर गणीय पाठक श्रीकुशलचन्द्र सूरिजीके उपदेश से जयपुनिवासी प्रोसवाल वंशीय शेहगोत्रिय श्रीहुकमीचन्द जी तत्पुत्र श्रीउदयचन्द्र तथा बीकानेर निवासी ओसवालवंशीय वडेर गोत्रीय सामन्त सिंह जी के वरद हस्ते इस तीर्थ का पुनरोद्धार हुमा और उत्तराखण्ड की भूमि पर भनेक पाखण्डियों को हराकर बनारस के रामघाट का पुराना
.१- सगरचक्रवर्ती २- महापद्मनन्द जिसने नन्द वंश चलाया . ३-वीशस्थानक पूज्य पद
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अयोध्या का इतिहास ।
[
४६
]
मन्दिर पर पूर्व की चैत्यवासी सूरिश्वरों की गद्दी, भेलुपुर, भदैनी, चन्दपुरी, सिंहपुरी, रत्नपुगे और अयोध्या तीर्थ का रक्षण के लिये महासमर्थ प्रयत्न किये, और आपके बाद मंडला चार्य बालचन्द्रजी के पटशिष्य दिग्मण्डलाचार्य श्री नेमचन्द्र सूरिजी ने पूर्व गद्दीधर प्राचार्य सुरिश्वरों का कारोवार सम्भा ल कर तीर्थं रक्षण के लिये कार्य शुरू किया।
इ-स-१८७७ में शेठजी माधवलाल दुगड कलकत्ता वाले को कार्यभार सौंप दिया था जो दस साल के बाद कुछ अव्यवस्थ कागेवार रहा बादमें श्रीनेमचन्द्र महाराजे कलकत्ता वाले सेठजी लाभचन्द मोतीचन्दजी से लिखापढ़ी करके मिरजापुर निवासी मेमर्स धनसुखदास जेठमले फार्म के मालिक मानरेरी मजिस्ट्रेट वाबू मिश्रीलाल जो रेहानी को सोंप्रत किया जो हाल में तीर्थ के ट्रस्टी महाशय के कारोबार में मन्दिर और धर्मशाला हैं।
बौद्ध ग्रन्थो में अयोध्या तीर्थ ।
इण्डियन प्रेस प्रकाशित "हूंयोनचांग" का प्रवास वर्णन परसे उघृत पृ० ३४४ गार्डन माफइण्डिया पृ० ६४, ६५ बुद्धीष्टइण्डिया परसे उद्धृत
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अयोध्या का इतिहास |
[ ४७ ]
अयोध्या को पाली- प्राकृतभाषा में "श्रीयुटो" कहते हैं और बौद्ध अन्य में विशाषा लिखा गया है। प्रारम्भिक वौद्ध कालीन इतिहास में विशाषा देवी का नाम बहुत प्रसिद्ध है राज ग्रहीनगरी का धन धनञ्जय की वेटी का नाम विशाषा था जिसका व्यहि श्रावस्ती नगरों के राजा पूर्णवर्धन के साथ किया था जिसने प्रथम वौद्ध धर्म ग्रहणकर प्रथम आर्या बनीथी और बुद्धदेव के लिये एक बड़ाभारी मठ श्रावस्ती में बनाया था जिसका नाम प्राकृत " पुष्पाराम मातृ प्रासाद" लिखा है विशाषा ने अयोध्या में भी एक मठ बुद्धदेव के लिये बनवाया था जिसके नाम पर से अयोध्या को वौद्धधर्मी विशाषा कहने लगे बुद्ध देवे विशाषा में १६ पर्वतक चतुर्मास किये थे और धर्म के सिद्धान्त - सूत्र बनाये थे जिस सूत्रों को "मञ्जन वाग" में बैठ कर सुनाये थे अवदान का प्रमाण देकर लिखा है कि अञ्जन- बुद्ध देव के नाना थे जिस के नाम पर से अअन वाग नाम रक्खा था ।
प्रवास वर्णन में लिखा है कि अयोध्या में १०० सङ्घाराम और ३०० साधु रहते थे जो हीनयान मौन महायान दोनों सम्प्रदाय वाले पुस्तक अभ्यास करते थे नगर में ३६० जैन अरिहन्त के मन्दिर - पर पौसाला- ३०० यतीमहा राज और लाखों श्रावक श्रमण संघ निवास करते थे और
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अयोध्या का इतिहास |
[८]
