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________________ प्राकृत में संयुक्त वर्णों के पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रस्व' हो जाता है। जैसे, ताम्रम = तम्ब, विरहाग्निः=विरहग्गी, आस्यअस्सं, मुनीन्द्रः =मुणिन्दो, तीर्थम् = तित्थं, चूर्णः= चण्णी; इत्यादि । वैदिक संस्कृत में भी ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त होती है । जैसे-रोदसीप्रा =रोदसिप्रा (ऋग्वेद १०.८८.१०), अमात्र अमत्र (ऋग्वेद ३.३६.४) । प्राकृत में संस्कृत द के बदले अनेक स्थानों पर ड' होता है। जैसे – दशनम् = डसणं . दृष्टः - डट्ठो, दग्धः= डड्ढ़ो, दोला =डोला, दण्ड = डण्डो, दर:=डरो, दाहः=डाहो, दम्भ =डम्भो, दर्भ:=डब्भो, कदनम् =कडणं, दोहद:=डाहलो। वैदिक संस्कृत में भी यत्र-तत्र इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे—दुर्दभ दूडभ (वाजसनेय संहिता ३.३६), पुरोदासपुरोडा (शुक्ल यजुः प्रातिशाख्य ३.४४) । प्राकृन में संस्कृत के ख, ध, थ तथा भ की तरह ध का भी ह' होता है। जैसे-साधुः साहू, वधिर:=वहिरो, बाधते= बाहइ, इन्द्रधनुः==इन्दहणू, सभा-सहा । वैदिक वाङमय में भी ऐसा प्राप्त होता है। जैसे-प्रतिसंधाय प्रतिसंहाय (गोपथ ब्राह्मण २.४)। प्राकृत (मागधी को छोड़ कर प्राय: सभी प्राकृतों) में जकारान्त पुल्लिग शब्दों के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ओ' होता है । जैसे—मानुषः =माणसो, धर्मः=धम्मो 1 एतत् तथा तत् सर्वनाम में भी विकल्प से ऐसा होता है। जैसे- सः=सो, एषः= एसो। वैदिक संस्कृत में भी कहीं-कहीं प्रथमा एकवचन में औ दृष्टिगोचर होता है। जैसे—संवत्सरो अजायत (ऋग्वेद संहिता १०.१६०.२) सो चित् (ऋग्वेद भंहिता १.१६१.१०-११)। संस्कृत अकारान्त शब्दों में ङसि (पंचमी) विभक्ति में जो देवात्, नरात्, धर्मात् आदि रूप बनते हैं, उनमें अनत्य तु के स्थान पर प्राकृत में छ: आदेश होते हैं । उनमें एक त का लोप भी है। लोप के प्रसंग को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि पंचमी विभक्ति में एकवचन में (अकारान्त शब्दों में) आ प्रत्यय होता है। जैसे—देवात् ==देवा, नरात् णरा, धर्मात धम्मा; आदि । वैदिक वाङ्मय में भी इस प्रकार के कतिपय पंचम्यन्त रूप प्राप्त होते हैं। जैसे-उच्चात् =उच्चा, नीचात् =नीचा, पश्चात् पश्चा। प्राकृत में पंचमी विभक्ति बहुवचन में भिस् के स्थान पर हि आदि होते हैं। जैसे-देवेहिः आदि । वैदिक संस्कृत में भी इसके अनुरूप देवेभिः, ज्येष्ठेभिः; गम्भीरेभिः आदि रूप प्राप्त होते हैं। प्राकृत में एकवचन और बहुवचन ही होते हैं, द्विवचन नहीं होता। वैदिक संस्कृत में वचन तो तीन हैं, पर इस प्रकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं, जहां द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के रूपों का प्रयोग हुआ है। जैसे—इन्द्रावरुणौ इन्द्रावरुणाः,. मित्रावरुणो= मित्रावरुणाः, नरो=नरा, सुरथौ सुरथाः, रथितमौ= रथितमाः । १. -वही -वही ह्रस्व: सयोगे ॥ ८।१।८४ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । -वही दशन - दष्ट - दग्ध - बोला - दण्द - दर - दाह - दम्भ - दर्भ - कदन - दोहदे दो वा डा:॥ ८।१ । २१७ एष दस्य डो वा भवति । -सिद्धहमशन्दानुशासनम् ख - घ - थ - ध भाम् ।।८।१।१८७ स्वरात्परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख ध थ ध भ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । अत: से?: ।।८।३ । २। अकारान्तान्नाम: परस्य स्यादे: से: स्थाने हो भवति। वेतत्तदः । ८।३।३ एतत्तदोरकारात्परस्य स्यादे: सेडों भवति । स्वौजसमौट्छष्टाभ्यां भिस्ङभ्याँभ्य सङ् सिभ्यां भ्य सूङ सोसाम्कयोस्सुप् । -अष्टाध्यायी ४।१।२ सुभौ जस् इति प्रथमा । अम् प्रोट् शस् इति द्वितीया । टा भ्यां भिस् इति तृतीया। डे भ्यां भ्यर इति चतुर्थी । इसि भ्याँ भ्यस् इति पंचमी। इस मौस माम् इति षष्ठी। डि प्रोस् सुप् इति सप्तमी। इसेस् तो-दो-द-हि- हिन्तो- लकः ।। ३ । १।८ अत: परस्य ङ से: त्तौ दो दुह हिन्तो लुक् इत्ये ते षडादेशा भवन्ति । जैसे-वत्सात् =वच्छतो, वच्छाओ, बच्छाउ, बच्छा हि, वच्छाहिन्तो वच्छा। भिसो हि हिं हिं ।। ३। ११७ प्रत: परस्य भिस: स्थाने केवल: सानुनासिकः, सानुस्वारश्च हिर्भवति । -सिद्धहैमशब्दानुशासनम् आचार्यरत्न श्री वेशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रम्प ७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210239
Book TitleAdhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size4 MB
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