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________________ धातुओं के सन्दर्भ में कुछ और कथनीय है। शब्द जिनसे भाषा निष्पन्न होती है, केवल धातुओं से निर्मित नहीं होते । उपसर्ग, प्रत्यय आदि की भी अपेक्षा रहती है, जिनकी इस सिद्धान्त में कोई चर्चा नहीं है। भारोपीय, सामी आदि भाषा-परिवारों में तो धातुओं का बोध होता है, पर, अनेक ऐसे भाषा-परिवार भी हैं, जिनमें धातुओं का पता ही नहीं चलता। यदि 'धातुवाद' के सिद्धान्त को स्वीकार भी कर लिया जाये, तो विश्व की अनेक भाषाओं की उत्पत्ति की समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। धातुओं की मान्यता के सम्बन्ध में एक बात और बड़े महत्त्व की है । जिन भाषाओं में धातुएं हैं, उन भाषाओं के विकसित होने के बहत समय बाद धातुओं की खोज हुई । वे स्वाभाविक नहीं हैं, कृत्रिम हैं। व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान के पण्डितों के प्रयुज्यमान भाषा के संघटन को व्यवस्थित रूप देने के सन्दर्भ में धातु, प्रत्यय, उपसर्ग आदि द्वारा शब्द बनाने का क्रम स्वीकार किया। यह प्रचलित भाषा को परिमाजित और परिष्कृत रूप में प्रतिपादित करने का विधि-क्रम कहा जा सकता है, जो वैयाकरणों ओर भाषा-वैज्ञानिकों ने सूक्ष्म तथा गम्भीर अनुशीलन के अनन्तर उपस्थापित किया। प्रो० मैक्समूलर जैसे प्रौढ़ विद्वान् ने इस सिद्धान्त को एक बार स्वीकार करके भी फिर अस्वीकार कर दिया। उसके पीछे इसी तरह की कारण-सामग्री थी, जो भाषा की उत्पत्ति के प्रसंग में कोई ठोस पृष्ठ-भूमि प्रस्तत नही करती थी। यास्क द्वारा आख्यात-चर्चा :- शब्दों की धातुओं से निष्पति के सम्बन्ध में यास्क ने निरुक्त में चर्चा करते हुए कहा-'नाम (शब्द) आख्यात-क्रिया (धातु) से उत्पन्न हुए हैं," यह निरुक्त-वाङमय है । वैयाकरण शाकटायन भी ऐसा ही मानते हैं । आचार्य गाग्यं तथा अन्य कतिपय वैयाकरण नहीं मानते कि सभी शब्द धातुओं से बने हैं। उनकी युक्तियां हैं, जिस शब्द में स्वर, धातु, प्रत्यय, लोप, आगम आदि संस्कार-संगत हों, दूसरे शब्दों में व्याकरण-शास्त्र की प्रक्रिया के अनुरूप हों, वे शब्द आख्यातज या धातु-निष्पन्न हैं। पर, जहां ऐसी संगति नहीं होती, वे शब्द संज्ञा-वाची हैं, रूढ़ हैं, यौगिक नहीं, जैसे-गो, अश्व, पुरुष, हस्ती। "सभी शब्द यदि धातु-निष्पन्न हों, तो जो वस्तु (प्राणी) जो कर्म करे, वैसा (कम) करने वाली सभी वस्तुएं उसी नाम से अभिहित होनी चाहिए। जो कोई भी अध्व (मार्ग) का अशन-व्यापन करें, शीघ्रता से दौड़ते हुए मार्ग को पार करें, वे सब 'अश्व' कहे जाने चाहिए। जो कोई भो तर्दन करें, चुमें, वे तृण कहे जाने चाहिए। पर, ऐसा नहीं होता। एक बाधा यह आती है, जो वस्तु जितनी क्रियाओं में सम्प्रयुक्त होती है, उन सभी क्रियाओं के अनुसार उस (एक ही) वस्तु के उतने ही नाम होने चाहिए, जैसे-स्थूणा (मकान का खम्भा) दरशया (छेद में सोने वाला-खम्भे को छेद में लगाया जाता