कोई दस देव मन्दिर है जिनमें अनेक सम्प्रदायी निवास करते हैं । राजधानी में एक प्राचीन संघाराम हैं जिसमें भगवान बुद्धदेव ने वास कर सूत्र बनाये थे और जहां पर वसुबन्धु बोधीसत्व ने कई वर्ष के कठिन परिश्रम से अनेक शास्त्र हीनयान महायान दोनों सम्प्रदाय विषयक निर्माण किये थे अनेक देश के राजाये वडे मादमी के भ्रमण के के निमित्त धर्मोपदेश किया था ।
लिये उपकार
नगर के उत्तर सरयू किनारे पर बडा संघाराम है जिसके भीतर अशोक राजा वनाया हुआ एक बड़ा स्तूप २:० • फीट ऊंचा है यह वह स्थान है जहां पर तथागत भगवान ने देव समाज के उपकार के लिये तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धांतों का उपदेश किया था जहां पर भगवान आदिश्वरजीका जन्म हुआ था जिस पर बड़ा जैन मंदिर है उसके पास मे ही एक स्थान है जिसकों उगश्रय कहते हैं जहां पर लब्धी शास्त्री ये सौत्रान्तिक सम्प्रदाय सम्बन्धी शास्त्र का निर्माण किया था ( ये वोही गौतमलब्धी शास्त्री जी है जो भगवान चमं तीर्थंकर के प्रथम गणधर हुये थे और जैनधर्म के ग्रन्थों को निर्माण किये थे )
मगर के दक्षिण-पश्चिम में सडक पर बाईं ओर एक बडा संघाराम और चैत्यालय - देवाश्रम है जहां पर असंख्य
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अयोध्या का इतिहास
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घोधी सत्वने अभ्यास किया था उसी स्थान में "अरहंतशीद शिननल" नामक शास्त्र लिख कर इस बात का प्रतिपाद किया है कि व्यक्तिरुप में अहम कुछ नहीं है गोप अरह ने भी इस स्थान पर “शिङ्ग कियोइड शीलन' नामक ग्रन्थ को घना कर इस बात का प्रतिवाद किया है कि व्यक्ति विशेषरुप में अहम ही सब कुछ है -ये स्थान वोही है जहां पर हाल में पांच भगवान के ११ कल्याणक की पवित्र पादुकायें विराज मान है
इ-स-१३०७ विक्रम सं-१३६४ मे श्री जिनममा मुनिजी ये आश्विन सुदी अष्टमी के रोज श्रीमयोध्या जी में श्रीपयुषणा कलप नियुक्ति पर टीका भाग्य लिखी थी जिसमें ६६ प्राकृत भाषा की गाथायें है।
इ-स-१८७५ में पं० मोहनलालजी तत्शिष्य पूरनचन्द जती श्रीपूज्य एक पुस्तक लिखी जिसमें प्राचीन स्तवन स्त्रोत्र स्मरण वीरहा जो लिखी प्रति हाल में प्रयोध्याजी कारखाना में रही जिस प्रति बाबू मि श्रीलालजी केपास में है।
प्राचीन प्रतिमायें। मन्दिर के कल्याणक वाले पवित्र समोव सरणके चौतय
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[५० ]
अयोध्या का इतिहास |
में से भोयरा में से निकली हुई प्राचीन दो प्रतिमायें है जिसमें से एक प्रतिमा पर लेख नहीं दिखाई पडता परन्तु प्रतिमायें कसोटी के पत्थर की है और पञ्चतीर्थी प्रतिमा है जिस प्रतिमा पर बहुत से प्राचीन चिन्ह है एक तो हस्तकमल में बिजौरा, लंगोट, और शिखा लंबी है और दो का सम्गीया के दस्त बैठी प्रतिमा जैसा ध्यानास्थ दोनों मिले हुये और उस हस्त में भी बिजोरा बना हुवा है प्रतिमा अभिनन्दन भगवान की है दूसरी प्रतिमा श्री अरिहन्त जी की है जिस पर का एक वाजू का लेख मिटा हा है और एक बाजू पर लिखा है जिस प्रतिमा का लंछन क्या है ?
