Book Title: Adhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्राधुनिक भाषा विज्ञान के सन्दर्भ में जैन प्राकृत राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी डी० लिट्० आगमों की भाषा प्राकृत है । त्रिपिटकों की भाषा पालि है । दोनों भाषाओं में अद्भुत साँस्कृतिक ऐक्य है । दोनों भाषाओं का उद्गम-बिन्दु भी एक है। दोनों का विकास क्रम भी बहुत कुछ समान रहा है। दोनों के विकसित स्वरूप में भी अद्भुत सामंजस्य है । जो कुछ वैषम्य है, उसके भी नाना हेतु हैं । प्राकृत और पालि के सारे सम्बन्धों व विसम्बन्धों को सर्वांगीण रूप से समझने के लिए भाषा मात्र की उत्पत्ति और प्रवाह क्रम का समीक्षात्मक रूप में प्रस्तुतीकरण आवश्यक होगा । भाषाओं के विकास और प्रसार की एक लम्बी कहानी है। भाषाओं का विकास मानव के बौद्धिक और भावात्मक विकास के साथ जुड़ा है। मानव ने संस्कृति, दर्शन और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महनीय अभियान चलाये । फलतः विश्व में विभिन्न संस्कृतियों, दार्शनिक परम्पराओं, साहित्यिक अभियोजनाओं तथा सामाजिक विकास का एक परिनिष्ठित रूप प्रतिष्ठापन्न हुआ भाषाओं में इनवे सम्बन्धित आरोह अवरोहों का महत्वपूर्ण विवरण ढूंढा जा सकता है क्योंकि मानव के जीवन में कर्म और अभिव्यक्ति का गहरा सम्बन्ध है । कर्म की तेजस्विता गोपित नहीं रहना चाहती। सूर्य की रश्मियों की तरह वह फूटना चाहती है। आकाश की तरह उसे अपना कलेवर फैलाने के लिए स्थान या माध्यम चाहिए। वह भाषा है; आवश्यकता है। ; अतः भाषाओं के वैज्ञानिक अनुशीलन की बहुत बड़ी विभिन्न भाषाओं की आश्चर्यजनक निकटता आश्चर्य होता है, सहस्रों मीलों की दूरी पर बोली जाने वाली फॅच, अंग्रेजी आदि भाषाओंों से भारत में बोली जाने वाली हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी तथा राजस्थानी आदि भाषाओं का महरा सम्बन्ध है, जबकि बाह्य कलेवर में वे उनसे अत्यन्त भिन्न दृष्टिगोचर होती हैं। दूसरा आश्चर्य यह भी होगा कि भारत में ही बोली जाने वाली तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि भाषाओं से उत्तर भारतीय भाषाओं का मौलिक सम्बन्ध नहीं जुड़ता । साथ विशेष सम्बन्ध है। एक दूसरी से विश्व की अनेक भाषाओं का निकटता-पूर्ण से कोई पारस्परिक साम्य चला आ रहा है। भाषाओं के स्वरूप भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत, प्राकृत तथा पालि आदि का पश्चिम की ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि प्राचीन भाषाओं के सहस्रों मीलों की दूरी पर प्रचलित तथा परस्पर सर्वथा अपरिचित-सी प्रतीत होने वाली सम्बन्ध है। ज्ञात होता है कि विश्व के विभिन्न मानव समुदायों में अत्यन्त प्राचीन काल और विकास का वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक रूप में अध्ययन करने से ये तथ्य विशद रूप में प्रकट होते हैं। इसी विचार-सरणि के सन्दर्भ में भाषाओं का जो सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन क्रम चला, वही भाषा विज्ञान या भाषा- शास्त्र बन गया है । भाषा विज्ञान की शाखाए भाषा विज्ञान में भाषा-तत्त्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण और विवेचन किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्य-विज्ञान, व्युत्पत्ति-विज्ञान आदि उसकी मुख्य शाखाए' या विभाग होते हैं। स्वनि-विज्ञान ( Phonology ) ; भाषा का मूल आधार ध्वनि है। ध्वनि का ही व्यवस्थित रूप शब्द है । शब्दों का साकांक्ष्य या परस्पर-सम्बद्ध समवाय वाक्य है । वाक्यों से भाषा निष्पन्न होती है; अतएव ध्वनि-विज्ञान भाषा - शास्त्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उसके अन्तर्गत ध्वनि यन्त्र, जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १२६ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर-तन्त्री तथा ध्वनि को व्यक्त रूप में प्रस्फुटित करने वाले वाििन्द्रय के मुख-विवर, नासिका-विवर, तालु, कण्ठ, ओष्ठ, दन्त, मूर्दा, जिह्वा आदि अवयव, उनसे ध्वनि उत्पन्न होने की प्रक्रिया, ध्वनि-तरंग, श्रोत्रेन्द्रिय से संस्पर्शन या संघर्षण, श्रोता द्वारा स्पष्ट शब्द के रूप में ग्रहण या श्रवण आदि के साथ-साथ ध्वनि-परिवर्तन, ध्वनि-विकास, उसके कारण तथा दिशाएं आदि विषयों का समावेश है। रूप-विज्ञान (Morphology) | ___शब्द का वह आकार, जो वाक्य में प्रयुक्त किये जाने योग्य होता है, रूप कहा जाता है। 'पद' का भी उसी के लिए प्रयोग होता है। सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने 'सुप्तिङन्तं पदम्' कहा है । अर्थात् शब्दों के अन्त में सु, औ, जस आदि तथा ति, अस्, अन्ति आदि विभक्तियों के लगने पर जो विशेष्य, विशेषण, सर्वनाम तथा क्रियाओं के रूप निष्पन्न होते हैं, वे पद हैं। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम ने 'ते विभक्त्यन्ताः पदम्' कहा है । विभक्ति-शून्य शब्द (प्रातिपादिक) और धातुओं का यथावस्थित रूप में प्रयोग नहीं होता । विभिन्न सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए उनके साथ भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ जोड़ी जाती हैं। विभक्ति-युक्त प्रातिपादिक या धातु प्रयोग-योग्य होते हैं । संस्कृत के सुप्रसिद्ध काव्य-तत्त्व-वेत्ता कविराज विश्वनाथ ने पद की व्याख्या करते हुए लिखा है : ' वे वर्ण या वर्ण-समुचय, जो प्रयोग के योग्य हैं तथा अनन्वित रूप में किसी एक अर्थ के बोधक है, पद कहे जाते हैं।" रूप-विज्ञान में इस प्रकार के नाम व आख्यात (क्रिया) पदों (रूपों) के विश्लेषण, विकास तथा अव्यय, उपसर्ग, प्रत्यय आदि का तुलनात्मक विवेचन होता है। अर्थ-विज्ञान (semantics) शब्द और अर्थ का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । अर्थ-शून्य शब्द का भाषा के लिए कोई महत्त्व नहीं होता । शब्द बाह्य कलेवर है, अर्थ उसकी आत्मा है । केवल कलेवर की चर्चा से साध्य नहीं सधता। उसके साथ-साथ उसकी आत्मा का विवेचन भी अत्यन्त आवश्यक होता है। शब्दों के साथ संश्लिष्ट अर्थ का एक लम्बा इतिहास है। किन-किन स्थितियों ओर हेतु ओं से किन-किन शब्दों का किन-किन अर्थों से कब, कैसे सम्बन्ध जुड़ जाता है ; इसका अन्वेषण एवं विश्लेषण करते हैं, तो बड़ा आश्चर्य होता है । वैयाकरणों द्वारा प्रतिपादित 'शब्दाः कामदुधाः' इसी तथ्य पर प्रकाश डालता है। इसका अभिप्राय यह था कि शब्द कामधेनु की तरह हैं । अनेकानेक अर्थ देकर भोक्ता या प्रयोक्ता को परितुष्ट करने वाले हैं। कहने का प्रकार या क्रम भिन्न हो सकता है, पर, मूल रूप में तथ्य वही है, जो ऊपर कहा गया है। उदाहरणार्थ, जुगुप्स शब्द को लें। वर्तमान में इसका अर्थ घृणा माना जाता है। यदि इस शब्द के इतिहास की प्राचीन पर्ते उघाड़ें, तो ज्ञात होगा कि किसी समय इस शब्द का अर्थ 'रक्षा करने की इच्छा' (गोप्तुमिच्छा जुगुप्सा) था। समय बीता। इस अर्थ में कुछ परिवर्तन आया । प्रयोक्ताओं ने सोचा होगा, जिसकी हम रक्षा करना चाहते हैं, वह तो छिपा कर रखने योग्य होता है। अत: 'जगुप्सा' का अर्थ गोपन (छिपाना) हो गया। मनुष्य सतत मननशील प्राणी है । उसके चिन्तन एवं मनन के साथ नये-नये मोड़ आते रहते हैं । उक्त अर्थ में फिर एक नया मोड़ आया। सम्भवतः सोचा गया हो, हम छिपाते तो जघन्य वस्तु को हैं, अच्छी वस्तएं तो छिपाने की होती नहीं। इस चिन्तन के निष्कर्ष के रूप में जगप्सा का अर्थ 'गोपन' से परिवर्तित होकर 'घृणा' हो गया। वास्तव में शब्द स्रष्टा एवं उसका प्रयोक्ता मानव है । प्रयोग की भिन्न-भिन्न कोटियों का मानव की मन: स्थितियों से सम्बन्ध है। शब्द और अर्थ के सम्बन्ध आदि पर विचार, विवेचन और विश्लेषण इस विभाग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान के कछ भाषा-वैज्ञानिक इसको भाषा-विज्ञान का विषय नहीं मानते। वे इसे दर्शन-शास्त्र से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीन काल के कुछ भारतीय दार्शनिकों ने भी प्रसंगवश शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की चर्चा की है। पर, जहां स्वतंत्र रूप से भाषा शास्त्र के सांगोपांग विश्लेषण का प्रसंग हो, वहां इसे अनिवार्यतः उसी को लेना होगा। उसके बिना किसी भी भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से परिशीलन अपूर्ण रहेगा । अर्थ-विज्ञान के अन्तर्गत वर्णनात्मक, समीक्षात्मक, तुलनात्क तथा इतिहासात्मक ; सभी दृष्टियों से अर्थ का अध्ययन करना अपेक्षित होता है। अर्थ-परिवर्तन, अर्थ-विकास, अर्थ-हास तथा अर्थ-उत्कर्ष आदि अनेक पहलू इसमें सहज ही आ जाते हैं। वाक्य-विज्ञान (syntax) भाषा का प्रयोजन अपने भावों की अभिव्यंजना तथा दूसरे के भावों का यथावत् रूप में ग्रहण करना है। दूसरे शब्दों में इसे (भाषा को) विचार-विनियम का माध्यम कहा जा सकता है। ध्वनि, शब्द, पद ; ये सभी भाषा के आधार हैं। पर, भाषा जब वाक्य की भूमिका के योग्य होती है, तब उसका कलेवर वाक्यों से निष्पन्न होता है। पद वाक्य में प्रयुक्त होकर ही अभीप्सित अर्थ १. वर्णाः पदं प्रयोगाहान्वितेकार्थबोधकाः। -साहित्यदर्पण; २.२ १३० आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट करने में सक्षम होते हैं । वाक्य में पदों या शब्दों का स्थानिक महत्व भी होता है; अतः अर्थ-योजन में स्थान निर्धारण भी अपेक्षित रहता है । उदाहरणार्थ, I go to school अंग्रेजी के इस वाक्य में 'Go' क्रिया दूसरे स्थान पर है। Go to school इस वाक्य में भी 'Go' क्रिया का प्रयोग है । यहां Go पहले स्थान पर है । पर स्थान भेद के कारण इस क्रिया के अर्थ में भिन्नता आ गयी है। पहले वाक्य में यह क्रिया जहां सामान्य वर्तमान की द्योतक है, वहां दूसरे वाक्य में आज्ञा द्योतक है । वाक्य-विज्ञान से सम्बद्ध इसी प्रकार के अनेक विषय हैं, जो वाक्य रचना की विविध अपेक्षाओं पर टिके हुए हैं । उन सबका इस विभाग के अन्तर्गत विवेचन और विश्लेषण किया जाता है । निर्वाचन- शास्त्र [ व्युत्पत्ति-विज्ञान] (Etymology) शब्दों की उत्पत्ति, उनका इतिहास आदि का इस विभाग में समावेश है । शब्दों की उत्पत्ति की अनेक कोटियाँ तथा विधाएं हैं, जिनके अन्वेषण से और भी अनेक तथ्य प्रकट होते हैं। मानव के सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन से उनका गहरा सम्बन्ध है । प्राचीन काल में भाषा-विज्ञान का इस प्रकार का अध्ययन व्यवस्थित एवं विस्तृत रूप में नहीं हुआ। भारतवर्ष और यूनान में एक सीमा तक इस सन्दर्भ में प्रयत्न चले थे। यूनान में बहुत स्थूल रूप में इस पर चर्चा हुई। पर, भारतीय मनीषी उस समय की स्थितियों और अनुकूलताओं के अनुसार अधिक गहराई में गये थे । विश्व में उपलब्ध साहित्य में वैदिक वाङ्मयका ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। वेदों में प्रयुक्त भाषा और तद्गत अर्थ व परम्परा सदा अक्ष ुण्ण बनी रहे, इसके लिए विद्वानों ने शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्दः शास्त्र, ज्योतिष और निरुक्त ६ शास्त्र और प्रतिष्ठित किये जो वेदांग कहे जाते हैं। शिक्षा (ध्वनि-विज्ञान) का बंद की संहिताओं से गहरा सम्बन्ध है। वैदिक संहिताओं का शुद्ध उच्चारण किया जा सके, उनका स्वर-संचार यथावत् रह सके, इसके लिए अनेक नियम गठित किये गये। जिन ग्रन्थों में इनका विशेष वर्णन है, वे प्रातिशाख्य कहलाते हैं। प्रातिशाख्य प्रतिशाखा में बना है। पृथक-पृथक वेदों की भिन्न-भिन्न शाखाएं मानी गयी हैं उन साखाओं से सम्बद्ध संहिताओं के शुद्ध उच्चारण का भिन्न-भिन्न प्रातिशाख्य ग्रन्थों में उल्लेख है । प्रातिशाख्यों का सर्जन विश्व का प्राचीनतम भाषावैज्ञानिक कार्य है । इसका मुख्य उद्देश्य मात्रा काल, स्वराघात, उच्चारण की विशिष्टताओं का प्रदर्शन, संहिताओं के रूढ़िगत उच्चारण की सुरक्षा, , वैज्ञानिकता एवं सूक्ष्मता के साथ ध्वनियों का विवेचन तथा ध्वनि-अंगों की जानकारी देना था । प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त कतिपय शिक्षा ग्रन्थ भी हैं, जो कलेवर में छोटे हैं। वेद का यह अंग भाषा - विज्ञान से बहुत अधिक सम्बद्ध है। ध्वनि-विज्ञानसम्बन्धी अनेक प्रश्नों का समाधान एक सीमा तक इसमें प्राप्त है । उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित के रूप में स्वरों के उच्चारण के विशेष क्रम भी ध्वनि-विज्ञान से सूक्ष्मतया सम्पृक्त हैं। 'कल्प' पारिभाषिक शब्द है, जो कर्म-काण्ड- विधि के लिए प्रयुक्त हुआ है। दूसरे से छठे तक पांच अंगों में नीचा 'ति' भाषा विज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । निरुक्त के रचियता महान विद्वान यास्क थे। उनका समय लगभग ई०पू० ८०० माना जाता है । वैयाकरणों का अभिमत निरुक्तकार यास्क — यास्क ने निरुक्त या व्युत्पत्ति - शास्त्र की रचना कर भारतीय वाङ् मय को वास्तव में बड़ी देन दी । उनके द्वारा रचित व्युत्पत्ति-शास्त्र विभिन्न शब्दों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो सूचनाएं देता है, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं। यास्क के सामने उस समय भाषा के दो रूप विद्यमान थे, वैदिक भाषा और लौकिक भाषा । वैदिक भाषा से उनका तात्पर्य उस संस्कृत से है, जिसका वेदों में प्रयोग हुआ है | वे उसे निगम, छन्दस्, ऋक् आदि नाम भी देते हैं। लौकिक भाषा के लिए वे केवल 'भाषा' व्यवहृत करते हैं । उनके अनुसार वैदिक संस्कृत मूल भाषा है तथा लौकिक भाषाएं उससे निकली हैं । आज के भाषा-वैज्ञानिक एक ऐसी भारोपीय परिवार की अत्यन्त प्राचीन मूलभाषा की भी कल्पना करते हैं, जो वैदिक संस्कृत तथा तत्समकक्ष अन्यान्य तत्परिवारीय प्राच्य व प्रतीच्य भाषाओं का उद्गम स्थान थी । यास्क जिन परिस्थितियों में थे, उनके लिए यहां तक पहुंच पाना सम्भव नहीं था । भौगोलिक कठिनाइयाँ भी थीं, यातायात के साधन तथा अन्य अनुकूलताएं भी नहीं थीं । ऐसी स्थिि में अपने निर्वाचन में वे भारत से बाहर की भाषाओं को भी दृष्टिगत रख पाते, यह सम्भव नहीं था । उस समय यद्यपि उप भाषाओं का १. शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा । कल्पश्चेति षडंगानि वेदस्याहुर्मनीषिणः । जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १३१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रचलन पर्याप्त संख्या में था और यास्क ने भी उस प्रकार के सकेत किये हैं, पर उनका व्युत्पत्ति के सन्दर्भ में भाषात्मक अनुसन्धानकार्य उन्हीं प्रचलित भाषाओं की सीमा में है, जो उनके समक्ष थी जो भी हुआ, जिराना भी हुआ, उस समय की स्थितियों के परिपा में स्तुत्य कार्य था । संसार के भाषा-शास्त्रीय विकास के इतिहास में उसका अनुपम स्थान रहेगा । 1 निघण्टु के रूप में यास्क के सामने वेद के शब्दों की सूची विद्यमान थी, जिसके पाँच अध्याय हैं। निरुक्त में निघण्टु में उल्लिखित प्रत्येक पद की पृथक-पृथक व्युत्पति प्रदर्शित की गई है। निश्क्तकार के निषष्टु के शब्दों का अर्थ स्थापित करने का वास्तव में सफल प्रयास किया है । उन्होंने अपने द्वारा स्थाप्यमान अर्थ की पुष्टि के हेतु स्थान-स्थान पर वैदिक संहिताओं को भी उद्धृत किया है । अर्थ-विज्ञान के सन्दर्भ में इस प्रकार के अध्ययन का विश्व में यह पहला प्रयास था । भारतवर्ष में यास्क के समय तक अर्थ-विज्ञान आदि से सम्बन्धित विषय चर्चित हो चुके थे। यास्क ने स्वयं औदुम्बरायण, वायपनि, गार्ग्य, गालव, शाकटायन आदि अपने से पूर्ववर्ती या समसामयिक आचार्यों का उल्लेख करते हुए उनके मतों को उद्धृत किया है । उदाहरणार्थं, यास्क ने पद के चार भेद किये हैं-नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपास उस प्रसंग में उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्य औदुम्बरायण का मत उद्धृत करते हुए शब्द के निमत्व और अनित्यत्व जैसे गहन विषय की चर्चा की है । यास्क के अनुसार आख्यात भाव प्रधान है। उसके सन्दर्भ में उन्होंने भावविकार के विषय में आचार्य वार्ष्यायण के विचार उपस्थित कर अपना अभिमत प्रदर्शित किया है। वास्तव में यास्क का निरूपण क्रम अनुसन्धानात्मक और समीक्षात्मक पद्धति पर आधृत है । उत्तरवर्ती भाषा वैज्ञानिकों के लिए वह निःसन्देह प्रेरणादायक सिद्ध हुआ । 1 '' यास्क के व्यक्तित्व की महता इससे और सिद्ध हो जाती है कि अस्पष्ट शब्दों के लिए उन्होंने आग्रह नहीं किया, अपितु उदारतापूर्वक स्वीकार कर लिया कि वे शब्द उनके लिए स्पष्ट नहीं हैं। उन्होंने शब्दों पर विचार करते हुए भाषा की उत्पति और गठन आदि पर भी जहां-तहां कुछ संकेत किया है। सबसे पहले उन्होंने यह स्थापना की कि प्रत्येक संज्ञा की व्युत्पत्ति धातु से है यद्यपि यह मत समालोचनीय है, पर इसका अपना महत्त्व अवश्य है । आगे चलकर महान् वैयाकरण पाणिनि ने भी धातु-सिद्धान्त को प्रतिपादित किया । वाक द्वारा विवेचित व्युत्पति-क्रम को जानने के लिए एक उदाहरण उपयोगी होगा 'आचार्य' शब्दको व्युत्पत्ति करते हुए वे लिखते है आचार्यः कस्मात् ? आचार्य आचारं प्राह्मति आमिनोत्यर्थात् अचिनोति बुद्धिमिति वा जो चार करवाता है अथवा अर्थो का आचयन करता है, अन्तेवासी को पदार्थों का बोध करवाता है अथवा अन्तेवासी में बुद्धि का संचय करता है, वह 'आचार्य' कहा जाता है । । ' श्मशान' शब्द की व्युत्पति करते हुए यास्क लिखते हैं: श्मशानम् श्मशयनम् । श्मशरीरम् । शरीरं शृगाते । शम्नाते : वा । श्म - शरीर जहां शयन करता है, चिर निद्रा में सोता है, वह 'श्मशान' कहा जाता है ! महान् वैयाकरण पाणिनि - यास्क के अनन्तर महान् वैयाकरण पाणिनि को भाषा विज्ञान के विकास के सन्दर्भ में सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है । पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के गठन के अन्तर्गत पद-विज्ञान आदि का भी गम्भीर और वैज्ञानिक विवेचन किया। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरणों आपिशनि आदि का भी उल्लेख किया। पाणिनि के पूर्ववर्ती एक बहुत बड़े वैयाकरण इन्द्र थे । तैत्तरीय संहिता इन्हें प्रथम वैयाकरण सिद्ध करती है। वहां लिखा है "देवताओं ने इन्द्र से कहा- हमें भाषा को व्याकृत कर समझाइए ।" इन्द्र ने वैसा किया । इन्द्र का वैयाकरण- सम्पदाय पाणिनि के पूर्व एवं पश्चात् भी चलता रहा। वर्तमान में जो प्रातिशाख्य प्राप्त हैं, वे इसी सम्प्रदाय के हैं। वार्तिककार कात्यायन भी इसी सम्प्रदाय के थे । पाणिनि ने पूर्ववर्ती वैयाकरणों के महत्त्वपूर्ण शोध कार्य का सार अष्टाध्यायी में समाविष्ट किया। उन्होंने कतिपय प्रसंगों में उदीच्य और प्राच्य सम्प्रदायों की भी चर्चा की है । कथासरित्सागर में सोमदेव ने लिखा है कि पाणिनि के गुरु का नाम उपाध्याय वर्ष था । कात्यायन, व्याडि और इन्द्रदत्त इनके सहपाठी थे। पाणिनि ने माहेश्वर सूत्रों के रूप में व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी देन दी है। माहेश्वर सूत्रों की कुछ अनुपम विशेषताएं हैं उनमें ध्वनियों का स्थान एवं प्रयत्न के अनुसार जो वर्गीकरण किया गया है । वह ध्वनि-विज्ञान का उत्कृष्ट उदाहरण है । पाणिनि की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उन्होंने केवल चौदह सूत्रों के आधार पर प्रत्याहार आदि के सहारे संस्कृत जैसी जटिल और कठिन भाषा को संक्षेप में बांध दिया। ढाई हजार वर्ष के पश्चात् भी वह भाषा किंचित् भी इधर-उधर नहीं हो सकी अपने परिनिष्ठित रूप में यथावत बनी रह सकी। उन्होंने नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात के रूप में यास्क द्वारा किये गये पद-विभागों १. ववै प्राच्य व्याकृताऽवदत् । ते देवा इन्द्रमत्र, वन्निमां नो वाचं व्याकृदिति । तमिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् । १३२ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नहीं माना । शब्द को सुबन्त और तिङन्त ; इन दा भागों में विभक्त किया है। आज तक संसार में भाषा-विज्ञान या व्याकरण के क्षेत्र में शब्दों के जितने भी विभाजन किये गये हैं, उनमें वैज्ञानिक दृष्टि से इस निरूपण का सर्वाधिक महत्त्व है । वर्गों के स्पृष्ट, ईषत्स्पृष्ट संवृत, विवृत, अल्पप्राण, महाप्राण, घोष, अघोष आदि कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि उच्चारण-स्थान प्रभति अनेक ऐसे विषय हैं जो ध्वनि-विज्ञान के क्षेत्र में पाणिनि की अद्भुत उपलब्धियां हैं। वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत का तुलनात्मक विश्लेषण पाणिनि का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है। उनके वर्णन से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि छन्दस् कही जाने वाली वैदिक संस्कृत और भाषा कहलाने वाली लौकिक संस्कृत में परस्पर उस समय तक बहुत अन्तर आ गया था। सार रूप में कहा जा सकता है कि पाणिनि विश्व के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण थे। अष्टाध्यायी जैसा उसका ग्रंथ आज तक किसी भी भाषा में नहीं लिखा गया। उन्होंने व्याकरण को अनपम सूक्ष्मता देने के साथ-साथ दर्शन का स्वरूप भी प्रदान किया। उनकी सूत्र-पद्धति ने व्याकरण की शुष्कता को सरस तथा कठिनता को सरल बना दिया । आधुनिक भाषा-विज्ञान के जनक पाश्चात्य विद्वान् ब्लूम फील्ड Language पुस्तक में, जिसका आज के भाषा-विज्ञान में अत्यधिक महत्त्व है, पाणिनि के सम्बन्ध में लिखते हैं : "पाणिनि का व्याकरण (अष्टाध्यायी) जिसकी रचना लगभग ई० पू० ३५०-२५० के मध्य हुई थी, मानवीय बुद्धि के प्रकर्ष का सबसे उन्नत कीर्ति-स्तम्भ है। आज तक किसी भी अन्य भाषा का इतने परिपूर्ण रूप में विवेचन नहीं हुआ है।" हर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्राध्यापक जॉन बी० केरोल ने लिखा है : "पाश्चात्य विद्वानों ने पहले पहल जैसे ही हिन्दू वैयाकरण पाणिनि की वर्णनात्मक पद्धतियों का परिचय पाया, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनसे प्रभावित हुए तथा उन्होंने 'भाषाओं का विवेचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन प्रस्तुत करना प्रारम्भ किया।" आलोचक कात्यायन : पाणिनि के पश्चात् अन्य भी कई वैयाकरण हुए। कात्यायन उनमें बहुत प्रसिद्ध हैं। कथासरित्सागरकार ने इन्हें पाणिनि का सहपाठी बतलाया है। वह उचित नहीं जान पड़ता। कात्यायन का समय लगभग ई० पू० 'पांचवी-चौथी शताब्दी होना चाहिए। कात्यायन ने पाणिनि के सूत्रों की आलोचना की, उनमें दोष दिखलाया तथा शुद्ध नियम निश्चित किये। इस सम्बन्ध में विद्वानों का अभिमत है कि कात्यायन ने जिन्हें दोष कहा, वे वस्तुतः दोष नहीं थे। पाणिनि तथा कात्यायन के बीच लगभग १५० वर्ष का समय पड़ता है। उस बीच भाषा में जो परिवर्तन आया, उसे ही कात्यायन ने अशुद्ध या दुष्ट माना। इतना स्पष्ट है कि कात्यायन के वात्तिकों से भाषा के विकास से सम्बद्ध कई तथ्य ज्ञात होते हैं, जो अर्थ-विज्ञान एवं ध्वनि-विज्ञान से जुड़े हैं। महाभाष्यकार पतंजलि: कात्यायन के पश्चात् पतंजलि आते हैं। उनका समय ई०पू० दूसरी शताब्दी है। वे पाणिनि के अनुयायी थे। उन्होंने महाभाष्य की रचना की, जिसका उद्देश्य कात्यायन के नियमों में दोष दिखाकर पाणिनि का मण्डन करना था। उन्होंने जो नियम बनाये, वे इष्टि कहलाते हैं। पतंजलि के महाभाष्य का महत्त्व नियम स्थापना की दृष्टि से बहुत अधिक नहीं है। उसका महत्त्व तो भाषा के दार्शनिक विश्लेषण में है। उन्होंने ध्वनि के स्वरूप, वाक्य के भाग तथा ध्वनि-समूह व अर्थ का पारस्परिक सम्बन्ध आदि भाषा-विज्ञानसम्बन्धी महत्त्वपूर्ण विषयों पर गहन चिन्तन उपस्थित किया। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान जैसे विषय को पतंजलि ने जिन सरल, सुघड़ और हृद्य शब्दों से वर्णित किया है, वह वास्तव में अद्भुत है। उनकी शैली अत्यन्त ललित तथा हेतुपूर्ण है । सरल, सरस व प्रांजल भाषा तथा प्रसादपूर्ण शैली की दृष्टि से समग्र संस्कृत वाङमय में आचार्य शंकर कृत शारीरिक भाष्य के अतिरिक्त ऐसा एक भी ग्रन्थ नहीं है, जो इस महाभाष्य के समकक्ष हो। व्याकरण का उत्तरवर्ती स्रोत: महाभाष्यकार पतंजलि के अनन्तर पाणिनीय शाखा के अन्तर्गत उत्तरोत्तर अनेक वैयाकरण होते गये, जिनमें जयादित्य तथा वामन (सातवीं शती पूर्वार्ध), भर्तृहरि (सातवीं शती), जिनेन्द्र बुद्धि (आठवीं शती 1. This grammer which dates from some where round 350 to 250 B. C. is one of the greatest Monuments of human intelegence...No other language to this day has been so perfectly described. 2 Western scholars were for the first time exposed to the descriptive methods of the Hindu grammarian Pāņini, influenced either directly or indirectly by Pāņini, began to produce descriptive and historical studies. जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १३३ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वार्ध), कय्यट (ग्यारहवीं शती), हरदत्त (बारहवीं शती) मुख्य थे। उन्होंने पाणिनि की व्याकरण-परम्परा में अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों तथा व्याख्या-ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिनमें भाषा और व्याकरण के अनेक शब्दों पर तलस्पर्शी विवेचन है। उनके अनन्नर इस शाखा में जो वैयाकरण हुए, उन्होंने कौमुदी की परम्परा का प्रवर्तन किया। व्याकरण पर इतने अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके थे कि उनको बोध-गम्य बनाने के लिये किसी अभिनव क्रम की अपेक्षा थी। कौमुदी-साहित्य इनका पूरक है। विमल सरस्वती (चौदहवीं शती), शमचन्द्र (पन्द्रहवीं शती), भटोजि दीक्षित (सतरहवीं शती) तथा वरदराज (अठारहवी शती) इस परम्परा के मुख्य ग्रन्थकार थे। भटोजि दीक्षित की सिद्धान्त कौमुदी और वरदराज की लघु कौमुदी का संस्कृत अध्येताओं में आज भी सर्वत्र प्रचार है। पाणिनि के व्याकरण के अतिरिक्त भारतवर्ष में व्याकरण की कतिपय अन्य शाखाएँ भी प्रचलित थीं, जिनमें जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमचन्द्र, कातन्त्र, सारस्वत तथा वोपदेव आदि शाखाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्याकरणोत्तर शास्त्रों में भाषा-तत्त्व : व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत में रचे गये न्याय, काव्य-शास्त्र तथा मीमांसा आदि में भी भाषा के सम्बन्ध में प्रासंगिक रूप में विचार उपस्थित किये गये हैं। बंगाल में नदिया नैयायिकों या ताकिकों का गढ़ रहा है। वहां के नैयायिकों ने अपने ग्रन्थों में भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर विचार किया। श्री जगदीश तर्कालंकार के शब्दशक्तिप्रकाशिका ग्रन्थ में शब्दों की शक्ति पर नैयायिक दृष्टि से ऊहापोह किया गया है। उससे अर्थ-विज्ञान पर कुछ प्रकाश पडता है। काव्य शास्त्रीय वाङमय में काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, चन्द्रालोक और साहित्य-दर्पण आदि ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें शब्द-शक्तियों तथा अलंकारों के विश्लेषण के प्रसंग में भाषा के शब्द, अर्थ आदि तत्त्वों पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है। भारतीय दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मीमांसा दर्शन का वर्ण्य विषय यद्यपि कर्मकाण्ड और यज्ञवाद है, पर, विद्वान् आचार्यों ने इनके विवेचन के लिए जो शैली अपनाई है, वह अत्यन्त नै यायिक या तार्किक है। उन्होंने शब्दस्वरूप, शब्दार्थ, वाक्यस्वरूप, वाक्यार्थ आदि विषयों पर गहराई से विमर्षण किया है। __ भारतीय विद्वानों द्वारा किये गये भाषा-तत्त्व-सम्बन्धी गवेषणा-कार्य का यह संक्षिप्त लेखा-जोखा है, जो भारतीय प्रज्ञा की सजगता पर प्रकाश डालता है। प्राचीन काल में जब समीक्षात्मक रूप में परिशीलन करने के साधनों का प्राय: अभाव था और न आज की तरह गवेषणा-सम्बन्धी नवीन दृष्टिकोण ही समक्ष थे, तब इतना जो किया जा सका, कम स्तुत्य नहीं है । विश्व में अपनी कोटि का यह असाधारण कार्य था। यूनान व यूरोप में भाषा-विश्लेषण पुरातन संस्कृति, साहित्य तथा दर्शन के विकास में प्राच्य देशों में जो स्थान भारत का है, उसी तरह पाश्चात्य देशों में ग्रीस (यनान) का है। भारतवर्ष के अनन्तर यूनान में भी भाषा-तत्त्व पर कुछ चिन्तन चला। यद्यपि वह भारतवर्ष की तुलना में बहुत साधारण था, केवल ऊपरी सतह को छ ने वाला था, पर पाश्चात्य देशों में इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास था, इसलिए उसका ऐतिहासिक महत्त्व है। ___ सुकरात का इंगित : सुकरात (ई० पू० ४६६ से ई० पू० ३६६) यूनान के महान् दार्शनिक थे। उनका विषय तत्त्व ज्ञान था; अत: भाषा-शास्त्र के सम्बन्ध में उन्होंने लक्ष्यपूर्वक कुछ नहीं लिखा, पर, अन्य विषयों की चर्चा के प्रसंग में इस विषय की ओर भी कुछ इंगित किया। सुकरात के समक्ष यह प्रश्न आया कि शब्द और अर्थ में परस्पर जो सम्बन्ध है, वह स्वाभाविक है या इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी एक वस्तु का जो नाम प्रचलित है, उस (नाम) के स्थान पर यदि कोई दूसरा नाम रख दिया जाए, तो क्या वह अस्वाभाविक होगा ? सकरात का इस सन्दर्भ में यह चिन्तन था कि किसी वस्तु और उसके नाम का, दूसरे शब्दों में अर्थ और शब्द का कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है। वह मानव द्वारा स्वीकृत सम्बन्ध है । यदि किसी वस्तु का उसके नाम से स्वाभाविक सम्बन्ध होता, तो वह शाश्वत होता, सर्वव्यापी होता, देश-काल के भेद से व्याहत नहीं होता। ऐसा होने पर संसार में सर्वत्र जिस किसी भाषा का एक शब्द सभी दूसरी भाषाओं में उसी अर्थ का द्योतक होता, जिस अर्थ का अपनी भाषा में द्योतक है। अर्थात्, संसार में सबकी स्वाभाविक भाषा एक ही होती। प्लेटो : भाषा-तत्त्व : सुकरात के पश्चात् उनके शिष्य प्लेटो (४२६ ई० पू० से ३४७ ई० पू०) यूनान के बहुत बड़े विचारक हुए। उनका भी अपने गुरु की तरह भाषा-विज्ञान से कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं था। उन्होंने यथा-प्रसंग भाषा तत्त्वों के सम्बन्ध में जहां-तहां अपने विचार प्रकट किये हैं, जिनका भाषा-विज्ञान के इतिहास में कुछ-न-कुछ महत्त्व है। उन्होंने १३४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनियों के वर्गीकरण का मार्ग दिखाया तथा ग्रीक भाषा की ध्वनियों को घोष और अबोष; इन दो भागों में विभक्त किया। यूरोप में ध्वनियों के वर्गीकरण का यह सबसे पहला प्रयत्न था। प्लेटो ने भाषा और विचार के सम्बन्ध पर भी चर्चा की है। उसके अनुसार विचार और भाषा में केवल इतना ही ही अन्तर है कि विचार आत्मा का अध्वन्यात्मक या निःशब्द वार्तालाप है और जब वह ध्वन्यात्मक होकर मुख-विवर से व्यक्त होता है, तो उसकी संज्ञा भाषा हो जाती है। सारांश यह है कि प्लेटो के अनुसार भाषा और विचार में मूलत: ऐक्य है। केवल बाह्य दृष्टि से ध्वन्यात्मकता और अध्वन्यात्मकता के रूप में अन्तर है। प्लेटो वाक्य-विश्लेषण और शब्द-भेद के सम्बन्ध में भी कुछ आगे बढ़े हैं। उद्देश्य, विधेय, वाच्य, व्यत्पत्ति आदि पर भी उनके कुछ संकेत मिलते हैं, जो भाषा-विज्ञान सम्बन्धी यूनानी चिन्तन के विकास के प्रतीक हैं। अरस्तू का काव्यशास्त्र यनान के तीसरे महान् दार्शनिक, काव्यशास्त्री और चिन्तक अरस्तू थे। उनका भी मुख्य विषय भाषा नहीं था, पर. प्रासंगिक रूप में भाषा पर भी उन्होंने अपना चिन्तन दिया । अरस्तू का एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ पोयटिक्स (काव्यशास्त्र) है, जिसमें उन्होंने त्रासदी. कामदी आदि काव्य-विधाओं का मामिक विवेचन किया है। पोयटिक्स के दूसरे भाग में अरस्तु ने जहां, शैली का विश्लेषण किया है. वहां भाषा पर भी कुछ प्रकाश डाला है। यद्यपि वह भाषा-विज्ञान से साक्षात् सम्बद्ध नहीं है, पर, महत्त्वपूर्ण है। उनके अनसार वर्ण अविभाज्य इवनि है। वह स्वर, अन्तस्थ और स्पर्श के रूप में विभक्त है। दीर्घ, ह्रस्व, अल्पप्राण तथा महाप्राण आदि पर भी उन्होंने चर्चा को है। उन्होंने स्वर की जो परिभाषा दी, वस्तुतः वह कुछ दृष्टियों से वैज्ञानिक कही जा सकती है। उन्होंने बताया कि जिसकी ध्वनि के उच्चारण में जिह्वा और ओष्ट का व्यवहार न हो, वह स्वर है। उद्देश्य, विधेय, संज्ञा, क्रिया आदि पर भी अरस्तू ने प्रकाश डाला है। कारकों तथा उनको प्रकट करने वाले शब्दों का भी उन्होंने विवेचन किया है, जो यूरोप में इस कोटि का सबसे पहला प्रयास है। प्लेटो ने शब्दों के श्रेणी-विभाग (Parts of speech) का जो ण्यत आरम्भ किया था, उसे पूरा कर आठ तक पहुंचाने का श्रेय अरस्तू को ही है। उन्होंने लिग (स्त्रीलिंग, पुल्लिग, नप सक लिंग) भेद तथा उनके लक्षणों का भी विश्लेषण किया। ग्रीक, लैटिन और हिब्रू ग्रीक वैयाकरणों ने तदनन्तर प्रस्तुत विषय को और आगे बढ़ाया। जिनमें पहले थे क्स (ई० पू० दूसरी शती) है। ग्रीस और रोम में जब पारस्परिक संपर्क बढ़ने लगा, तब विद्याओं का आदान-प्रदान भी प्रारंभ हुआ। फलत: रोमवासियों ने ग्रीस की भाषा असायन-प्रणाली को ग्रहण किया और लैटिन भाषा के व्याकरणों की रचना होने लगी। लेटिन का सबसे पहला प्रामाणिक व्याकरण बोगस बाल नामक विद्वान द्वारा लिखा गया । वह ईसाई-धर्म के प्रभाव का समय था ; अत: ग्रीस और रोम में ओल्ड टेस्टामेंट Restament) के अध्ययन का एक विशेष क्रम चला । उस बीच विद्वानों को ग्रीक, लैटिन और हिब्रू भाषाओं के तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक अध्ययन का विशेष अवसर प्राप्त हुआ । ओल्ड टेस्टामेंट की भाषा होने के कारण उस समय हिब्र को वहां सबसे प्राचीन तथा सब भाषाओं की जननी माना जाता फलतः विद्वानों ने यूरोप की अन्य भाषाओं के वैसे शब्दों का अन्वेषण आरम्भ किया, जो हिब्रू के तदर्थक शब्दों के सदश या मिलते. बोरसे कोश बनने लगे, जिनमें इस प्रकार के शब्दों का संकलन था । उन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से साध्य है, ऐसा करने का भी प्रयास चलने लगा । इस सन्दर्भ में तत्कालीन विद्वानों का अरबी तथा सीरियन आदि भाषाओं के परिशीलन की ओर भी ध्यान गया । पन्द्रहवीं शती यूरोप में विद्याओं और कलाओं के उत्थान या पुनरुज्जीवन का समय माना जाता है । साहित्य, संस्कृति आदि बकास के लिए जन-मानस जागृत हो उठा था तथा अनेक आन्दोलन या सबल प्रयत्न पूरे वेग के साथ चलने लगे थे। भिन्न-भिन्न देश जामियों का अपनी-अपनी भाषाओं के अभ्युदय की ओर भी चिन्तन केन्द्रित हुआ । परिणामस्वरूप भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन का जितना जैसा संभव था, उपक्रम चला । भाषा-अध्येताओं ने इस सन्दर्भ में जो उपलब्धियां प्राप्त की, उनमें से कुछ थीं : --विद्वानों को ऐसा आभास हुआ कि ग्रीक और लैटिन भाषाए सम्भवतः किसी एक ही स्रोत से प्रस्फुटित हुई हैं। —भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण की दृष्टि से यह, चाहे अति साधारण ही सही, एक प्रेरक संकेत था। -विद्वानों को चाहे हल्की ही सही, ऐसी भी प्रतीति हुई कि हो सकता है, शब्दों का आधार धातुएं हों। जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाओं के अध्यग्रन की ओर उस समय यूरोप में कितनी उन्मुखता हो चली थी, यह इसी से स्पष्ट है कि सुप्रसिद्ध दार्शनिक लिबनिज ने भी इस ओर ध्यान दिया। शासक वर्ग भी इससे प्रभावित हुआ । फलत: पीटर महान् ने तुलनात्मक शब्दों का संग्रह करवाया। रूस की महारानी कैथरिन द्वितीय ने भी पी० एस० पल्लस (१७४१-१८११) को एक तुलनात्मक शब्दावली तैयार करने की आज्ञा दी। फलतः उन्होंने यूरोप और एशिया ; दोनों महाद्वीपों की अनेक भाषाओं के २८५ तुलनात्मक शब्द संकलित किये । इसके दूसरे संस्करण में कुछ और विकास हुआ । लगभग अस्सी भाषाओं के सादृश्य मूलक शब्दों का उसमें और समावेश किया गया। पश्चिम में भाषा-तत्व पर हुए अध्ययन-अनुशीलन का यह संक्षित विवरण है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भाषा-वैज्ञानिकों की अगली पीढ़ी के लिए यह किसी-न-किसी रूप में प्रेरक सिद्ध हुआ। निष्कर्ष प्राच्य और प्रतीच्य दोनों भू-भागों में भाषा-तत्त्व पर की गयी गवेषणा और विवेचना की पृष्ठ-भूमि प्राप्त थी ही, जिस पर आगे चल कर भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में भाषा के विविध पक्षों को लेते हुए सूक्ष्म तथा गहन अध्ययन-कार्य हुआ और हो रहा है। भाषाविज्ञान इस समय मानविकी अध्ययन के क्षेत्र में एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्र विषय के रूप में प्रतिष्ठित है। इस पर काफी गवेषणा और अनुसन्धान हआ है, पर, यह विषय बहत विस्तीर्ण है, जिसकी व्याप्ति सारे विश्व तक है। विश्व की विभिन्न प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का ज्यों-ज्यों और अधिक तलस्पर्शितापूर्वक वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन-क्रम आगे बढ़ता जायेगा, भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में तो बड़ा काम होगा ही, विश्व के विभिन्न भागों में समय-समय पर प्रादुर्भूत सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक विकास, राजनैतिक व प्रशासनिक परिवर्तन, उतार-चढ़ाव आदि से जुड़े हुए अनेक अव्यक्त तथ्य भी प्रकट होंगे । भाषा-विज्ञान की प्राधुनिक परम्परा भाषा-विज्ञान शब्द आज जिस अर्थ में प्रचलित है, उस दृष्टि से भाषा के साथ संश्लिष्ट अनेक सूक्ष्म पक्षों का व्यापक और व्यवस्थित अध्ययन लगभग पिछली दो शताब्दियों से हो रहा है । अध्ययन की इस सूक्ष्म विश्लेषण पूर्ण व समीक्षात्मक परम्परा को आरम्भ करने का मुख्य श्रेय यूरोपीय विद्वानों को है, जिन्होंने पाश्चात्य भाषाओं के साथ-साथ प्राच्य भाषाओं का भी उक्त दृष्टिकोण से गहन अध्ययन किया । विशेषतः भारोपीय-भाषाओं के अध्ययन में तो इन विद्वानों ने जो कार्य किया, वह अत्यन्त प्रेरक और उदबोधक है। पाश्चात्य विद्वानों में निःसन्देह अनुसन्धित्सा की विशेष वृत्ति है। पाश्चात्य मनीषी सर विलियम जॉन्स इसके मूर्त उदाहरण कहे जा सकते हैं। वे (१८वीं शती) कलकत्ता में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे । भारतीय विधि-विधान, न्याय तथा प्रशासन आदि को सूक्ष्मता से जानने की उन्हें जिज्ञासा हुई, ताकि वे भारतीयों को उनकी अपनी परम्पराओं के अनुरूप सही न्याय दे सकें। इसके लिए संस्कृत का अध्ययन परम आवश्यक था। सर विलियम जॉन्स के मन में संस्कृत पढ़ने की उत्कट इच्छा जागृत हुई। उन्होंने संस्कृत के किसी अच्छे विद्वान् की खोज प्रारम्भ की, जो उन्हें पढ़ा सके। बड़ी कठिनाई थी। कोई विद्वान् उन्हें पढ़ाने को तैयार नहीं हो रहा था। उन दिनों ब्राह्मण विद्वानों में यह रूढ़ धारणा थी, किसी विधर्मी को देव-वाणी कैसे पढ़ाई जा सकती है ? बहत प्रयत्न से एक विद्वान् तैयार हुए, पर, उन्होंने कई शर्ते रखीं। जिस कमरे में वे पढ़ायेंगे, उसे प्रतिदिन पढ़ाई से पूर्व गंगा के जल से धोना होगा। उनके लिए पढ़ाते समय पहनने के हेतु रेशमी कपड़ों की व्यवस्था करनी होगी। जॉन्स महोदय भी पढ़ते समय रेशमी वस्त्र धारण करेंगे। भूमि पर बैठकर पढ़ना होगा। सर विलियम जॉन्स ने यह सब सहर्ष स्वीकार किया। उन दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद की गरिमा का सहज ही अनुमान किया जा सकता है। पर, ज्ञान-प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा के समक्ष उस विदेशी अधिकारी ने किसी भी औपचारिकता को बिलकुल भुला दिया और अपने विद्वान् अध्यापक द्वारा निर्देशित व्यवस्था-क्रम का यथावत् पालन करते हुए पढ़ना आरम्भ कर दिया। जिस लगन, निष्ठा और तन्मयता से सर विलियम जॉन्स ने संस्कृत विद्या का अध्ययन किया, वह विद्यार्थियों के लिए वास्तव में अनकरणीय है। समुद्रों पार का एक व्यक्ति, जिसे संस्कृत का कोई पूर्व संस्कार न था, न जिसके धर्म की वह भाषा थी, ऐसी तड़प और लगन से गम्भीर ज्ञान अजित करने में अपने आप को जोड़ दे, यह कम महत्त्व की बात नहीं थी। सतत अध्यवसाय और लगन के कारण संस्कृत विद्या की अनेक शाखाओं का सर विलियम जॉन्स ने तलस्पर्शी ज्ञान अजित किया। याज्ञवल्क्य आदि स्मृति-ग्रन्थों और मिताक्षरा प्रभति टीका व व्याख्या-साहित्य का भी उन्होंने सांगोपांग पारायण किया । भारतीय समाज और विधि-विधानों का तो सर विलियम जॉन्स ने विस्तीर्ण ज्ञान पाया ही, साथ ही एक फलित और हुआ, जिसका भाषा-विज्ञान के इतिहास में उल्लेखनीय स्थान है । सर विलियम जॉन्स ग्रीक, लैटिन, गाथिक आदि पुरानी पाश्चात्य भाषाओं के आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी विद्वान् थे । संस्कृत साहित्य की शाखाओं के परिशीलन के समय उनके समक्ष अनेक ऐसे शब्द आये, जिनका उन्हें ध्वनि, गठन आदि की दृष्टि से लैटिन, ग्रीक आदि से सूक्ष्म साम्य प्रतीत हुआ। उनके मन में बड़ा आश्चर्य और कुतूहल जागा उन्होंने संस्कृत के ऐसे अनेक शब्द खोज निकाले, जिनका ग्रीक, लैटिन आदि प्रतीच्य भाषाओं के साथ बहुत सादृश्य था । गहन अध्ययन, विश्लेषण तथा अनुसन्धान के निष्कर्ष के रूप में उन्होंने प्रकट किया कि मेरा अनुमान है कि शब्द, धातु, व्याकरण आदि की दृष्टि से संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, गाथिक, काल्टिक तथा पुरानी फारसी का मूल या आदि स्रोत एक है । सन् १७८५ में सर विलियम जॉन्स ने कलकत्ता में रायल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। उस अवसर पर उन्होंने कहा : "संस्कृत भाषा की प्राचीनता चाहे कितनी ही रही हो, उसका स्वरूप निःसन्देह आश्चर्यजनक है। वह ग्रीक से अधिक परिपूर्ण, लैटिन से अधिक समृद्ध तथा इन दोनों से अधिक 'परिमार्जित है ।"" वैज्ञानिक एवं तुलनात्मक रूप में भाषाओं के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करने वालों में सर विलियम जॉन्स का नाम सदा शीर्षस्थ रहेगा । भाषा-विज्ञान के सूक्ष्म एवं गम्भीर परिशीलन का लगभग उसी समय से व्यवस्थित क्रम चला, उत्तरोत्तर अभिनव उपलब्धियों की ओर अग्रसर होता रहा। यह क्रम विश्व के अनेक देशों में चला और आज भी चल रहा है । इस सन्दर्भ में यह स्मरण करते हुए आश्चर्य होता है और साथ ही प्रेरणा भी मिलती है कि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भारत की प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का गहन अध्ययन ही नहीं किया, अपितु उन भाषाओं का भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक रूप में सूक्ष्म विश्लेषण भी किया, जो भाषा विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले मनीषियों, अनुसन्धित्सुओं और अध्येताओं के लिये सईन उद्बोधप्रद रहेगा। प्राच्य मान्यताएं : -भाषा का उद्भव कब हुआ, किस प्रकार हुआ और वह किन-किन विकास क्रमों में से गुजरती हुई वर्तमान अवस्था तक पहुंची, यह एक प्रश्न है; जो आज से नहीं, चिरकाल से है । वास्तव में इसका सही-सही समाधान दे पाना बहुत कठिन है; क्योंकि भाषा भी लगभग उतनी ही चिरन्तन है, जितनी कि मानव जाति । मानव जाति अनादि है, उसी प्रकार भाषा भी अनादि है, इस प्रकार कहा जा सकता है। पर, बुद्धिशील मानव स्वभावतः जिज्ञासु है, इतने मात्र से कैसे परितुष्ट होता ? जीवन के साथ सतत संलग्न भाषा का उद्भव कैसे हुआ, वह विकास और विस्तार के पथ पर किस प्रकार अग्रसर हुई, यह जानने की उत्सुकता उसके मन में सदा से बनी रही है। इस प्रश्न का समाधान पाने को वह चिन्तित रहा है । फलत: अनेक प्रयत्न चले । समाधान भी पाये, पर, भिन्न-भिन्न प्रकार के । आज भी भाषा की उत्पत्ति की समस्या का सर्वसम्मत समाधान नहीं हो पाया है। यहां प्रस्तुत प्रश्न पर अब तक हुए चिन्तन का विहंगावलोकन करते हुए कुछ ऊहापोह अपेक्षित है । विभिन्न धर्मों के लोगों की उद्भावनाओं पर विचार करना पहली अपेक्षा होगी। समाधान खोजने वालों में कई प्रकार के व्यक्ति होते हैं उनकी अपनी कुछ पूर्व संचित धारणाएं होती है आर अतिशय - प्रकाशन की भावना भी । भाषा के उद्भव के प्रश्न पर प्रायः विश्व के सभी धर्मो के अनुयायियों ने अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। वैदिक मान्यता :- जो वेद में विश्वास करते हैं, उनकी मान्यता है कि वेद मानव कृत नहीं हैं, अपौरुषेय हैं। ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की, मानव को बनाया, भाषा की रचना की। ऋषियों के अन्तर्मन में ज्ञान का उद्भाव किया, जो वेद की ऋचाओं और मन्त्रों में प्रस्फुटित हुआ । इनकी भाषा छन्दस् या वैदिक संस्कृत है, जो अनादि है, ईश्वरकृत है, इसलिए इसे वेद - भाषा कहा जाता है । संसार की सभी भाषाएं इसी से निकली हैं। यह मानव की ईश्वर दत्त भाषा है । संस्कृत के महान् वैयाकरण, अष्टाध्यायों के रचयिता पाणिनि ने भी भाषा की ईश्वर- कृतता को एक दूसरे प्रकार से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने व्याकरण के अइउण' आदि सूत्रों के विषय में लिखा है : "सनक आदि ऋषियों का उद्धार करने के लिए अर्थात् उन्हें शब्द-शास्त्र का ज्ञान देने के लिए नटराज भगवान् शंकर ने ताण्डव नृत्य के पश्चात् चौदह बार अपना डमरू बजाया, जिससे चौदह सूत्रों की सृष्टि हुई।" इन्हीं चौदह सूपों पर सारा शब्द-शास्त्र टिका है। १. The Sanskrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either. २. घ्रइउण् १ । ऋलुक, २ । एम्रोङ, ३ । ऐश्रौच् ४ । हयएरट, ५ । लग् ६ । मङणनम् ७ । झभज् ८ । घढधषु । जबागडदश् १० । खफछठयचटतव ११ कपय् १२ । शवस १३ । हल् १४ ॥ ३. नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम् । उद्धतु कामः सनकादिसिद्धानेतद्विम शिवसूत्रजालम् ॥ जैन तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ १३७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यास्क का सूक्ष्म चिन्तन :- • पाणिनि से पूर्ववर्ती निरुक्तकार यास्क ( ई० पू० ८००) के उम कथन पर इस प्रसंग में विचार करना उपयोगी होगा, जो शब्दों के व्यवहार के सम्बन्ध में है । भाषा की उत्पत्ति की समस्या पर भी इससे कुछ प्रकाश पड़ता है। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात; इन चार पद-भेदों का विवेचन करते हुए प्रासंगिक रूप में उन्होंने शब्द की भी चर्चा की है। उन्होंने लिखा है दीवान है इसलिए लोक में व्यवहार (काम चलाने के लिए वस्तुओं का संज्ञाकरण (नाम या अभिधान) शब्द द्वारा हुआ ।"" उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप में कुछ भी नहीं लिखा है । हो सकता है, उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा हो। इस विषय में वे किसी पूर्व कल्पना या धारणा को लिए हुए हों । संकेत आदि उसके पथेष्ट पूरक नहीं शब्दों को निष्पन्न करता है। शब्द द्वारा लौकिक जनों को पारस्परिक व्यवहार चलाने के लिए कोई एक माध्यम चाहिए हो सकते । तब मनुष्य विभिन्न वस्तुओं की भिन्न-भिन्न संज्ञाएं करना चाहता है । एतदर्थ वह " संज्ञाकरण" का जो कथन निरुक्तकार करते हैं, उससे यह स्पष्ट झलकता है कि उनकी आस्था किसी ईश्वर-कृत भाषा के अस्तित्व में नहीं थी । यदि कोई भाषा ईश्वर-कृत होती, तो उसमें विभिन्न वस्तुओं के अर्थ द्योतक शब्द होते ही। वैसी स्थिति में वस्तुओं के संज्ञाकरण या उन्हें नाम देने की मानव को क्या आवश्यकता पड़ती ? व्यवस्थित ओर ईश्वर कृत भाषा में किसी भी प्रकार की अपरिपूर्णता नहीं होती । वस्तुओं के नामकरण की तभी आवश्यकता पड़ती है, जब भाषा जैसा कोई प्रकार मानव को प्राप्त नहीं हो । यास्क का कथन इसी सन्दर्भ में प्रतीत होता है । भाषा के अनन्य अंग शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यास्क जो मानव-कृतता की ओर इंगित करते हैं, यह उनका वस्तुतः बड़ा क्रान्तिकारी चिन्तन है । उनके उत्तरवर्ती महान् वैयाकरण पाणिनि तक भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुरातन बद्धमूल रूढ़ धारणा से आगे नहीं बढ़ सके, जब कि यास्क ने उनसे तीन शताब्दी पूर्व ही उपर्युक्त संकेत कर दिया था। इससे स्पष्ट है कि यास्क अपेक्षाकृत अधिक समीक्षक एवं अनुसन्धर थे। यास्क के समक्ष उस समय संस्कृत भाषा थी, जो देव भाषा कहलाती थी। आज भी कहलाती है । यास्क ने देव-भाषा की सिद्धि बड़े चमत्कारपूर्ण ढंग से की है। वे लिखते हैं "मनुष्य वस्तुओं के लिए जो नाम का प्रयोग करते हैं, देवताओं के लिए भी वे वैसे ही हैं ।"" तात्पर्य है, मनुष्य की भाषा को देवता भी उसी रूप में समझते हैं । इससे मानव-भाषा देव भाषा भी है, ऐसा सिद्ध होता है । संस्कृत के लिए इसी कारण देव भाषा शब्द व्यवहृत है, यहां यास्क का ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है । बौद्ध मान्यता :- बौद्ध धर्म का त्रिपिटक के रूप में सारा मूल वाङ् मय मागधी में है, जो आगे चलकर पालि के नाम से प्रसिद्ध हुई । बौद्धों में सिंहली परम्परा की प्रामाणिकता अबाधित है। सबसे पहले सिहल ( लंका) में ही विनय पिटक, सुत पिटक तथा afe free forबद्ध किये गये । सिंहली परम्परा का अभिमत है कि सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् तथागत ने अपना धर्मोपदेश मागधी (पालि) में किया। उनके अनुसार मागधी संसार की आदि भाषा है। आचार्य बुद्धघोष ने इस तथ्य का स्पष्ट शब्दों में उदघोष करते हुए लिखा है : "मागधी सभी सत्वों - जीवधारियों की मूल भाषा है ।"" महावंश के परिवर्द्धित अंश चूलवंश का भी इसी प्रकार का एक प्रसंग है। रेवत स्थविर के आदेश से आचार्य बुद्धघोष लंका गये । वहां उन्होंने सिंहलो अट्ठकथाओं का मागधी में अनुवाद किया । उसका उल्लेख करते हुए वहां कहा गया है: “सभी सिंहली अट्ठकथाएं मागधी भाषा में परिवर्तित - अनूदित की गयीं, जो ( मागधी) समस्त प्राणी वर्ग की मूल भाषा है।"" मागधी या पाली के सम्बन्ध में जो सिली परम्परा का विश्वास है, वैसा ही बर्मी परम्परा का भी विश्वास है। इतना ही नहीं, पालि त्रिपिटक में विश्वास रखने वाले प्रायः सभी बौद्ध धर्मानुयायी अपनी धार्मिक भाषा पालि या मागधी को संसार की मूल भाषा स्वकार करते हैं । जैन मान्यता : जैन परम्परा का भी अपने धर्म ग्रन्थों की भाषा के सम्बन्ध में ऐसा ही विश्वास है। जैनों के द्वादशांगमूलक समग्र आगम अर्द्ध-मागधी में हैं। उनकी मान्यता है कि जैन आगम तीर्थंकर महावीर के मुख से निकले उपदेशों का संकलन है, uttarata शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थलोके । १. २ तेषां मनुष्य व देवताभिधानम् । ३. मागधिकाय सव्वसत्तानं मूलभासाय | ४. परिषत्तेत्ति सम्वापि सोहलट्ठकथातदा । सव्वेस मूलभासाय मागधाय निरूतिया | १३८ - निरुक्त; १,२ -विशुद्धिमागा - खूलवंस परिच्छेद ३७ - निरुक्त; १,२ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो उनके प्रमुख शिष्यों-गणधरों द्वारा किया गया था। उनके अनुसार अर्द्ध-मागधी विश्व की आदि भाषा है। सूत्रकृतांग नियुक्ति पर रचित चूणि में उल्खेख है : "प्राकृत भाषा (अर्द्ध-मागधी) जीव के स्वाभाविक गुणों से निष्पन्न है।' यही (अर्द्ध-मागधी) देवताओं की भाषा है, ऐसा जैनों का विश्वास है। कहा गया है : 'अर्द्ध-मागधी आर्ष एवं सिद्ध वचन है, देवताओं की भाषा है।" तीर्थकर जब धर्म-देशना करते हैं, उनके समवसरण (विराट् श्रोत-परिषद) में मनुष्यों देवताओं आदि के अतिरिक्त पशुपक्षियों के उपस्थित रहने का भी उल्लेख है। तीर्थकरों को देशना अर्द्धमागधी मे होती है। उस (तीर्थकर भाषित-वाणी) का यह अतिशय या वैशिष्ट्य होता है कि श्रोत-वन्द द्वारा ध्वन्यात्मक रूप में गृहीत होते ही वह उनकी अपनी भाषा के रूप में परिणत हो जाती है अर्थात् वे उसे अपनी भाषा में समझते हैं। उपस्थित तिर्यंच (पशु-पक्षी-गण) भी उस देशना को इसी (अपनी भाषा में परिणत) रूप में श्रवण करते हैं। एक प्रकार से यह भाषा केवल मानव-समुदाय तथा देव-वृन्द तक ही सीमित नहीं है, पशु-पक्षियों तक व्याप्त है। प्राकृत-विद्वानों का अभिमत :-जैन शास्त्रकारों या व्याख्याकारों ने ही नहीं, अपितु कतिपय उत्तरवर्ती जैन-अजैन प्राकृत विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किये हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध अलकार शास्त्री नभि साधु ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए लिखा है : "प्राकृत व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष समस्त जगत् के प्राणियों का सहज वचन-व्यापार भाषा है । 'प्राकृत का अर्थ प्राक् कृत - पूर्व कृत अथवा आदि सष्ट भाषा है । वह बालकों, महिलाओं आदि के लिए सहजतः वोधगम्य है और सब भाषाओं का मूल है।" भोज-रचित सरस्वती कण्ठाभरण के व्याख्याकार आजड़ ने भी इसी प्रकार का उल्लेख किया है। उनके अनुसार प्राकृत समस्त जगत् के प्राणियों का स्वाभाविक वचन-व्यापार है, शब्दशास्त्रकृत विशेष संस्कारयुक्त है तथा बच्चों, ग्वालों व नारियों द्वारा सहज ही प्रयोग में लेने योग्य है । सभी भाषाओं का मूल कारण होने से वह उनकी प्रकृति है अर्थात् उन भाषाओं का यह (उसी प्रकार) मूल कारण है, जिस प्रकार प्रकृति जगत् का मूल कारण है। प्रसिद्ध कवि वाक्पति ने ग उडवहो काव्य में प्राकृत की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा है : “जैसे जल-नदियां समुद्र में मिलती हैं और उसी से (वाष्प रूप में) निकलती हैं, उसी तरह भाषाएं प्राकृत में ही प्रवेश पाती हैं और उसी से निकलती हैं।"५ रोमन कैथोलिक मान्यता :-ईसाई धर्म में भी भाषा के विषय में इसी प्रकार की मान्यता है । इस धर्म के दो सम्प्रदाय हैंरोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट । रोमन कैथोलिक प्राचीन हैं। उनका सर्वमान्य ग्रन्थ ओल्ड टेस्टामेंट है, जो हिब्र में लिखा गया है। उनके अनुसार परमात्मा ने सबसे पहले पूर्ण विकसित भाषा के रूप में इसे आदम और हव्वा को प्रदान किया। उनका विश्वास है कि विश्व की यह आदि भाषा है । सभी भाषाओं का यह उद्गम-स्रोत है । स्वर्ग के देव-गण इसी भाषा में सम्भाषण करते हैं । हिब्र से सभी भाषाओं का उदगम सिद्ध करने के लिए ग्रीक, लैटिन आदि पाश्चात्य भाषाओं के ऐसे अनेक शब्द संकलित किये गये, जो उससे मिलते-जुलते थे। इस प्रकार यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से सिद्ध किये जाने के भी प्रयास हए। इसके लिये ध्वनि-साम्य, अर्थ-साम्य आदि को आधार बनाया गया । जो भी हो, तुलनात्मक अध्ययन का बीज रूप में एक कम तो चला, जो उत्तरवर्ती भाषा-शास्त्रीय व्यापक अध्ययन के लिए किसी रूप में सही, उत्साहप्रद था । इस्लाम का अभिमत :-आदि भाषा के सम्बन्ध में इस्लाम का मन्तव्य भी उपयुक्त परम्पराओं से मिलता-जलता है। इस्लाम के अनुयायियों के अनुसार कुरान, जो अरबी भाषा में है, खुदा का कलाम है। मिस्र में भी प्राचीन काल से वहां के निवासियों का अपनी भाषा के सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार था। इस्लाम का प्रचार होने के अनन्तर मिस्र वासी अरबी को ईश्वर-दत्त आदि भाषा मानने लगे। १. जीवस्स साभावियगणे हिं ते पागतभासाए। मारिस वयणो सिद्धं देवानं पद्धमागहा वाणी सकलगज्जननां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तन्न भवं संबव प्राकृतम् ।.....'प्राक कृतं प्राकृत बालमहिलादिसबोध सकल भाषानिबन्धनभूतं वचनम च्यते । सकलबालगोपालांगनाहृदयसंचारी निखिलजगज्जन्तूनां शब्दशास्त्रीकतविशेषसंस्कार : सहजो वचनव्यापार: समस्तेतरभाषा विशेषाणां मूल कारणत्वात प्रकृति । रिवप्रक ति: तव भवा सैव वा प्रक ति:। ५. सयलामो इयं वायाविसंति एत्तो य गति वायाभो। एंति समझ चिय णेति सायराम्रो च्विय जलाई॥३॥ जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १३६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा को लेकर पिछली शताब्दियों तक धर्म के क्षेत्र में मानव की कितनी अधिक रूढ़ धारणाएं बनी रहीं, मिस्र की एक ना से यह विशेष स्पष्ट होता है। टेलीफोन का आविष्कार हुआ। संसार के सभी प्रमुख देशों में उसकी लाइनें बिछाई जाने लगीं। मिस्र में भी टेलीफोन लगने की चर्चा आई मिस्रवासिय ने जब यह जाना कि सैकड़ों मील की दूरी से कही हुई बात उन्होंने मी जा सकेगी, तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ । मिस्र के मौलवियों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि इन्सान की आवाज इतनी नहीं पहुंच सकती । यदि पहुंचेगी, तो वह इन्सान की आवाज नहीं, अपितु शैतान की आवाज होगी ; अर्थात् इन्सान की बोली हुई बात को सैतान पड़ेगा तक पहुंचायेगा । दूर जन-साधारण की मौलवियों के प्रति अटूट श्रद्धा थी । उन्होंने मौलवियों के कथन का समर्थन करते हुए कहा कि वे शैतान की आवाज नहीं सुनेंगे । उनके यहाँ टेलोफोन की लाइनें न बिछाई जायें । प्रशासन स्तब्ध था, कैसे करें ? बहुत समझाया गया, पर चे नहीं माने । अन्त में वे एक शर्त पर मानने को सहर्ष प्रस्तुत हुए । उन्होंने कहा, कुरान की आयतें ख़ुदा की कही हुई हैं | मनुष्य उनको बोल सकता है, शैतान उनका उच्चारण नहीं कर सकता। यदि दूरवर्ती मनुष्य द्वारा बोली हुई कुरान की आयतें टेलीफोन से सही रूप में सुनी जा सकें, तो उन्हें विश्वास होगा कि वह शैतान की आवाज नहीं है, इन्सान की है। ऐसा ही किया गया । तदन्तर मिस्र वासियों ने टेलीफोन लगाना स्वीकार किया । प्लेटो जैसे दार्शनिक और तत्त्ववेत्ता का भी इस सम्बन्ध में यह अभिमत था कि जगत् में सभी वस्तुओं के जो नाम हैं प्रकृति-दत्त हैं । सारांश यह है कि दूसरे रूप में सही, प्लेटो ने भी भाषा को देवी या प्राकृतिक देन माना, क्योंकि वस्तु और क्रिया के नामों की समन्वित संकलना ही भाषा है । भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में विभिन्न आस्थावादियों के मन्तव्यों से जिज्ञासा और अनुसन्धित्सा - प्रधान लोगों को सन्तोष नहीं हुआ । इस पर अनेक शंकाएं उत्पन्न हुई । सबका दावा अपनी-अपनी भाषा की प्राचीनता और ईश्वर या प्रकृति की देन बनाने का है । यदि भाषा ईश्वर दत्त या जन्मजात है, तो देश-काल के आधार पर थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है, पर, संसार की भाषाओं में परस्पर जो अत्यन्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह क्यों है ? इस प्रकार के अन्य प्रश्न थे, जिनका समाधान नहीं हो पा रहा था । मानव की मूल भाषा : कतिपय प्रयोग अतिविश्वासी जन-समुदाय के मन पर विशेष प्रभाव पड़ा। वे मानने लगे, शिशु जन्म के साथ ही एक भाषा को लेकर आता है । पर जिस प्रकार के देश, वातावरण, परिवार एवं समाज में वह बड़ा होता है, अनवरत सम्पर्क, सान्निध्य और साहचर्य के कारण वहीं की भाषा को शनै: शनैः ग्रहण करता जाता है। फलतः उसका संस्कार परिवर्तित हो जाता है और वह अपने देश में प्रचलित भाषा को सहज रूप में बोलने लगता है । स्वभावतः प्राप्त भाषा उसके लिए अव्यक्त या विस्मृत हो जाती है और वह जो कृत्रिम भाषा अपना लेता है, वह उसके लिए स्वाभाविक हो जाती है । के समय-समय पर उपर्युक्त तथ्य के परीक्षण के लिए कुछ प्रयोग किये गये । ई० पू० पांचवीं शती के प्रसिद्ध लेखक हेरोडोटोस के अनुसार मिस्र के राजा संमिटिकोस (Psammitochos) ने इस सन्दर्भ में एक प्रयोग किया। जहां तक इतिहास का साक्ष्य है, भाषा उद्भव के सम्बन्ध में किये गये प्रयोगों में वह पहला प्रयोग था । स्वाभाविक भाषा या आदि भाषा के रहस्योद्घाटन के साथ-साथ इससे प्राचीन या आदिम मानव जाति का भेद खुलने की भी आशा थी। इस प्रकार सोचा गया कि बच्चे स्वाभाविक रूप में जो भाषा बही विश्व की सबसे प्राचीन मूल भाषा सिद्ध होगी और जिन लोगों की, जिस जाति के लोगों की वह भाषा होगी, निश्चित हो यह विश्व की आदिम जाति मानी जायेगी। परीक्षण इस प्रकार हुआ। दो नवजात बच्चों को लिया गया। उनके पास आने-जाने वालों को कठोर आदेश था कि वहां वे कुछ न बोलें । उन शिशुओं के परिचारक को भी कड़ा आदेश था कि वह उनके खाने-पीने की व्यवस्था और देखभाल करता रहे, पर, मुंह से कभी एक शब्द भी न बोले । क्रम चलता रहा । बच्चे बड़े होते गये । उन्हें कुछ भी बोलना नहीं आया । उनके मुंह से केवल एक शब्द सुना गया— 'वेकोस' (Bekos ) । यह शब्द फ्रीजियन भाषा का है। इसका अर्थ रोटी होता है । उन बच्चों के खान-पान की व्यवस्था करने वाला नौकर फिजियन था ऐसा माना गया कि कभी रोटी देते समय भूल से नौकर के मुंह से 'वेकोस' शब्द निकल गया हो, जिसको बच्चों ने पकड़ लिया हो । बारहवीं शताब्दी में इसी प्रकार का प्रयोग फ्रेडरिक द्वितीय ने किया, पर, अपेक्षित परिणाम नही निकला । उसके अनन्तर पन्द्रहवीं शताब्दी में स्काट के राजा जेम्स चतुर्थ ने भी इसी तरह का प्रयोग किया, पर कुछ सिद्ध नहीं हो पाया। भारत में सोलहवीं आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ -१४० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी में बादशाह अकबर ने भी परीक्षण किया। विशेष सावधानी बरती गई । बड़ी उत्सुकता से परिणाम की प्रतीक्षा रही। अन्त में यह देखकर सब चकित थे कि सभी बच्चे मूक रह गये। एक भी शब्द बोलना उन्हें नहीं आया। प्रयोगों से स्पष्ट है कि संसार में कोई भी भाषा ईश्वर-कृत नहीं है और न जन्म से कोई किसी भाषा को सीखे हए आता है। यह मान्यता श्रद्धा और विश्वास का अतिरेक है। महत्त्व को एक बात और है। यदि भाषा स्वाभाविक या ईश्वरीय देन होती, तो वह आदि काल से ही परिपूर्ण रूप में विकसित होती। पर, भाषा का अब तक का इतिहास साक्षी है कि शताब्दियों की अवधि में भिन्न-भिन्न भाषाओं के रूप क्या-से-क्या हो गये हैं। उनमें उत्तरोत्तर विकास हो गया है, जो किसी एक भाषा के शताब्दियों पर्व के रूप और वर्तमान रूप की तुलना से स्पष्ट ज्ञात हो सकता है । इस दृष्टि से विद्वानों ने बहुत अनुसन्धान किया है, जिसके परिणाम विकास की शृखला और प्रवाह का प्रलम्ब इतिहास है। ___अठारहवीं शती में श्री जे० जी० हर्डर नामक विद्वान् हुए। उन्होंने सन् १७७२ में भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में शोधपूर्ण निबन्ध लिखा। भाषा की देवी उत्पत्ति के बारे में उन्होंने उसमें समीक्षात्मक दृष्टि से विचार किया और उसे यक्ति एवं तर्कपूर्वक अमान्य ठहराया। पर, स्वयं उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किसी ठोस सिद्धान्त की स्थापना नहीं की । देवी सिद्धान्त का उन्होंने खण्डन तो किया, पर साथ ही यह भी कहा कि भाषा मनुष्य-कृत नहीं है। मनुष्य को उसकी आवश्यकता थी, स्वभावतः उसका विकास होता गया। अज्ञात को ज्ञात करना प्रज्ञा का स्वभाव है । भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रज्ञाशील मानव को समाधान नहीं दे सका । मानव से बुद्धि और अनुमान के आधार पर तब समाधान ढूंढ़ निकालने का प्रयत्न किया। यही ज्ञान के विकास का क्रम है। अपने प्रयत्न में कौन कितना सफल हो सका, यह समीक्षा और विश्लेषण का विषय है, पर, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वे प्रयत्न जिज्ञासा की ओर आगे बढ़ने वालों के लिए बड़े प्रेरक सिद्ध हुए। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में अधिकांशत' कल्पनाओं के आधार पर समाधान ढ़ढ़े जाते रहे हैं; क्योंकि दूसरा कोई ठोस आधार नहीं था। भाषा का उद्भव : मूलभूत सिद्धान्त निर्णय सिद्धान्त :-एक मत है, जब भाषा नहीं थी, तो लोग परस्पर में हाथ आदि के संकेतों से किसी तरह अपना काम चलाते थे। पर, इससे उनको सतोष नहीं था । उत्तरोत्तर जीवन विकास पाता जा रहा था । साधन-सामग्री में विविधता और बहुलता आ रही थी। विकासमान परिस्थिति मन में अनेक प्रकार के नये-नये भावों को उत्पन्न करती थी। पर इन सब के लिए अभिव्यक्ति के हतु मानव के पास कुछ था नहीं। सबके लिए इसकी बड़ी खिन्नता थी। सब एकत्र हुए। अभिव्यक्ति के लिए कोई साधन ढूंढ़ना था। विभिन्न वस्तुओं, क्रियाओं आदि के प्रतीक का संकेत के रूप में कुछ ध्वनियां या शब्द निश्चित किये। उनके सहारे वे अपना काम चलाने लगे। शब्दों का जो प्रयोग-क्रम चल पड़ा, उसने और नये-नये शब्द गढ़ने तथा व्यवहार में लाने की ओर मानव को उद्यमशील रखा । भाषा विज्ञान में इसे 'निर्णय सिद्धांत' कहा जाता है। प्रो० रूसो इसके मुख्य समर्थक थे। इसे प्रतीकवाद, संकेतवाद या स्वीकारवाद भी कहते हैं ; क्योंकि इसमें शब्दों का प्रतीक या संकेत के रूप में स्वीकार हुआ। कल्पना सुन्दर है, पर, युक्तियुक्त नहीं है । यदि कोई भाषा नहीं थी, तो सबसे पहले यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे एकत्र ही कैसे हुए ? एकत्र होने के लिए भी तो कुछ कहना समझाना पड़ता है। बिना भाषा के कहने की बात कैसे बनी ? एकत्र हो भी जाए', तो विचार-विनिमय कैसे होता ? विचार-विनिमय से ही किसी निर्णय पर पहुंचा जाता है। विभिन्न वस्तुओं और क्रियाओं के लिए संकेत या ध्वनियों का स्वीकार या निर्णय भी बिना भाषा के सम्भव कैसे होता? इस कोटि का विचारविमर्श भाषा के बिना केवल संकेतों से सम्भव नहीं था। दुसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि यदि वे एकत्र हो सके, ध्वनियों या शब्दों के रूप में नामों का निणय कर सके, तो उनके पास, चाहे अपूर्ण, अविकसित या टूटी-फूटी ही सही, कोई भाषा अवश्य ही होगी। उसके अभाव में यह सब सम्भव नहीं था। यदि किसी भी प्रकार की भाषा का होना मान लें, तो फिर नामों की खोज के लिए एकत्र होने की आवश्यकता नहीं रहती। उसी अपूर्ण भाषा को पूर्ण या विकसित बनाया जा सकता था। धातु सिद्धान्त :-भाषा के उद्भव के सन्दर्भ में एक और विचार आया, जो बड़ा कुतूहल-जनक है । वह भाषा-विज्ञान में 'धातु-सिद्धान्त' के नाम से प्रसिद्ध है । इसके अनुसार संसार में जितनी भी वस्तुए हैं, उनकी अपनी अपनी ध्वनियां हैं। उदाहरणार्थ जन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १४१ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि एक कांसी की थाली पर डंडे से मारें तो झन-झन की ध्वनि होगी। पीतल की थाली पर मारने से जो ध्वनि होगी, वह कौसी की थाली से भिन्न प्रकार का होगी। लोहे के टीन पर या सन्दूक पर मारने से ध्वनि का दूसरा रूप होगा। इसी प्रकार कागज, काठ, कांच, कपड़ा, चमड़ा, पत्थर आदि भिन्न-भिन्न वस्तुओं से भिन्न-भिन्न ध्वनियां मिलेंगी। ऐसा क्यों होता है ? यह ध्वन्यात्मक भिन्नता क्यों है ? उपर्युक्त सिद्धान्त के अनुसार संसार के प्रत्येक पदार्थ की अपनी एक स्वाभाविक ध्वनि है, जो सम्पर्क, संघर्ष, टक्कर या आघात से स्फुटित होती है । इतना ही नहीं, इस सिद्धान्त के पुरस्कर्ताओं ने यहां तक माना कि प्रत्येक मनुष्य में एक विशेष प्रकार की स्वाभाविक शक्ति है । वह जब जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है, दूसरे शब्दों में उनसे टकराता है या संस्पृष्ट होता है, तब सहसा सम्मुखीन या संस्पृस्ट वस्तुओं के अनुरूप उसके मुंह से भिन्न-भिन्न ध्वनियां निकलती हैं । इस प्रकार समय-समय पर मानव के मुख से जो ध्वनियां प्रस्फुटित हुई, वे मूल धातुए थीं । प्रारम्भ में वे धातुए संख्या में बहुत अधिक थीं। पर, सब सुरक्षित नहीं रह पाई। शनैः-शनैः लुप्त होती गई। उनमें बहुत सी परस्पर पर्यायवाची थीं । बहुसंख्यक में योग्यतमावशेष (Survival of the fittest) के अनुसार कुछ ही विद्यमान रह पाते हैं। इस प्रकार लगभग चारमौ-पांचसौ धातुएं शेष रहीं। उन्हीं से क्रिया, संज्ञा आदि शब्द निष्पन्न हुए और भाषा कि निर्मिति हुई । इस विचारधारा के उद्भावक और पोषक मानते थे कि धातुओं की ध्वनि और तद्गम्य अर्थ में एक रहस्यात्मक सम्बन्ध (Mystic Harmony) है। रहस्यात्मक कहने से सम्भवत: यह तात्पर्य रहा हो कि वह अनुमेय और अनुमान्य है, विश्लेष्य नहीं। उपयुक्त शक्ति के सम्बन्ध में इस मत के समर्थकों का यह भी मानना था कि मानव में पुरातन समय में जो ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना की शक्ति थी, उत्तरवर्ती काल में यथावत् रूप में विद्यमान नहीं रह सकी ; क्योंकि भाषा के निमित हो जाने के अनन्तर वह अपेक्षित नहीं रही; अतः व्यवहार का उपयोग का विषय न रहने से वह क्रमशः विलुप्त और विस्मत होती गयी। आज के मानव में वह शक्ति किसी भी रूप में नहीं रह पायी है। प्रो० हेस, स्टाइन्थाल और मैक्समूलर :-जर्मन प्रो० हेस ने पहले पहल इस सिद्धान्त का उद्घाटन किया था। प्रो० हेस ने लिखित रूप में इसे प्रकट नहीं किया। अपने किसी भाषण में उन्होंने इसकी चर्चा की थी। इसके बाद डा० स्टाइन्थाल ने इसे व्यवस्थित रूप में लेख बद्ध किया और विद्वानों के समझ रखा। स्टाइन्थाल भाषा विज्ञान और व्याकरण के तो विशेषज्ञ थे ही, तर्क शास्त्र और मनोविज्ञान के भी प्रौढ़ विद्वान् थे। भाषा विज्ञान के क्षेत्र में वे पहले विद्वान थे, जिनका मत था कि मनोविज्ञान का सहारा लिए बिना भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन नहीं हो सकता । उन्होंने अपनी एक पुस्तक में व्याकरण, तर्कशास्त्र और मनोविज्ञान के पारस्परिक सम्बन्धों का विशद विवेचन किया । भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर उन्होंने और भी कई पुस्तकें लिखीं। प्रो० मैक्समूलर ने भी इसी सिद्धान्त पर चर्चा की। वे संस्कृत के और विशेषतः वेदों के बहुत बड़े विद्वान् थे। उनका मुख्य विषय साहित्य एवं दर्शन था। पर भाषा-विज्ञान पर भी उन्होंने कार्य किया। वे भारतीय विद्याओं के पक्षधर थ। भारत की संस्कृति, साहित्य, तत्त्वज्ञान तथा भाषा की प्रकृष्टता से संसार को अवगत कराने में उनका नाम सर्वाग्रणी है। उनकी विवेचन शैली अत्यन्त रोचक थी। सन १८६१ में भाषा-विज्ञान पर उन्होंने कुछ भाषण दिये । भाषा-विज्ञान जैसे शुष्क और नीरस विषय को उन्होंने इतने मनोरंजक और सुन्दर प्रकार से व्याख्यात किया कि अध्ययनशील व्यक्ति इस ओर आकृष्ट हो उठे। तब से पूर्व भाषा-विज्ञान केवल विद्वानों तक सीमित था। सामान्य लोग इससे सर्वथा अपरिचित थे। इसका श्रेय प्रो० मैक्समूलर को है कि उनके कारण इस ओर जन-साधारण की रुचि जागृत हुई। प्रारम्भ में प्रो० मैक्समूलर को धातु -सिद्धान्त समीचीन जंचा और उन्होंने अपनी पुस्तकों में इसकी चर्चा भी की, पर, बाद में अधिक गहराई में उतरने पर विश्वास नहीं रहा और उन्होंने इसे निरर्थक कहकर अस्वीकार कर दिया। ऐसा लगता है, भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में तब तक कोई सिद्धान्त जम नहीं पाया था। उपयुक्त सिद्धान्त एक नये विचार के रूप में विद्वानों के सामने आया, इसलिए सम्भवत: बहुत गहराई में उतर कर सहसा उन्होंने इसका औचित्य मान लिया, पर, वह मान्यता स्थायी रूप से टिक नहीं पाई। सूक्ष्मता से विचार करें, तो यह कल्पना शून्य में विचरण करती हुई सी प्रतीत होती है। कल्पना अभिनव चिन्तन की स्फुरण है, पर, यहां कवितामूलक कल्पना नहीं है । उसके पीछे ठोस आधार चाहिए। भाषा का विकास वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधृत है । क्या था, कैसे था, कैसे हुआ, कैसा है; भाषा के सन्दर्भ में इन सबका समाधान होना चाहिए। कविता में ऐसा नहीं होता, जैसा कि विख्यात काव्यशास्त्री अरस्तू ने त्रासदी (Tragedy) और कामदी (Comedy) के प्रसंग में बतलाया कि जो नहीं है, कल्पना या अनुकृति द्वारा उसको उपस्थित करना काव्य है; अतः काव्य की सृष्टि जागतिक यथार्थ से परे होती है। पर, भाषा-विज्ञान में ऐसा नहीं होता । धातुओं की कल्पना के माध्यम से भाषा के उद्भव का सिद्धान्त संगत नहीं लगता। १४२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातुओं के सन्दर्भ में कुछ और कथनीय है। शब्द जिनसे भाषा निष्पन्न होती है, केवल धातुओं से निर्मित नहीं होते । उपसर्ग, प्रत्यय आदि की भी अपेक्षा रहती है, जिनकी इस सिद्धान्त में कोई चर्चा नहीं है। भारोपीय, सामी आदि भाषा-परिवारों में तो धातुओं का बोध होता है, पर, अनेक ऐसे भाषा-परिवार भी हैं, जिनमें धातुओं का पता ही नहीं चलता। यदि 'धातुवाद' के सिद्धान्त को स्वीकार भी कर लिया जाये, तो विश्व की अनेक भाषाओं की उत्पत्ति की समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। धातुओं की मान्यता के सम्बन्ध में एक बात और बड़े महत्त्व की है । जिन भाषाओं में धातुएं हैं, उन भाषाओं के विकसित होने के बहत समय बाद धातुओं की खोज हुई । वे स्वाभाविक नहीं हैं, कृत्रिम हैं। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान के पण्डितों के प्रयुज्यमान भाषा के संघटन को व्यवस्थित रूप देने के सन्दर्भ में धातु, प्रत्यय, उपसर्ग आदि द्वारा शब्द बनाने का क्रम स्वीकार किया। यह प्रचलित भाषा को परिमाजित और परिष्कृत रूप में प्रतिपादित करने का विधि-क्रम कहा जा सकता है, जो वैयाकरणों ओर भाषा-वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म तथा गम्भीर अनुशीलन के अनन्तर उपस्थापित किया। प्रो० मैक्समूलर जैसे प्रौढ़ विद्वान् ने इस सिद्धान्त को एक बार स्वीकार करके भी फिर अस्वीकार कर दिया। उसके पीछे इसी तरह की कारण-सामग्री थी, जो भाषा की उत्पत्ति के प्रसंग में कोई ठोस पृष्ठ-भूमि प्रस्तत नही करती थी। यास्क द्वारा आख्यात-चर्चा :- शब्दों की धातुओं से निष्पति के सम्बन्ध में यास्क ने निरुक्त में चर्चा करते हुए कहा-'नाम (शब्द) आख्यात-क्रिया (धातु) से उत्पन्न हुए हैं," यह निरुक्त-वाङमय है । वैयाकरण शाकटायन भी ऐसा ही मानते हैं । आचार्य गाग्यं तथा अन्य कतिपय वैयाकरण नहीं मानते कि सभी शब्द धातुओं से बने हैं। उनकी युक्तियां हैं, जिस शब्द में स्वर, धातु, प्रत्यय, लोप, आगम आदि संस्कार-संगत हों, दूसरे शब्दों में व्याकरण-शास्त्र की प्रक्रिया के अनुरूप हों, वे शब्द आख्यातज या धातु-निष्पन्न हैं। पर, जहां ऐसी संगति नहीं होती, वे शब्द संज्ञा-वाची हैं, रूढ़ हैं, यौगिक नहीं, जैसे-गो, अश्व, पुरुष, हस्ती। "सभी शब्द यदि धातु-निष्पन्न हों, तो जो वस्तु (प्राणी) जो कर्म करे, वैसा (कम) करने वाली सभी वस्तुएं उसी नाम से अभिहित होनी चाहिए। जो कोई भी अध्व (मार्ग) का अशन-व्यापन करें, शीघ्रता से दौड़ते हुए मार्ग को पार करें, वे सब 'अश्व' कहे जाने चाहिए। जो कोई भो तर्दन करें, चुमें, वे तृण कहे जाने चाहिए। पर, ऐसा नहीं होता। एक बाधा यह आती है, जो वस्तु जितनी क्रियाओं में सम्प्रयुक्त होती है, उन सभी क्रियाओं के अनुसार उस (एक ही) वस्तु के उतने ही नाम होने चाहिए, जैसे-स्थूणा (मकान का खम्भा) दरशया (छेद में सोने वाला-खम्भे को छेद में लगाया जाता है) भी कहा जाये, किन्तु ऐसा नहीं होता। एक और कठिनाई है, यदि सभी शब्द धातु-निष्पन्न होते, तो जो शब्द जिस रूप में व्याकरण के नियमानुसार तदर्थ-बोधक धात से निष्पन्न होते, उसी रूप में उन्हें पुकारा जाता, जिससे अर्थ-प्रतीति में सुविधा रहती। इसके अनुसार पुरुष पुरिशय कहा जाता, अश्व अष्टा कहा जाता और तृण तर्दन कहा जाता । ऐसा भी नहीं कहा जाता है। अर्थ-विशेष में किसी शब्द के सिद्ध या व्यवहृत हो जाने के अनन्तर उसकी व्युत्पत्ति का विचार चलता है, अमुक शब्द किसी धात से बना । ऐसा नहीं होता, तो प्रयोग या व्यवहार से पूर्व भी उसका निर्वचन कर लिया जाना चाहिए था। पृथिवी शब्द का उदाहरण लें । प्रथनात् अर्थात् फैलाये जाने से पृथिवी नामकरण हुआ। इस व्युत्पत्ति पर कई प्रकार की शंकाएं उठती है। इस (पथिवी) को किसने फैलाया ? उसका आधार क्या रहा अर्थात् कहां टिक कर फैलाया । पृथ्वी ही सबका आधार है। जिसे जो पुरुष फैलाये, उसे अपने लिए कोई आधार चाहिए। तभी उससे यह हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि शब्दों का व्यवहार देखने पर मानव व्युत्पत्ति साधने का यत्न करता है और सभी व्युत्पत्तियां निष्पादक धातु के अर्थ की शब्द के व्यवहृत या प्रचलित अर्थ में संगति सिद्ध नहीं करतीं। शाकटायन किसी शब्द के अर्थ के अन्वित-अनुगत न होने पर तथा उस (शब्द) की संघटना से संगत धातु से सम्बद्ध न होने पर उस शब्द की व्युत्पत्ति किसी-न-किसी प्रकार से साधने के प्रयत्न में अनेक पदों से उस (शब्द) के अंशों का संचयन कर उसे बनाते हैं । जैसे--- 'सत्य' शब्द का निर्माण करने में 'इण्' (गत्यर्थक) धातु के प्रेरणार्थक (णिजन्त) रूप आयक के यकार को अन्त में रखा, अस् (होना) धातु के णिजन्त-रहित मूल रूप सत् को प्रारम्भ में रखा, इस प्रकार जोड़-तोड़ करने से 'सत्य' शब्द निष्पन्न हुआ। यह सहजता नहीं है। क्रिया का अस्तित्व या प्रवृत्ति द्रव्य पूर्वक है अर्थात् द्रव्य क्रिया से पूर्व होता है। द्रव्य के स्पन्दन आन्दोलन या हलन-चलन की अभिव्यंजना के हेतु किपा अस्तित्व से आता है। ऐसी स्थिति में बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर पहले होने वाले द्रव्य का नाम नहीं दिया जा सकता। यहाँ 'अश्व' का उदाहरण ले सकते हैं । व्युत्पत्ति के अनुसार शीघ्र दौड़ने के कारण एक प्राणी विशेष अश्व' शब्द से संज्ञित होता, तो यह संज्ञा उसकी (शीघ्र दौड़ना रूप) क्रिया के देखने के बाद उसे दी जाती, पर, वस्तु-स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अश्वाभिध प्राणी के उत्पन्न होते ही, जब वह चलने में भी अक्षम होता है, यह संज्ञा उसे प्राप्त है। ऐसी स्थिति में उसकी व्युत्पत्ति की संगति धटित नहीं होती। जैन तसब चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १४३ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दों की निष्पत्ति फलतः भाषा की संरचना में धातु-सिद्धान्त का कितना योग है, इस पर यह सहस्राब्दियों पूर्व के तकवितर्क का एक उदाहरण है। इससे जहां एक ओर भारत के मनीषियों के आलोचनात्मक चिन्तन का परिचय मिलता है, वहां दूसरी ओर भाषा और शब्द जैसे विषयों में, जिनकी गहराई में जाने में लोग विशेष रुचि नहीं लेते, उनके तलस्पर्शी अवगाहन का एक स्पृहणीय उद्योग दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि यास्क गार्य की इन युक्तियों से परास्त नहीं हुए। उन्होंने अपने समाधान प्रस्तुत कर अपनी ओर से आख्यात (धातु) सिद्धान्त की स्थापना का पूरा प्रयत्न किया, जिसका उल्लेख यहां अपेक्षित नहीं है, पर, गार्य के तर्क प्रभाव-शून्य नहीं हो सके । सहस्राब्दियों के बाद आज भी जब धात-सिद्धान्त की समीक्षा और आलोचना की जाती है, तो गाये के तर्क अभेद्य दुर्ग की तरह सम्मख खडे दिखाई देते हैं । प्राकृत और पालि के सन्दर्भ में किये जा रहे भाषा-वैज्ञानिक विवेचन के क्रम में गाय की युक्तियों द्वारा सहस्रों वर्ष पूर्व की एक विचार-सरणि से अवगत हो सकें, इस प्रयोजन से कम प्रासंगिक होते हुए भी इस विषय को यहां उपस्थित किया गया है। भाषा की उत्पत्ति में जो मत, चाह थोड़े ही सही, कार्यकर हुए, उनका संक्षेप में समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत प्रसंग के लिए उपयोगी होगा। अनुकरण सिद्धान्त :-भाषा की उत्पत्ति किसी एक कारण या आधार से नहीं हुई है। उसका निर्माण कई प्रकार के आधारों की भूमि पर टिका है । उनमें एक सिद्धान्त 'अनुकरण' का है । पशु-पक्षी मनुष्य के निकट के साथी हैं। उनकी अपनी-अपनी बोली है. जों परस्पर एक-दूसरे से भिन्न है । पशु या पक्षी जब प्रसन्न मुद्रा में होते हैं, तब जो आवाज करते हैं, वह सम्भवतः उस आवाज से भिन्न होती है, जो वे दुःख, पीड़ा या अवसाद में करते हैं। अन्य भी अनेक भाव हो सकते हैं, जिनमें बहुत स्पष्ट न सही, पशु-पक्षियों की बोली में कुछ-न-कुछ भिन्नता सम्भावित है। एक प्रकार से इसे पशु-पक्षियों की भाषा कहा जा सकता है। भाषा-विहीन मनुष्य ने पश-पक्षियों को बोलते हुए सुना। उनकी ध्वनि को पकड़ा। जिस पशु या पक्षो से जो ध्वनि आई, उसने उसका व उसकी बोली का वैसा नाम दे दिया। उसके आधार पर उससे मिलती-जुलती और भी ध्वनियां या शब्द आविष्कृत किये, जो उसके अपने जीवन की हलचल या प्रवत्ति से जड़े हुए थे। उदाहरणार्थ, मानव ने जब बिल्ली को बोलते सुना, तो 'म्याऊँ' शब्द उसकी पकड़ में आया। उसने 'म्याऊं' शब्द को नितीको बोली में संकेतित कर लिया और बिल्ली के लिए भी वह इसका प्रयोग करने लगा। हिन्दी में इस शब्द का इसी रूप में प्रचलन है । 'म्याऊ का मंह कौन पकड़े' इत्यादि प्रयोग इसके साक्षी हैं। चीनी भाषा में म्याऊ के स्थान पर मिआऊ' प्रयक्त होता है। मिस्री भाषा में बिल्ली के लिए 'माऊ' का व्यहार होता है। अन्य भी कई भाषाओं में कुछ परिवर्तित उच्चारण के साथ इसके प्रयोग सम्भावित है । काक, घुग्घु, में में (भेड़ की बोली), बेबे (बकरी की बोली), हिनहिनाना (घोड़े की बोली), दहाड़ना (सिंह की आवाज). फड़फड़ाना (पंखो की आवाज) झी-झी (झींगुर की आवाज) आदि इसी प्रकार के शब्द हैं। मेंमें' से मिमियाना, 'बेबे' से बिबियाना आदि क्रियापद निष्पन्न कर लिये गये । देहाती बच्चा मोटर को 'पोपों,' मोटर साइकिल को 'फटफटिया' कहते सुने जाते हैं। भोप भी इसी प्रकार का उदाहरण है, जिसका आधार ध्वनि ही है । अंग्रेजी का Cuckoo शब्द इसी प्रकार का है। निरुक्तकार यास्क ने 'काक' की व्याख्या में काक इति शब्दानुकृतिः (अर्थात् जो का-का करता है, वह काक है), जो उल्लेख किया है, वह इसी तथ्य को समर्थित करता है । इस सन्दर्भ में संस्कृत के अग्रांकित शब्द विशेष विमर्षणीय हैं। ऐसा अनुमान किया जा सकता है, सम्भवतः ये अथवा इनमें से अधिकांश शब्द ध्वनि या आवाज के आधार पर बने हैं : घूक, खंजन, खंजरीट, कंक, बृक, कुकुट्ट, चटका, पिक, काक, क्रौंच, कोक, कुरर, चीरी, झिल्लका, झीरुका, मयूर, केकी, भृग। १. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नरुक्तसमयश्च । न सर्वाणीति गार्यो वैयाकरणानाचके। तधन स्वरसंस्कारी समथों प्रादेशिकेन गुणेनान्विती स्याताम् । संविज्ञानानि तानि, यथा गौरश्व: पुरुषो हस्तीति । प्रथ चेत् सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यः कश्चनतत्कर्म कुर्यात्सर्व तत्सत्वं तथाचक्षीरन्। यः कश्चाघ्वानमश्न बीताश्वः स वचनीय: स्यात् यत्किचितन्द्यात्तुणं तत् प्रथापि चेत्सर्वाण्याख्यातजानि नामानि स्युर्यावदिभविः सम्प्रयुज्येत तावद्भ्यो नामधेय प्रति सम्म: स्यात् । तवं स्थूणा, दरयावांजनी च स्मात् । प्रथापि य एषां न्यायवान्काभेनामिक: संस्कारो यथा चापि प्रतीतार्थानि स्युस्तथतान्याचक्षीरन् । पुरुषं परिशय इत्यावचक्षीरन्, प्रष्टेत्यश्वं, तदनमिति तृणम् । प्रथापि निष्पन्न भिव्याहारेऽभिविचारयन्ति । प्रथनात्पपिवित्याहः क एनामप्रथयिष्यरिकमाघारपचेति। प्रथानन्वितेय प्रादेशिके विकारे पदेभ्यः पदेतरार्धासंघसकार शाकटायन: एते कारितंच यकारादिश्वान्तकरणमस्ते: शुखं च सकारादि च। प्रथापि सत्वपूर्वो भाव इत्याहुः। प्रपरस्माद् भावात्पूर्वस्य प्रदेशो नोपपद्यत इति । -निरुक्त; पाद४ आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रस्थ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ भाषा-वैज्ञानिकों द्वारा इस सिद्धान्त का विरोध हुआ। उनका कहना था कि उपर्युक्त शब्दों का आधार ध्वनियों का अनुकरण होता, तो संसार की सभी भाषाओं में इनके द्योतक शब्द एक जैसे होते; क्योंकि किसी देश-विशेष के पशुओं या पक्षियों की ध्वनि में अन्तर नहीं देखा जाता । तब उन (ध्वनियों) की अनुकृति पर बने शब्दों में भेद नहीं होना चाहिए। स्थिति इसके विपरीत है। भिन्न-भिन्न भाषाओं में उपर्युक्त ध्वनियों के आधार पर बने शब्दों में कुछ-न-कुछ भिन्नता है। पर, कुछ गहराई में उतरने पर यह विरोध यथार्थ नहीं लगता। ध्वनियों के अनुकरण में सर्वथा समानता होना कदापि सम्भव नहीं है। देश व जल-वायु का वागिन्द्रिय पर प्रभाव पड़ता है। इससे उच्चारण में भिन्नता आना स्वाभाविक है। ध्वनियों का भी अनुकरण सब सर्वथा एक रूप में कर सकें, यह अस्वाभाविक है। दूसरी बात यह है, अनुकरण अपने भाप में कभी पूर्ण नहीं हाता; इसलिए न यह सम्भव है और न आवश्यक ही कि निर्मीयमान शब्द ध्वनि के सर्वथा अनुगत हों। ध्ननि का जिसके द्वारा जितना साध्य होता है, उतना अथवा थोड़ा बहुत अनुकरण रहता है। शब्द-निर्माण में ध्वनि का आधार स्थिति के अनुरूप एक सीमा विशेष तक है, सम्पूर्ण नहीं। भाषा-विज्ञानविद् स्वीट का भी कहना था कि ध्वनियों के अनुकरण पर बनने वाले शब्द ध्वनि के सर्वथा अनुरूप हों, यह आवश्यक नहीं है। प्रो० मैक्स मूलर को यह सिद्धान्त बड़ा अटपटा लगा । उन्होंने इस पर व्यंग्य कसते हुए इसे Bow-Wow Theory के नाम से सम्बोधित किया। अंग्रेजी में Bow-Wow कुते की आवाज को कहते हैं। कुत्ते के पिल्ले को भी अंग्रेज इसी नाम से पुकारते हैं।' 'पापूवा' के पूर्वोत्तरी किनारे पर जो भाषा बोली जाती है, उसमें भी ध्वनि के आधार पर कुत्ते को Bow-Wow कहा जाता है। प्रो० मैक्स मूलर ने पापुवा की तटीय भाषा के इस शब्द के आधार पर उक्त परिहास किया, पर, यह वैसी निष्प्रयोज्य बात नहीं है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि विश्व की अधिकांश भाषाओं में अनेक शब्द ऐसे हैं, जो उक्त प्रकार की ध्वनियों के आधार पर बने हैं । जो भाषावैज्ञानिक केवल ध्वनियों की अनुकृति पर बने शब्दों से ही समग्र भाषा को निष्पत्ति मानते हैं, वह तथ्यपूर्ण नहीं है । ध्वनि-निष्पन्न शब्दों के अतिरिक्त अनेक शब्द ऐसे हैं जिनका ध्वनि से कोई सम्बन्ध नहीं है । ध्वनि-निष्पन्न शब्दों से वे वई गुने अधिक हैं। साथ-ही-साथ यह भी ज्ञातव्य है कि कुछ भाषाएं ऐसी भी हैं, जिनमें ध्वनि-निष्पन्न शब्दों का सर्वथा अभाव है, जैसे उत्तरी अमेरिका की अथवस्कन भाषा । अनकरणन-सिद्धान्त :- 'अनुकरण-सिद्धान्त' के समकक्ष 'अनुरणन-सिद्धान्त' के नाम से एक अन्य विचारधारा की चर्चा भाषा-विज्ञान में और आती है। पानी, धातु, काठ, पेड़ के पत्ते आदि वनस्पति-जगत, धातु-जगत् और निर्जीव पदार्थों के संस्पर्श, संघर्ष, टक्कर, पतन आदि से जो ध्वनि निकलती है, उसके अनुकरण पर जो शब्द बनते हैं, उन्हें अनुरणन-निष्पन्न शब्द कहा जाता है । अनुकरण के स्थान पर यहां अनुरणन शब्द का उपयोग हुआ है। अर्थ की सूक्ष्मता की दृष्टि से अनुकरण और अनुरणन में परस्पर अन्तर है। पश-पक्षी जैसा बोलते हैं, मानव अपने मुंह से उसी प्रकार बोलने का जो प्रयत्न करता है, वह अनुकरण है । जल-प्रवाह बहता है, 'नद्-नद् नाद होता है। वह अनुरणन है । इस सिद्धान्त के आधार पर नद् (धातु) से नद या नदी शब्द बनते हैं। वृक्ष से पता गिरता है (पतति), तब पत-पत् के रूप में जो आवाज निकलती है, पत् धातु और पत्र शब्द का निर्माण उसी से होता है। कुत्ते के भौंकने के अर्थ में बक धात का स्वीकार इसी कोटि का उदाहरण है कल-कल, छल-छल, झन-झन, खटपट आदि हिन्दी शब्द तथा Mur-Mer आदि अंग्रेजी शब्द इसी प्रकार के हैं। ऐसे शब्द संसार की प्राय: सभी भाषाओं में प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि अनुकरण और अनुरणन में वास्तव में कोई मौलिक भेद नहीं है । केवल वस्तु-भेद मूलक स्थूल अन्तर है, जो नगण्य है । अनुकरण के कुछ और भी रूप हैं, जो इसी में आ जाते हैं । उदाहरणार्थ, दीपक जलने और तारे चमकने के दृश्यों के अनुकरण पर जगमगाहट, चमचमाहट आदि शब्द निर्मित हए। इन सबका उपर्युक्त सिद्धान्त में समावेश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि भाषा में शब्दों का एक ऐसा वर्ग है, जिसका आधार पशुओं व पक्षियों की ध्वनियों का अनुकरण, वस्तुओं का अनुरणन तथा दृश्यों का परिदर्शन है। वस्तुत: सभी अनुकरण के ही रूप हैं। भाषा के निर्मात-तत्त्वों में अंशतः इस सिद्धान्त का भी स्थान है। मनोभावाभिव्यंजकतावाद :--मनोभावाभिव्यंजकतावाद के अनुसार ऐसा माना जाता है कि आदिकाल या प्रारम्भ में मानव बद्धि-प्रधान नहीं था, भाव-प्रधान था। पशु भी लगभग इसी कोटि के होते हैं। उनमें विचार-क्षमता नहीं होती, भावना होती है। आदिमानव विवेक या प्रज्ञा को दृष्टि से पशुओं से विशेष ऊंचा नहीं था। विवेक और वितर्क की क्षमता भले ही न हो, प्राणिमात्र में भावों का उद्रेक निश्चय ही होता है। हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, विस्मय आदि का आधिक्य सहज ही मानव को भावावेश में ला देता है। प्राचीन काल का मानव जब इस प्रकार भावाविष्ट हो जाता, अनायास ही कुछ शब्द उसके मुख से निकल पड़ते। यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति थी, अतएव अप्रयत्न-साध्य थी । ओह, आह, उफ, छिः, धत् आदि शब्द इसी प्रकार के हैं । जन तत्त्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ १४५ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत में आ:' (कोप, पीड़ा), घिङ (निर्भर्त्सना, निन्दा), बत' (खेद, अनुकम्पा, सन्तोष), हन्त (हर्ष, अनुकम्पा, विषाद), साभि (जुगुप्सित), जोषम् (नीरवता, सुख), अलम्' (पर्याप्त, शक्ति वारण-निषेध). हूम् (वितर्क, परिप्रश्न), हा (विषाद), अहह" (अद्भुतता, खेद), हिररुङ" (वर्जन), आहो, उताहो'२ (विकल्प), अहा, ही" (विस्मय) तथा ऊम्" (प्रश्न, अनुनय) इत्यादि आकस्मिक भावों के द्योतक हैं । इनकी उत्पत्ति में भी उपयुक्त सिद्धान्त किसी अपेक्षा से संगत हो सकता है। अंग्रेजी में Ah, Oh, Alas, (Surprise, fear or regret=विस्मय, भय या खेद), Rish (Contempt=अवज्ञा), Pooh (disdain or contempt=घृणा या अवज्ञा) तथा Fie (Disgurt=जगुप्सा) आदि का प्रयोग उपयुक्त सन्दर्भ में होता है । अंग्रेजी व्याकरण में ये Interjections (विस्मयादिबोधक) कहलाते हैं। इसी कारण यह सिद्धान्त (Interjectional Theory) के नाम से विश्रुत है। इस सिद्धान्त का अभिप्राय था कि शब्दों के उद्भव और विकास की यह पहली सीढ़ी है। इन्हीं शब्दों से उत्तरोत्तर नये-नये शब्द बनते गये, भाषा विकसित होती गयी । इस सिद्धान्त के उद्भावकों में कंडिलैक का नाम उल्लेखनीय है। डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है : “इस सिद्धान्त के मान्य होने में कई कठिनाइयां हैं। पहली बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द एक ही रूप में नहीं मिलते। यदि स्वभावतः आरम्भ में ये निःसृत हुए होते तो अवश्य ही सभा मनुष्यों में लगभग एक जैसे होते । संसार भर के कुत्त दुःखी होने पर लगभग एक ही प्रकार से भौंक कर रोते हैं, पर, संसार भर के आदमी न तो दुःखी होने पर एक प्रकार से 'हाय' करते हैं और न प्रसन्न होने पर एक प्रकार से 'वाह'। लगता है, इनके साथ संयोग से ही इस प्रकार के भाव सम्बद्ध हो गये हैं और य पूर्णतः यादृच्छिक हैं । साथ ही इन शब्दों से पूरी भाषा पर प्रकाश नहीं पड़ता। किसी भाषा में इनकी संख्या चालीस-पचास से अधिक नहीं होगी। और वहां भी इन्हें पूर्णतः भाषा का अंग नहीं माना जा सकता । बेनफी ने यह ठीक ही कहा था कि ऐसे शब्द केवल वहां प्रयुक्त होते हैं, जहां बोलना सम्भव नहीं होता। इस प्रकार ये भाषा नहीं हैं। यदि इन्हें भाषा का अंग भी माना जाये तो अधिक-से-अधिक इतना कहा जा सकता है, कुछ थोड़े शब्दों को उत्पत्ति की समस्या पर ही इनसे प्रकाश पड़ता है।"