Book Title: Adhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit Author(s): Nagrajmuni Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ श्राधुनिक भाषा विज्ञान के सन्दर्भ में जैन प्राकृत राष्ट्रसन्त मुनिश्री नगराज जी डी० लिट्० आगमों की भाषा प्राकृत है । त्रिपिटकों की भाषा पालि है । दोनों भाषाओं में अद्भुत साँस्कृतिक ऐक्य है । दोनों भाषाओं का उद्गम-बिन्दु भी एक है। दोनों का विकास क्रम भी बहुत कुछ समान रहा है। दोनों के विकसित स्वरूप में भी अद्भुत सामंजस्य है । जो कुछ वैषम्य है, उसके भी नाना हेतु हैं । प्राकृत और पालि के सारे सम्बन्धों व विसम्बन्धों को सर्वांगीण रूप से समझने के लिए भाषा मात्र की उत्पत्ति और प्रवाह क्रम का समीक्षात्मक रूप में प्रस्तुतीकरण आवश्यक होगा । भाषाओं के विकास और प्रसार की एक लम्बी कहानी है। भाषाओं का विकास मानव के बौद्धिक और भावात्मक विकास के साथ जुड़ा है। मानव ने संस्कृति, दर्शन और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में महनीय अभियान चलाये । फलतः विश्व में विभिन्न संस्कृतियों, दार्शनिक परम्पराओं, साहित्यिक अभियोजनाओं तथा सामाजिक विकास का एक परिनिष्ठित रूप प्रतिष्ठापन्न हुआ भाषाओं में इनवे सम्बन्धित आरोह अवरोहों का महत्वपूर्ण विवरण ढूंढा जा सकता है क्योंकि मानव के जीवन में कर्म और अभिव्यक्ति का गहरा सम्बन्ध है । कर्म की तेजस्विता गोपित नहीं रहना चाहती। सूर्य की रश्मियों की तरह वह फूटना चाहती है। आकाश की तरह उसे अपना कलेवर फैलाने के लिए स्थान या माध्यम चाहिए। वह भाषा है; आवश्यकता है। ; अतः भाषाओं के वैज्ञानिक अनुशीलन की बहुत बड़ी विभिन्न भाषाओं की आश्चर्यजनक निकटता आश्चर्य होता है, सहस्रों मीलों की दूरी पर बोली जाने वाली फॅच, अंग्रेजी आदि भाषाओंों से भारत में बोली जाने वाली हिन्दी, बंगला, गुजराती, मराठी, पंजाबी तथा राजस्थानी आदि भाषाओं का महरा सम्बन्ध है, जबकि बाह्य कलेवर में वे उनसे अत्यन्त भिन्न दृष्टिगोचर होती हैं। दूसरा आश्चर्य यह भी होगा कि भारत में ही बोली जाने वाली तमिल, तेलगु, कन्नड़ तथा मलयालम आदि भाषाओं से उत्तर भारतीय भाषाओं का मौलिक सम्बन्ध नहीं जुड़ता । साथ विशेष सम्बन्ध है। एक दूसरी से विश्व की अनेक भाषाओं का निकटता-पूर्ण से कोई पारस्परिक साम्य चला आ रहा है। भाषाओं के स्वरूप भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत, प्राकृत तथा पालि आदि का पश्चिम की ग्रीक, लैटिन, जर्मन आदि प्राचीन भाषाओं के सहस्रों मीलों की दूरी पर प्रचलित तथा परस्पर सर्वथा अपरिचित-सी प्रतीत होने वाली सम्बन्ध है। ज्ञात होता है कि विश्व के विभिन्न मानव समुदायों में अत्यन्त प्राचीन काल और विकास का वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक तथा समीक्षात्मक रूप में अध्ययन करने से ये तथ्य विशद रूप में प्रकट होते हैं। इसी विचार-सरणि के सन्दर्भ में भाषाओं का जो सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन क्रम चला, वही भाषा विज्ञान या भाषा- शास्त्र बन गया है । भाषा विज्ञान की शाखाए भाषा विज्ञान में भाषा-तत्त्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से विश्लेषण और विवेचन किया जाता रहा है, आज भी किया जाता है। ध्वनि-विज्ञान, रूप-विज्ञान, अर्थ-विज्ञान, वाक्य-विज्ञान, व्युत्पत्ति-विज्ञान आदि उसकी मुख्य शाखाए' या विभाग होते हैं। स्वनि-विज्ञान ( Phonology ) ; भाषा का मूल आधार ध्वनि है। ध्वनि का ही व्यवस्थित रूप शब्द है । शब्दों का साकांक्ष्य या परस्पर-सम्बद्ध समवाय वाक्य है । वाक्यों से भाषा निष्पन्न होती है; अतएव ध्वनि-विज्ञान भाषा - शास्त्र में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उसके अन्तर्गत ध्वनि यन्त्र, जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only १२६ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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