का
अयोध्या यां "सं० | १० पवादी संघ श्रमणस्य ये संवत् किस है ? सम्राट कनिष्क का जो सवत मथुरा की पुरानी प्रति मा पर मालूम होता है वोई और उसके पहिले का है मगर जब १ ला चीनी यात्री फाह्यान जब अयोध्या आया त्व यहां पर अरिहंत मन्दिर और प्रतिमा देखी थी ।
* तीर्थयात्रा *
श्री तीर्थंकर देवोनी जन्मभूमि दीक्षा भूमि, केवल ज्ञान भूमि, निर्वाणभूमि, बिहार भूमि से सर्व तीर्थं भूमि कही जाती है और उस्था प्रस्थ में वन ने जहां पर भिक्षा लिया
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प्रयोध्या का इतिहास ।
[ ५१ }
हो वो भी तोर्थभूमि सव भूमि भव्य जीवों के शुभ भाव की प्राप्ति करानेवाली होने से संसार सागर से तारना रहे ये तीर्थों में सम्यग्दर्शन आदि की विशुद्धि के लिये तीर्थ की विधि पूर्वक यात्रा करनी चाहिये कल्याण के अर्थी आत्माओं के लिये ही तीर्थभूमि है वहां जाने से अपने को वहुत फल प्राप्त होता है अनेक धर्मी आत्माओं के दर्शन हो, पवित्र भूमि को स्पर्शना हो वहां पर श्रीमंता के धीमंताइ का उपयोग पाप क्रिया में न होवे ये सब भावना तीर्थ भूमि पैदा कर सकता है इस लिये भवदद्धि में से तारनार होइ ये सब तीर्थ कहलाते हैं तीर्थ को विधि पूर्वक यात्रा करनी चाहिये ।
तीर्थ महोत्म |
तीर्थ यात्रा महत्व !.
श्री
देव के आत्माओं ने तीर्थकी साधनाकी तीर्थ की स्थापना को तव व्याप तीर्थंकर वने मोर वही तीर्थ की सेवना करने से तीर्थ' पती वने हैं महात्माओं ने कहा है कि तपतो की सेवा करने से तीर्थ सवकी सेवा का फल प्राप्त होता है यानी तीर्थ की सेवा में तीर्थङ्कर की सेवा जाती है
।
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५२
अयोध्या का इतिहास ।
धन्योह' मानुषं जन्म, सुलब्ध सफल मम। थद्वापि जिनेन्द्राणाम् , शासनं विश्व पावनं ॥ .. दानेन वर्धते कीर्ति, लक्ष्मी पुण्येन वर्धते । विनयेन पुनः विद्या, गुणः सर्वे विधेकताः ।।
श्री तीर्थ पांथ रजसा विरची भवन्ति । तीर्थेषु वंभ्रमण तो न भवेष्व हन्ति । द्रव्य व्ययादिह नराः स्थिर सम्पदः स्युः ।। पूज्या भवन्ति जगदीश मथा च यन्तः ॥
हमारा जन्म सफल है क्यों कि हमको मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है और वोभी जम्बू द्वीप के भरतखण्ड में श्रेष्ठ कुल जो जैन है जिसको जैनशासन को अपनाया है जो धर्म विश्वव्यापी समझा जाता है।
दान से कीर्ति मिलती है, पुण्य से लक्ष्मी वढती है। विनय से विद्या प्राप्त होती ह विवेक से गुण मिलता है श्रीतीर्थ भूमि के रज स्पर्श से भव्यात्माओं रज रहित होते हैं तीर्थों में परिभ्रमण करने से भवमें भटकते नहीं (भघभ्रमण से मुक्त होते हैं ) ऐसे तीर्थो में दान देने से मनुष्य अचल लक्ष्मी वान होता हैं और विश्वपूज्य हैं।
