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________________ या छोड़ देना तो भविष्य की सब सम्भावनाओं को मिटा देता है। उपयुक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में साररूप में भाषा के उद्भव पर कुछ और चिन्तन अपेक्षित होगा । वाक् प्रस्फुटन मानव जैसे-जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विकास की मंजिलों को पार करता हुआ आगे बढ़ता गया, वैसे-वैसे भाषा का भी विकास होता गया । वह ज्यों-ज्यों सघन भाव-संकुलता की स्थिति में आता गया, त्यों-त्यों अपने अन्तरतम की अभिव्यक्ति के लिए आकुलता या उतावलापन भी उसमें व्याप्त होता गया । " आवश्यकता आविष्कार की जननी है" के अनुसार अभिव्यक्ति का माध्यम भी जैसा बन पड़ा, आकलित होता गया। यह अनुकरण, मनोभावाभिव्यंजन तथा इंगित आदि के आधार पर ध्वनि उद्भावना और ( अंशत: ) भाषा संरचना को आदिम दशा का परिचय है । परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वागिन्द्रिय से वाक्- निःसृति के क्रम पर कुछ संकेत पूर्व पृष्ठों में किया गया था। यहां उसका कुछ विस्तार से विश्लेषण किया जा रहा है। वैदिक वाङमय में परा, पश्यन्ती, मध्यमा तथा वैखरी; इन नामों से चार प्रकार की वाणी वर्णित हुई है। महाभाष्यकार पतंजली ने महाभाष्य के प्रारम्भ में ही ऋग्वेद की एक पंक्ति उद्धृत करते हुए इस ओर इंगित किया है। -- साहित्य-दर्पण के टीकाकार प्रसिद्ध विद्वान् महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसाद द्विवेदी ने वर्ण की व्याख्या के प्रसंग में परा, पश्यन्ती आदि वाक् रूपों का संक्षेप में सुन्दर विश्लेषण किया है। उन्होंने लिखा है: "ज्ञान में आये हुए अर्थ की विवक्षा से आत्मा तद्बोधक शब्द के निष्पादन के लिए अन्तःकरण को प्रेरित करता है । अन्तःकरण मूलाधार स्थित अग्नि - ऊष्मा - तेज को संचालित करता है । अग्नि के द्वारा तस्स्थलवर्ती वायु स्पन्दित होता है। इस प्रकार स्पन्दित वायु द्वारा वहां सूक्ष्म रूप में जो शब्द उद्भूत होता है, वह 'परा' वाक् कहा जाता है। तदनन्तर नाभि प्रवेश तक संचालित वायु के द्वारा उस देश के संयोग से जो शब्द उत्पन्न होता है, उसे 'पश्यन्ती' वाक् कहा जाता है। ये दोनों (वाक् ) सूक्ष्म होती हैं; अतः ये परमात्मा या योगी द्वारा ज्ञेय हैं। साधारणजन उन्हें कर्णगोचर नहीं कर सकते । वह वायु हृदय देश तक परिसृत होती है और हृदय के संयोग से जो शब्द निष्पन्न होता है, वह 'मध्यमा' वाक् कहलाता है। कभी-कभी कान बन्द कर सूक्ष्मतया ध्वनि के रूप में जनसाधारण भी उसे अधिगत कर सकते हैं । उसके पश्चात् वह वायु मुख तक पहुंचती है, कण्ठासन्न होती है, मूर्द्धा को आहत करती है, उसके प्रतिघात से वापिस लौटती है तथा मुख-विवर में होती हुई कण्ठ आदि आठ उच्चारण स्थानों में किसी एक का अभिघात करती है, किसी एक से टकराती है। तब जो शब्द उत्पन्न होता है, वह 'वैखरी' वाक् कहा जाता है।"" पाणिनीय शिक्षा में भी शब्द-स्फुटन का मूल इसी तरह व्याख्यात किया गया है। शब्द - निष्पत्ति का यह एक शास्त्रीय क्रम है। भौतिक विज्ञान के साधनों द्वारा इसका परीक्षण नहीं किया जा सकता; क्योंकि वैखरी वाक् से पूर्व तक का क्रम सर्वथा सूक्ष्म या अभौतिक है। फिर भी यह एक ऐसी कार्य-कारण परम्परा को किए हुए है, जो अपने आप में कम वैज्ञानिक नहीं है। भाषा विज्ञान में यद्यपि अद्यावधि यह क्रम सम्पूर्णतः स्वीकृत नहीं है, तथापि यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है, जो दार्शनिक दृष्टि से शब्द नियति का मार्ग प्रशस्त करता है। तात्पर्य यह है कि जब मानव (आत्मा) अन्तःस्थित विचार या भाव, जिसे उक्त उद्धरण में ज्ञात अर्थ कहा गया है, की विवक्षा करता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करना चाहता है, तो वह अपने अन्तःकरण (विचार और भावना के स्थान ) को प्रेरित करता है और यह चिकीर्षा तत्क्षण उससे जुड़ जाती है। उसके बाद अल और अनिल के प्रेरित एवं चलित होने की बात आती है। यह एक सूक्ष्म आवयविक प्रक्रिया है । यह सर्व विदित है और सर्वस्वीकृत भी कि निष्पादन में वाद का महत्वपूर्ण स्थान है। पर वायु को अगामी करने के लिए जोर लगाने की या धकेलने की आवश्यकता होती है। मूलाधार स्थित अग्नि (तेज, ओज ) द्वारा वायु के नाभि देश की ओर चालन का यही अभिप्राय है । नाभि-देश १. गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति । ऋग्वेद १ । १६४।४५ २. चेतनेन ज्ञातार्थविवक्षया सद्बोधकशब्दनिष्पादनाय प्रेरितमन्तःकरणं मूलाधारस्थितमनलं चालयति, तच्चालितोऽनलस्तस्स्थलवति वायुचालनाय प्रभवति, तच्चालितेन वायुना तव सूक्ष्मरूपेणोत्पादितः शब्दः परा वागित्यभिधीयते । ततो नाभिदेशपर्यंन्त चलितेन तेन तद्देशसंयोगादुत्पादितः शब्द पच्यन्तीति व्यवह्निते । एतद्द्वयस्य सूक्ष्म सूक्ष्मतरतयेश्वरयोगिमात्रगम्यता, नास्मदीयश्रुतिगोचरता । तततेनेश्व हृदयदेशं परिसरिता हृदयसंयोगेन निष्पादितः शब्दो मध्यमेत्युच्यते । सा च स्वकर्णपिधानेन ध्यान्यात्मकतया सूक्ष्मरूपेण कदाचिदस्माकमपि समधिगम्या । ततो मुखपर्यन्तमाक्रामता तेन कण्ठदेशमासाद्यमूर्धानमाहृत्य तत्प्रतिघातेन परावृत्य च मुख-विवरे कण्ठादिकेष्यष्टसु स्थानेषु स्वाभिघातेनोत्पादितः शब्द वैखरीति कथ्यते - साहित्य दर्पण, पृ० २६ 1 ३. १५२ प्रात्मा बुद्ध्या समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया । मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयनि मारुतम् ।। Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन पन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210239
Book TitleAdhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size4 MB
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