Book Title: Adhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ पूर्वार्ध), कय्यट (ग्यारहवीं शती), हरदत्त (बारहवीं शती) मुख्य थे। उन्होंने पाणिनि की व्याकरण-परम्परा में अनेक स्वतंत्र ग्रन्थों तथा व्याख्या-ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिनमें भाषा और व्याकरण के अनेक शब्दों पर तलस्पर्शी विवेचन है। उनके अनन्नर इस शाखा में जो वैयाकरण हुए, उन्होंने कौमुदी की परम्परा का प्रवर्तन किया। व्याकरण पर इतने अधिक ग्रन्थ लिखे जा चुके थे कि उनको बोध-गम्य बनाने के लिये किसी अभिनव क्रम की अपेक्षा थी। कौमुदी-साहित्य इनका पूरक है। विमल सरस्वती (चौदहवीं शती), शमचन्द्र (पन्द्रहवीं शती), भटोजि दीक्षित (सतरहवीं शती) तथा वरदराज (अठारहवी शती) इस परम्परा के मुख्य ग्रन्थकार थे। भटोजि दीक्षित की सिद्धान्त कौमुदी और वरदराज की लघु कौमुदी का संस्कृत अध्येताओं में आज भी सर्वत्र प्रचार है। पाणिनि के व्याकरण के अतिरिक्त भारतवर्ष में व्याकरण की कतिपय अन्य शाखाएँ भी प्रचलित थीं, जिनमें जैनेन्द्र, शाकटायन, हेमचन्द्र, कातन्त्र, सारस्वत तथा वोपदेव आदि शाखाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्याकरणोत्तर शास्त्रों में भाषा-तत्त्व : व्याकरण ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत में रचे गये न्याय, काव्य-शास्त्र तथा मीमांसा आदि में भी भाषा के सम्बन्ध में प्रासंगिक रूप में विचार उपस्थित किये गये हैं। बंगाल में नदिया नैयायिकों या ताकिकों का गढ़ रहा है। वहां के नैयायिकों ने अपने ग्रन्थों में भाषा के मनोवैज्ञानिक पक्ष पर विचार किया। श्री जगदीश तर्कालंकार के शब्दशक्तिप्रकाशिका ग्रन्थ में शब्दों की शक्ति पर नैयायिक दृष्टि से ऊहापोह किया गया है। उससे अर्थ-विज्ञान पर कुछ प्रकाश पडता है। काव्य शास्त्रीय वाङमय में काव्यप्रकाश, ध्वन्यालोक, चन्द्रालोक और साहित्य-दर्पण आदि ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध हैं। इनमें शब्द-शक्तियों तथा अलंकारों के विश्लेषण के प्रसंग में भाषा के शब्द, अर्थ आदि तत्त्वों पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है। भारतीय दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मीमांसा दर्शन का वर्ण्य विषय यद्यपि कर्मकाण्ड और यज्ञवाद है, पर, विद्वान् आचार्यों ने इनके विवेचन के लिए जो शैली अपनाई है, वह अत्यन्त नै यायिक या तार्किक है। उन्होंने शब्दस्वरूप, शब्दार्थ, वाक्यस्वरूप, वाक्यार्थ आदि विषयों पर गहराई से विमर्षण किया है। __ भारतीय विद्वानों द्वारा किये गये भाषा-तत्त्व-सम्बन्धी गवेषणा-कार्य का यह संक्षिप्त लेखा-जोखा है, जो भारतीय प्रज्ञा की सजगता पर प्रकाश डालता है। प्राचीन काल में जब समीक्षात्मक रूप में परिशीलन करने के साधनों का प्राय: अभाव था और न आज की तरह गवेषणा-सम्बन्धी नवीन दृष्टिकोण ही समक्ष थे, तब इतना जो किया जा सका, कम स्तुत्य नहीं है । विश्व में अपनी कोटि का यह असाधारण कार्य था। यूनान व यूरोप में भाषा-विश्लेषण पुरातन संस्कृति, साहित्य तथा दर्शन के विकास में प्राच्य देशों में जो स्थान भारत का है, उसी तरह पाश्चात्य देशों में ग्रीस (यनान) का है। भारतवर्ष के अनन्तर यूनान में भी भाषा-तत्त्व पर कुछ चिन्तन चला। यद्यपि वह भारतवर्ष की तुलना में बहुत साधारण था, केवल ऊपरी सतह को छ ने वाला था, पर पाश्चात्य देशों में इस क्षेत्र में सबसे पहला प्रयास था, इसलिए उसका ऐतिहासिक महत्त्व है। ___ सुकरात का इंगित : सुकरात (ई० पू० ४६६ से ई० पू० ३६६) यूनान के महान् दार्शनिक थे। उनका विषय तत्त्व ज्ञान था; अत: भाषा-शास्त्र के सम्बन्ध में उन्होंने लक्ष्यपूर्वक कुछ नहीं लिखा, पर, अन्य विषयों की चर्चा के प्रसंग में इस विषय की ओर भी कुछ इंगित किया। सुकरात के समक्ष यह प्रश्न आया कि शब्द और अर्थ में परस्पर जो सम्बन्ध है, वह स्वाभाविक है या इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि किसी एक वस्तु का जो नाम प्रचलित है, उस (नाम) के स्थान पर यदि कोई दूसरा नाम रख दिया जाए, तो क्या वह अस्वाभाविक होगा ? सकरात का इस सन्दर्भ में यह चिन्तन था कि किसी वस्तु और उसके नाम का, दूसरे शब्दों में अर्थ और शब्द का कोई स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है। वह मानव द्वारा स्वीकृत सम्बन्ध है । यदि किसी वस्तु का उसके नाम से स्वाभाविक सम्बन्ध होता, तो वह शाश्वत होता, सर्वव्यापी होता, देश-काल के भेद से व्याहत नहीं होता। ऐसा होने पर संसार में सर्वत्र जिस किसी भाषा का एक शब्द सभी दूसरी भाषाओं में उसी अर्थ का द्योतक होता, जिस अर्थ का अपनी भाषा में द्योतक है। अर्थात्, संसार में सबकी स्वाभाविक भाषा एक ही होती। प्लेटो : भाषा-तत्त्व : सुकरात के पश्चात् उनके शिष्य प्लेटो (४२६ ई० पू० से ३४७ ई० पू०) यूनान के बहुत बड़े विचारक हुए। उनका भी अपने गुरु की तरह भाषा-विज्ञान से कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं था। उन्होंने यथा-प्रसंग भाषा तत्त्वों के सम्बन्ध में जहां-तहां अपने विचार प्रकट किये हैं, जिनका भाषा-विज्ञान के इतिहास में कुछ-न-कुछ महत्त्व है। उन्होंने १३४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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