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________________ भी विद्वान् थे । संस्कृत साहित्य की शाखाओं के परिशीलन के समय उनके समक्ष अनेक ऐसे शब्द आये, जिनका उन्हें ध्वनि, गठन आदि की दृष्टि से लैटिन, ग्रीक आदि से सूक्ष्म साम्य प्रतीत हुआ। उनके मन में बड़ा आश्चर्य और कुतूहल जागा उन्होंने संस्कृत के ऐसे अनेक शब्द खोज निकाले, जिनका ग्रीक, लैटिन आदि प्रतीच्य भाषाओं के साथ बहुत सादृश्य था । गहन अध्ययन, विश्लेषण तथा अनुसन्धान के निष्कर्ष के रूप में उन्होंने प्रकट किया कि मेरा अनुमान है कि शब्द, धातु, व्याकरण आदि की दृष्टि से संस्कृत, लैटिन, ग्रीक, गाथिक, काल्टिक तथा पुरानी फारसी का मूल या आदि स्रोत एक है । सन् १७८५ में सर विलियम जॉन्स ने कलकत्ता में रायल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की। उस अवसर पर उन्होंने कहा : "संस्कृत भाषा की प्राचीनता चाहे कितनी ही रही हो, उसका स्वरूप निःसन्देह आश्चर्यजनक है। वह ग्रीक से अधिक परिपूर्ण, लैटिन से अधिक समृद्ध तथा इन दोनों से अधिक 'परिमार्जित है ।"" वैज्ञानिक एवं तुलनात्मक रूप में भाषाओं के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करने वालों में सर विलियम जॉन्स का नाम सदा शीर्षस्थ रहेगा । भाषा-विज्ञान के सूक्ष्म एवं गम्भीर परिशीलन का लगभग उसी समय से व्यवस्थित क्रम चला, उत्तरोत्तर अभिनव उपलब्धियों की ओर अग्रसर होता रहा। यह क्रम विश्व के अनेक देशों में चला और आज भी चल रहा है । इस सन्दर्भ में यह स्मरण करते हुए आश्चर्य होता है और साथ ही प्रेरणा भी मिलती है कि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने भारत की प्राचीन और अर्वाचीन भाषाओं का गहन अध्ययन ही नहीं किया, अपितु उन भाषाओं का भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक रूप में सूक्ष्म विश्लेषण भी किया, जो भाषा विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले मनीषियों, अनुसन्धित्सुओं और अध्येताओं के लिये सईन उद्बोधप्रद रहेगा। प्राच्य मान्यताएं : -भाषा का उद्भव कब हुआ, किस प्रकार हुआ और वह किन-किन विकास क्रमों में से गुजरती हुई वर्तमान अवस्था तक पहुंची, यह एक प्रश्न है; जो आज से नहीं, चिरकाल से है । वास्तव में इसका सही-सही समाधान दे पाना बहुत कठिन है; क्योंकि भाषा भी लगभग उतनी ही चिरन्तन है, जितनी कि मानव जाति । मानव जाति अनादि है, उसी प्रकार भाषा भी अनादि है, इस प्रकार कहा जा सकता है। पर, बुद्धिशील मानव स्वभावतः जिज्ञासु है, इतने मात्र से कैसे परितुष्ट होता ? जीवन के साथ सतत संलग्न भाषा का उद्भव कैसे हुआ, वह विकास और विस्तार के पथ पर किस प्रकार अग्रसर हुई, यह जानने की उत्सुकता उसके मन में सदा से बनी रही है। इस प्रश्न का समाधान पाने को वह चिन्तित रहा है । फलत: अनेक प्रयत्न चले । समाधान भी पाये, पर, भिन्न-भिन्न प्रकार के । आज भी भाषा की उत्पत्ति की समस्या का सर्वसम्मत समाधान नहीं हो पाया है। यहां प्रस्तुत प्रश्न पर अब तक हुए चिन्तन का विहंगावलोकन करते हुए कुछ ऊहापोह अपेक्षित है । विभिन्न धर्मों के लोगों की उद्भावनाओं पर विचार करना पहली अपेक्षा होगी। समाधान खोजने वालों में कई प्रकार के व्यक्ति होते हैं उनकी अपनी कुछ पूर्व संचित धारणाएं होती है आर अतिशय - प्रकाशन की भावना भी । भाषा के उद्भव के प्रश्न पर प्रायः विश्व के सभी धर्मो के अनुयायियों ने अपने-अपने मन्तव्य प्रस्तुत किये हैं। वैदिक मान्यता :- जो वेद में विश्वास करते हैं, उनकी मान्यता है कि वेद मानव कृत नहीं हैं, अपौरुषेय हैं। ईश्वर ने जगत् की सृष्टि की, मानव को बनाया, भाषा की रचना की। ऋषियों के अन्तर्मन में ज्ञान का उद्भाव किया, जो वेद की ऋचाओं और मन्त्रों में प्रस्फुटित हुआ । इनकी भाषा छन्दस् या वैदिक संस्कृत है, जो अनादि है, ईश्वरकृत है, इसलिए इसे वेद - भाषा कहा जाता है । संसार की सभी भाषाएं इसी से निकली हैं। यह मानव की ईश्वर दत्त भाषा है । संस्कृत के महान् वैयाकरण, अष्टाध्यायों के रचयिता पाणिनि ने भी भाषा की ईश्वर- कृतता को एक दूसरे प्रकार से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने व्याकरण के अइउण' आदि सूत्रों के विषय में लिखा है : "सनक आदि ऋषियों का उद्धार करने के लिए अर्थात् उन्हें शब्द-शास्त्र का ज्ञान देने के लिए नटराज भगवान् शंकर ने ताण्डव नृत्य के पश्चात् चौदह बार अपना डमरू बजाया, जिससे चौदह सूत्रों की सृष्टि हुई।" इन्हीं चौदह सूपों पर सारा शब्द-शास्त्र टिका है। १. The Sanskrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either. २. घ्रइउण् १ । ऋलुक, २ । एम्रोङ, ३ । ऐश्रौच् ४ । हयएरट, ५ । लग् ६ । मङणनम् ७ । झभज् ८ । घढधषु । जबागडदश् १० । खफछठयचटतव ११ कपय् १२ । शवस १३ । हल् १४ ॥ ३. नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपंचवारम् । उद्धतु कामः सनकादिसिद्धानेतद्विम शिवसूत्रजालम् ॥ जैन तत्व चिन्तन आधुनिक सन्दर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only १३७ www.jainelibrary.org
SR No.210239
Book TitleAdhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size4 MB
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