Book Title: Atimuktakmuni Charitram
Author(s): Purnabhadra Gani
Publisher: Jinduttasuri Gyanbhandar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥ अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ॥ योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ॥ ॥ कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ॥ आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर Websiet : www.kobatirth.org Email: Kendra@kobatirth.org www.kobatirth.org पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. श्री जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प ग्रंथांक : १ महावीर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर - श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स: 23276249 जैन ।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥ चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।। अमृतं आराधना तु केन्द्र कोबा विद्या Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only 卐 शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079) 26582355 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजिनदत्तसूरिप्राचीनपुस्तकोद्धारफण्ड ( सुरत ) प्रन्यांक-४७ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीखरतरगच्छावतस सूरिपुरन्दर जिनपतिमरिशिष्य-पण्डितप्रवर-पूर्णभद्रगणिविरचितम्-प्राचीनं ताडपत्रीय अति मुक्तक मु नि च रित्रम् । (पद्यं) जङ्गमयुग्मप्रधान-भद्दारक-श्रीमजिनकृपाचंद्रसूरीश्वराणां शिष्यरत्न उपाध्यायपदालत सुखसागरमुनिवरोपदेशेनश्रीरायपुरवास्तव्येन श्रेष्ठिवर्य सूरजमल भंवरलाल पुगलिया-विहितेन द्रव्यसाहाय्येन प्रकाशितम् । प्रकाशकःश्रीजिनदत्तसूरिज्ञानभंडार कार्यवाहक मु. सुरत. मेट AMARE सं० २००१ प्र० sacOSEICAUDA For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुद्रकः-शाह गुलाबचंद लल्लुभाइ महोदय प्रेस. दाणापीठ मु. भावनगर. OCAAAAAAAAAA% ACCORCRACCA% A5 पुस्तकप्राप्तिस्थानम्श्रीजिनदतसूरिज्ञानभंडार. ठि० गोपीपुरा, सीतलवाडी उपासरा. मु० सुरत. (गुजरात) For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir % नि वेदन *45+ASAHECCC भारतीय साहित्य में जैन साहित्यको जो उच्चस्थान प्राप्त है, इससे विद्वजन सुपरिचित है, जैन साहित्य चार विभागोंमें विभाजित है, जिनमें चरितानुवाद भी है। पुरातन साहित्यपर दृष्टिपात करनेसे स्पष्ट विदित होता है कि पुरातन भव्य आदर्श पुरुषो-मुनियों के जीवनचरित्रों की कमी नहीं है, हो भी कैसे सकति, महापुरुषों का जीवन मानवोंको अति शीघ्र धार्मिकादि प्रवृतिमें प्रवृत्त करने को प्रोत्साहित करते है, समस्त संसारका इतिहास आदर्श महापुरुषोंका इतिहास है। ऐसे विषय पर जैनाचार्यो-मुनियोंने लेखिनी चलाकर मानव-समाजका महान् उपकार किया है,ऐसे भव्य पुरुषोंके जीवन सदृश प्रस्तुत "अतिमुक्तकं चरित्र" है जो आपके करकमलोंमे समर्पित है । प्रकृत चरित्र में बालमुनि अतिमुक्त मुनिका आदर्शचरित्र वर्णन अत्यन्त सुंदरतापूर्ण लिखा गया है। उक्त बाल मुनि मात्र ६ वर्षकी अल्प वयमें परम तारक चरमतीर्थकर श्रमणभगवान् श्रीमहावीर देवके करकमलसे दीक्षित होकर एकादशांग अध्ययन करके, महान् उप्रतपश्चर्या करके केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्षगति को प्राप्त हुए । प्रस्तुत ग्रन्थ मात्र धार्मिक दृष्टिसे ही महत्त्वका नहीं है अपितु भाषाशास्त्र एवं अलंकारादि दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण व उच्च कोटिका है । दिखने अवश्य लघु है पर गुणोंकी अपेक्षा उतना ही गरीष्ठ व आकर्षक है, रचनाशैलि अत्यंत चित्ताकर्षक है. एकएक श्लोकपर कवित्वका चमत्कार पाया जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थनिर्माता खरतरगच्छेश्वर श्रीजिनपतिसूरिजीके शिष्य थे जो उस समय के विद्वानों में सर्वोत्कृष्ट गिनेजाते जो, और वे वि. सं. १२१०-७७ तक विद्यमान थे। वे जैसे *80-% A561 For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandie www.kobatirth.org अतिमुक्तक चरित्रम् ॥ ॥२॥ CA%ACCIAS ACCOURS विद्वान थे वैसे ही प्रचंड प्रभावक भी थे। उन्होंने आशापल्लि (गुजरात) में आचार्यश्री प्रद्युम्नसूरिजीके साथ शास्त्रार्थ किया था जिसमें विजयलक्ष्मी आपही को प्राप्त हुई, (चै० कु. वृ०) हिन्दसम्राटकुलतिलक श्रीमहाराजा पृथ्वीराज चौहाणकी राजसभामें उ० पद्मप्रभको शास्त्रार्थ में पराजित किया था, (ख० गु०) उस समय भारतमें पृथ्वीराज की सभा विद्वानों के लिये प्रसिद्ध थी, आचार्यमहाराजने वि. सं. १२३३ वर्षे कल्याणनगरमें महावीरस्वामी की प्रतिष्ठा की (तीर्थकल्प) एवं “घटस्थानकवृत्तिका" संशोधन किया | साथहि साथ "प्रबोधोदय वाद स्थल,” "संघपदकबृहबृति, पंचलिंगी" विवरणादि अन्य निर्माणकर धार्मिक साहित्यमें अभिवृद्धि की| आपका सारा समुदाय विद्वानों से ओतप्रोत था, प्रस्तुत ग्रन्थ रचयिता पूर्णभद्रगणि भी उच्चश्रेणीके विद्वान थे। पर आपका विस्तृतजीवन अनुपलब्ध है, मात्र इतना ही लिखा जा सकता है कि आपने प्रस्तुत अतिमुक्तकचरित्र वि. सं. १२८२ प्रल्हादनपुर में और धन्यशालिभद्रचरित्र वि. सं. १२८५ जैसलमेर में निर्माण किये । अति विस्तृत परंपरा प्रशस्तिमें दीहुई है पाठक देखले, प्रस्तुत ग्रन्थ समग्र भारतवर्ष मात्र जैसलमेरके ज्ञानभंडार में सुरक्षित है, जो ताडवोपरि आलेखित है, वहींपर से प्रेसकॉपी करवाकर मंगाया गया है, अतः एक ही प्रति पर से इसका प्रकाशन हो रहा है, इसका संशोधन पूज्य गुरुवर्य श्रीमान् उपाध्यायजी महाराज मुनि सुखसागरजी म. एवं जेठालालभाई शास्त्रीजीने कुशलतापूर्वक किया है, तथापि दृष्टिदोषसे स्खलनारह गई हो तो पाठक सुधारके पढ़ें । प्रस्तुत ग्रन्थरत्नको प्रकाशन कराने में रायपुरनिवासी शेठ सूरजमल भंवरलाल पुगलियाने आर्थिक सहायता की है अतः वे श्रुतभक्ति करने कारण धन्यवाद के पात्र है। नवापारा : सं. २००१ : अक्षय तृतीया. मुनि मंगलसागर C46- 47 ॥२॥ C% For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ श्रीखरतरगच्छावतंस-रिपुरन्दर-जिनपतिसूरिशिष्य-पण्डितप्रवर-पूर्णभद्रगणिविरचितम् अतिमुक्तकमुनिचरित्रम् ॥ ACAKACAKHABAR श्रीमद्विश्वत्रयीनाथ, नाथं कल्याणसंपदाम् । वर्द्धमानगुणश्रेणिं, बर्द्धमानमुपास्महे नत्वा जिनपतीन् देवान् , गुरूनप्याहिती गिरम् । अतिमुक्तकबाल-चरितं परिकीय॑ते ॥२॥ अस्तीह भरतस्याङ्के, जम्बूद्वीपस्य दक्षिणे । रम्योद्यानवनोद्देशं, रम्यवापीसरोवरम् ॥३॥ रम्यहर्म्यगृहाराम, रम्यदेवकुलाकुलम् । नानापण्यसमाकीर्णा-ऽऽपणश्रेणिमनोरमम् ॥४॥ कान्तसुश्लिष्टशृङ्गाट-चतुष्कत्रिकचत्वरम् । सुरलोकसमश्रीकं, पुरं पोलासनामकम् ॥५॥ (त्रिभिर्विशेषकम् ) तेजस्वी भानुमालीच, सकलश्चन्द्रमा इव । धीमानमरमत्रीव, कविः कविरिवाभितः राजराज इव श्रीमान् , कन्दर्प इव रूपवान् । त्रायस्त्रिंशसुपर्वेव, सर्वदा सुखसङ्गतः सद्धर्मनिरतः प्रायः, सन्तुष्टात्मा निरामयः । शीलशाली निरातको, विशालसरलाशयः ॥८॥ रतः परोपकारेषु, सत्यवादी प्रियंवदः । नरवर्गों भवत्व(त्य)त्रा-ऽनुपसगों निसर्गतः ॥९॥ चतुर्भिः कुलकम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतिमुक्तक चरित्रम्॥ ॥१ ॥ ESSAGENCCCASSAGES विकसमध्यपचास्या, नीलोत्पलदलेक्षणाः । लावण्योल्वणकल्लोल-मालामिः सुमनोहरा: ॥१०॥ अनेकविभ्रमाकीर्णा, मनोरमपयोधराः । सरस्य इव सम्पूर्णाः, कामिन्यस्तत्र रेजिरे ॥११॥ युग्मम् ।। स्वर्णरूप्यमयैस्तत्र, विप्रेजे कपिशीर्षकैः। प्रोऽकश्वेतरुग्बिम्बै-यथाद्रिर्मानुषोत्तरः ॥ १२॥ तस्मिंश्च पुण्डरीकाख्यः, सत्यभामापरिस्कृतः । साम्राज्यं पालयामास, भूपतिर्विजयाभिधः . ॥१३॥ बभूवोर्वीपतेस्तस्य, वल्लभाऽत्यन्तवल्लभा । आख्यता(आख्यातः) श्रीरिति ख्याता, प्रेयसीधीहरेरिव ॥१४॥ सर्वलक्षणसम्पूर्ण, सुखं सुतमस्त सा । मकरध्वजसङ्काशं, रूपलावण्यसम्पदा अतिमुक्तकनामानं, तरुं पुष्पमनोहरम् । सुप्ते(स्वप्ने)ऽस्मिन् दृष्टवत्यम्बा, गर्भस्थे पुण्यशालिनि ततस्तदनुसारेण, वान्धवार्चनपूर्वकम् । अतिमुक्तक इत्याख्यां, स्वसूनोर्विदघे पिता ॥१७ ।। युग्मम् ।। षड्वर्षः पञ्चधात्रीभि-लाल्यमानोऽतिमुक्तकः । कौमुदीन्दुरिवानन्द-दायी पित्रोरजायत अन्यदा श्रीमहावीरो, भव्याम्भोजदिवाकरः । स्वपादैः पावयन्नुवीं, बहिरुद्यानमाययौ ॥१९॥ कथम् १ ॥ छत्रेण वृत्तेन नभःस्थितेन, विराजमानो(नः) शरदभ्रधाम्ना । विलंबिमुक्ताफलमालिकेन, सुधांशुनेवायतभानुकेन ॥२०॥ व्योमस्थितेनेन्दुकरप्रभेण, प्रवीज्यमानश्चमरद्वयेन । गङ्गापगासिन्धुमहाश्रवन्ती-स्रोतोयुगेनेव निषेव्यमाणः ॥२१॥ जात्याष्टापदपादपीठपटुना सिंहासनेनोच्चकै-ज्योतिष्कालयविभ्रमेण जगतामाश्चर्यमुल्लासयन् । नानावर्णमणिप्रभासमुदयैर्द्वन्धेन्द्रबाणासन-वातेन स्फटिकोपलेपरचितेनाकाशसंचारिणा ॥