पुत्राकरणे पून्नं एगगुणं सयगुणं च पडिमाए । जिण भवरोण सहस्सणंत गुणं पालणे होइ ।।
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[ ५३ ]
इस महान तीर्थराज के विषे पूजा करने से एक गुण पुन्य होता हैं जिन भुवन बनवाने से हजार गुना पुन्य होता हैं और तीर्थ का पालन करने से अनन्त गुणा पुन्य होता है ।
योध्याका इतिहास ।
काष्ठादीनां जिनावासे यावन्त परमाणवः । तावन्ति वर्ष लक्षाणि तत्कर्ता स्वर्ग भाग् भवेत् ॥
इस जिन मन्दिर विषे के काष्ट पाषाण में जितने प्रमाणं मौजूद हैं उतने ही लक्ष वर्षप्रयन्त जिन मन्दिर बनवाला स्वर्ग लोक में शिववधुपरि वोधी सत्व को प्राप्त होता है इसलिये सुरिश्वरों ने कहा है ।
श्रीतीरथ पद पूजो गुणिजन जेहथी तरिये ते तीरथरे । रिहन्त गणधर नियमा तीरथ चउबी संघ महा तीरथ रे ॥ लौकिक असद सीर्थने तजिये, लोकोत्तरने भजिये रे । लोकोत्तर द्रव्यभाव दुभेदे, थावर जङ्गम जजियेरे ॥ पुष्प प्रदीपाक्षत धूप पुंगी, फलै जिनेन्द्र प्रतिमां प्रपूज्य । लक्षशः श्रीपरमेष्टिमन्त्रं, जपन्ति ते तीर्थ कृतो भवन्ति ॥
* १ श्रष्टषष्टिसु तीर्थेषु यात्रायां तत्फलं भवेत् । आदिनाथस्य देवस्य स्मरणे नापितद्भवेत् । शिवपुराण ॥
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[ ५४ ]
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अयोध्या का इतिहास। .
विशस्थानक पूजा मध्ये तीर्थ पदपूजा।
श्रीतीर्थङ्करो के पूज्य पाद कमलों से जो भूमि पवित्र होती है तो तीर्थ कहलाती हैं । श्रेष्ठधर्म कीर्तियुक्त सतज्ञान आनन्द सहित सर्व दंषों को हरनार सुवर्ण सदष्य कान्ति बाले देवेन्द्रों से वन्ति श्रीआदीश्वर देव से लेकर पांच भगवान के च्यवन, जन्म, दिशा, केवलय ज्ञान कल्याणक हुये वो धर्म में तीर्थ मे सर्व श्रेष्ठ सर्वोत्कृष्ट मनाये थे।
सकलतीरथनों राजियो कीजेतेहनी यात्र
जस दरिशणे दर्गतिटले निर्मलथाये गात्र "जैनत्व वास्तविक परंपरा है, जो कि अन्य धर्मों से विलकुल पृथक् एवं स्वतन्त्र है । और यही कारण कि नत्ववेत्तामों के लिये अत्यन्त अध्ययनीय एवं प्राचीन भारतवर्ष की वस्तुस्थिति है। --~एच० जैकोबी
__"सुन्दर सिद्धान्त हृदूगतभावों का पुनर्दिग्दर्शन हैं" -रस्किन ।
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अयोध्या का इतिहास
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अयोध्या का राज्यकाल । तीर्थोद्धारक-प्राचार्य-राजायें।
इक्ष्वाकु वंशी राजा आदिकाल के राजा । १-श्री आदिश्वर ऋषभ देवजी, स्वाय भुमनु । २-भरत चक्रवर्ती सिद्ध-प्रथम तीर्थ स्थापक।. ३-बाहुवलीजी
४-सूर्ययशा राजा ५-श्रीयांसु कुमार
