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________________ यास्क का सूक्ष्म चिन्तन :- • पाणिनि से पूर्ववर्ती निरुक्तकार यास्क ( ई० पू० ८००) के उम कथन पर इस प्रसंग में विचार करना उपयोगी होगा, जो शब्दों के व्यवहार के सम्बन्ध में है । भाषा की उत्पत्ति की समस्या पर भी इससे कुछ प्रकाश पड़ता है। नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात; इन चार पद-भेदों का विवेचन करते हुए प्रासंगिक रूप में उन्होंने शब्द की भी चर्चा की है। उन्होंने लिखा है दीवान है इसलिए लोक में व्यवहार (काम चलाने के लिए वस्तुओं का संज्ञाकरण (नाम या अभिधान) शब्द द्वारा हुआ ।"" उन्होंने भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप में कुछ भी नहीं लिखा है । हो सकता है, उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा हो। इस विषय में वे किसी पूर्व कल्पना या धारणा को लिए हुए हों । संकेत आदि उसके पथेष्ट पूरक नहीं शब्दों को निष्पन्न करता है। शब्द द्वारा लौकिक जनों को पारस्परिक व्यवहार चलाने के लिए कोई एक माध्यम चाहिए हो सकते । तब मनुष्य विभिन्न वस्तुओं की भिन्न-भिन्न संज्ञाएं करना चाहता है । एतदर्थ वह " संज्ञाकरण" का जो कथन निरुक्तकार करते हैं, उससे यह स्पष्ट झलकता है कि उनकी आस्था किसी ईश्वर-कृत भाषा के अस्तित्व में नहीं थी । यदि कोई भाषा ईश्वर-कृत होती, तो उसमें विभिन्न वस्तुओं के अर्थ द्योतक शब्द होते ही। वैसी स्थिति में वस्तुओं के संज्ञाकरण या उन्हें नाम देने की मानव को क्या आवश्यकता पड़ती ? व्यवस्थित ओर ईश्वर कृत भाषा में किसी भी प्रकार की अपरिपूर्णता नहीं होती । वस्तुओं के नामकरण की तभी आवश्यकता पड़ती है, जब भाषा जैसा कोई प्रकार मानव को प्राप्त नहीं हो । यास्क का कथन इसी सन्दर्भ में प्रतीत होता है । भाषा के अनन्य अंग शब्द की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यास्क जो मानव-कृतता की ओर इंगित करते हैं, यह उनका वस्तुतः बड़ा क्रान्तिकारी चिन्तन है । उनके उत्तरवर्ती महान् वैयाकरण पाणिनि तक भाषा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुरातन बद्धमूल रूढ़ धारणा से आगे नहीं बढ़ सके, जब कि यास्क ने उनसे तीन शताब्दी पूर्व ही उपर्युक्त संकेत कर दिया था। इससे स्पष्ट है कि यास्क अपेक्षाकृत अधिक समीक्षक एवं अनुसन्धर थे। यास्क के समक्ष उस समय संस्कृत भाषा थी, जो देव भाषा कहलाती थी। आज भी कहलाती है । यास्क ने देव-भाषा की सिद्धि बड़े चमत्कारपूर्ण ढंग से की है। वे लिखते हैं "मनुष्य वस्तुओं के लिए जो नाम का प्रयोग करते हैं, देवताओं के लिए भी वे वैसे ही हैं ।"" तात्पर्य है, मनुष्य की भाषा को देवता भी उसी रूप में समझते हैं । इससे मानव-भाषा देव भाषा भी है, ऐसा सिद्ध होता है । संस्कृत के लिए इसी कारण देव भाषा शब्द व्यवहृत है, यहां यास्क का ऐसा अभिप्राय प्रतीत होता है । बौद्ध मान्यता :- बौद्ध धर्म का त्रिपिटक के रूप में सारा मूल वाङ् मय मागधी में है, जो आगे चलकर पालि के नाम से प्रसिद्ध हुई । बौद्धों में सिंहली परम्परा की प्रामाणिकता अबाधित है। सबसे पहले सिहल ( लंका) में ही विनय पिटक, सुत पिटक तथा afe free forबद्ध किये गये । सिंहली परम्परा का अभिमत है कि सम्यक् सम्बुद्ध भगवान् तथागत ने अपना धर्मोपदेश मागधी (पालि) में किया। उनके अनुसार मागधी संसार की आदि भाषा है। आचार्य बुद्धघोष ने इस तथ्य का स्पष्ट शब्दों में उदघोष करते हुए लिखा है : "मागधी सभी सत्वों - जीवधारियों की मूल भाषा है ।"" महावंश के परिवर्द्धित अंश चूलवंश का भी इसी प्रकार का एक प्रसंग है। रेवत स्थविर के आदेश से आचार्य बुद्धघोष लंका गये । वहां उन्होंने सिंहलो अट्ठकथाओं का मागधी में अनुवाद किया । उसका उल्लेख करते हुए वहां कहा गया है: “सभी सिंहली अट्ठकथाएं मागधी भाषा में परिवर्तित - अनूदित की गयीं, जो ( मागधी) समस्त प्राणी वर्ग की मूल भाषा है।"" मागधी या पाली के सम्बन्ध में जो सिली परम्परा का विश्वास है, वैसा ही बर्मी परम्परा का भी विश्वास है। इतना ही नहीं, पालि त्रिपिटक में विश्वास रखने वाले प्रायः सभी बौद्ध धर्मानुयायी अपनी धार्मिक भाषा पालि या मागधी को संसार की मूल भाषा स्वकार करते हैं । जैन मान्यता : जैन परम्परा का भी अपने धर्म ग्रन्थों की भाषा के सम्बन्ध में ऐसा ही विश्वास है। जैनों के द्वादशांगमूलक समग्र आगम अर्द्ध-मागधी में हैं। उनकी मान्यता है कि जैन आगम तीर्थंकर महावीर के मुख से निकले उपदेशों का संकलन है, uttarata शब्देन संज्ञाकरणं व्यवहारार्थलोके । १. २ तेषां मनुष्य व देवताभिधानम् । ३. मागधिकाय सव्वसत्तानं मूलभासाय | ४. परिषत्तेत्ति सम्वापि सोहलट्ठकथातदा । सव्वेस मूलभासाय मागधाय निरूतिया | १३८ Jain Education International - निरुक्त; १,२ -विशुद्धिमागा - खूलवंस परिच्छेद ३७ - निरुक्त; १,२ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210239
Book TitleAdhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size4 MB
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