Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 6
________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक परिग्रह से बंध अनिवार्य - साधुर्यतोऽङ्गिघातेऽपि कर्मभिर्बध्यते न वा। उपाधिभ्यो ध्रुवो बन्धस्त्याज्यास्तैः सर्वथा ततः ।।३९०।। आहार-विहारादि के समय मुनिराज के शरीर की क्रिया के निमित्त से और प्रमादरूप परिणाम के सद्भाव से अन्य जीव की हिंसा होने पर मुनिराज को कर्म का बंध होता है और कभी कायचेष्टा के कारण जीव के घात होनेपर भी यदि प्रमादरूप परिणाम न हों तो कर्म का बंध नहीं होता; परंतु परिग्रह के कारण नियम से कर्म का बंध होता ही है। इसलिए मुनिराज परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं। अति अल्प परिग्रह भी बाधक - एकत्राप्यपरित्यक्ते चित्तशुद्धिर्न विद्यते । चित्तशुद्धिं बिना साधोः कुतस्त्या कर्म-विच्युतिः ।।३९१।। यदि मुनिराज एक भी परिग्रह का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् अत्यल्प भी परिग्रह का स्वीकार करेंगे तो - उनके चित्त की पूर्णतः विशुद्धि नहीं हो सकती और चित्तशुद्धि के बिना साधु के कर्मों से मुक्ति कैसे होगी? अर्थात् परिग्रह सहित साधु कर्मों से मुक्त नहीं हो सकते। मोक्षाभिलाषी साधु का स्वरूप - मोक्षाभिलाषिणां येषामस्ति कायेऽपि निस्पृहा । न वस्त्वकिंचनाः किंचित् ते गृह्णन्ति कदाचन ।।३९८।। मात्र मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले साधुजन अपने शरीर से भी विरक्त रहते हैं; इसकारण अपरिग्रहमहाव्रत के धारक मुनिराज अत्यल्प भी बाह्य परिग्रह को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करते। (२०) अनाहारी मुनिराज का स्वरूप - आत्मनोऽन्वेषणा येषां भिक्षा येषामणेषणा। संयता सन्त्यनाहारास्ते सर्वत्र समाशयाः ।।४१३।। जो मुनिराज सतत् आत्मा की अन्वेषणा/खोज में लगे रहते हैं (अर्थात् जो शुद्धोपयोग अथवा शुद्धपरिणतिजन्य आनन्द का रसास्वादन करते रहते हैं) जिनका आहार इच्छा से रहित अर्थात् नियम से अनुदिष्ट/ सहज प्राप्त रहता है, जो अनुकूल-प्रतिकूल सब संयोग-वियोग में सर्वत्र सदा राग-द्वेष परिणामों से रहित अर्थात् वीतराग परिणाम से परिणमित रहते हैं, उन मुनिराजों को अनाहारी संयत कहते हैं। (२१) देहमात्र परिग्रहधारी साधु का स्वरूप - यः स्वशक्तिमनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते। साधुः केवलदेहोऽसौ निष्प्रतीकार-विग्रहः ।।५१४।। जो मुनिराज शरीर का प्रतिकार अर्थात् शोभा, श्रृंगार, तेल मर्दनादि संस्कार करनेरूप राग परिणाम से रहित हैं, संयोगों में प्राप्त अपनी शरीर की सामर्थ्य और पर्यायगत अपनी आत्मा की पात्रता को न छिपाते हुए सदा अंतरंग एवं बाह्य तपों को तपने में तत्पर रहते हैं, वे देहमात्र परिग्रहधारी साधु हैं। अग्राह्य परिग्रह का स्वरूप - संयमो हन्यते येन प्रार्थ्यते यदसंयतैः । येन संपद्यते मूर्छा तन्न ग्राह्यं हितोद्यतैः ।।३९७।। जो साधु अपनी हित की साधना में उद्यमी हैं, वे उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करते, जिनसे उनकी संयम की हानि हो; ममत्व परिणाम की उत्पत्ति हो अथवा जो पदार्थ असंयमी के द्वारा प्रार्थित हो अर्थात जिन्हें असंयमी लोग निरंतर चाहते हैं।

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