६-सगर चक्रवर्ती ७-भगीरथ जी
-दिलीप कुमार 1-जित शत्रुराजा
१०-संवर राया ११-मेघराया
१२-सिंहसेनराया १३-राजा हरिश्चन्द्र
१४-राजारघु १५-राजा दशरथ,
१६-गजा रामचन्द्र १७-अनन्तवीर्य राजा
१८-राजा चन्द्रवतंस १४-राजा ब्रदल-महासमरतकइ-स-१९०० वर्ष पूर्व में ३ राजा हुये ।।
पौराणिक काल । महाभारत के वाद में ११ राजा हुये इक्ष्वाकुवंशी राजा सुमित्र
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( ५६ )
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अयोध्या का इतिहास ।
इ-स-पूर्व ६०० के अरसे में बुद्धदेव
-स-पूर्व-५२७ श्रीवर्धमानजी २४-में चरम के तीर्थंकर . इ-स-पूर्व-५२७ श्रीगौतमगणधर स्वामी
इ-स-पूर्व-५०० केतुभद्र राजा (अयोध्या-राजग्रही में तीर्थ स्थापक)
-शिशुनागवंश इ.स-पूर्व-५६५ नन्दीवर्धन वौद्ध राजा इ-स-पूर्व ५६३ से इ स-पूर्व ४२० तक में महापद्मनन्द-नन्दवं स्थापक जैनी
गुप्त मौर्यवंश१.६-स-पूर्व-३२२-चन्द्रगुप्त
- इस के राज्यकाल में सिकन्दर भारत पर माया सोल्युकस एलची प्रथम भारत सभा में दाखिल हुमा
इ-स-पर्व-२१५.राजा कनिष्क श-का इ.स.पूर्व.२६८-विक्रमादित्य २ गुप्तचन्द
इ-स-पव-२४५-प्रथम-चीनी यात्री साधु कायान का भारत भ्रमण।
स-पूर्व-२७३-सम्राट अशोक बौद्ध इ-स-पूर्व-२३७- बन्धुपालीत-कुणाल
इ० स० पूर्व २२९ इन्द्रपालीत- या सम्प्रति जैन, धर्मोंद्वारक, तीरोद्धारक-स्थापक ।
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अयोध्या का इतिहास
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इ० स० पूर्व ९८५- मौर्यवंशी राजा ब्रहृदय सेनापति पूष्पमित्र के हाथ मारा गया ।
इ० स० पूर्व १६५ - कलिङ्गपति खारवेल ( भुवनेश्वर निकट हाथी गुफा के चैत्यालय में अरिहन्त की प्रतिमा स्थापक इ० स०- पूर्व १५४ युनानी राजा मीनान्डर पूष्पमित्र से युद्ध और पातञ्जली आचार्य के हाथ अयोध्या में अश्वमेघ यज्ञ कर सनातन धर्म का उद्धारक ।
इ० स० १२० से ४१० तक में गुप्त राजाओं के मध्यपश्चिम भारत पर आक्रमण वल्लभिपुर में राज्यारोहण किया इ० स० १६५- उत्तर पूर्वं भारत में दुष्काल । इ० स० ६०१ से ६४७ तक में वैश्य राजा ।
इ० स० ६४७ से ११०० तक मे कायस्थ राजा । इ० स० १०३२ से सैयद सालार का श्रीअयोध्या पर आक्रमण ।
इ० स०- १११५ मखदूमशागोरी का अयोध्या आक्रमण जैन मन्दिर तोड़ना ( श्रीमदीश्वर जन्मस्थान स्वर्गद्वार ) इ० स० १५२८ बाबर का आक्रमण भयोध्या श्रीरामचन्द्रजी का मन्दिर तोड़ना मसजिद वनवाना -
इ० स० १५०७ मे श्रीजिनप्रभा मुनीजी पशुषणा कल्प नियुक्त पर भाष्य टीका किया जिसमे ६६- प्राकृत भाष्य थे
गाथा
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अोध्या का इतिहास।