१५ सूक्ष्मता से इस सिद्धान्त पर चिन्तन करने पर अनुमित होता है कि भाषा के एक अंश की पूर्ति में इसका कुछ-न-कुछ स्थान है ही । भाषा के सभी शब्द इन्हीं Interjectional (विस्मयादिबोधक) शब्दों से निःसृत हुए, इसे सम्भव नहीं माना जा सकता। अंशतः इस सिद्धान्त का औचित्य प्रतीत होता है। वह इस प्रकार है--विभिन्न भावों के आवेश में आदि मानव ने उन्हें प्रकट करने के लिए जब जैसी बन पड़ी, ध्वनियां उच्चारित की हों। भाषा का अस्तित्व न होने से भाव और ध्वनि का कोई निश्चित द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध नहीं था । एक ही भाव के लिए एक प्रदेशवासी मानवों के मुख से एक ही ध्वनि निकलती रही हो, यह सम्भव नहीं लगता । भाषा के बिना तब कोई व्यवस्थित सामाजिक जीवन नहीं था। इसलिए यह अतर्य नहीं माना जा सकता कि एक ही भाव के लिए कई व्यक्तियों द्वारा कई ध्वनियां उच्चारित हुई हों। फिर ज्यों-ज्यों ध्वनियों या शब्दों का कुछ विकास हुआ, ध्वनियों की विभिन्नता या भेट अनभत होने लगा, तब सम्भवतः किसी एक भाव के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग निश्चित हो गया हो। १. प्रास्तु स्यात् कोपपीड़योः । - अमरकोश, तृतीय काण्ड, नानार्थ वर्ग, पृष्ठ २४० २. घिङ् निर्भत्सननिन्दयोः। -वही, पृ. २४० खेदानुकम्पा सन्तोषविस्मयामन्त्रणे बत । -वही, पृ० २४४ ४. हन्त हर्ष-अनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः । -वही, पृ० २४४ साभि त्वः जुगुप्सिते । -वही, पृ० २४६ ६. तुणीमर्थे सुखे जोषम् । -वही, पृ० २५१ ७. प्रलं पर्याप्तशक्तिबारणवाचकम। -वही, पृ०२५२ ८. हवितर्क परिप्रश्ने। -वही, पृ० २५२ है. हा विषादाशुगतिषु । -वही, पृ. २५६ १०. पहहेत्यद्भुते खेदे। -वही, तृतीय कांड, अव्यय वर्ग, प्रलो०७ ११. हिकङ्नाना न-वर्जने । -वही, श्लो०७ १२. माही उताहो किमुत विकल्पे कि किमुत च। -वही, पलो०५ १३. पहो ही च विस्मये। -वही, श्लो०६ १४. ॐ प्रश्न 5 नुनये त्वयि। -वही, श्लो० १८ १५. भाषा विज्ञान, पृ० ३३ १४६ आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा. तिवारी पशुओं की बोली को चर्चा करते हुए जो कहते हैं कि देशगत भेद उस (उनकी बोली) में कोई भिन्नता नह ला पाता, उसी प्रकार यदि ये आकस्मिक भाव-द्योतक ध्वनियां (Interjections) स्वाभाविक होतीं, तो संसार भर के मानव एक ही रूप में उनका प्रयोग करते, वह आलोच्य है। भाषा के सन्दर्भ में पशु और मानव को सर्वथा एक कोटि में नहीं लिया जा सकता। पशुओं की बोली का एक ससीम रूप है। हजारों-लाखों वर्ष पूर्व भी सम्भवतः वही था, जो आज है। पर, मानव एक विकासशील प्राणी है । विश्व-मानव भाषाओं की दृष्टि से कितना विकास कर चुका है, वह उसके द्वारा प्रयुक्त सहस्रों भाषाओं से स्पष्ट है । यह विकास का विस्तार है । उसका बीज मानव में पहले भी विद्यमान था। विशेष रूप में तो शरीर-शास्त्र के मर्मज्ञ बतला सकते हैं, पर, स्थूल दृष्टि से अनुमान है कि मानव की वागिन्द्रिय तथा कुत्ते आदि पशुओं की वागिन्द्रिय में सम्भवतः स्वर-यन्त्र-सम्बन्धी तन्त्रियों या स्नायुओं में पूर्ण सादृश्य नहीं होता । तोता, कोयल आदि कुछ पक्षी सिखाये जाने पर मनुष्य की बोली का अनुकरण करते हैं। इससे लगता है, उनका मानव के साथ वागिन्द्रिय-सम्बन्धी कुछ-कुछ साम्य है। पर, उनके अतिरिक्त अन्य पक्षी या पशु में ऐसा नहीं है। _ भिन्न देशों में रहने वाले लोगों की आकस्मिक भाव द्योतक ध्वनियां एक जैसी होती, वह कैसे सम्भव हो सकता है ? जलवायु आदि के कारण मनुष्य के स्वर-यन्त्र के स्पन्दन, प्रवर्तन, संकोच, विस्तार की तरतमता के अतिरिक्त यह भी सोचने योग्य है कि किस व्यक्ति ने किस परिप्रेक्ष्य, किस स्थिति, किस वातावरण और किस कोटि की भावनाओं से अभिभूत होकर सहसा किसी ध्वनि का उच्चारण किया। सहस्रों मीलों की दूरी पर रहने वाले मनुष्यों में नृवंशगत ऐक्य के उपरान्त भी न जाने अन्य कितनी भिन्नताएं हैं । क्या ध्वनिनि:सृति पर उनका स्वल्प भी प्रभाव नहीं होता ? प्रस्तुत चर्चा के आधार पर किसी एक देश में एक भाव के लिए कोई एक ही शब्द निकला हो, यह निश्चित नहीं है । भिन्नभिन्न समय भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा जब जिस रूप में सम्भव हो पाया, एक भाव के लिए विविध ध्वनियां निःसृत हुई हों । वे आज सब कहां रह पाई हैं ? जो रह पाई हैं, उनमें से बहुत थोड़ी-सी हैं । सारांश यह है, चाहे संख्या में कम ही सही, जो आकस्मिक भाव-द्योतक ध्वनियाँ भाषा में हैं, उनका भाषा की निर्मिति में एक स्थान है। डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सिद्धान्त के विषय में कुछ और सम्भावनाएं प्रकट की हैं। उनका अभिप्राय यह है कि ये Interiectional ध्वनियां यद्यपि सीमित थीं, टूटे-फूटे रूप में इनसे भाव व्यक्त किये जाते रहे होंगे, पर, इनके सतत प्रयोग से मानव को अन्य ध्वनियों के उच्चारण का भी अभ्यास हुआ होगा। इस क्रम से चलते रहने से भाषा के विकास में सहारा मिला होगा। इन ध्वनियों के प्रयोग से अन्य ध्वनियों के उच्चारण का अभ्यास बढ़ने की जो सम्भावना डा० तिवारी करते हैं, वह चिन्त्य है । वस्तुस्थिति यह है, अन्य ध्वनियां उन विविध स्थल व सूक्ष्म पदार्थों तथा भावों से सम्बद्ध हैं, जिनका इनसे कोई तारतम्य नहीं जुड़ता। किसी ध्वनि का सहसा निकल पड़ना तथा चिन्तनपूर्वक उसका निष्कासन दोनों भिन्न-भिन्न हैं। दोनों में संगति नहीं है। प्रतीत होता है, अन्य ध्वनियों का उद्धव और विकास किन्हीं भिन्न स्थितियों और आधारों से हुआ है । इंगित-सिद्धान्त :-भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त परिकल्पित किये गये, उनमें इंगित-सिद्धान्त (Gestural Theory) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सबसे पहले पालिनेशियन भाषा के प्रमुख विद्वान् डा० शये ने इस ओर संकेत किया। विकासवाद (Theory of Evolution) के आविष्कर्ता डार्विन ने भी इस पर विचार किया। उन्होंने छ: ऐसी भाषाए ली, जिनका परस्पर संबंध नही था। उनका तुलनात्मक अध्ययन किया और उसके आधार पर इस सिद्धान्त की प्रामाणिकता बताई। इस सिद्धान्त पर ऊहापोह वर्तमान शताब्दी तक चलता रहा । सन् १९३० के आस-पास रिचर्ड ने इस सिद्धान्त की पुन: रचना की। रिचर्ड की पुस्तक मानव की भाषा (Human Speech)है, जिसमें इस सिद्धान्त का मौलिक इंगित सिद्धान्त (Oral Gesture Theory) के नाम से उल्लेख किया है तथा इस ओर भाषा-विज्ञान के पण्डितों का ध्यान आकृष्ट किया है। प्रस्तुत विषय की महत्ता इसी से सिद्ध हो जाती है कि लगभग इसी समय आईस लैंडिक भाषा के विद्वान् अलेक्जेण्डर जॉनसन ने भी इस पर विचार किया । उन्होंने भारोपीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उस बीच इस नेसंग (इंगित-सिद्धान्त) की चर्चा करते हुए उन्होंने इसकी सार्थकता स्वीकार की। तदनन्तर उन्होंने अपनी दूसरी पुस्तकों में इसका विस्तार से विवेचन किया। तथ्य-परीक्षण और समीक्षण के सन्दर्भ में जहां उन्होंने भारोपीय भाषाओं को आधार के रूप में लिया, वहां हिब्रू, (प्राचीन ) तुर्की, चीनी तथा कतिपय अन्य भाषाओं को भी लिया। विवेच्य प्रसंग में उसकी चर्चा विशेष उपयोगी रहेगी। जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जॉनसन का निष्कर्ष : जॉनसन ने चार सोपान स्वीकार किये, जिनसे भाषा का विकास हुआ। उनके अनुसार पहला सोपान है - भावव्यंजक ध्वनियां । बुभूक्षा, तृषा, कामेच्छा, प्रसन्नता, अप्रसन्नता, भीति, कोप आदि भाव जब मनुष्य के मन में उभरते हैं, तब वह उन्हें व्यक्त करना चाहता है । भाषा उसे प्राप्त नहीं है; इसलिए बन्दर आदि पशु जैसे इन भावों को कुछ ध्वनियों से प्रकाशित करते हैं, मनुष्य भी इनकी अभिव्यक्ति के लिए कुछ मुख ध्वनियों का उपयोग करता है। भाषा के विकास का यह आदि-चरण है । वे ध्वनियां अमुक-अमुक भावों की अभिव्यंजना की इंगिल या प्रतीक बन जाती है। पूर्व चर्चित मनोभावाभिव्यंजना (Intejectional Theory) से यह स्थापना पृथक् है वहां आकस्मिक भावोद्रेकरू सहसा मुंह से निकल पड़ने वाली ध्वनियों का विवेचन है और यहाँ आवश्यकता, उत्सुकता असहिष्णुता, कानपणा आदि से अभिभूत होकर जब मानव ध्वनियां प्रकट करने का प्रयत्न करता है, परिणामस्वरूप उसके मुंह से जो ध्वनियाँ निःसृत होती हैं, उनका समावेश है । सहसा ध्वनि का निकल पड़ना और आवश्यक मान कर ध्वनियां निकालना; दोनों पृथक्-पृथक् हैं । भाषा के विकास का दूसरा सोपान अनुकरणात्मक शब्दों का है। पशुओं की बोलियों के के नाम से जो विवेचन किया गया है, जॉनसन का लगभग वही अभिप्राय है 1 अनुरणन भाव संकेत : इंगित :- जॉनसन तीसरा सोपान भाव-संकेतों या इंगितों का बतलाते हैं। इनका भी आधार अनुकरण ही है, पर, यह अनुकरण बाह्य पदार्थों, पशु-पक्षियों या वस्तुओं से सम्बद्ध नहीं है । यह अनुकरण जिल्ह्वा आदि द्वारा अंगों का अंग-संकेतों का, उनमें भी प्रमुखतः हाथों का है जॉनसन इसे Unconscious Imitation कहते हैं, अर्थात यह ऐसा अनुकरण है, जिसका अनुकर्ता को स्वयं भी कोई भान नहीं रहता। उनका ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है कि मन में जब-जब एक विशेष प्रकार का भाव उभार में आता है, देह के अंगों में एक विशेष प्रकार का स्पन्दन होता है । क्रोध और दुःसाहस की मनोदशा में मनुष्य तनकर खड़ा हो जाता है, उसका सीना तन जाता है, होठ फड़कने लगते हैं, भयाक्रान्त होने पर वह दुबक जाता है (सिकुड़ जाता है), उल्लासपूर्ण मिलन- मुद्रा में बाहें फैला देता है, दृढ़ निश्चय, प्रतिज्ञा या आक्रमण के भावावेश में भुजाएं उठा लेता है, चुनौती के भाव में सामने की वस्तु पर हथेली दे मारता है। ये आंगिक क्रिया-प्रक्रियाएं होती रहती है और उनके अनुकरण पर अननुभूत रूप में Unconsciously वामिन्द्रिय द्वारा कुछ शब्द उच्चारित होते रहते हैं । अनेक भावों के प्रकाशक शब्दों के उद्भव का वह प्रकार है। जॉनसन सम्भवतः यही कहना चाहते हैं । सूक्ष्म-भ -भावों की अभिव्यंजना :- - सूक्ष्म भावों के द्योतक शब्दों के उद्भव के सम्बन्ध में जॉनसन का कहना है कि ज्यों-ज्यों मानव का उत्तरोत्तर मानसिक विकास होता गया, शनैः-शनैः सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना के लिए भी कुछ ध्वनियां या शब्द उद्भावित करता गया । भाषा के चार सोपानों में यह अन्तिम सोपान है । अनुकरण तथा निर्जीव वस्तुओं के जॉनसन ने भाषा के अनेक पहलुओं पर विस्तार से विचार करने का प्रयत्न किया है। स्वरों और व्यंजनों का विकास किस प्रकार हुआ, इस पर भी प्रकाश डाला है। ध्वनियों के साथ अर्थों के सम्बन्ध की स्थापना पर भी चर्चा की है। उदाहरणार्थ, उनके अनुसार जिन धातुओं के आरम्भ में ऋकार या रकार होता है, वे धातुए गत्यर्थक होती हैं; क्योंकि ऋकार या रकार के उच्चारण में जिह्वा विशेष गतिशील होती है या दौड़ती है। इसी प्रकार और भी उन्होंने विश्लेषण किया है। एक विशेष बात जॉनसन यह कहते हैं कि आदि मानव ने अपने शरीर में तरह-तरह के Curves == आकुंचन - मोड़ देखे । उनका अनुकरण करते हुए उसने कतिपय मूल भावों को सूचित करने वाले शब्दों का सर्जन किया। भाव-संकेतों का अभिप्राय :- प्रस्तुत प्रसंग में जॉनसन ने तीसरे सोपान में जो भाव-संकेतों की चर्चा की है, उस पर सूक्ष्मता से विचार करने की आवश्यकता है। मानव ने अपने देह के हाथ आदि अंगों के परिचालन के आधार पर विविध ध्वनियों की सृष्टि की, यह समझ में आने योग्य नहीं है। अंग-विशेष के हलन चलन या स्पन्दन से ध्वनि विशेष का सम्बन्ध जुड़ना कल्पनातीत लगता है । जैसे, यदि कोई व्यक्ति क्रोधावेश में हो, दांत पीसने लगे, आक्रमण की मुद्रा में हाथ उठा ले, तो समझ में नहीं आता, किसी ध्वनि द्वारा क्या इसे प्रकट किया जा सकता है ? ध्वनि का अपना क्षेत्र है, देह-चालन से कोई विशेष आवाज तो निकलती नहीं, फिर किस रूप में उसका अनुकरण सम्भव है ? जॉनसन ने अंग-परिचालन के साथ ध्वनि उच्चारण का ताल-मेल बिठाने का जो प्रयत्न किया है, वह अपने-आप में नवीन अवश्य है, पर, युक्ति संगत नहीं लगता । धातुओं के आदि अक्षर विशेष अर्थ विसंगति :- धातुओं के आदि अक्षरों का विशेष अर्थों के साथ तालमेल बिठाना भी सूक्ष्मपर्यालोचन करने पर यथार्थ सिद्ध नहीं होता। ऋकार या रकार से प्रारम्भ होने वाली धातुओं का जो उल्लेख गत्यर्थकता के सन्दर्भ में किया गया था, उनके समकक्ष जो दूसरी गत्यर्थक धातुए हैं और जिनका प्रारम्भ ऋ या र से नहीं होता, उनका क्या होगा ! गम् धातु गत्यर्थक है। वह ‘ग्' से प्रारम्भ होती है । 'ग' के उच्चारण में वागिन्द्रिय का कोई अंग 'र्' के उच्चारण की तरह दौड़ता नहीं, फिर उपर्युक्त स्थापना की संगति कैसी होगी ? गम् की तरह अन्य भी कितनी ही धातुएं होंगी, जो गत्यर्थक हैं, जिनका प्रारम्भ ऋ या १४८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन सम् Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यार् से नहीं होता । ऋ यार से प्रारम्भ होने वाली ऐसी धातुएं भी हैं, जो गत्यर्थक नहीं हैं । संस्कृत की 'राज्' धातु, जो शोभित होने के अर्थ में है, र् से ही उसका आरम्भ होता है। ग्रीक आदि अन्य भाषाओं में भी इसके उदाहरण मिल सकते हैं । पूर्व - चर्चित धातु, प्रत्यय, उपसर्ग, नाम, सर्वनाम आदि के रूप में भाषा का व्याकृत स्वरूप उसके विकसित होने के बाद का प्रयत्न है। जब भाषा के परिष्करण और परिमार्जन की अपेक्षा हुई, तब उसमें प्रयुक्त शब्दों की शल्य चिकित्सा का प्रयत्न विशेष रूप से चला । व्याकरण-शास्त्र, व्युत्पत्ति-शास्त्र आदि के सर्जन का सम्भवतः वही प्रेरक सूत्र था । ये विषय मानव की तर्कणा-शक्ति पर आधृत हैं | आदिकाल के मानव में तर्क शक्ति इतनी विकसित हो पाई थी, यह सम्भव नहीं लगता । वस्तुतः मानव का तार्किक और प्रातिभ विकास अनेक सहस्राब्दियों के अध्यवसाय और यत्न का फल है । स्वीट का समन्वयात्मक विचार :-स्वीट उन्नीसवीं शती के सुप्रसिद्ध भाषा - विज्ञान वेत्ता थे। उन्होंने भाषा की उत्पत्ति की समस्या का समाधान ढूंढ़ने का प्रयत्न किया। उन्होंने भाषा की उत्पत्ति किसी एक आधार से नहीं मानी। उनके अनुसार कई कारण या आचारों का समन्वित रूप भाषा के उद्भव में साधक था। उन्होंने प्रारम्भिक शब्द समूह को तीन श्रेणियों में विभाजित किया । उसके अनुसार पहले वे थे, जिनका आधार अनुकरण था। उन्होंने दूसरी श्रेणी में उन शब्दों को रखा, जो मनोभावाभिव्यंजक हैं। उनके अनुसार तीसरी श्रेणी में वे शब्द आते हैं, जिन्हें प्रतीकात्मक (Symbolic) कहा गया है। उनको मान्यता है कि भाषा में प्रारम्भ में इस श्रेणी के शब्द संख्या में बहुत अधिक रहे होंगे । शब्द : अर्थ : यदुच्छा : प्रतीक : स्वीट के अनुसार प्रतीकात्मक शब्द वे हैं, जिनका अपना कोई अर्थ नहीं होता । संयोगवश जो किसी विशेष अर्थ के ज्ञापक या प्रतीक बन जाते हैं । उन अर्थों में उनका प्रयोग चलता रहता है। फलतः भाषा में उनके साथ उन विशेष अर्थों की स्थापना हो जाती है। उदाहरणार्थ, एक शिशु है। वह मां को देखता है । कुछ बोलना चाहता है । इस प्रयत्न में उसके होंठ खुल जाते हैं । अनायास 'मामा' ध्वनि निकल पड़ती है। तब तक 'मामा' (Mama) ध्वनि का किसी अर्थ से सम्बन्ध नहीं है । संयोग वश शिशु के मुंह से माता के सामने बार-बार यह ध्वनि निकलती है। इसका उच्चारण सरल है। माता इस ध्वनि को अपने लिए गृहीत कर लेती है। परिणामस्वरूप यह शब्द माता का ज्ञापक या प्रतीक बन जाता है। इस प्रकार इसके साथ एक निश्चित अर्थ जुड़ जाता है । यही 'पापा' (Papa) आदि की स्थिति है। संस्कृत के माता, पिता, भ्राता ग्रीक के Meter, Phrater, pater लॅटिन के Mater, Pater, Frater, अंग्रेजी के Mother, Father, Brother फारसी के मादर, पिदर, बिरादर तथा हिन्दी के माता, पिता, चाचा, काका, दादा, भाई, बाई, दाई सम्भवत: मूल रूप में इसी श्रेणी के शब्द रहे होंगे। इन सांयोगिक ध्वनियों में से अधिकांश के आद्य अक्षर औष्ठ्य हैं । सहसा कोई बच्चा कोई ध्वनि उच्चारित करने को ज्यों ही तत्पर होता है, होंठ खुल जाते हैं। अनायास उसके मुंह से जो ध्वनि निःसृत होती है, प्रायः ट्प होती है क्योंकि वैसा करने में उसे अपेक्षाकृत बहुत कम श्रम होता है । स्वीट ने प्रतीकात्मक शब्दों की श्रेणी में कतिपय सर्वनाम शब्दों को भी समाविष्ट किया है। उनकी निष्पत्ति सांयोगिक है, पर, उन अर्थों के लिए वे गृहीत हो गये । फलतः उनका एक निश्चित अर्थ के साथ ज्ञाप्य सम्बन्ध स्थापित हो गया । उदाहरण के लिए संस्कृत के त्वम् (तुम) सर्वनाम को लिया जा सकता है। ग्रीक में यह To, लैटिन में Tu, हिन्दों में तू, अंग्रेजी में Thow होता है । इसी प्रकार संस्कृत में यह और वह वाचक सर्वनाम 'इदम्' और 'अदस् हैं । अंग्रेजी में इसके स्थान पर This और That हैं तथा जर्मन में Dies और Das | स्वीट ने बहुत-सी क्रियाओं की निष्पति के सम्बन्ध में भी प्रतीकात्मकता के आधार पर विचार किया है। free :- भाषा के सन्दर्भ में यह मानव की आदिम अवस्था का प्रयास था । इसके अनुसार सम्भव है, आरम्भ में 'प्रतीक' कोटि के अनेक शब्द निष्पन्न हुए होंगे। उनका प्रयोग भी चलता रहा होगा। उनमें से जो शब्द अभीप्सित अर्थ की अभिव्यंजना में सर्वाधिक सक्षम, उच्चारण और श्रवण में समीचीन नहीं रहे होंगे, धीरे-धीरे वे मिटते गये होंगे और जो (शब्द) उक्त अर्थ में अधिक सक्षम एवं संगत प्रतीत हुए होंगे, उन्होंने भाषा में अपना अमिट स्थान बना लिया होगा । जैसे, प्रकृति-जगत् और जीव-जगत् में सर्वत्र Survival of the fittest===योग्यतमावशेष का सिद्धान्त लागू है, उसी प्रकार शब्दों के जगत् में भी वह व्याप्त है। वहां भी योग्यतम या उपयुक्त का ही अस्तित्व रहता है, अन्य सब धीरे-धीरे अस्तित्वहीन होते जाते हैं । प्रतीकात्मक शब्द जो भाषा में सुरक्षित रह पाये हैं, वे आदि सृष्ट शब्दों में से थोड़े से हैं । स्वीट ने जिन तीन सोपानों का प्रतिपादन किया है, एक सीमा विशेष तक भाषा की संरचना में उनकी उपयोगिता है । इस प्रसंग में इतना आवश्यक है कि स्वीट ने विभिन्न धातुओं तथा सर्वनामों के रूपों की प्रतीकात्मकता से जो संगति बिठाने का प्रयत्न किया है, वह यथार्थं का स्पर्श करता नहीं लगता । इसके अतिरिक्त एक बात और है, स्वीट द्वारा उक्त तीनों सोपानों के अन्तर्गत जिन शब्दों का उद्भव व्याख्यात हुआ है, उसके बाद भी उन (तीनों) से कई गुने शब्द और हैं, जिनके अस्तित्व में आने की कारण-परम्परा अज्ञात रह जाती है । अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन तथा प्रतीक; इन तीनों कोटियों में वे नहीं आते। पूर्व चर्चित अनुकरण और आकस्मिक भाव न तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ १४९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसूत शब्द संख्या में थोड़े से हैं । उसी प्रकार प्रतीकात्मक शब्द भी प्रायः पारिवारिक सम्बन्धों की ज्ञापकता से बहुत दूर नहीं जाते वे भी संख्या में सीमित ही हैं । प्रतीकात्मक आदि प्रारम्भ में प्रयुज्यमान शब्दों के सादृश्य के आधार पर अन्यान्य शब्द अस्तित्व में आते गये, भाषा विकास की ओर गतिशील रही, ऐसी कल्पना भी सार्थक नहीं लगती। जैसे, प्रतीकात्मक शब्दों के विषय को ही लें। बच्चों का एक ससीम जगत् है। उनके सम्बन्ध और आवश्यकताएं सीमित हैं। उनकी आकांक्षाओं के जगत् का सम्बन्ध मात्र खाना पीना पहनना, ओढ़ना, सोना आदि निसर्गज मूल लिप्साओं से दूर नहीं है । इस स्थिति के परिप्रेक्ष्य में जो सांयोगिक ध्वनियां या शब्द प्रादुर्भूत होते हैं, उनके द्वारा ज्ञाप्यमान अर्थ बहुत सीमित होता है । उनसे केवल अत्यन्त स्थूल पदार्थों और भावों का सूचन सम्भव है। सूक्ष्म भावों की परिधि में वे नहीं पहुंच पाते । भाषा की उत्पत्ति अवलम्बन निराशा भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस प्रकार अनेक मत आविर्भूत हुए, चर्चित हुए, परिवर्तित हुए, पर, अब तक किसी सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंचा नहीं जा सका। इसकी प्रतिक्रिया कुछ मूर्धन्य विद्वानों के मन पर बड़ी प्रतिकूल हुई। उन्हें लगा कि भाषा के उद्गम या मूल जैसे विषय की खोज करना व्यर्थ है; क्योंकि अब तक की गवेषणा और अनुशीलन के उपरान्त भी किसी वास्तविक तथ्य का उद्घाटन नहीं हो सका । कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एडगर स्टूविण्ट ने लिखा है: "अत्यधिक निरर्थक तर्क-वितर्क के उपरान्त भाषा विज्ञान-वेत्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मानवीय भाषा के उद्गम के सम्बन्ध में प्राप्त सामग्री कोई साक्ष्य उपस्थित नहीं करती । "" इटली के सुप्रसिद्ध विद्वान् मोरियो पाई का भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार है। उन्होंने लिखा है "वह एक तथ्य, जिस पर सभी भाषा वैज्ञानिक पूर्णतया सहमत हैं, यह है कि मानवीय भाषा के उद्गम की समस्या का अभी तक समाधान हो नहीं पाया है।"