२२॥ ॥१॥ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वरमणिमयदण्डप्रान्तवातावधूताऽ-तिशयविशदवर्णस्फारचेलाचलेन । पुर उपचितधाम्ना व्योमनीन्द्रध्वजेन, प्रकटितवपुषेव श्रेयसा राजमान: ॥२३॥ सद्धर्मचक्रेण पुरःस्थितेन, जिनः सुधाम्ना समुपोष्यमाणः। हतस्य मोहप्रतिको(के)शवस्य,चक्रेण नूनं स्ववशीकृतेन॥२४॥ स्वाम्बुजैः पादतलानुयायिमि-निषेव्यमाणो नवनीतकोमलैः । प्रदक्षिणावर्चविधायिभिः क्षणा-द्विनिर्जितैश्चारुमुखश्रिया ध्रुवम् ॥२५॥ सप्तभिरादिकुलकम् ॥ मणिकनकरजतनिर्मित-शालत्रयभूषितं समवसरणम् । तत्र च देवच्छन्दक-रमणीयं विदधिरे विबुधाः ॥२६॥ तस्याशोकद्रुमं मध्ये, द्वात्रिंशाद्वरर(द्वात्रिंशद्धनुरु)च्छ्यम् । चक्रुर्भव्यानिवाहातुं, चलत्पल्लवपाणिभिः ॥२७ ।। पूर्वद्वाराऽविशत्तत्र, स्वामी व(स्वर्णसमप्रभः । प्रोत्तुङ्गतनुसंस्थानः, सुमेरुरिव जङ्गमः ॥२८॥ दवा प्रदक्षिणां नत्वा, तीर्थ चोपाविशत्प्रभुः । पर्षदोऽपि गणाधीश-प्रमुखाः समुपाविशन् ॥२९॥ तदृष्ट्वाद्भुतमागत्य, प्लवमानः कुरङ्गवत् । उद्यानपालो भूपाल-मभिनन्द्य व्यजिज्ञपत् ॥३०॥ देव ? त्वनगरोद्याने, श्रीवीरः श्रीवणाभिधे । हस्तिमल्ल इवाभ्यागात् , सुसाधुकलभावृतः ॥३१॥ विविधतरुषु स्फूर्ज-त्पुष्पप्रवालफलोद्गमैः, सकलजनताचेत-श्चक्षुःप्रमोदविधायिनः । युगपतवः सर्वे, यस्यागमे विजजृम्भिरे । पुर उपवने दूर-स्थावाक्षणे(स्था वीक्षणे) सुहृदः क्षणाव)(?)॥३२॥तथाहि किशलयकरैर्नृत्यंतीव प्रवालमणिप्रभैः, मृदुलपवनोद्धृतरुच्चैरशोकमहीरुहः । For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमुक्तक ॥३३॥ चरित्रम् ॥ ॥२॥ ॥३४॥ ॥३५॥ ॥ ३६॥१ ADSARACTORS भ्रमरविरुतैर्गायन्तीव श्रुतिप्रमददै-त्रिभुवनगुरोः स्वस्योद्याने समागमहर्युलाः समदनवधूगाढाऽऽश्लेषं विनाऽपि समन्ततः, कुरवकलभः पुष्पैः पूष्णों बभूव विकासिभिः । स्मरहतबहोत्तापक्तांतिप्रशान्तिपयोभृतो, न भवति जिनस्यान्ते चेष्टा मनोभवसम्भवा मधुररसितं कुर्वन्त्याम्रदुमोपरि संस्थिताः, सरसरुचिराङ्क्रास्वादप्रवद्धितसम्मदाः। पिकयुवतयो गायन्तीव त्रिलोकगुरोर्गुणान् , मदनसुभटन्यक्कारादीन् जगत्त्रयविश्रुतान् इति वसन्तऋतू रुरुचेतरां, कुसुमयन्नतिमुक्तमहीरुहम् । कमपि लाभमिवाद्भुतसम्पदां, पिशुनयन्नतिमुक्तकुमारके शरदिजरजनीशश्वेतकान्तिप्रसून-स्फुरदनुपमगन्धैर्जातिरुद्यानमध्यम् । सुरभयति सतीवातीव कीर्तिप्रतान-स्त्रिजगदिदमशेष निर्मलैः शीलजन्यैः उपवनसरसीनां तीरगाः स्वादुनीरं, निजकुसुमपरागः पाटला वासयन्ति । जिनवरचरणानां वन्दनायागतानां, ध्रुवमिह भविनामातिथ्यमाधातुमुचः त्रिभुवनगुरुवीरस्वामिभामण्डलस्य, स्वकतनुसदृशस्य प्राप्य मैत्रीमिबोचैः। तरणिरपि बभूवातीव तेजोऽभिरामो, मवति ननु सुवृत्तैः संस्तवाद्धामवृद्धिः मम तिथौ प्रभुरेव समागम-दिवमपि प्रविहाय भुवस्तलम् । ॥३७॥ ॥३८॥ ॥३९॥ ॥२॥ For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥४०॥ २ ॥४१॥ ॥ ४२ ॥ ॥४३॥ NECRASADCASCARSHAN इति निदाघऋतौ( तू ) रमणीयता, समगमद्वहुपुष्पविकासनैः नृत्यं सदा विदधतः सुमनोमनोज्ञं, केकायितं विदधिरे सुतरां मयूराः। धर्मोपदेशनरवं जिननायकस्य, श्रुत्वेव वारिधरगर्जितशकिचित्ताः विश्वन्धराऽभवदपूर्वपुरुप्रशस्य-सस्यप्रसूनफलसश्चयरोचमाना । नीलत्तमालदलितालविशालशाल-वंशीप्रवालकलिता हरितालिकान्ता गन्धोधुरं विकसितप्रचुरप्रसूनम् , सत्केतकीवनमलं विमलं चुचुम्बुः । सौरभ्यलुभ्यदलयो मधुरं रणन्त-स्त्यक्त्वाऽन्यपुष्पनिकरं मकरन्दमुक्तम् अस्मत्प्रसन्ने भुवने यथा भवे-दुर्मिक्षशान्तिन तथेतरतुषु । इतीव वर्षा अभवन्मनोरमा, धाराकदम्बप्रमुखैर्महीरुहै। निष्पन्नशाल्यादिकणादनेन खे, पुष्टाङ्गकाः कीरपरम्परा वभुः । बद्धा जिनेन्द्रागमने प्रहृष्टया, शरच्छ्यिा वन्दनमालिका इव स्फूर्जत्करस्तारतरोडुभिर्वृतः, कर्पूरपारी विशदः सुधाकरः। बमार शोभा भ्रमतः करेणुभि,-वृतस्य खे निर्जरराजदन्तिनः अलब्धमध्यानि परैस्तु सर्वधाऽ-न्तरीक्षवभिःकलुषाणि सन्ततम् । *HARASRHARSHAN ॥४४॥ ३॥ ॥४६॥ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतिमुक्तक चरित्रम् ॥ विकासिपद्मोघयुतानि सर्वदा, सतां मनांसीव सरांसि रेजिरे ॥४७॥ मम जलै रसितेरमृतोपमै-भवति नीरुगिदं भुवनं सदा । इति शरत्समयो नवकेतकी-विकसनैः प्रमदादिव सिष्मिये ॥४८॥४॥ ईक्षवोऽतिसरलासुकुलीनाः, प्रोन्नताः प्रवरपर्वकदम्बाः । उत्तमा नरगणा इव रेजु-चारवो रसयुजः सुकुमाराः ॥४९ ।। भाति पक्कबदरीवनमुच्चै-विद्रुमारुणफलावलिकान्तम् । पनरागमणिसंहतियुक्तं, कल्पवृक्षवनवत्सुमनोज्ञम् निवासमनोजम ॥५०॥ नीरनूतनयवान्कुरपूराः, स्निग्धसान्द्रमधुराः स्म विभान्ति । माङ्गलिक्यमिव तीर्थकरेऽस्मि-नागते विरचिता हिमलक्ष्म्या अनुभवन्त्यपि भोजनजीर्णता, शयनशमं च दीर्घनिशासु मे । तनुभृतो बलशालिन उच्चकै-रिति हिमरिराजदनारतम् श्यामा लता सितीभूता-प्युद्यानवनमालिका । विकचकुन्दपुष्पौधै-हसन्तीवोपलक्ष्यते ॥ ५३॥ वनं मरुबकेणैतत्कृष्टेनापि सुगन्धिना । शश्चन्मृगमदेनेव, सुरभीक्रियतेतराम् ॥ ५४॥ रोहुलवती वीरुत्पुष्पाणि भ्रमरालयः। सुरभित्वविकासाभ्यां, बन्धुराणि सिषेविरे ॥५५॥ गतपरिमला दुर्गन्धाळ्या भवन्ति विमर्दने, हृत्सुखकृतः शेषतूंनां प्रसूनदलालयः। ममदमनकेनैताभ्योऽन्यादृशेन विजग्यिरे, सुजननिचयेनेवेत्युच्चैर्मुदं शिशिरो दधौ ॐADASACARSHA ॥ ३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ ५९ ॥ इति जिनागमने ऋतवोऽभव-नरपते ! निखिलाः सुमनोरमाः । तनुभृतोऽप्यखिला मुदमादधु, जलधराभ्युदये शिखिनो यथा सिंहासनं रत्नमयं च पादुका, -द्वयं विहायाञ्जलिशालिमस्तकः । विधाय चित्ते नृपतिर्जिनेश्वरं, प्रमोदफुल्लो न (न) यनो ननाम तम् प्रहृष्टचेताः परितुष्टिदान, मुद्यानपालाय ददौ जि(ज) नेन्द्रः । हिरण्यमिच्छाच्छिदुरं महेच्छो, दारिद्र्यहंता हि नृपप्रसादः श्रीजिनाधिपतिवन्दनोचिते, पर्यवस्त सदशे अखण्डिते । भूपतिर्विशदनव्यवाससी, कौमुदीन्दुकरनिर्मिते इव ॥ ६० ॥ जात्यरुक्ममय मौलिराहितो, मस्तके नृपति शास्म (नरपतेः स्म ) शोभते । प्राज्यवर्यमणिरश्मिसञ्चय, - द्योतिताम्बरपथोंऽशुमानिव आमुचच्छ्रवणयोर्नराधिपः, शातकुम्भमयकुण्डलद्वयम् । मौक्तिकांशुनिचितं वचः सुधा, -कुण्डयुग्ममिव पार्श्वतः स्थितम् कान्तकण्ठतललम्बितायता, तारहारलतिकाऽवनीपतेः । तद्वपुर्लवणिमापगापयः - फेनराजिरिव शोभतेतराम् एवमादिबहुरत्नभूपणै, -भूषितो विजयभूपतिर्बभौ । अर्थिकल्पितफलप्रदोदयः, कल्पवृक्ष इव जङ्गमः क्षितौ For Private And Personal Use Only ॥ ५७ ॥ ।। ५८ ।। ॥ ६१ ॥ ।। ६२ ।। ॥ ६३ ॥ ॥ ६४ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अतिमुक्तक 11811 www.kobatirth.org राज्यराष्ट्रबल वृद्धिकारणं, तारणं रणमहापयोनिधेः । आरुरोह वसुधाधवो वरं, वारणं समदवैरिवारणः आरुह्य सामन्तमहीभृतोऽप्य, - प्रसाधितेषु द्विरदेषु सर्वे । प्रावृत्य तस्थुर्विजयावनीशं, सामानिका वा त्रिदशाधिनाथम् तुरङ्गमेष्वप्यारुह्य, राजपुत्राः सहस्रशः । भास्कराश्वोपमानेषु, क्षितीशमुपतस्थिरे सकिङ्किणीक ध्वजभूषितेषु, जात्याश्वयुक्तेषु महारथेषु | केचित्समारुह्य नरेन्द्रपुत्राः, पोलाशभूमि (मी) पतिपार्श्वमीयुः तीक्ष्णाग्रदीप्तायत कुन्तधारिणो, धनुर्भृतः पृष्ठनिबद्धतॄणकाः । _पदातयः खेटकखड्गपाणयः, पुरः प्रचेलुर्विजयावनीशितुः मायूरातपवारणैः प्रतिनराधीशानुपर्युच्छ्रितैः कुर्वन् व्योमसरः समुत्थितनवश्यामाम्बुजश्रेणिकम् । माद्यत्कुञ्जरगर्जितोर्जित भरैर्हेपास्वनैर्वाजिनाम्, कुर्वाणो रथचीत्कृतैर्ध्वनिमयं सर्व्वं नभोमण्डलम् विलम्बमुक्तावलिनोतमाङ्गो, -पर्यातपत्रेण सुधांशुधाम्ना । स्वात्यम्बुवान सुधाकिरेव, कामप्यभिक्षामवगाहमानः घण्टाटणत्काररये (वे) दन्तिनां दिशोऽभितस्तूर्यरवैश्व पूरयन् । चचाल भक्त्या विजयो नरेश्वरः, श्रीमन्महावीरमनुत्सुको मुदा For Private And Personal Use Only ।। ६५ ।। ॥ ६६ ॥ ॥ ६७ ॥ ॥ ६८ ॥ 118 11 ॥ ७० ॥ ॥ ७१ ॥ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥ ७२ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरित्रम् ॥ ॥ ४ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4 CR %- NCREC% विविधेषु समारुह्य, वाहनेष्वथ नागराः । अनुजग्मुर्महीनाथं, बन्दितुं जिननायकम् ॥७३॥ मतिविनिर्जितचित्रशिखण्डिजाः, प्रबरवेषभृतो नृपमन्त्रिणः। शिरसि दत्तशुभातपवारणाः, प्रययुरग्यसुखासनसंस्थिताः ॥ ७४॥ बलात्तुरङ्गमारूढा,-स्तरुणाः श्रावकाङ्गजाः। रेवन्तमनुकुवन्तः, प्रचेलुश्चलकुण्डलाः ॥७५॥ शीघ्रगेषु करभेष्वधिरुया,-लकृतेषु बहुशो बहुमानात् । तीर्थनाथमभिवन्दितुमुच्चैः, केचनापि ययुरुच्वसिताङ्गाः ॥ ७६॥ केचित्त्यक्तगृहारम्भाः, कृतस्नानाः सितांशुकाः। श्रावकाः पादचारेण, चेलुः पुष्पादिपाणयः॥ ७७ ॥ आच्छादनोपेतसुखासनान्त:-स्थिता नृपान्तःपुरिकाश्च काश्चित । उत्पत्तिपर्यङ्कगताऽमरीणां, लीलां वहन्त्यः प्रययुर्वनाय ॥ ७८ ॥ याप्ययानसमारूढा, धनिनां काश्चनाङ्गनाः । विद्याधर्य इव व्योम,-यानस्थावरमीयिरे ॥ ७९ ॥ पुरकुरङ्गादृशः पतिभिः समं, समभिरुह्य स्थानरुणांशुकाः। कनकतोदनकेन तुरङ्गमा,-नुपवनं प्रति तैः समचालयन् ॥८ ॥ किमप्सरस ईदृशानुगमरूपसम्पभृतः, किमङ्ग! पुरदेवताः प्रकटितस्वरूपा इमाः । अमूल(ल)वणिमार्णवः (वा.) किम(मु)सुराधिपत्यङ्गना,-स्तदेति हृदि काश्चन प्रकृतसंशयाः प्राणिनाम् ॥८१ ॥ 8C- % % A OSORRORSCORE 4 % For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमुक्तक चरित्रम् ॥ तथा परिवृताङ्गका मू(म)लिनचारुचीनांशुकै,-विचित्रवरकञ्चुकाः परिहृतोरुदिव्यांशुकाः । ययुर्नगरनाय(यि)काश्चरमतीर्थपं वन्दितुं, वनं चरणचर्यया गतिविनिर्जितेभाङ्गनाः ददर्शाथ नृपश्छत्रा-तिच्छत्रं त्रिजगत्प्रभोः । चन्द्रविम्बमिवानन्द, दायि वृत्तं शुभोदयम् ततः स्तम्बेरमात्तस्मा,-दुत्ततार नराधिपः । शौर्यावर्जितसचौधः, पश्चास्यः पर्वतादिव ॥८४॥ ततश्चरणचारेण, राजहंसश्चचाल सः । शुद्धपक्षद्वयः शोण,-क्रमणे हितमानसः ॥८५॥ समवसरणद्वारं प्राप्तो मुमोच नरेश्वरो, वरमसिमुपानत्के रम्य(म्य)सितातपवारणम् । चमरयुगली कोटीरं चोत्तमाङ्गनिवेशितं, व्यसृजदखिलास्ताम्बूलादीनपीह सचेतनान् एकशाटथुत्तरासङ्गं, विधाय वसुधाधवः । प्रविवेशोत्तरद्वारा, सुसमाहितमानस: ॥८७॥ अलञ्चकाराञ्जलिसंपुटेन, स्वोमिकासश्चयभास्वरेण । शिर किरीटेन यथा तदेव, यथैव वारं नृपतिर्ददर्श ।। ८८ ॥ प्रदक्षिणानां त्रितयं विधाय, नृपो महावीरजिनेश्वरस्य । जानुद्वयं हस्तयुगं ललाटं, भृमौ समाशय्य नतिं चकार ततो बध्ध्वाञ्जलिं राजा, प्रयतः पुरतः प्रभोः । स्तवनं कर्तुमारेभे, सद्भुतगुणकीर्तनम् ॥९ ॥ उन्नतः काश्चनश्रीक,-स्त्वत्तो न्यूनः सुराचलः । प्रख्यातो(s)मन्दरागोऽसौ, वीतरागस्त्वमुच्यसे ॥९१॥ हीनः कल्पतरुस्त्वत्त,-चिन्तितार्थप्रदोऽपि हि । यतस्ते तनुते नाथ !., चिन्ता चिन्तातिगं पदम् ॥९२ ॥ - ॥१०॥ 18॥५॥ For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir त्वत्समो न भवेदिन्दुः, सोमः पूर्णकलोऽपि च । सकलको ह्यसौ ख्यातो, निष्कलङ्कस्त्वमीक्ष्यसे ॥९३॥ तमोऽपहोऽपि मार्तण्डो, नोपमां लभते तव । उत्तापकमहा ह्येष, त्वं प्रल्हादिमहाः पुनः ॥९४॥ समुद्रोऽलब्धमध्योऽपि, सादृश्यं भजते न ते । स जडप्रकृतिस्त्वं तु, विचक्षणशिरोमणिः ॥ ९५ ॥ नतिस्ते कुरुते नाथ!, सर्वेभ्योऽपि समुन्नतिम् । मानस्ते तनुते स्वामिन् ।, विमानपतितां सताम इत्यचिन्त्यप्रभावाय, तुभ्यं स्वामिन्नमो नमः । तथा कुरु यथा नाथ !, पूर्णभद्रो भवाम्यहम् ॥९७॥ पूर्वोत्तरस्यां दिशि शुद्धभूमौ, न्यविक्षत क्षोणिपतिस्ततोऽसौ । पातुं जिनाधीशवचःसुधौघ, श्रोतोऽञ्जलिम्यां सुमनस्त्वबीजम् ॥ ९८॥ अन्येष्वपि यथास्थान,-मुपविष्टेषु सर्वतः । सुरासुरेषु सद्धर्म,-देशनां विदधे विभुः ॥९९ ॥ तथाहि ।। भो भोः ! संसारकान्तारे, बम्भ्रमद्भिः सुखैषिभिः । सुखं न प्राप्यते जीवैः, क्लेश एवानुभूयते ॥१०॥ यतः संसारकान्तारं, सर्वतोऽपि भयानकम् । क्रोधदावानलोदाम,-ज्वालाजालकरालितम् ॥१०१॥ मदाष्टकमहादुर्ग,-गिरिकूटभयङ्करम् । मायाव्यालावलीकीणं, लोभग समाकुलम् ॥ १०२॥ आपातमात्रमाधुर्य,-रम्यकामविषद्रुमम् । लसजन्मजरामृत्यु,-राक्षसौघसुदारुणम् ॥ १०३ ॥ कुतीर्थिकजनावास,-भिल्लपल्लीसमाकुलम् । रागादिभिल्लसंयुक्त,-मिह पल्लीशीषणम् ॥ १०४॥ अस्मिन्नेवंविधेऽपि स्या, संपर्कश्चेत्कदाचन । साक्षात्तीर्थाधिनाथेन, गुरुणा वा चरित्रिणा ॥ १०५॥ For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अतिमुक्तक| चरित्रम् ॥ ततस्तन्मुखशीतांशो,-रास्वाद्य वचनामृतम् । भवन्ति सुखिनो भव्या,-चकोरा इव केचन सम्यक्त्वकलितं देश,-चारित्रं प्राप्य चापरे । द्वित्रैर्भवान्तरै व्याः, लभन्ते शिवसम्पदम् ॥१०७॥ तस्मिन्नेव भवे केचि, लब्ध्वा चारित्रमुत्तमम् । सम्प्राप्य केवलज्ञानं, यान्ति निर्वाणमव्ययम् । ॥१०८॥ यूयं तत्पूर्वचारित्र,-मात्मसात्कुरुत द्रुतम् । तदशक्ताः पुनर्देश,-चारित्रं श्रयतादरात् ततस्ते श्रीमहावीर,-मुखाम्भोजसमुद्भवम् । वचोमधुरसं पीत्वा, तुतुषुर्मधुपा इव ॥११० ॥ ये तत्राक्षेमविक्षेप, दक्षमोक्षाभिकाक्षिणः । दीक्षां जिघृक्षवः साक्षा,-दुपतस्थुर्जिनं च ते ॥१११॥ बद्धाञ्जलिपुटाः प्रोचुः, संसारार्णववारितः। विधाय करुणामस्मा,-नाथ ! तारय तारय ततस्तीर्थकरस्तेभ्यो, भव्येभ्यो भवहारिणीम् । प्रवज्या भाविभद्रेभ्य,-स्तदैव विधिना ददौ ॥ ११३॥ ये पुनः सर्वचारित्र,-मादातुं नैव सेहिरे । तेषामारोपयामास, देशचारित्रमुज्वलम् ॥ ११४ ॥ देशनान्तेऽथ वन्दित्वा, भगवन्तं जिनेश्वरम् । राजामात्यादयः सर्वे, जग्मुः स्थान निजं निजम् ॥११५ ॥ अथ श्रीगौतमस्वामी, प्रथमो गणभृद्वरः । तपसा षष्ठषष्ठेन, सर्वदा कृतपारणः समचतुरस्रसंस्थान,-मुत्तमं धारयश्चतुर्ज्ञानी । वज्रर्षभनाराचा,-भिधानसंहननबलशाली ॥११७॥ श्रीपृथ्वीवसुभृत्यङ्ग,-जन्मा सप्तकरोच्छ्रयः । चारुचामीकरच्छायः, स्वर्णाद्रिरिव जङ्गमः ॥११८॥ भगवन्तमनुज्ञाप्य, पोलाशं नगरं प्रति । स्वयं चचाल भिक्षार्थ,-मात्मलब्धिर्यतःप्रभुः॥ ११९ ॥ चतुर्भिःकुलकम् ।। THEHREE NARRANGAROO ॥६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir AAAAAAAORAKAR अतिमुक्तकः कुमारोऽथ, तदा श्रीविजयाङ्गजः । षड्वर्षः कोमलालापो, वर्तमानः स्वमन्दिरे ॥ १२०॥ लक्षपाकादिभिस्तैलैः, कृताभ्यङ्गथा(ग)ङ्गसौख्यदैः । सुकुमारकरैछेकै,-मर्दितश्चाङ्गमर्दकैः ॥१२१॥ चूर्णैः सुरभिभिः सूक्ष्म,-विहितोद्वर्त्तन: सुधीः । स्नापितो वारयोषाभिः, कवोष्णैर्निर्मलैजलैः ॥ १२२ ॥ गन्धकाषायिकावस्त्र,-निर्जलीकृतविग्रहः । सन्तानवृद्धनारीभिः, कृतकौतुकमङ्गलः ॥१२३ ॥ परिधाय महामूल्य,-वस्त्ररत्नानि सादरम् । समस्तावयवेषूच्चै,-रामुक्ताशेषभूषणः ॥ १२४॥ निजगेहाद्विनिर्गत्य, क्रीडितुं सोऽतिमुक्तकः । प्रधानस्वपरीवारो,-राजमार्गमवातरत् ॥१२५ ॥ पञ्चभिः कुलकम् ॥ अनेकामात्यसामन्त, चालकैः कलिलोलुपैः । स्वसमानवयोऽवस्थै,-विमानैरितस्ततः चलच्चूलालतारम्यै,-र्गाढसंयमितांशुकैः । दृढसंहननैर्द:, रुल्ललद्भिर्मगैरिव ॥ १२७॥ कन्दुकैर्जात्यगाङ्गेय,-निर्मितैरतिवर्तुलैः । सुरत्नखचितैर्दीप्त, लोचनप्रमदप्रदैः ॥१२८॥ राजमार्गेऽतिविस्तीर्णे, स रेमे विजयाङ्गजा। जयन्त इव गीर्वाण,-कुमारैमुदितो दिवि ।। १२९ ॥ चतुर्भिश्च कुलकम् ॥ सुचिरक्रीडयाऽऽक्रान्तः, स विश्राम्यस्ततः क्षणम् । दिशोऽवलोकयन् याव,-त्तस्थौ स्वेदजलाविलः ॥१३० ॥ उच्चनीचकुलेपूच्चैः, पर्यटन्तं महामुनिम् । ददर्श गौतमं ताव,-दतिमुक्तकुमारकः ॥१३१ ॥ पप्रच्छ विस्मयोत्फुल्ल, नेत्रस्तं सोऽतिमुक्तकः । के यूयं हेतुना केन, भ्रमत्थं गृहे गृहे ॥ १३२॥ देवानां प्रिय ! कल्याणि,-निर्ग्रन्थाः श्रमणा वयम् । भिक्षार्थ पर्यटामोजातिमुक्तं प्राह गौतमः ॥१३३ ॥ ॐॐॐॐॐ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie अतिमुक्तक चरित्रम् ॥ ॥७॥ SAMSUSMIRROROSTS भमस्तर्हि ययेवं, युष्मभ्यं दापयाम्यहम् । भिक्षा गृहं समायाता,-तिमुक्तो मुनिमब्रवीत ॥ १३४॥ ततोऽङ्मुल्या समादाय, गौतम गणभृद्वरम् । बालोऽसौ मञ्जुलालाप,-चचाल खगृहं प्रति गौतमेन सहायान्तं, संवीक्ष्य तनयं निजम् । तुतोषातिशयेन श्री,-र्माता स्वगृहसंस्थिता पन्दित्वा गौतम दृष्टा, श्रीदेवी प्रत्यलम्भयत् । प्रासुकेनैषणीयेन, प्रधानानेन सादरम् ॥१३७॥ अतिमुक्तोऽपि पप्रच्छ, गौतमं गणभृद्वरम् । यूयं वसथ कुत्रेति, प्रसद्य ब्रूत मे प्रभो! ॥ १३८॥ धर्माचार्याः पुरोधाने, श्रीवीरस्वामिनो मम | विद्यन्ते जगतः पूज्या,-स्तत्र भद्र वसाम्यहम् ॥ १३९॥ भदन्तस्त(न्त ताहि ययेवं, युष्माभिः सार्द्धमेव हि । वीरं वन्दितुमायामी,-त्यत्रवीदतिमुक्तक ॥१४ ॥ गत्वा ततः पुरोधाने, वीरं नत्वाऽतिमुक्तकः । निषसाद महीपीठे, निबद्धाञ्जलिसम्पुट: ॥ १४१॥ ततः श्रीमान्महावीर,-स्तस्याग्रे जिनपुङ्गवः । मुनीनां धर्ममाचख्यौ, दशधाऽपि सविस्तरम् ॥१४२ ॥ तथाहि ॥ धान्तिादेवमार्जवं च सततं मुक्तिस्तपःसंयमः, सत्यं शौचमकिश्चनत्वमतुलं सब्रह्मचर्य तथा । कर्तव्यो यतिनामयं दशविधो धर्मोऽचिरान्मुक्तिदो, दुष्यापं मनुजत्वमाप्य जमति स्वश्रेयसे प्राणिनाम् ॥१४३॥ धुवं नरकपातः स्या-त्पश्चाधवनिपेविणाम् । एतेभ्यस्तु निवृत्तानां, मुक्तिसौख्यं करस्थितम् ॥१४४॥ बालोऽप्वालपीधर्म, श्रुत्वा स्वगृहमागतः । अबोचदतिमुक्तोऽथ, पितरौ विनयान्वितः ॥१४५॥ For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अम्ब ! तात ! मया धर्म्मः श्रुतः श्रीवीरसन्निधौ । संसारवासतस्तेन, निर्विण्णः प्रव्रजाम्यहम् पितरावूचतुर्वत्स !, त्वं बालोऽद्यापि वर्त्तसे । धर्म किमिह जानीषे, स्फटिकामलमानस ! मा (ता) सौ ! जाने यदेवाहं, न जानेऽहं तदेव हि । न जाने यत्तदेवाहं, जानेऽसावब्रवीदिति ततस्तौ तमवादिष्टां वत्सैतद् घटते कथम् ? । जाने यत्तन्न जानेऽह - मित्यादि वचनं तव उत्पन्नस्य ध्रुवं मृत्यु, रिति जानामि देहिनः । कदा कियच्चिरात्कस्मिन् कथं वेति न वेद्म्यहम् तथा न जाने यजीवाः, शुभ्र ( श्वभ्रं ) कैर्यान्ति कर्म्मभिः । एतत्पुनरहं जाने, यान्ति स्वकृतकर्मभिः इत्यादिवचनैस्तेन, पितरौ प्रतिबोधितौ । ततस्ताभ्यामनुज्ञातः कृतनिष्क्रमणोत्सवः आरुह्य शिबिकां रम्यां, सहस्रनरवाहिनीम् । सपित्रादिपरीवारः, पुरस्योपवनं ययौ विजयेन नरेन्द्रेण, श्रिया देव्या च सादरम् । विज्ञप्तः श्रीमहावीरः, पुरस्कृत्यातिमुक्तकम् भगवन्नावयोरिष्ट, स्तनयः शिशुरप्यसौ । विवेकी बुद्धिमानेष, निर्विण्णो भववासतः सचित्तां भगवन् ! भिक्षां, गृहाणास्माकमीदृशीम् । संवेगभाजनं चैनं, भवकूपात्समुद्धर तस्मै व्रतं वीरः, सर्वज्ञः शैशवेऽपि हि । मधुरोदारशब्देन, जगौ तत्पिरा विदम् धन्योऽयं पुण्यवानेष, लब्धं चास्य जन्म भोः ! । येनालम्भि परिव्रज्या, सर्वदुःखविमोक्षणी ततश्च विजयो भूपः श्रिया देव्या समन्वितः । विवेश नगरीं वीरं, प्रणम्य सपरिच्छदः For Private And Personal Use Only ॥ १४६ ॥ ॥ १४७ ॥ ॥ १४८ ॥ ॥ १४९ ॥ ।। १५० ।। ।। १५१ ।। ॥ १५२ ॥ ॥ १५३ ॥ ॥ १५४ ॥ ।। १५५ ।। ।। १५६ ॥ ।। १५७ ।। ।। १५८ ।। ॥ १५९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बतिमुक्तक ।। १६० ॥ चरित्रम् ॥ ॥८॥ ॥१६१॥ ॥ १६२॥ ॥ १६३ ॥ विजहारार्हता सार्द्ध-मतिमुक्तमुनिर्भुवम् । कुर्वताऽस्तं तमोराशि,-मादित्येन बुधो यथा विहरति क्षितिमण्डलमर्हति, द्युतिजितभ्रमराऽञ्जनसन्ततिः । सलिलभृत्समयोऽवततार स, व्रतिगणा विहरन्ति न यत्र च निववृते पथिकैर्विदिशो दिशो, हृदि धृतप्रमदैः स(स्वगृहं प्रति । प्रचलितैर्विदधे च गृहे स्थिति, धवलपक्षखगरिव मानसे विकमलोत्करमुत्थितकन्दलं, प्रचुरपङ्कपरिस्खलितप्रजम् । बहुजलावलि यत्र महीतलं, कदवनीपतिराज्यमिवाभवत नभसि यत्र जलं प्रविमुञ्चती, विदधती दृढमूर्जितगर्जितम् । जलधरावलिरञ्जनसन्निभा, समददन्तिततेर्दधते श्रियम् वृष्टिं विधायोपरतेऽम्बुवाहे, जलप्रवाहेषु वहत्सु सत्सु । बहिर्भुवं स स्थविरैः समेतो, यथा मतङ्गैः करिराजपोतः रजोहरणमात्मीयं, पतद्ग्रहमपि स्वकम् । कक्षामध्ये विनिक्षिप्या,-तिमुक्तकमुनिर्ययौ गच्छंश्च मार्गे प्रविलोक्य देशे, वहन्तमेकत्र जलप्रवाहम् । बाल्यानुभावेन स चञ्चलत्वा,-मृदं समादाय बचन्ध पालिम् 50CREARRA%E5% ॥१६४॥ ॥१६६ ॥ युग्मम् ॥ ॥१६७॥ ॥ ८ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥१६८॥ क्षिप्त्वा ततस्तत्र पतद्ग्रहं स्व,-मियं तरिर्मेऽस्मि च कर्णधारः । इति ब्रुवंस्तं प्रणुदस्त यष्ट्या, स्वैरं समं क्रीडतु कौतुकेन दृष्ट्वा ततोऽसौ स्थविरनिषिद्धो, विनीतभावाच्च ततो निषिद्धः । एवंविधाः स्युर्भुवने कुलीना, विशेषतो राजसुताः प्रकृत्या पादमूले जिनेन्द्रस्य, समेत्य स्थविरास्ततः । निबद्धाञ्जलयो नम्र,-मृर्द्धान इदमृचिरे योऽयं भगवतां शिष्यः, क्रीडत्येवं बहिर्भुवि । कृत्वा कर्मक्षयं मोक्षं, गन्ताऽसौ कतिभिर्भवैः १ । अथ श्रीमान्महावीरः, सुधामधुरया गिरा । स्थविरान् प्रत्युवाचैवं, हे आर्याः ! स्वहितैषिणः ! विनीतविनयोऽस्माकं, विनेयो लघुरप्यसौ । प्रकृत्या भद्रकश्चैषो,-ऽतिमुक्तकमहामुनिः महात्माऽयं महाभागो, महासत्चशिरोमणिः । संसारसागरं तीर्चा, भवेऽस्मिन्नेव सेत्स्यति कर्तुं नैवोचिता निन्दा,-ऽबहेला गर्हणाऽपि वा । युष्माकं च निरीहाणा,-मस्य साधोरतः परम् संगृह्णीतादरेणामुं, मुनि मुनिगुणोत्तरम् । विनयं कुरुतामुष्य, वैयावृत्यं च यत्नतः । ततस्ते स्थविरास्तस्य, विदधुर्विनयादिकम् । साक्षात्तीर्थकृतां वाक्ये, कस्य न स्यादिहादरः? वृद्धास्तं पाठयामासु,-रादराद्विनयान्वितम् । विनीतविनये शिष्ये, किं किं कुर्युर्न सूरयः ? बालोऽप्यथ तथा यत्ना,-दधीते स्म स धीरधीः । यथा बभूव स स्वल्प,-कालेनैकादशाङ्गवित् ॥१६९॥ ॥१७०॥ ॥ १७१ ॥ ॥१७२॥ ॥ १७३ ॥ ॥ १७४ ॥ ॥ १७५ ॥ ॥ १७६ ॥ ॥ १७७॥ ॥१७८ ॥ ॥१७९ ॥ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir अतिमुक्तक चरित्रम्॥ %AE%A CROCOCCARE* अथानन्यसुखस्तिष्ठन् , पुरतो निश्चलासनः । प्राञ्जलिर्वदनद्वारे, दधानो मुखवत्रिकाम् मुक्तो निद्राप्रमादेन, विकथाभिर्विवर्जितः । आनन्द जनयन्नुच्चै,-गुरूणां गुणशालिनाम् ॥१८१ ॥ स्थविरेभ्यः स्थिरप्रज्ञो, बहुमानपुरस्सरम् । शुश्रावासौ श्रुतस्यार्थ,-मतिमुक्तमुनिर्मुदा ॥१८॥ त्रिभिर्विशेषकम् ।। तथा तेऽप्याऽऽगमस्यार्थ,-मेतस्मै व्याचचक्षिरे । बुबुधे सोऽप्यनायासा, दतिम्रक्ष्मतरं यथा ॥ १८३॥ किं भूयसा स गीतार्थः, सर्वत्र कुशलोऽभवत् । साधुक्रियाकलापेषु, दिनैः कतिपयैरपि ॥१८४॥ सुभद्रशालनन्दनः, समुन्नतिप्रकर्षवान् । स्थिरः सुवर्णरत्नभू, सुपर्वतो+तो यथा समुद्रसंहते रत्न, वृहत्तरसुवृत्तवान् , अलब्धमध्यतान्वितो, यथान्त्यनिम्नगापतिः सितांशुकः प्रमोदकः, समस्तलोकचक्षुषाम् । यथैव पूर्णिमाहिमद्युतिर्महोभिरन्वितः ॥१८७॥ मदोद्धतानपि क्षिती, परप्रवादिकुञ्जरान् । प्रणाशयन् विदूरतो, यथैव गन्धसिन्धुरः ॥ १८८॥ स्खलद्गतिर्न कुत्रचि,-महाबलाङ्गसंस्थितिः । सदामिषप्रयोषक,-द्यथा कुरजाशात्रवः तमस्ततिं विलुण्टयन् , विलूनजाड्यसन्ततिः। विराजितः सुतेजसा, क्षमारसं प्रपोषयन् स्वपादसङ्गमेन सो,-तिमुक्तकाभिधो मुनिः। पुपाव भूमिमण्डलं, प्रभाकरो यथाऽखिलम् सप्तभिः प्रमाणीच्छन्दोभिः कुलकम् ॥ क्रोधोद्दामज्वलज्ज्वाला, नलं प्रशमयन्त्रयम् । लसत्प्रशमपीयूष,-चारिपूरेण सर्वसः ॥१९२॥ CAREEN ॥९॥ For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagersuri Gyanmandir अत्युत्पन्नमतिस्तब्ध,-मतिमानमहीधरम् । मार्दवाशनिपातेन, चूर्णयन् कणशोऽनिशम् ॥ १९३ ॥ अतिवक्रामतिकूरां, मायाव्यालावली हठात् । सदार्जवमहामन्त्रैः, स्तम्भयभेष समनि ॥१९४॥ व्याप्नुवन्तं विश्वविश्व,-मगाधं लोमसागरम् । सन्तोषसेतुबन्धेन, सर्वथैव नियन्त्रयन् ॥ १९५॥ सम्पक्समितिभिर्युक्तो, गुप्तित्रयपवित्रितः । जान-दर्शन-चारित्र-रत्नत्रयविभूषितः ॥ १९६ ॥ तप्यते स्म तपस्तीव्र, गुर्वनुन्जापुरस्सरम् । मेदैः षष्ठादिमिर्मिन्न,-मनगारोऽतिमुक्तकः॥ १९७॥ षभिः कुलकम् ।। मुनिर्विजयनन्दनः सगुणरत्नसंवत्सरं, तपोऽतिशयदुष्करं तदिह कर्तुमारब्धवान् । अनावृतशरीरकैर्निशि निबद्धवीरासन,-र्यदुत्कु(त्क)टिकसंस्थितै रविमुखैर्दिवा तप्यते ॥१९८॥ आघमासे चतुर्थेन, तपोऽदस्तप्यतेऽमुना । द्वितीये षष्ठषष्ठेन(षष्ठभक्तेन), तृतीये चाष्टमेन तु ॥ १९९॥ उत्कु(क)टिकासनस्थेन, दिवा सूर्यावलोकनाद् । रात्रौ वीरासनस्थेना,-ऽव्यावृतेन समाधिना ॥ २० ॥ एकैकस्योपवासस्य, मासे मासे प्रबर्द्धनात् । यावत्पोडशभिर्मासै, रुपवासैरपूर्यत ॥२०१॥ निर्मासरक्तस्तपसाऽमुनैवं, वाचंयमोऽसावतिमुक्तकाख्यः । जल्झे नितान्तं धमनीनिषद्ध, चर्मास्थिशेषोज्ज्वलदेहयष्टिः ॥ २०२॥ यावन्ममाङ्गे बलमस्ति किनि-संलेखनां तावदहं करोमि । इति स्वचित्ते परिमान्य सब-स्तपः प्रपेदेऽनशनं महात्मा ॥२०३॥ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra यतिमुक्तक ॥ १० ॥ www.kobatirth.org स पश्चिमं मासकमादधान, स्तपो मुनिः केवलमाप्य मुक्तिम् । तां वीरशिष्यो विजयाङ्गजन्मा, लेभेऽतिमुक्तो मुनिमाननीयः यस्यां न मृत्युर्न जरा न जन्म, न रोग-शोकौ न वियोगशङ्का । न क्लेशलेशो न कलिर्न खेदो, न ग्लानिभावो न पराभवश्च न दुर्जनानां वचनावकाशो, न द्वेषरागौ न कुटुम्बचिन्ता | न चान्तरायो न मृषा न हिंसा, न चारतिर्नैव शरीरपीडा न क्रोध - मानौ न च लोभ-माये, न तृड्-बुभुक्षे न मदो न निद्रा । न दैन्य-याचे न हसो न निन्दा, नाज्ञान- मिथ्यात्व- मनोभवाच न संशयो वस्तुनि नो जडत्वं न दौर्मनस्यं न दरिद्रता च । न राज- चौरादिभयं न तापो, नावर्णवादो न पुनर्निवृत्तिः किन्तु - शुद्धं सम्यक्त्वरत्नं स्फुरदतिविशदं दर्शनज्ञानमध्यं, सर्वाकाशप्रदेशप्रचुरतरमहो यत्र सौख्यं समस्ति । वीर्य वीर्यांतरायक्षयजनितमिदं विद्यते वाऽप्यनन्तम्, जीवस्याशेषकर्मप्रचय परिचितिप्रोज्झितस्यामलस्य For Private And Personal Use Only ॥ २०४ ॥ ॥ २०५ ॥ ॥ २०६ ॥ ॥ २०७ ॥ ॥ २०८ ॥ ॥ २०९ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चरित्रम् ॥ ॥ १० ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्थानाङ्गपश्चमसदङ्गमृषिस्तवेभ्यो, दृष्ट्वा जडप्रकृतिनापि मया विदृब्धम् । चित्रं चरित्रमिह देवगुरुप्रसादा,-चञ्चन्मतेवरमुनेरतिमुक्तकस्य ॥ २१०॥ श्रीमत्प्रल्हादनपुरवरे पूर्णभद्रो गणिःक, शिष्यः श्रीमजिनपतिगुरोश्चारु चक्रे चरित्रम् । चित्राश्चर्य विजयतनयस्यातिमुक्तस्य साधो,-_ष्टार्काब्दे(१२८२) दितिसुतगुरौ कार्तिके पूर्णमास्याम् ॥ २११ ।। BACAE%%A4न For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अविमुक्तक चरित्रम् // // समाप्तं चेदमतिमुक्तकमुनिचरितम् // *SHAIRAGAR ACAKANSAR // 10 // For Private And Personal Use Only