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___इ० १६३१- मे गोस्वामोजीये तुलसीकृत रामयण रचो
इ० स० १७१३- में सादतखां लखनऊ पञ्जाब अवध का नवाब हुवा।
इ. स. १८०० में शाकद्वीपीय ब्राह्मण राजा अयोध्या राजगद्दी पर
अयोध्यो का वर्णन तीर्थ कल्प में।
श्री जिनप्रभासूरि कृत "तीर्थ कल्प” नामक ग्रन्थ में श्री अयोध्याजी तीर्थं के लिये जो लिखा है, सो नीचे दिया जाता है। विक्रम की चौदवीं शताब्दी में विद्यमान थे जैन वृक्ष के पृष्ठ ६५ में आपको श्री महावीर तीयंडर के ७५ वीं पाठ पर विराजमान लिखे हैं।
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- अयोध्या का इतिहास।
अउज्झा, एगठिाए जहा, अउज्झा, कोशला, विणीश्रा, साकेथे, इकखगु भूनि रामपूरि कोशलत्ति एसा सिरिउसभ, अजिअ, अभिनन्दन, सूमई अणंत, जिणाणं, तहां नवस्म श्रीसीवीर गणहर अचल भाडणो जन्मभूमि जाय अह भरहव सुहागोलस्स मझ भूया सया
नव जोयण वित्थीणा बारस जोयण दीहाय
जत्थ चक्केसरी रयण मयायणहि अपडीमा संघ विग्घहरेइ गौमुहजवख्खो।
जत्थ गग्घर दहो सरयु नइए सममीलीत्ता सग्गदुवारं तिप सिद्धीमावन्नो।
अयोध्याजीको प्राचार्य जी पांच नाम बताते है भयोध्या विनीता, कौशल या सांकेत पुर जहां कोशलपती रामकी पुरी भी थी जहां पर जैन तीर्थङ्कर प्रथम रूषभदेवजी, अजीतनाथ अभिनन्दन सूमतिनाथ, अनन्तनाथ है १९ कल्याणक हुये है जहां पर महावीर स्वामी के नवमें गणधर अचलजी का जन्म हुआ था ऐसी अजोड़भूमि बारा योजन चौड़ी नव योजन लम्बी थी जहां पर देवी चक्क सरी यक्ष गौमुखान श्रमण संघ का विघ्न हरते है याने रक्षा करते है जहां पर गागरा, सरजु नदी का संगम स्वर्गद्वारी पर होता है ऐसी प्रसिद्ध नगरी अयोध्याजी जैन धर्म की पवित्र भूमि है।
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अयोध्या का इतिहास |
कल्याणक १६ : का स्तवन ।
विनीता नगरी है सागरी, विनीत जन वास स्थिरकारी । तीहां हुआ पंच महाराजा, तेणे से तीर्थ है ताजा ॥१॥ आदिजीन, अजित अभिनन्दन, सुमति अनन्त जगमण्डन । इन्हों का ओणीस जाणो, कल्याणक भाई तुम्हीं मानो || २ || पंच प्रभु पंचमी दीजे, गती गुणी लोक जीमरी । दयालु विश्वना छोजी शरीरीने शरण दयो जी ॥ ३ ॥ करू क्या प्रार्थना आजे पोते तुम्हे तारवा काजे । प्रवत्य छो प्रभु मेरा कर्मो का गढ तुम्हें घेरा ॥ ४ ॥ जीनेश्वर देव के नन्दन, ग्रावे इहां संघ लेइ वन्दन । सुधारे धोल के मन्दरं, करावे हंस ज्युं सुन्दर ||५||
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[ ६० ]
समाप्त
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________________ पुस्तक मिलने का पतापं० जेष्ठाराम शर्मा, सुनीम जैन श्रेताम्बर मन्दिर, अयोध्या /