२ : बमेरिकन भाषा शास्त्री जे० कैण्ड्रिएस ने इसी बात को इन शब्दों में प्रकट किया है : "भाषा के उद्गम की समस्या का कोई भी सन्तोषजनक समाधान नहीं हो पाया है।" विद्वानों के उपर्युक्त विचार निराशाजनक हैं। किसी विषय पर एक दीर्घ अवधि तक अनवरत कार्य करते रहने पर भी जब अभीप्सित परिणाम नहीं आता, तब कुछ थकान का अनुभव होने लगता है। थकान के दो फलित होते हैं— एक वह है, जहां आशा मुरझा जाती है। उसके पश्चात् आगे उसी जोश के साथ प्रत्यन चले, यह कम सम्भव होता है । दूसरा वह है, जहां थकान तो आती है, पर जो अदम्य उत्साह के धनी होते हैं, वे थकान को विश्राम बना लेते हैं तथा भविष्य में अधिक तन्मयता एवं लगन से कार्य करते जाते हैं। खोज पर प्रतिबन्ध: विचित्र निर्णय लगभग एक शताब्दी पूर्व को एक घटना से ज्ञात होगा कि संसार के भाषा वैज्ञानिक भाषा की उत्पत्ति का आधार खोजतेखोजते कितने ऊब गये थे। बहुत प्रयत्न करते रहने पर भी जब भाषा की उत्पत्ति का सम्यक्तया पता नहीं चल सका, तो विद्वानों में उस ओर से पराङ्‌मुखता होने लगी। कुछ का कथन था कि भाषा की उत्पत्ति सम्बन्धी यह विषय भाषा विज्ञान के क्षेत्र का नहीं है । यह नृवंश - विज्ञान या मानव-विज्ञान का विषय है। मानवजाति का विविध सन्दर्भों में किस प्रकार विकास हुआ, उसका एक यह भी पक्ष है। कुछ का विचार दूसरी दिशा की ओर रहा। उनके अनुसार यह विषय प्राचीन इतिहास से सम्बद्ध है । कुछ विद्वानों का अभिमत था कि भाषा - विज्ञान एक विज्ञान है । भाषा की उत्पत्ति का विषय इससे सम्बद्ध है । इस पर विचार करने के लिए वह ठोस सामग्री और आधार चाहिए जिनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सके कल्पनाओं पर विज्ञान नहीं टिकता। इसके वैज्ञानिक परीक्षण और अनुसन्धान के लिए आज प्रत्यक्षतः कोई सामग्री प्राप्त नहीं है । भाषा कब उत्पन्न हुई, कोई भी समय की इयत्ता नहीं बांध सकता। हो सकता है, यह लाखों वर्ष पूर्व की बात रही हो, जिसका लेखा-जोखा केवल अनुमानों के आधार पर कल्पित किया जा सकता है। वैज्ञानिक कसौटी पर 1. After much futile discussion linguists have reached the conclusion that the data with which they are concerned yield little or no evidence about the origin of human speech-An Introduction to Linguistic Science, p. 40, New Haven, 1948. 2. If there is one thing on which all linguistics are fully agreed, it is that the problem of the origin of human speech is still unsolved. 3. ............The problem of the origin of language does not admit of only satisfactory solution. १५० - The Story of Language, p. 18, London, 1952, -J. Kendr yes, Language, p. 315, London, 1952 आचार भी देशभूषणजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कसे जा सकने योग्य आधार न होने के कारण भाषा की उत्पत्ति का विषय भाषा-विज्ञान का अंग नहीं माना जाना चाहिए। इस पर सोचने में और उपक्रम चलते जाने में कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। भाषा-विज्ञान के क्षेत्र में उपर्युक्त विचारों ने एक सनसनो पैदा कर दो। पेरिस में ई० सन् १८६६ में भाषा-विज्ञान परिषद की प्रतिष्ठापना हुई। उसके नियमोपनियम बनाये गये । आश्चर्य होगा, उसके अन्तर्गत यह भी था कि अब से भाषा की उत्पत्ति के प्रश्न पर कोई विचार नहीं करना होगा। अर्थात् भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में सोचने पर परिषद् के संस्थापकों ने प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रकार एक तरह से इस प्रश्न को सदा के लिए समाप्त कर दिया गया। प्रतिबन्ध लगाने वाले साधारण व्यक्ति नहीं थे, संसार के दिग्गज भाषा-शास्त्री थे। सम्भव है, उन्हें लगा हो, जिसका कोई परिणाम नहीं आने वाला है, उस प्रकार के विषय पर विद्वान वृथा श्रम क्यों करें ? . गवेषणा नहीं रुकी यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं है, प्रतिबन्ध लग गया, पर प्रस्तुत विषय पर अनवरत कार्य चाल रहा। इतना ही नहीं, प्रायः हर दस वर्ष के बाद भाषा की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कोई नया वाद या सिद्धान्त प्रस्फुटित होता गया। यह ठीक ही है। मानव स्वभावत: जिज्ञासा-प्रधान और मननशील प्राणी है। जिज्ञासा-प्रतिबन्ध से अवरुद्ध नहीं होती। वह प्रतिभा सम्पन्न, उदबद्धता व्यक्ति को अभीष्ट की गवेषणा में सदा उन्मुख बनाये रखती है। विज्ञान शब्द भौतिक विज्ञान के रूप में एक पारिभाषिक अर्थ लिए हुए है । भौतिक विज्ञान कार्य-कारण-परम्परा पर आधत है। कारण की परिणति कार्य में होती है। कारण-सामग्री के बिना कार्य नहीं होता । कारण-सामग्री है, तो कार्य का होना रुकता नहीं। यह निर्बाध नियम है । विज्ञान के इस पारिभाषिक अर्थ में भाषा-विज्ञान एक विज्ञान (Science) नहीं है। पर, वह कल्पना-जनित नहीं है, इसलिए उसे कला (Art) भी नहीं कहा जा सकता । बड़ी उलझन है, कला भी नहीं, विज्ञान भी नहीं, तो फिर वह क्या है ? भाषा वैज्ञानिकों ने इस पहलू पर भी विचार किया है। मन भाव-संकुल हुआ। अन्तःस्फुरणा जगी। कल्पना का सहारा मिला। शब्द-समवाय निकल पड़ा। यह कविता है भावप्रस्त है, भाव-संस्पर्शी है; अत: मनोज्ञ है, सरस है, पर, इसका यथार्थ वस्तु-जगत् का यथार्थ नहीं है, कल्पना का यथार्थ है। अतएव यह कला है। इसमें सौन्दर्य पहले है, सत्य तदनन्तर । भाषा-विज्ञान इससे पृथक् कोटि का है। विज्ञान की तरह उसका टिकाव भौतिक कारण-सामग्री पर नहीं है, पर, वह कारण-शून्य एवं काल्पनिक भी नहीं है। शब्द भाषा का दैहिक कलेवर है। वे मुख से निःसत होते हैं। पर. कल्पना की तरह जैसे-तैसे ही नहीं निकल पड़ते । शब्द अक्षरों का समवाय है । गलस्थित ध्वनि-यन्त्र, स्वर-तन्त्रियां, मुख-विवर-गत उच्चारण-अवयव आदि के साथ श्वास या मूलाधार से उत्थित वायु के संस्पर्श या संघर्ष से अक्षरों का उद्भव बहुत सुक्ष्म व नियमित कारण-परम्परा तथा एक सुनिश्चित वैज्ञानिक क्रम पर आधृत है। यह सरणि इतनी यांत्रिक व व्यवस्थित है कि इसमें तिल मात्र भी इधरसे-उधर नहीं होता । इसे एक निरपवाद वैज्ञानिक विधि-क्रम कहा जा सकता है । भाषा का विकास यद्यपि शब्दोत्पत्ति की तरह सर्वथा निरपवाद वैज्ञानिक कारण-शृखला पर तो नहीं टिका है, पर, फिर भी वहां एक क्रम-बद्धता, हेतुमत्ता तथा व्यवस्था है। वह सापवाद तो है, पर, साधारण नहीं है। ऐसे ही कुछ कारण हैं, जिनसे यह भाषाओं के विश्लेषण का शास्त्र भाषा-विज्ञान कहा जाता है, जो भौतिक-विज्ञान से पृथक् होता हुआ भी उसकी तरह कार्य-कारण-परम्परापूर्वक युक्ति और तर्क द्वारा विश्लेष्य और अनुसंधय है । निराशा क्यों ? भाषा-विज्ञान को जब विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) मानते हैं, तो भाषा, जिसका यह विज्ञान है, उसके अन्तर्गत उससे सम्बद्ध सभी पक्षों का अध्ययन एवं अनुसन्धान होना चाहिए। उसके अब तक के इतिहास, विस्तार, विकास आदि के साथ-साथ उसके उद्भव पर भी विचार करना आवश्यक है। गवेषणा के हेतु अपेक्षित सामग्री व आधार नहीं प्राप्त हो सके, इसलिए उस विषय को ही भाषा-विज्ञान से निकाल कर सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये, यह उचित नहीं लगता। वैज्ञानिक और अन्वेष्टा कभी किसी विषय को इसलिए नहीं छोड़ देते कि उसके अन्वेषण के लिए उन्हें उपकरण व साधन नहीं मिल रहे हैं। अनुशीलन और अन्वेषण कार्य गतिशील रहेगा, तो किसी समय आवश्यक सामग्री उपलब्ध होगी ही। सामग्री अभी नहीं मिल रही है, तो आगे भी नहीं मिलेगी, ऐसा क्यों सोचें ? इस प्रसंग में संस्कृत के महान् नाटककार भवभूति की यह उक्ति निःसन्देह बड़ी प्रेरणास्पद है : "कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी:" अर्थात् यह काल निःसीम है और पृथ्वी बहुत विशाल है। इसमें न जाने कब, कौन उत्पन्न हो जाये, जो दुष्कर और दुःसाध्य कार्य साध लेने की क्षमता से सम्पन्न हो। भविष्य की लम्बी आशाओं के सहारे जो मनस्वी कार्यरत रहते हैं, वे किसी दिन सफल होते ही हैं। कार्य को रोक देना जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १५१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या छोड़ देना तो भविष्य की सब सम्भावनाओं को मिटा देता है। उपयुक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में साररूप में भाषा के उद्भव पर कुछ और चिन्तन अपेक्षित होगा । वाक् प्रस्फुटन मानव जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास की मंजिलों को पार करता हुआ आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे भाषा का भी विकास होता गया । वह ज्यों-ज्यों सघन भाव-संकुलता की स्थिति में आता गया, त्यों-त्यों अपने अन्तरतम की अभिव्यक्ति के लिए आकुलता या उतावलापन भी उसमें व्याप्त होता गया । " आवश्यकता आविष्कार की जननी है" के अनुसार अभिव्यक्ति का माध्यम भी जैसा बन पड़ा, आकलित होता गया। यह अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन तथा इंगित आदि के आधार पर ध्वनि उद्भावना और ( अंशत: ) भाषा संरचना को आदिम दशा का परिचय है । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वागिन्द्रिय से वाक्- निःसृति के क्रम पर कुछ संकेत पूर्व पृष्ठों में किया गया था। यहां उसका कुछ विस्तार से विश्लेषण किया जा रहा है। वैदिक वाङमय में परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी; इन नामों से चार प्रकार की वाणी वर्णित हुई है। महाभाष्यकार पतंजली ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ऋग्वेद की एक पंक्ति उद्धृत करते हुए इस ओर इंगित किया है। -- साहित्य-दर्पण के टीकाकार प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी ने वर्ण की व्याख्या के प्रसंग में परा, पश्यन्ती आदि वाक् रूपों का संक्षेप में सुन्दर विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है: "ज्ञान में आये हुए अर्थ की विवक्षा से आत्मा तद्बोधक शब्द के निष्पादन के लिए अन्तःकरण को प्रेरित करता है । अन्तःकरण मूलाधार स्थित अग्नि - ऊष्मा - तेज को संचालित करता है । अग्नि के द्वारा तस्स्थलवर्ती वायु स्पन्दित होता है। इस प्रकार स्पन्दित वायु द्वारा वहां सूक्ष्म रूप में जो शब्द उद्भूत होता है, वह 'परा' वाक् कहा जाता है। तदनन्तर नाभि प्रवेश तक संचालित वायु के द्वारा उस देश के संयोग से जो शब्द उत्पन्न होता है, उसे 'पश्यन्ती' वाक् कहा जाता है। ये दोनों (वाक् ) सूक्ष्म होती हैं; अतः ये परमात्मा या योगी द्वारा ज्ञेय हैं। साधारणजन उन्हें कर्णगोचर नहीं कर सकते । वह वायु हृदय देश तक परिसृत होती है और हृदय के संयोग से जो शब्द निष्पन्न होता है, वह 'मध्यमा' वाक् कहलाता है। कभी-कभी कान बन्द कर सूक्ष्मतया ध्वनि के रूप में जनसाधारण भी उसे अधिगत कर सकते हैं । उसके पश्चात् वह वायु मुख तक पहुंचती है, कण्ठासन्न होती है, मूर्द्धा को आहत करती है, उसके प्रतिघात से वापिस लौटती है तथा मुख-विवर में होती हुई कण्ठ आदि आठ उच्चारण स्थानों में किसी एक का अभिघात करती है, किसी एक से टकराती है। तब जो शब्द उत्पन्न होता है, वह 'वैखरी' वाक् कहा जाता है।"" पाणिनीय शिक्षा में भी शब्द-स्फुटन का मूल इसी तरह व्याख्यात किया गया है। शब्द - निष्पत्ति का यह एक शास्त्रीय क्रम है। भौतिक विज्ञान के साधनों द्वारा इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वैखरी वाक् से पूर्व तक का क्रम सर्वथा सूक्ष्म या अभौतिक है। फिर भी यह एक ऐसी कार्य-कारण परम्परा को किए हुए है, जो अपने आप में कम वैज्ञानिक नहीं है। भाषा विज्ञान में यद्यपि अद्यावधि यह क्रम सम्पूर्णतः स्वीकृत नहीं है, तथापि यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है, जो दार्शनिक दृष्टि से शब्द नियति का मार्ग प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह है कि जब मानव (आत्मा) अन्तःस्थित विचार या भाव, जिसे उक्त उद्धरण में ज्ञात अर्थ कहा गया है, की विवक्षा करता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करना चाहता है, तो वह अपने अन्तःकरण (विचार और भावना के स्थान ) को प्रेरित करता है और यह चिकीर्षा तत्क्षण उससे जुड़ जाती है। उसके बाद अल और अनिल के प्रेरित एवं चलित होने की बात आती है। यह एक सूक्ष्म आवयविक प्रक्रिया है । यह सर्व विदित है और सर्वस्वीकृत भी कि निष्पादन में वाद का महत्वपूर्ण स्थान है। पर वायु को अगामी करने के लिए जोर लगाने की या धकेलने की आवश्यकता होती है। मूलाधार स्थित अग्नि (तेज, ओज ) द्वारा वायु के नाभि देश की ओर चालन का यही अभिप्राय है । नाभि-देश १. गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति । ऋग्वेद १ । १६४।४५ २. चेतनेन ज्ञातार्थविवक्षया सद्बोधकशब्दनिष्पादनाय प्रेरितमन्तःकरणं मूलाधारस्थितमनलं चालयति, तच्चालितोऽनलस्तस्स्थलवति वायुचालनाय प्रभवति, तच्चालितेन वायुना तव सूक्ष्मरूपेणोत्पादितः शब्दः परा वागित्यभिधीयते । ततो नाभिदेशपर्यंन्त चलितेन तेन तद्देशसंयोगादुत्पादितः शब्द पच्यन्तीति व्यवह्निते । एतद्द्वयस्य सूक्ष्म सूक्ष्मतरतयेश्वरयोगिमात्रगम्यता, नास्मदीयश्रुतिगोचरता । तततेनेश्व हृदयदेशं परिसरिता हृदयसंयोगेन निष्पादितः शब्दो मध्यमेत्युच्यते । सा च स्वकर्णपिधानेन ध्यान्यात्मकतया सूक्ष्मरूपेण कदाचिदस्माकमपि समधिगम्या । ततो मुखपर्यन्तमाक्रामता तेन कण्ठदेशमासाद्यमूर्धानमाहृत्य तत्प्रतिघातेन परावृत्य च मुख-विवरे कण्ठादिकेष्यष्टसु स्थानेषु स्वाभिघातेनोत्पादितः शब्द वैखरीति कथ्यते - साहित्य दर्पण, पृ० २६ 1 ३. १५२ प्रात्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयनि मारुतम् ।। आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पवन या श्वास फिर ऊर्ध्वगामी होता है। वस्तुतः श्रवण-गम्य वाक् का मूल श्वास के उत्थान में है। वह (श्वास) ऊर्ध्वगमन करता हुआ ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र (Vocal Chord) से टकराता है । स्वर-यन्त्र का प्रावयविक स्वरूप और प्रक्रिया ___ गले के भीतर भोजन और जल की नली के समकक्ष श्वास की नली का वह भाग, जो अभिकाकल-स्वरयन्त्रावरण (Epiglotis) से कुछ नीचे है, ध्वनि-यन्त्र या स्वर-यन्त्र कहा जाता है। गले के बाहर की ओर कण्ठमणि या घांटी के रूप में जो उभरा हुआ, दुबले-पतले मनुष्यों के कुछ बाहर निकला हुआ कठोर भाग है, वही भीतर स्वर-यन्त्र का स्थान है । श्वास-नलिका का यह (स्वरयन्त्र-गत) भाग कुछ मोटा होता है। प्रकृति का कुछ ऐसा ही प्रभाव है, जहां जो चाहिए, उसे वह सम्पादित कर देती है । स्वर-यन्त्र या ध्वनि-यन्त्र में सूक्ष्म झिल्ली के बने दो लचकदार पर्दे होते हैं। उन्हें स्वर-तन्त्री या स्वर-रज्जु कहा जाता है । स्वर-तन्त्रियों के मध्यवर्ती खुले भाग को स्वर-यन्त्र-मुख या काकल (Glottis) कहते है। जब हम सांस लेते हैं या बोलते हैं, तब वायु इसी से भीतर-बाहर आतीजाती है। मानव इन स्वर-तन्त्रियों के सहारे अनेक प्रकार की ध्वनि उत्पन्न करता है। तात्पर्य यह है, श्वास या पवन के संस्पर्श, या या संघर्ष से स्वर-तन्त्रियों या स्वर-यन्त्र के इन लचीले दोनों पर्दो में कई प्रकार की स्थितियां बनती हैं । कभी ये पर्दे एक-दूसरे के समीप आते हैं, कभी दूर होते हैं । सामीप्य और दूरी में भी तरतमता रहती है-कब एक पर्दा कितना तना, कितना सिकुड़ा, दूसरा कितना फैला, किता सटा इत्यादि । इस प्रकार फैलाव, तनाव, कम्पन आदि की विविधता ध्वनियों के अनेक रूपों में प्रस्फुटित होती है। जैसे, वीणा के भिन्न-भिन्न तार ज्यों ज्यों अंगुली द्वारा संस्पृष्ट और आहत होते जाते हैं, भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वर उत्पन्न करते जाते हैं । वही बात स्वर यन्त्र के साथ है, जो एक व्यवस्थित और नियमित क्रम लिए हुए है। स्वर-यन्त्र से निःसृत ध्वनियां मुख-विवर में आकर अपने-अपने स्वरूप के अनुकूल मुखगत उच्चारण अवयव -कण्ठ, तालु, मूर्द्धा, दन्त, औष्ठ, नासिका आदि को संस्पृष्ट करती हुई मुख से बाहर निःसत होती हैं, वायु से टकराती हैं। जैसा-जैसा उनका सूक्ष्म स्वरूप होता है, वे वायु में वैसे प्रकम्पन या तरंगें पैदा करती हैं। वे तरंगे ध्वनि का संवहन करती हुई उन्हें कर्णगोचर बनाती हैं। शब्द के सूक्ष्मतम प्रभौतिक कलेवर की सष्टि ध्वनि की अभिव्यक्ति का व्यापार मूलाधार से प्रारम्भ होकर मुख-विवर से नि:सृत होने तक किन-किन परिणतियों में से गुजरता है, यह बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी के विवेचन के अन्तर्गत जो बतलाया गया है, उसका निष्कर्ष यह है कि जब अर्थ-विशेष का संस्फुरण या भावोद्वेलन व्यक्त होने के लिए शब्द की मांग करता है, अर्थ की बोधकता के अनुरूप उस शब्द का सूक्ष्मतम अभौतिक कलेवर तभी बन जाता है, जिसकी पारिभाषिक संज्ञा 'परा' वाक् अर्थात् वह बहुत दूरवर्ती वाणी या शब्द, जो हमारी पकड़ के बाहर है - तदनन्तर नाभि-देश के संयोग या संस्पर्श द्वारा जो शब्द उत्पन्न होता है, वह भी पहले से कुछ कम सही, सूक्ष्मावस्था में ही रहता है । इस पवन-संश्लिष्ट सूक्ष्म वाक् का और विकास होता है। सूक्ष्म-अमूर्त शब्द मूर्तत्व अधिगत करने को ओर बढ़ता है। सूक्ष्म शब्द का थोड़ा-सा स्थान स्थूल शब्द ले लेता है। पर, जैसा कि कहा गया है वह व्यक्त, स्फुट या इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं होता। यह सूक्ष्म और स्थूल वाणी का मध्यवर्ती रूप है, जहां से सूक्ष्मता के घटने और स्थूलता के बढ़ने का अभियान आरम्भ होता है। इसीलिए सम्भवतः इसे 'मध्यमा' कहा गया हो। 'मध्यमा' का उत्तरवर्ती रूप 'वैखरी" है, जो मानव के व्यवहार-जगत् का अंग है। 