Book Title: Adhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 18
________________ संस्कृत में आ:' (कोप, पीड़ा), घिङ (निर्भर्त्सना, निन्दा), बत' (खेद, अनुकम्पा, सन्तोष), हन्त (हर्ष, अनुकम्पा, विषाद), साभि (जुगुप्सित), जोषम् (नीरवता, सुख), अलम्' (पर्याप्त, शक्ति वारण-निषेध). हूम् (वितर्क, परिप्रश्न), हा (विषाद), अहह" (अद्भुतता, खेद), हिररुङ" (वर्जन), आहो, उताहो'२ (विकल्प), अहा, ही" (विस्मय) तथा ऊम्" (प्रश्न, अनुनय) इत्यादि आकस्मिक भावों के द्योतक हैं । इनकी उत्पत्ति में भी उपयुक्त सिद्धान्त किसी अपेक्षा से संगत हो सकता है। अंग्रेजी में Ah, Oh, Alas, (Surprise, fear or regret=विस्मय, भय या खेद), Rish (Contempt=अवज्ञा), Pooh (disdain or contempt=घृणा या अवज्ञा) तथा Fie (Disgurt=जगुप्सा) आदि का प्रयोग उपयुक्त सन्दर्भ में होता है । अंग्रेजी व्याकरण में ये Interjections (विस्मयादिबोधक) कहलाते हैं। इसी कारण यह सिद्धान्त (Interjectional Theory) के नाम से विश्रुत है। इस सिद्धान्त का अभिप्राय था कि शब्दों के उद्भव और विकास की यह पहली सीढ़ी है। इन्हीं शब्दों से उत्तरोत्तर नये-नये शब्द बनते गये, भाषा विकसित होती गयी । इस सिद्धान्त के उद्भावकों में कंडिलैक का नाम उल्लेखनीय है। डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है : “इस सिद्धान्त के मान्य होने में कई कठिनाइयां हैं। पहली बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द एक ही रूप में नहीं मिलते। यदि स्वभावतः आरम्भ में ये निःसृत हुए होते तो अवश्य ही सभा मनुष्यों में लगभग एक जैसे होते । संसार भर के कुत्त दुःखी होने पर लगभग एक ही प्रकार से भौंक कर रोते हैं, पर, संसार भर के आदमी न तो दुःखी होने पर एक प्रकार से 'हाय' करते हैं और न प्रसन्न होने पर एक प्रकार से 'वाह'। लगता है, इनके साथ संयोग से ही इस प्रकार के भाव सम्बद्ध हो गये हैं और य पूर्णतः यादृच्छिक हैं । साथ ही इन शब्दों से पूरी भाषा पर प्रकाश नहीं पड़ता। किसी भाषा में इनकी संख्या चालीस-पचास से अधिक नहीं होगी। और वहां भी इन्हें पूर्णतः भाषा का अंग नहीं माना जा सकता । बेनफी ने यह ठीक ही कहा था कि ऐसे शब्द केवल वहां प्रयुक्त होते हैं, जहां बोलना सम्भव नहीं होता। इस प्रकार ये भाषा नहीं हैं। यदि इन्हें भाषा का अंग भी माना जाये तो अधिक-से-अधिक इतना कहा जा सकता है, कुछ थोड़े शब्दों को उत्पत्ति की समस्या पर ही इनसे प्रकाश पड़ता है।"१५ सूक्ष्मता से इस सिद्धान्त पर चिन्तन करने पर अनुमित होता है कि भाषा के एक अंश की पूर्ति में इसका कुछ-न-कुछ स्थान है ही । भाषा के सभी शब्द इन्हीं Interjectional (विस्मयादिबोधक) शब्दों से निःसृत हुए, इसे सम्भव नहीं माना जा सकता। अंशतः इस सिद्धान्त का औचित्य प्रतीत होता है। वह इस प्रकार है--विभिन्न भावों के आवेश में आदि मानव ने उन्हें प्रकट करने के लिए जब जैसी बन पड़ी, ध्वनियां उच्चारित की हों। भाषा का अस्तित्व न होने से भाव और ध्वनि का कोई निश्चित द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध नहीं था । एक ही भाव के लिए एक प्रदेशवासी मानवों के मुख से एक ही ध्वनि निकलती रही हो, यह सम्भव नहीं लगता । भाषा के बिना तब कोई व्यवस्थित सामाजिक जीवन नहीं था। इसलिए यह अतर्य नहीं माना जा सकता कि एक ही भाव के लिए कई व्यक्तियों द्वारा कई ध्वनियां उच्चारित हुई हों। फिर ज्यों-ज्यों ध्वनियों या शब्दों का कुछ विकास हुआ, ध्वनियों की विभिन्नता या भेट अनभत होने लगा, तब सम्भवतः किसी एक भाव के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग निश्चित हो गया हो। १. प्रास्तु स्यात् कोपपीड़योः । - अमरकोश, तृतीय काण्ड, नानार्थ वर्ग, पृष्ठ २४० २. घिङ् निर्भत्सननिन्दयोः। -वही, पृ. २४० खेदानुकम्पा सन्तोषविस्मयामन्त्रणे बत । -वही, पृ० २४४ ४. हन्त हर्ष-अनुकम्पायां वाक्यारम्भविषादयोः । -वही, पृ० २४४ साभि त्वः जुगुप्सिते । -वही, पृ० २४६ ६. तुणीमर्थे सुखे जोषम् । -वही, पृ० २५१ ७. प्रलं पर्याप्तशक्तिबारणवाचकम। -वही, पृ०२५२ ८. हवितर्क परिप्रश्ने। -वही, पृ० २५२ है. हा विषादाशुगतिषु । -वही, पृ. २५६ १०. पहहेत्यद्भुते खेदे। -वही, तृतीय कांड, अव्यय वर्ग, प्रलो०७ ११. हिकङ्नाना न-वर्जने । -वही, श्लो०७ १२. माही उताहो किमुत विकल्पे कि किमुत च। -वही, पलो०५ १३. पहो ही च विस्मये। -वही, श्लो०६ १४. ॐ प्रश्न 5 नुनये त्वयि। -वही, श्लो० १८ १५. भाषा विज्ञान, पृ० ३३ १४६ आचार्यरत्न श्री देशभषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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