है) भी कहा जाये, किन्तु ऐसा नहीं होता। एक और कठिनाई है, यदि सभी शब्द धातु-निष्पन्न होते, तो जो शब्द जिस रूप में व्याकरण के नियमानुसार तदर्थ-बोधक धात से निष्पन्न होते, उसी रूप में उन्हें पुकारा जाता, जिससे अर्थ-प्रतीति में सुविधा रहती। इसके अनुसार पुरुष पुरिशय कहा जाता, अश्व अष्टा कहा जाता और तृण तर्दन कहा जाता । ऐसा भी नहीं कहा जाता है। अर्थ-विशेष में किसी शब्द के सिद्ध या व्यवहृत हो जाने के अनन्तर उसकी व्युत्पत्ति का विचार चलता है, अमुक शब्द किसी धात से बना । ऐसा नहीं होता, तो प्रयोग या व्यवहार से पूर्व भी उसका निर्वचन कर लिया जाना चाहिए था। पृथिवी शब्द का उदाहरण लें । प्रथनात् अर्थात् फैलाये जाने से पृथिवी नामकरण हुआ। इस व्युत्पत्ति पर कई प्रकार की शंकाएं उठती है। इस (पथिवी) को किसने फैलाया ? उसका आधार क्या रहा अर्थात् कहां टिक कर फैलाया । पृथ्वी ही सबका आधार है। जिसे जो पुरुष फैलाये, उसे अपने लिए कोई आधार चाहिए। तभी उससे यह हो सकता है। इससे स्पष्ट है कि शब्दों का व्यवहार देखने पर मानव व्युत्पत्ति साधने का यत्न करता है और सभी व्युत्पत्तियां निष्पादक धातु के अर्थ की शब्द के व्यवहृत या प्रचलित अर्थ में संगति सिद्ध नहीं करतीं। शाकटायन किसी शब्द के अर्थ के अन्वित-अनुगत न होने पर तथा उस (शब्द) की संघटना से संगत धातु से सम्बद्ध न होने पर उस शब्द की व्युत्पत्ति किसी-न-किसी प्रकार से साधने के प्रयत्न में अनेक पदों से उस (शब्द) के अंशों का संचयन कर उसे बनाते हैं । जैसे--- 'सत्य' शब्द का निर्माण करने में 'इण्' (गत्यर्थक) धातु के प्रेरणार्थक (णिजन्त) रूप आयक के यकार को अन्त में रखा, अस् (होना) धातु के णिजन्त-रहित मूल रूप सत् को प्रारम्भ में रखा, इस प्रकार जोड़-तोड़ करने से 'सत्य' शब्द निष्पन्न हुआ। यह सहजता नहीं है। क्रिया का अस्तित्व या प्रवृत्ति द्रव्य पूर्वक है अर्थात् द्रव्य क्रिया से पूर्व होता है। द्रव्य के स्पन्दन आन्दोलन या हलन-चलन की अभिव्यंजना के हेतु किपा अस्तित्व से आता है। ऐसी स्थिति में बाद में होने वाली क्रिया के आधार पर पहले होने वाले द्रव्य का नाम नहीं दिया जा सकता। यहाँ 'अश्व' का उदाहरण ले सकते हैं । व्युत्पत्ति के अनुसार शीघ्र दौड़ने के कारण एक प्राणी विशेष अश्व' शब्द से संज्ञित होता, तो यह संज्ञा उसकी (शीघ्र दौड़ना रूप) क्रिया के देखने के बाद उसे दी जाती, पर, वस्तु-स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। अश्वाभिध प्राणी के उत्पन्न होते ही, जब वह चलने में भी अक्षम होता है, यह संज्ञा उसे प्राप्त है। ऐसी स्थिति में उसकी व्युत्पत्ति की संगति धटित नहीं होती। जैन तसब चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210239
Book TitleAdhunik Bhashavigyan ke Sandarbh me Jain Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size4 MB
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