'वैखरी' के प्रस्फुटित होने का अर्थ है-शब्द द्वारा एक आकार की प्राप्ति । बहुत जटिल से प्रतीत होने वाले उपयुक्त विवेचन का संक्षेप में सारांश यह है कि शब्दमात्र के प्रस्फुटित या प्रकट होने में मुख्य क्रियाशील तत्त्व पवन या श्वास है। मूलाधार में उत्पन्न सूक्ष्मतम से प्रारम्भ होकर नाभिवेश में उद्भूत सूक्ष्मतर में से गुजरते हुए हृदय-देश में प्रकटित-व्यक्त-अव्यक्त सूक्ष्म स्वरूप को प्राप्त शब्द के श्वास-संश्लिष्ट होने का ही सम्भवतः यह प्रभाव होना चाहिए कि श्वास विभिन्न स्थिति, रूप, क्रम एवं परिमाण में स्वर-यन्त्र के पर्दो का संस्पर्श करता हुआ उनके विविधतया तनने, फैलने, सिकुड़ने, मिलने, अर्द्धमिलित, अल्पमिलित, ईषन्मिलित आदि अवस्थाएं प्राप्त करने, फलत: तदनुरूप स्वर, व्यंजन शब्द-गठन अक्षर परिस्फुट करने का हेतु बनता है। वाणी के प्रादुर्भाव का जो क्रम प्रतिपादित हुआ है, वास्तव में बड़ा महत्त्वपूर्ण है और वैज्ञानिक सरणि लिये हुए है। वागत्पत्ति जैसे विषय पर भी भारतीय विद्वानों ने कितनी गहरी डुबकियां लीं, इसका यह परिचायक है। १. विशेषेण रवं राति =रा+कपण + ङोप अर्थात् जो विशेष रूप से प्राकाश को रव-युक्त करे-निनादित करे। जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १५३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन की दृष्टि से । जैन दर्शन तीन प्रकार की प्रवृत्तियां - योग स्वीकार करता है-मानसिक, वाचिक तथा कायिक । जब मनुष्य मनोयोग या या प्रवृत्ति में संलग्न होता है, तो उस (मनोयोग) के द्वारा सूक्ष्म कर्म-पुद्गल (कर्म-परमाणु आकृष्ट होते हैं ये धर्म-परमाणु मूर्त होते हैं, पर उनका अत्यन्त सूक्ष्म आकर होता है। मन की प्रवृत्ति या चिन्तन जिस प्रकार का होगा, उसी के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्माणु आकृष्ट होंगे । मनोयोग या मानसिक चिन्तन किसी भी उद्भूयमान कर्म की प्रथम व सूक्ष्म संरचना है। चिन्तन के अनन्तर वाचिक अभिव्यक्ति का क्रम आता है, जिसके लिए शब्दात्मक भाषा की आवश्यकता होती है। मनोयोग जब वाक्-योग में परिणत होना चाहता है, तो तो वे मनः प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट कर्म-परमाणु ध्वनि- निष्पत्ति क्रम पर विशेष प्रभाव डालते हैं । दह प्रभाव आकृष्ट या संचित कर्मपरमाणुओं की भिन्न-भिन्न दशाओं के अनुसार विविध प्रकार का होता है, जैसा होना स्वाभाविक है । फलतः विभिन्न मनोभावों के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनियां या शब्द वाक्-योग के रूप में निकल पड़ते हैं । स्थूल और सूक्ष्म की भेद-रेखा अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन इंगित मा प्रतीक आदि सिद्धान्त जिनका पहले विवेचन किया गया है, स्थूल भाव-बोधक शब्दों की उत्पत्ति में किसी-न-किसी रूप में सहायक बनें, यह सर्वथा सम्भव प्रतीत होता है। सूक्ष्म भावों के परिस्फुरण का समय सम्भवतः मानव के जीवन में तब आया होगा, जब वह मानसिक दृष्टि से विशेष विकसित हो गया होगा। वैसी दशा में परा, पश्यन्ती आदि के रूप में वाक्- निष्पत्ति के क्रम तथा जैन दर्शन सम्मत वाक्-योग के क्रियान्वयन की सरणि से सूक्ष्म-भाव-बोधक शब्दों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में कुछ प्रकाश प्राप्त किया जा सकता है। एक प्रश्न का उभरना स्वाभाविक है कि परा, पश्यन्ती आदि के उद्भव क्रम के अन्तर्गत सृष्ट सूक्ष्म शब्दाकारों या मनः प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट विभिन्न पुद्गल परमाणुओं से निःसार्यमाण ध्वनि या शब्द प्रभावित होते हैं, तो फिर समस्त जगत् के लोगों द्वारा प्रयुज्यमान शब्दों में, भाषाओं में परस्पर अन्तर क्यों है ? तथ्य यह है कि संसार भर के मानव एक ही स्थिति, प्रकृति, जल-वायु, उपकरण, सामाजिकता आदि के परिवेश में नहीं रहते। उनमें अत्यधिक भिन्नता है। उच्चारण-अवयव तथा उच्चार्यमाण ध्वनि समवाय उसमें अप्रभावित कैसे रह सकता है ? दूसरा विशेष तथ्य यह है कि उपर्युक्त वाक्-निष्पत्ति क्रम का सम्बन्ध विशेषतः सूक्ष्मार्थ-बोधक शब्दों की उत्पत्ति के साथ सम्भाव्य है, जबकि स्थूल भाव ज्ञापक शब्द संसार की भिन्न-भिन्न भाषाओं में बन चुके थे । जो-जो भाषाएं अपना जिस प्रकार का स्थूल रूप लिए हुए थी, सूक्ष्म भाव-बोधक शब्दों की संरचना का ढलाव भी उसी ओर हो, ऐसा सहज प्रतीत होता है । इस प्रकार के अनेक कारण रहे होंगे, जिनसे भिन्न-भिन्न भू-भागों की भाषाओं के स्वरूप भिन्न-भिन्न सांचों में ढलते गये । उपसंहृति दार्शनिक पृष्ठभूमि पर वैज्ञानिक शैली से किया गया उपयुक्त विवेचन एक ऊहापोह है । वास्तव में भाषा के उद्भव और विस्तार की कहानी बहुत लम्बी एवं उलझन भरी है। भाषा को वर्तमान रूप तक पहुंचाने में विकासशील मानव को न जाने कितनी मंजिलें पार करनी पड़ी हैं। मानव-मानव का पारस्परिक सम्पर्क, जन्तु जगत् का साहचर्य, प्रकृति में विहरण तथा अपने कृतित्व से उद्भावित उपकरणों का साहाय्य प्रभृति अनेक उपादान मानव के साथ थे, जिन्होंने उसे प्रगति और विकास के पथ पर सतत गतिशील रहने में स्फूर्ति प्रदान की । उदोयमान एवं विकासमान भाषा भी उस प्रगति का एक अंग रही। उसी का परिणाम है कि विश्व में आज अनेक समद्ध भाषाएं विद्यमान हैं, जो शताब्दियों और सहस्राब्दियों के ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य धारा को अपने में संजोये हुए हैं । भाषा वैज्ञानिक साधारणतया ऐसा मानते आ रहे हैं कि आर्य भाषाओं के विकास क्रम के अन्तर्गत वैदिक भाषा से संस्कृत का विकास हुआ और संस्कृत से प्राकृत का उद्भव हुआ । इसलिए भाषा वैज्ञानिक इसका अस्तित्व संस्कृत काल के पश्चात् स्वीकार करते हैं । इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन अपेक्षित है : प्राकृत का भाषा वैज्ञानिक विकास एक ऐतिहासिक पर्यवेक्षण भाषा-वैज्ञानिकों ने भारतीय आर्यभाषाओं के विकास का जो काल क्रम निर्धारित किया है, उसके अनुसार प्राकृत का काल ई० पू० ५०० से प्रारम्भ होता है। पर, वस्तुतः यह निर्धारण भाषा के साहित्यिक रूप की अपेक्षा से है । यद्यपि वैदिक भाषा की प्राचीनता में किसी को सन्देह नहीं है, पर, वह अपने समय में जन साधारण की बोलचाल की भाषा रही हो, ऐसा सम्भव नहीं लगता । वह ऋषियों, विद्वानों तथा पुरोहितों की साहित्य-भाषा थी । यह असम्भव नहीं है कि उस समय वैदिक भाषा से सामंजस्य रखने वाली अनेक बोलियां प्रचलित रही हों । महाभाष्यकार पतंजलि ने प्रादेशिक दृष्टि से एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूपों के प्रयोग के सम्बन्ध में १५४ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभाष्य में जो उल्लेख किया है, सम्भवतः बह इसी तथ्य को पुष्ट करता है कि कुछ प्रदेशो में वैदिक भाषा के कतिपय शब्द उन-उन प्रदेशों की बोलियों के संसर्ग से कुछ भिन्न रूप में अथवा किन्हीं शब्दों के कोई विशेष रूप प्रयोग में आने लगे थे। यह भी अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता कि इन्हीं बोलियों में से कोई एक बोली रही हो, जिसके पुरावर्ती रूप ने परिमाजित होकर छन्दस या वैदिक संस्कत का साहित्यक स्वरूप प्राप्त कर लिया हो। कतिपय विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि वेदों का रचना-काल आर्यों के दूसरे दल के भारत में प्रविष्ट होने के बाद आता है। दूसरे दल के आर्य पंचनद तथा सरस्वती व दृषद्वती के तटवर्ती प्रदेश में होते हुए मध्यदेश में आये । इस क्रम के बीच वेद का कह भाग पंचनद में तथा सरस्वती व दृषद्वती की घाटी में बना और बहुत सा भाग मध्यदेश में प्रतीत हुआ। अथर्ववेद का काफी भाग, जिसके विषय में पूर्व इंगित किया गया है, जो परवर्ती माना जाता है, सम्भवतः पूर्व में बना हो । पहले दल के आर्यों द्वारा, जिन्हें दूसरे दल के आर्यों ने मध्यदेश से खदेड़ दिया था, वेद की तरह किसी भी साहित्य के रचे जाने का उल्लेख नहीं मिलता। यही कारण है कि मध्यदेश के चारों ओर लोग जिन भाषाओं का बोलचाल में प्रयोग करते थे, उनका कोई भी साहित्य आज उपलब्ध नहीं है। इसलिए उनके प्राचीन रूप की विशेषताओं को नहीं जाना जा सकता, न अनुमान का ही कोई आधार है। वैदिक युग में पश्चिम, उत्सर, मध्यदेश और पूर्व में जन-साधारण के उपयोग में आने वाली इन बोलियों के वैदिक यग से पूर्ववर्ती भी कोई रूप रहें होंगे, जिनके विकास के रूप में इनका उद्भव हुआ। वैदिक काल के पूर्व की ओर समवर्ती जन-भाषाओं को सर जार्ज ग्रियर्सन ने प्राथमिक प्राकृतों (Primary Prakrits) के नाम से उल्लिखित किया है । इनका समय ई० पू० २००० से ई०पू० ६०० तक माना जाता है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये प्राथमिक प्राकृतें स्वरों एवं व्यंजनों के उच्चारण, विभक्तियों से प्रयोग आदि में वैदिक भाषा से बहुत समानताए रखती थीं। इन भाषाओं से विकास पाकर उत्तरवर्ती प्राकृतों का जो साहित्यिक रूप अस्तित्व में आया, उससे यह प्रमाणित होता है । महाभाष्यकार पतंजलि ने महाभाष्य के प्रारम्भ में व्याकरण या शब्दानुशासन के प्रयोजनों की चर्चा की है। दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने और शुद्ध शब्दों का प्रयोग करने पर बल देते हुए उन्होंने श्लोक उपस्थित किया है : यस्तु प्रयुक्ते कुशलो विशेषे, शब्दान् यथावद व्यवहारकाले । सोऽनन्तमाप्नोति जयं परत्र वाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः ।' अर्थात् जो शब्दों के प्रयोग को जानता है, वैसा करने में कुशल है, वह व्यवहार के समय उनका यथोचित प्रयोग करता है, वह परलोक में अनन्त जय-उत्कर्ष-अभ्युदय प्राप्त करता है । जो अपशब्दों का प्रयोग करता है, वह दूषित-दोष-भागी होता है। दुष्ट शब्दों या अपशब्दों की ओर संकेत करते हुए आगे वे कहते हैं : एक-एक शब्द के अपभ्रंश हैं। जैसे, गौ शब्द के गावो. गौणी, गोपोतलिका इत्यादि हैं। अपभ्रंश शब्द का यहां प्रयोग उन भाषाओं के अर्थ में नहीं है, जो पांचवीं शती से लगभग दशवीं शती तक भारत (पश्चिम, पूर्व, उत्तर और मध्यमण्डल) में प्रसत रहीं, जो प्राकृतों का उत्तरवर्ती विकसित रूप थीं। यहां अपभ्रंश का प्रयोग संस्कृतेतर लोकभाषाओं के शब्दों के लिए है, जिन्हें उस काल की प्राकृतें कहा जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है, तब लोक-भाषाओं के प्रसार और प्रयोग का क्षेत्र बहुत व्यापक हो चला हो । उनके शब्द सम्भवत: वैदिक और लौकिक संस्कृत में प्रवेश पाने लग गये हों; अत: भाषा की शुद्धि के पक्षपाती पुरोहित विद्वान् उस पर रोक लगाने के लिए बहुत प्रयत्नशील हुए हों। पतंजलि के विवेचन की ध्वनि कुछ इसी प्रकार की प्रतीत होती है। पतंजलि कुछ आगे और कहते हैं-"सुना जाता है कि “यर्वाण: तर्वाण:' नामक ऋषि थे। वे प्रत्यक्षधर्मा-धर्म का साक्षात्कार किये हुए थे। पर और अपर-परा और अपरा विद्या के ज्ञाता थे। जो कुछ ज्ञातव्य – जानने योग्य है, उसे वे जान चके थे। वे वास्तविकता को पहचाने हुए थे। वे आदरास्पद ऋषि 'यद् वा न: तद् वा नः'-ऐसा प्रयोग जहां किया जाना चाहिए, वहां यर्वाणः तर्वाणः' ऐसा प्रयोग करते । परन्तु याज्ञिक कर्म में अपभाषण 'अशुद्ध शब्दों का उच्चारण नहीं करते थे। असुरों ने याज्ञिक कर्म में अपभाषण किया था; अत: उनका पराभव हुआ।" १. महाभाध्य, प्रथम प्राह निक, १०७ २. एकैकस्य शब्दस्य बहवोऽपभ्रशाः। प्रद्यथागोरित्येतस्य शब्दस्य गावी गौणी गोपोतलिकेप्येवमादयोऽपभ्रशाः। -महाभाष्य, प्रथम प्राह निक, ५०६ ३. एवं हि श्रयते - यणिस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवः प्रत्यक्षधर्माणः परावरज्ञा विदितवेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः। ते तत्र भवन्तो यद्धा न इति प्रयोक्तव्ये याणस्तर्वाण इति प्रयुजते याने पुनः कर्मणि नापभाषन्ते। तैः पुनरसुरैयज्ञि कर्मण्यपभाषितम्, ततस्ते पराभूताः। -महाभाध्य, प्रथम माह निक,पृ. ३७.३८ जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १५५ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतंजलि के कहने का अभिप्राय यह है कि वैदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभी-कभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। इसे तो वे क्षम्य मान लेते हैं, परन्तु, इस पहलू पर जोर देते है कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए। वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उनके कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गयी थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुँच जाये। वे यहां तक कहते हैं : “याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि आहिताग्नि (याज्ञिक अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति) द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये, तो उसे उसके प्रायश्चित-स्वरूप सारस्वती-दृष्टि-सारस्वत (सरस्वती देवता को उद्दिष्ट कर) यज्ञ करना चाहिए।" एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं : "..... जिन प्रतिपादकों का विधि-वाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुपूर्वी के ज्ञान के लिए उपदेश-संग्रह इष्ट है, ताकि शश के स्थान पर षष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मञ्जक का प्रयोग न होने लगे।" पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो उनके समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही। ऊप, तेर; चक्र तथा पेच ; इन चार शब्दों को उन्होंने उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, तेर के स्थान पर तोर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है। इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे पुनः लिखते हैं : "हो सकता है, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों -स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों। उन्हे प्राप्त करने का यत्न कीजिए । शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल है। यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है। चार वेद हैं। उनके छह अंग हैं । उसके रहस्य या तत्त्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएं हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। सामवेद की एक हजार मार्ग-परम्पराएं हैं। ऋग्वेदियों के आम्नायपरम्परा-क्रम इक्कीस प्रकार के हैं। अथर्ववेद नौ रूपों में विभक्त है। वाकोवाक्य (प्रश्नोतरात्मक ग्रन्थ) इतिहास, पुराण, आयुवद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं। शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना इस प्रकार कहना कि अमुक शब्द अप्रयुक्त हैं, केवल दु:साहस है।" पतंजलि के उपयुक्त कथन में मुख्यतः दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं। एक यह है-संस्कृत के कतिपय शब्द लोकभाषाओं के ढांचे में ढलते जा रहे थे । उससे उनका व्याकरण-शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता? लोक-भाषाओं के ढांचे में डला हआकिंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर वे बल देते हैं; क्योंकि वैसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी। शश-षष, पलाश-पलाष, मञ्चक-मजक, जो उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक हैं। दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक-भाषाओं में इतने घुल-मिल गये होंगे कि उनमें उनका प्रयोग सहज हो गया । सामान्यत: वे लोक-भाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों। संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई । वहां उनका प्रयोग बन्द हो गया। हो सकता है, आपाततः संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिए गये हों या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गयी हो। पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवत: इन बातों का असर रहा हो; इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रान्ति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं । शुद्ध वाक्-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक-व्यवहार को अक्षुण्ण १. याशिका: पठन्ति प्राहिताग्निरपशब्दं प्रयुज्य प्रायश्चितीयाँ सारस्वतीमिष्टि निर्वपेत । महाभाष्य, पृ०८ २. ... यानि तागृहणानि प्रातिपदिकानि, एतेषामपि स्वरवर्णानुपूर्वी ज्ञानार्थ उपदेशः कर्तव्य: । शश: षष इति मा भूत् । पलाशः पलाष इति मा भूत ___ मञ्चको मञ्जक इति मा भूत् । -वही, पृ० ४८ अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दाना न्याय्यः। कुत: प्रयोगान्यत्वात् । यदेषां शब्दानामथऽ न्याञ्छब्दान्प्रयुजते। यद्य या ऊषेत्यस्य शब्दस्याय क्व यूयमुषिता:, तेरेत्यस्यायें क्व यूयं तीर्णाः, चक्रेत्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्त:, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति । -महाभाष्य; प्रथम माह निक, पृ० ३१ सर्वे खल्वप्येते शध्दा देशान्तरेष प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धो यत्नः क्रियताम् । महान्छब्दस्य प्रयोगविषयः । सप्तद्वीपा वसुमती, बयो नोकाः, चत्वारो वेदा: सांगा: सरहस्या:, बहुधा भिन्ना एकादशमध्वर्यु शाखा:, सहनवा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह वृच्च, नवधायर्वणो वेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहास:, पुराणम् वैद्य कमित्येतावाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमानमेव । -वही, पृ० ३२-३३ २५६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाये रखने की उनकी चिन्ता थी, यह उनके उस कथन से स्पष्ट हो जाता है, जिसमें उन्होंने अक्षर-समाम्नाय के ज्ञान को परम पूण्यदायक एवं श्रेयस्कर बताया है उन्होंने लिखा है : “यह अक्षर-समाम्नाय ही वाक्समाम्नाय है अर्थात् वाक्-वाणी या भाषारूप में परिणत होने वाला है । इस पुष्पित, फलित तथा चन्द्रमा व तारा की तरह प्रतिमण्डित अक्षर-समाम्नाय को शब्द रूप ब्रह्म-तत्त्व समभना चाहिए। इसके ज्ञान से सब वेदों के अध्ययन से मिलने वाला पुण्य-फल प्राप्त होता है। इसके अध्येता के माता-पिता स्वर्ग में गौरवान्वित होते हैं।" साधारणतया भाषा-वैज्ञानिक प्राकृतों को मध्यकालीन आर्य-भाषा-काल में लेते हैं। वे ई० पू० ५०० से १००० ई० तक के समय का इसमें निर्धारण करते हैं । कतिपय विद्वान् ई० पू० ६०० से इसका प्रारम्भ तथा ११०० या १२०० ई. तक समापन स्वीकार करते हैं । स्थूल रूप में यह लगभग मिलता-जुलता-सा तथ्य है। भाषाओं के विकास-क्रम में काल का सर्वथा इत्थंभूत अनुमान सम्भव नहीं होता । मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा-काल को प्राकृत-काल भी कहा जाता है। यह पूरा काल तीन भागों में और बांटा जाता है-प्रथम प्राकृत-काल, द्वितीय प्राकृत-काल, तृतीय प्राकृत-काल । प्रथम प्राकृत-काल प्रारम्भ से अर्थात् ई० पू० ५०० से ई० सन के आरम्भ तक माना जाता है। इसमें पालि तथा शिलालेखी प्राकृत को लिया गया है। दूसरा काल ई० सन् से ५०० ई० तक का माना जाता है। वैदिक संस्कृत तथा प्राकृत का सादृश्य प्राकृतों अर्थात साहित्यिक प्राकृतों का विकास बोलचाल की जन-भाषाओं, दूसरे शब्दों में असाहित्यिक प्राकृतों से हआ, ठीक वैसे ही जैसे वैदिक भाषा या छन्दस् का । यही कारण है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत में कुछ ऐसा सादृश्य, खोज करने पर प्राप्त होता है, जैसा प्राकृत और लौकिक संस्कृत में नहीं है। उदाहरणार्थ, संस्कृत ऋकार के बदले प्राकृत में अकार, आकार, इकार तथा उकार" होता है। ऋकार के स्थान में उकार की प्रवृत्ति वैदिक वाङमय में भी प्राप्त होती है। जैसे ऋग्वेद १.४६.४ में कृत के स्थान पर कुठ का प्रयोग है। अन्य भी इस प्रकार के प्रयोग प्राप्य हैं। प्राकृत में अन्त्य व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसे-यावत् =जाव, तावत्=ताव, यशस्जसो । तमस् - तमो। वैदिक साहित्य में यत्र-तत्र ऐसी प्रवृत्ति दष्टिगोचर होती है। जैसे--पश्चात् के लिए पश्चा (अथर्ववेद संहिता १०.४.११), उच्चात के लिए उच्चा (तैत्तिरीय संहिता २.३.१४), नीचात् के लिए नीचा (तैत्तिरीय संहिता ४.५.६१) । प्राकृत में संयुक्त य, र, व्, श, ष, स् का लोप हो जाता है और इन लुप्त अक्षरों के पूर्व के ह्रस्त्र स्वर का दीर्घ हो जाता है। जेसे-पश्यति =पासइ, कश्यपः= कासवो, आवश्यकम् = आवसय, श्यामा=सामा, विश्राम्यति वीसमई विश्रामः-विसामो, मिश्रम- मीसं, संस्पर्श:=संफासो, प्रगल्भ-पगल्भ, दुर्लभ = दूलह । वैदिक भाषा में भी इस कोटि के प्रयोग प्राप्त होते हैं। जैसेअप्रगल्भ अपगल्भ (तैत्तिरीय संहिता ४.५.६१), त्र्यच=त्रिच (शतपथ ब्राह्मण १.३.३.३३), दुर्लभ == दूलभ (ऋग्वेद ४.६.) . दुर्णाश= दूणाश (शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य ३.४३)। १. सो 5 यमक्षरसमाम्नायो वाक्समाम्नायः पुष्पितः फलितश्चन्द्रतारकवत्प्रतिमण्डितो वेदितव्यो ब्रह्मराशि:, सर्ववेदपुण्यफलावाप्तिाचास्य ज्ञाने भवति, मातापितरो चास्य स्वर्ग लोके महीयते। -महाभाष्य, द्वितीय प्राह निक, पृ० ११३ ऋतोत् ।।८।१ । १२६ मादेऋकारस्य प्रत्वं भवति । -सिद्धहमशम्दानुशासनम् ३. अात्कृशान्मृदुक मुदत्वे वा ॥८॥१।१२७ एषु आदेऋत पाद वा भवति। -वही ४. इत्कृपादो।। ८।१।१२८ ।। कृपा इत्यादिषु शाब्देषु प्रादेत इत्वं भवति । -वही उद्दत्वादौ।। ८।१।१३२ ऋतु इत्यादिषु शब्देष आदेत उद्भवति। -वही अन्त्यव्यंजनस्य । ८।१ । ११ शब्दानां यद् अन्त्यव्यंजनं तस्य लुग भवति । -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् ७. लप्त य -य- र - व-श-ष- सां दीर्घः ।।८।१ । ४३ प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकारषकारक्सकाराणां तेषामादे: स्वरस्य दीर्घो भवति । जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत में संयुक्त वर्णों के पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रस्व' हो जाता है। जैसे, ताम्रम = तम्ब, विरहाग्निः=विरहग्गी, आस्यअस्सं, मुनीन्द्रः =मुणिन्दो, तीर्थम् = तित्थं, चूर्णः= चण्णी; इत्यादि । वैदिक संस्कृत में भी ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त होती है । जैसे-रोदसीप्रा =रोदसिप्रा (ऋग्वेद १०.८८.१०), अमात्र अमत्र (ऋग्वेद ३.३६.४) । प्राकृत में संस्कृत द के बदले अनेक स्थानों पर ड' होता है। जैसे – दशनम् = डसणं . दृष्टः - डट्ठो, दग्धः= डड्ढ़ो, दोला =डोला, दण्ड = डण्डो, दर:=डरो, दाहः=डाहो, दम्भ =डम्भो, दर्भ:=डब्भो, कदनम् =कडणं, दोहद:=डाहलो। वैदिक संस्कृत में भी यत्र-तत्र इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे—दुर्दभ दूडभ (वाजसनेय संहिता ३.३६), पुरोदासपुरोडा (शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य ३.४४) । प्राकृन में संस्कृत के ख, ध, थ तथा भ की तरह ध का भी ह' होता है। जैसे-साधुः साहू, वधिर:=वहिरो, बाधते= बाहइ, इन्द्रधनुः==इन्दहणू, सभा-सहा । वैदिक वाङमय में भी ऐसा प्राप्त होता है। जैसे-प्रतिसंधाय प्रतिसंहाय (गोपथ ब्राह्मण २.४)। प्राकृत (मागधी को छोड़ कर प्राय: सभी प्राकृतों) में जकारान्त पुल्लिग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ' होता है । जैसे—मानुषः =माणसो, धर्मः=धम्मो 1 एतत् तथा तत् सर्वनाम में भी विकल्प से ऐसा होता है। जैसे- सः=सो, एषः= एसो। वैदिक संस्कृत में भी कहीं-कहीं प्रथमा एकवचन में औ दृष्टिगोचर होता है। जैसे—संवत्सरो अजायत (ऋग्वेद संहिता १०.१६०.२) सो चित् (ऋग्वेद भंहिता १.१६१.१०-११)। संस्कृत अकारान्त शब्दों में ङसि (पंचमी) विभक्ति में जो देवात्, नरात्, धर्मात् आदि रूप बनते हैं, उनमें अनत्य तु के स्थान पर प्राकृत में छ: आदेश होते हैं । उनमें एक त का लोप भी है। लोप के प्रसंग को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि पंचमी विभक्ति में एकवचन में (अकारान्त शब्दों में) आ प्रत्यय होता है। जैसे—देवात् ==देवा, नरात् णरा, धर्मात धम्मा; आदि । वैदिक वाङ्मय में भी इस प्रकार के कतिपय पंचम्यन्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे-उच्चात् =उच्चा, नीचात् =नीचा, पश्चात् पश्चा। प्राकृत में पंचमी विभक्ति बहुवचन में भिस् के स्थान पर हि आदि होते हैं। जैसे-देवेहिः आदि । वैदिक संस्कृत में भी इसके अनुरूप देवेभिः, ज्येष्ठेभिः; गम्भीरेभिः आदि रूप प्राप्त होते हैं। प्राकृत में एकवचन और बहुवचन ही होते हैं, द्विवचन नहीं होता। वैदिक संस्कृत में वचन तो तीन हैं, पर इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहां द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूपों का प्रयोग हुआ है। जैसे—इन्द्रावरुणौ इन्द्रावरुणाः,. मित्रावरुणो= मित्रावरुणाः, नरो=नरा, सुरथौ सुरथाः, रथितमौ= रथितमाः । १. -वही -वही ह्रस्व: सयोगे ॥ ८।१।८४ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । -वही दशन - दष्ट - दग्ध - बोला - दण्द - दर - दाह - दम्भ - दर्भ - कदन - दोहदे दो वा डा:॥ ८।१ । २१७ एष दस्य डो वा भवति । -सिद्धहमशन्दानुशासनम् ख - घ - थ - ध भाम् ।।८।१।१८७ स्वरात्परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख ध थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । अत: से?: ।।८।३ । २। अकारान्तान्नाम: परस्य स्यादे: से: स्थाने हो भवति। वेतत्तदः । ८।३।३ एतत्तदोरकारात्परस्य स्यादे: सेडों भवति । स्वौजसमौट्छष्टाभ्यां भिस्ङभ्याँभ्य सङ् सिभ्यां भ्य सूङ सोसाम्कयोस्सुप् । -अष्टाध्यायी ४।१।२ सुभौ जस् इति प्रथमा । अम् प्रोट् शस् इति द्वितीया । टा भ्यां भिस् इति तृतीया। डे भ्यां भ्यर इति चतुर्थी । इसि भ्याँ भ्यस् इति पंचमी। इस मौस माम् इति षष्ठी। डि प्रोस् सुप् इति सप्तमी। इसेस् तो-दो-द-हि- हिन्तो- लकः ।। ३ । १।८ अत: परस्य ङ से: त्तौ दो दुह हिन्तो लुक् इत्ये ते षडादेशा भवन्ति । जैसे-वत्सात् =वच्छतो, वच्छाओ, बच्छाउ, बच्छा हि, वच्छाहिन्तो वच्छा। भिसो हि हिं हिं ।। ३। ११७ प्रत: परस्य भिस: स्थाने केवल: सानुनासिकः, सानुस्वारश्च हिर्भवति । -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् आचार्यरत्न श्री वेशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रम्प ७. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युग के प्राकृत के महान् जर्मन वैयाकरण डा० पिशल ने विशाल ग्रन्थ Comparetive Grammar of the Prakrit Language में संस्कृत से प्राकृत के उद्गम का खण्डन करते हुए प्राकृत तथा वैदिक भाषा के सादृश्य के द्योतक कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं : प्राकृत भाषा तण स्त्रीलिंग षष्ठी के एकवचन का रूप 'आए' तृतीया बहुवचन का रूप एहि बोहि (आज्ञावाचक) ता, जा, एत्थ बम्हे वहि 1. सद्धि बिउ चिमु रुक्षव रुक्ष उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध होता है कि प्राकृतों का उद्गम वैदिक भाषा काल से प्राग्वर्ती किन्हीं बोलचाल की भाषाओं या बोलियों से हुआ, जैसे कि उन्हीं में से किसी बोली के आधार पर वैदिक भाषा अस्तित्व में आई । ३. ४. प्राकृत के प्रकार प्राकृत जीवित भाषाएं थीं । भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण स्वभावतः उनके रूपों में भिन्नता आई । उन ( बोलचाल की भाषाओं या बोलियों) के आधार पर जो साहित्यिक प्राकृतें विकसित हुई उनमें भिन्नता रहना स्वाभाविक था । इस प्रकार प्रादेशिक या भौगोलिक आधार पर प्राकृतों के कई भेद हुए । उनके नाम प्राय: प्रदेश- विशेष के आधार पर रखे गये । ; आचार्य भरत' ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा प्राप्य सूरसेनी अर्धमागधी वाली और दक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है। प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृतप्रकाश' के प्रणेता वररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी और पैशाची इन भेदों का वर्णन किया है। चण्ड' ने मागधी को मागधिका और पैशाची को पैशाचिकी के नाम से उल्लिखित किया है । छठी शती के सुप्रसिद्ध काव्यशास्त्री दण्डी ने काव्यादर्श' में प्राकृतों की भी चर्चा की है । उन्होंने महाराष्ट्री (महाराष्ट्राश्रया ), शौरसेनी, मोदी और लाठी इन चार प्राकृतों का उल्लेख किया है। वाह्लीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ॥ प्राकृतप्रकाश, १०. १-२, ११, १, १२. ३२ पेशाचिक्यां रणयोलंनी । मागधिकाय रसयोलंशो || ५. महाराष्ट्राश्रयाँ भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नान, सेतुबन्धादि यन्ममयम् ॥ शौरसेनी च गोडी च, लाटी चान्या च तादृशी । याति प्राकृतमित्येवं व्यवहारेषु सन्निधिम् ॥ ......This Sanskrit was not the baris of the Prakrit dialects, which indeed dialect, which, on political or religious grounds, was rained to the states of a literary medium, But the difficulty is that it does not seem useful that all the Prakrit dialects sprang out from one and the same source. At least they could not have developed out of Sanskrit, as is generally held by Indian Scholars and Habber. Lassen, Bhandarkar and Jacoby, All the Prakrit languages have a series of comman grammatical and lexical characteristics with the vedic language and such are significantly missing from Sanskrit. २. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी । वैदिक भाषा त्वन साथै एभि: बोधि 2 जैन तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ तात्, यात्, इत्था अस्मे वस्तुभिः सीम् विदुः स - नाट्यशास्त्र; १७-१८ - प्राकृत लक्षण ३. ३८-३६ - काव्यादर्श, २३४-३५ १५६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वणित चार भाषाओं के अतिरिक्त आर्ष, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश ; इन तीनों वो प्राकृत भेदों में और बताया है । आचार्य हेमचन्द्र ने अर्द्धमागधी को आर्ष कहा है। त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत-भेदों का प्रतिपादन किया है। अन्तर केवल इतना-सा है, इनमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अद्धमागधी (जो जैन आगमों की भाषा है) के प्रति विशेष आदरपूर्णभाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष' नाम से अभिहित किया। मार्कण्डेय ने प्राकृत-सर्वस्व में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच; इन चार भागों में बांटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है : १. भाषा-महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी। २. विभाषा---शाकारी, चाण्डाली, शबरी आभीरिका और टाक्की। ३. अपभ्रंश-नागर, ब्राचड़ तथा उपनागर । ४. पैशाच--कैकय, शौरसेन एवं पांचाल । नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, आभीर, चाण्डाल, शबर, द्रमिल, आंध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है। मार्कण्डेय ने भाषा, विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत-चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं, छः विभाषाओं, ग्यारह पिशाच-भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा की है इनमें महाराष्ट्री, आवन्ती शौरसेनी, अर्द्ध-मागधी, वाहीकी, मागधी, प्राच्या तथा दाक्षिणात्या; ये आठ भाषाएं, छः विभाषाओं में से द्राविड़ और ओड्रज; ये दो विभाषाए, ग्यारह पिशाच भाषाओं में से काञ्चीदेशीय, पाण्ड्य, पांचाल, गौड़, मागध, ब्राचड़, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़; ये दश पिशाच-भाषाए तथा सत्ताईस अपभ्रंशों में ब्राचड़, लाट, वैदर्भ, बावर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उड़, हैव, पाण्ड्य, कोन्तल, सिंहल, कालिग, प्राच्य, कार्णाट, काञ्च, द्राविड़, गोर्जर, आभीर और मध्यदेशीय ; ये तेईस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं । जिन-जिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन वा, वे बोलियां उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं। इतनी लम्बी सूची से आश्चर्यान्वित होने की आवश्यकता नहीं है। किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्न-भिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और प्रदेश के नामों के अनुरूप उन उपभाषाओं या बोलियों के नाम पड़ जाते हैं। यद्यपि किसी एक भाषा की इस प्रकार की उपभाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नहीं होता, पर यत्किंचित भिन्नता तो होती ही है। उदाहरण के लिए राजस्थानी भाषा को लिया जा सकता है। सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है। पर, बीकानेर-क्षेत्र में उसका जो रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है । जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप उससे और भिन्न है। इसी प्रकार चित्तौड़, डूगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर-मेरवाड़ा, कोटा-बूदी आदि हाड़ोती का क्षेत्र, जयपुर या डूढाड़ का भाग, अलवर सम्भाग, भरतपुर और बोलपुर मण्डल ; इन सबमें जन-साधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियां थोड़ी-बहुत भिन्नता लिए हुए हैं। कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं, परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भ भागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण अपनी क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोगिक भिन्नताओं के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनकी बोलियों पर पृथकपृथक् प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य आ ही जाता है। पिशाचभाषाओं और अपभ्रंशों के जो अनेक भेद उल्लिखित किये गये हैं, वे पैशाची प्राकृत के क्षेत्र तथा अपभ्रश के क्षेत्र की अनेकानेक बोलियों और उपबोलियों के सूचक हैं। प्राकृत के भिन्न-भिन्न रूपों या भाषाओं पर विस्तृत विचार आगे किया जाएगा। यहां तो केवल पृष्ठभूमि के रूप में सूचन मात्र किया गया है। प्राकृतों का विकास : विस्तार : पृष्ठभूमि पूर्व और पश्चिम की संस्कृति तथा जीवन में प्राचीन काल से ही कुछ भेद उपलब्ध होते हैं। पश्चिम के कृष्ण और पूर्व के जरासन्ध जैसे राजाओं के पुराण-प्रसिद्ध युद्धों की शृखला इसकी परिचायक है । आर्यों के भारत में आगमन, प्रसार आदि के सन्दर्भ में विभिन्न प्रसंगों में अपेक्षित चर्चा की गयी है। उसके प्रकाश में कुछ चिन्तन अपेक्षित है। १. ऋषीणामिदमार्षम् । १६० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में आने वाले आर्य पश्चिम में टिके मध्यदेश में टिके, कुछ पूर्व में भी खदेड़ दिये गये । पर सम्भवतः मगध तक उनका पहुंचना नहीं हुआ होगा । हुआ होगा तो बहुत कम ऐसा प्रतीत होता है कि कौशल और काशी से बहुत आगे सम्भवतः वे नहीं बढ़े । मगध अदि भारत के पूर्वीय प्रदेशों में वैदिक युग के आदिकाल में यज्ञ-याग-प्रधान वैदिक संस्कृति के चिह्न नहीं प्राप्त होते । ऐसा अनुमान है कि वैदिक संस्कृति मगध प्रभृति पूर्वी प्रदेशों में बहुत बाद में पहुंची, भगवान् महावीर तथा बुद्ध से सम्भवतः कुछ शताब्दियों पूर्व वेदमूलक आर्य-संस्कृति के पहुंचने के पूर्व मग आय की दृष्टि में निन्यथा निरुकार यास्क ने को अनावों का देश कहा है। ऋग्वेद में कीकट शब्द आया है, जिसे उत्तरकालीन साहित्य में मगध का समानार्थक कहा गया है। ब्राह्मण-काल के साहित्य में भी कुछ ऐसे संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रकट है कि तब तक पश्चिम के आर्यों का मगध के साथ अस्पृश्यता का सा व्यवहार रहा था । शतपथ ब्राह्मण में पूर्व में बसने वालों को आसुरी प्रकृति का कहा गया है । आर्य सम्भवतः अनार्यों के लिए इस शब्द का प्रयोग करते थे, जिनमें निम्नता या घृणा का भाव था । पहले दल में भारत में आये मध्यदेश में बसे आर्य जब दूसरे दल में आये आर्यों द्वारा मध्यदेश से भगा दिये गये और वे मध्यदेश के चारों ओर विशेषतः पूर्व की ओर बस गये, तो उनका भगाने वाले (बाद में दूसरे दल के रूप में आये हुए) आर्यों से वैचारिक दुराव रहा हो, यह बहुत सम्भाव्य है। उनका वहां के मूल निवासियों से मेल-जोल बढ़ा हो, इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है । मेलजोल के दायरे का विस्तार वैवाहिक सम्बन्धों में भी हुआ हो, इस प्रकार एक मिश्रित नृवंश अस्तित्व में आया हो, जो सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से पश्चिम के आर्यों से दूर रहा हो। वैदिक वाङ्मय में प्राप्त व्रात्य शब्द सम्भवत: इन्हीं पूर्व में बसे आर्यों का द्योतक है, जो सामाजिक दृष्टि से पूर्व में बसने वाले मूल निवासियों से सम्बद्ध हो चुके थे। व्रात्य शब्द की विद्वानों ने अनेक प्रकार से व्याख्या की है। उनमें से एक व्याख्या यह है कि जो लोग यज्ञ-यागादि में विश्वास न कर व्रतधारी यायावर संन्यासियों में श्रद्धा रखते थे, व्रात्य कहे जाते थे। प्रायों के लिए वैदिक परम्परा में शुद्धि की एक व्यवस्था है। यदि वे शुद्ध होना चाहते, तो उन्हें प्रायश्चितस्वरूप शुद्ध वर्ष यज्ञ करना पड़ता । व्रात्य - स्तोम में उसका वर्णन है । उस यज्ञ के करने के अनन्तर वे बहिर्भूत आर्य वर्ण-व्यवस्था में स्वीकार कर लिए जाते थे । भगवान् महावीर और बुद्ध से कुछ शताब्दियां पूर्व पश्चिम या मध्यदेश से वे आर्य, जो अपने को शुद्ध कहते थे, मगध, अंग, बंग आदि प्रदेशों में पहुंच गये हों प्राप्य स्तोम के अनुसार प्रायश्चित के रूप में याज्ञिक विधान का क्रम वहिष्कृत आय का वर्ग-व्यवस्था में पुनः ग्रहण इत्यादि तथ्य इसके परिचायक हैं । पूर्व के लोगों को पश्चिम के आयों ने अपनी परम्परा से रहित मानते हुए भी भाषा की दृष्टि से उन्हें बहिभूत नहीं माना। ब्राह्मण साहित्य में भाषा के सन्दर्भ में प्रात्यों के लिए इस प्रकार के उल्लेख हैं कि ये अदुवा को भी दुरुक्त' कहते हैं अर्थात् जिसके बोलने में कठिनाई नहीं होती, उसे भी वे कठिन बताते हैं । व्रात्यों के विषय में यह जो कहा गया है, उनकी सरलतानुगामी भाषा -प्रियता का परिचायक है । संस्कृत की तुलना में प्राकृत में वैसी सरलता है ही । इस सम्बन्ध में वेबर का अभिमत है कि यहां प्राकृत भाषाओं की ओर संकेत है। उच्चारण सरल बनाने के लिए प्राकृत में ही संयुक्ताक्षरों का लोप तथा उसी प्रकार के अन्य परिवर्तन होते हैं । व्याकरण के प्रयोजन बतलाते हुए दुष्ट शब्द के अपाकरण के सन्दर्भ में महाभाष्यकार पतंजलि ने अशुद्ध उच्चारण द्वारा असुरों के पराभूत होने का जो उल्लेख किया है; वहां उन्होंने उन पर हे अरय: के स्थान पर हेलयः प्रयोग करने का आरोप लगाया है अर्थात् उनकी भाषा में र के स्थान पर ल की प्रवृत्ति थी, जो मागधी की विशेषता है। इससे यह प्रकट होता है कि मागधी का विकास या प्रसार पूर्व में बहुत पहले हो चुका था । उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के अन्तर्वर्ती सहगौरा नामक स्थान से जो ताम्र-लेख प्राप्त हुआ है, वह ब्राह्मी लिपि का सर्वाधिक प्राचीन लेख है । उसका काल ई० पू० चौथी शती है। यह स्थान पूर्वी प्रदेश के अन्तर्गत आता है । इसमें र के स्थान पर ल का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। ऐसा भी अनुमान है कि पश्चिम के आर्यों द्वारा मगध आदि पूर्वी भूभागों में याज्ञिक संस्कृति के प्रसार का एक बार प्रबल प्रयास किया गया होगा । उसमें उन्हें चाहे तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों में ही सही, एक सीमा तक सफलता भी मिली होगी। पर, जनसाधारण तक सम्भवतः वह सफलता व्याप्त न हो सकी। भगवान् महावीर और बुद्ध का समय याज्ञिक विधि-विधान, कर्म-काण्ड, बाह्य शौचाचार तथा जन्म-गत उच्चता आदि के प्रतिकूल एक व्यापक आन्दोलन का समय था । जन साधारण का इससे प्रभावित होना स्वाभाविक था ही, सम्भ्रान्त कुलों और राज १. प्रदुरुक्तवाक्य दुरुक्तमाहु: ! ताण्ड्य महाब्राह्मण, पंचविंश ब्राह्मण २. तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः पराबभूवुः तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवं नापभाषितवे । म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः । - महाभाष्य, प्रथम श्राह निक, पृ०६ जैन तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ १६१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवारों तक पर इसका प्रभाव पड़ा। महावीर और बुद्ध के समकालीन कुछ और भी धर्माचार्य थे, जो अपने आपको तीर्थकर कहते थे। परण कश्यप, मक्खलि गोसाल, अजितकेसकंबलि, पकुध कच्चायन तथा संजयवेलट्ठिपुत्त आदि उनमें मुख्य थे। बौद्ध वाङमय में उन्हें अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छदवाद, अन्योन्यवाद तथा विक्षेपवाद का प्रवर्तक कहा गया है / यद्यपि आचार-विचार में उनमें भेद अवश्य था, पर, वे सबके सब श्रमण-संस्कृति के अन्तर्गत माने गये हैं। ब्राह्मण-संस्कृति यज्ञ-प्रधान थी और श्रमण-संस्कृति त्याग-वैराग्य और संयम प्रधान / श्रमण शब्द की विद्वानों ने कई प्रकार से व्याख्या की है। कुछ विद्वानों ने इसे थम, सम और शम पर आधत माना है / फलत: तपश्चर्या का उग्रतम स्वीकार, जातिगत जन्मगत उच्चत्व का बहिष्कार तथा निर्वेद का पोषण; इन पर इसमें अधिक बल दिया जाता रहा है। श्रमण-परम्परा के अन्तर्वर्ती ये सभी आचार्य याज्ञिक तथा कर्मकाण्ड-बहुल संस्कृति के विरोधी थे। यह एक ऐसी पृष्ठभूमि थी, जो प्राकलों के विकास और व्यापक प्रसार का आधार बनी। भगवान् महावीर और बुद्ध ने लोक-भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बनाया। सम्भव है, उपयुक्त दूसरे धर्माचार्यों ने भी लोक-भाषा में ही अपने उपदेश दिये होंगे। उनका कोई साहित्य आज प्राप्त नहीं हैं। महावीर और बुद्ध द्वारा लोक-भाषा का माध्यम स्वीकार किये जाने के मुख्यतः दो कारण सम्भव हैं। एक तो यह हो सकता है, उन्हें आर्यक्षेत्र में व्याप्त और व्याप्यमाण, याज्ञिक व कर्मकाण्डी परम्परा के प्रतिकूल अपने विचार 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' जनजन को सीधे पहुंचाने थे, जो लोक-भाषा द्वारा ही सम्भव था / दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि संस्कृत के प्रति भाषात्मक उच्चता किंवा पवित्रता का भाव था, जो याज्ञिक परम्परा और कर्म-काण्ड के पुरस्कर्ता पुरोहितों की भाषा थी। उसका स्वीकार उन्हें संकोणंसापूर्ण लगा होगा, जो जन-मानस को देखते हुए यथार्थ था। प्राकतों को अपने उपदेश के माध्यम के रूप में महावीर और बुद्ध द्वारा अपना लिए जाने पर उन्हें (प्राकतों को) विशेष वेग नशा बल प्राप्त हुआ। उनके समय में मगध (दक्षिण विहार) एक शक्तिशाली राज्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चका था। उत्तर बिहार में वज्जिसंघ के कतिपय गणराज्य स्थापित हो चके थे और कौशल के तराई के भाग में भी ऐसी ही स्थिति थो। महावीर वज्जिसंघ के अन्तर्वर्ती लिच्छवि गणराज्य के थे और बुद्ध कौशल के अन्तर्वर्ती मल्लगणराज्य के / यहां से प्राक़तों के उत्तरोत्तर उत्कर्ष का काल ग तशील होता है / तब तक प्राकृत (मागधो) मगध साम्राज्य, जो मगध के चारों ओर दूर-दूर तक फैला हुआ था, में राज-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो चकी थी। प्राकृतों का उत्कर्ष केवल पूर्वीय भूभाग तक ही सीमित नहीं रहा / वह पश्चिम में भी फैलने लगा। लोग प्राक़तों को अपनाने लगे। उनके प्रयोग का क्षेत्र बढ़ने लगा। बोलचाल में तो वहां (पश्चिम में) भी प्राकृतें पहले से थी ही, उस समय वे धार्मिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्याय लोकजनीन विषयों में भी साहित्यिक माध्यम का रूप प्राप्त करने लगीं। वैदिक संस्कृति के पुरस्कर्ता और संस्कृत के पोषक लोगों को इसमें अपने उत्कर्ष का विलय आशंकित होने लगा : फलतः प्राकृत के प्रयोग की उत्तरोत्तर संवर्द्धन शील व्यापकता की संस्कृत पर एक विशेष प्रतिक्रिया हई। तब तक मुख्यतः संस्कृत का प्रयोग पौरोहित्य, कर्मकाण्ड, याज्ञिक विधि-विधान तथा धार्मिक संस्कार आदि से सम्बद्ध विषयों तक ही सीमित था। उस समय उसमें अनेक लोकजनीन विषयों पर लोकनीति, अर्थनीति, सदाचार समाज-व्यवस्था, लोक-रंजन : प्रभति जीवन के विविध अंगों का संस्पश करने वाले साहित्य की सृष्टि होने लगी। प्राकृत में यह सब चल रखा था / लोक-जीवन में रची-पची होने के कारण लोक-चिन्तन का माध्यम यही भाषा थी; अत: उस समय संस्कृत में जो लोक-साहित्य का सजन हआ, उसमें चिन्तन-धारा प्राकृत की है और भाषा का आवरण संस्कृत का। उदाहरण के रूप में महाभारत का नाम लिया जा मकता है। महाभारत समय-समय पर उत्तरोत्तर संवद्धित होता रहा है। उसमें श्रमण संस्कृति और जीवन-दर्शन के जो अनेक पक्ष चचित हुए हैं. वे सब इसी स्थिति के परिणाम हैं। भाषा-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से अन्वेष्टाओं के लिए गवेषणा का एक महत्त्वपर्ण विषय है। एतन्मलक (संस्कत) साहित्य प्राकृत-भाषी जन-समदाय में भी प्रवेश पाने लगा। इस क्रम के बीच प्रयज्यमान भाषा (संस्कृत) के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ। यद्यपि संस्कृत व्याकरण से इतनी कसी हुई भाषा है कि उसमें शब्दों और धातुओं के रूपों में विशेष परिवतन का अवकाश नहीं है, पर, फिर भी जब कोई भाषा अन्य भाषा-भाषियों के प्रयोग में आने यो य बनने लगती है या प्रयोग में आने लगती है, तो उसमें स्वरूपात्मक या संघटनात्मक दृष्टि से कुछ ऐसा समाविष्ट होने लगता है, जो उन अन्य भाषा-भाषियों के लिए सरलता तथा अनुकलता लाने वाली होता है। उसमें सादृश्यमूलक शब्दों का प्रयोग अधिक होने लगता है। उसका शब्द-कोश भी समद्धि पाने लगता। शब्दों के अर्थों में भी यत्र-तत्र परिवर्तन हो जाता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है. ये नये-नये अर्थ ग्रहण करते लगते हैं। विकल्प और अपवाद कम हो जाते हैं। साथ-ही-साथ यह घटित होता है, जब अन्य भाषा-भाषी किसी शिष्ट भाषा का प्रयोग करने लगते हैं, तो उनकी अपनी भाषाओं पर भी उसका प्रभाव पडे बिना नहीं रहता। सब कुछ होते हुए भी भगवान महावीर और बुद्ध के अभियान के उत्तरोत्तर गतिशील और अभिवृद्धिशील होते जाने के कारण संस्कृत उपयुक्त रूप में सरलता और लोक नवीनता ग्रहण करने पर भी प्राकृतों का स्थान नहीं ले सकी। अतएव तदुपरान्त संस्कृत में जो साहित्य प्रणीत हुआ, वह विशेषत: विद्वद्भोग्य रहा, उसकी लोक-भोग्यता कम होती गयी। लम्बे-लम्बे समास, दुरूह सन्धि-प्रयोग, शब्दालंकार या शब्दाडम्बर, कृत्रिमतापूर्ण पद-रचना और वाक्य-रचना से साहित्य जटिल और क्लिष्ट होता गया। सामान्य पाठकों की पहुंच उस तक कैसे होती? 162 आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