Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 18
________________ योगसारप्राभृत शतक ३० हैं, अतः ज्ञानी भी विषयों को जानते हुए बन्धते नहीं हैं - इसमें क्या आश्चर्य है ? ) । (९३) मिथ्यात्व ही आसव का प्रमुख कारण चेतनेऽचेतने द्रव्ये यावदन्यत्र वर्तते । स्वकीयबुद्धितस्तावत्कर्मागच्छन् न वार्यते । । ११६ ।। जब तक अज्ञानी अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव, चेतन अथवा अचेतन किसी भी परद्रव्य में अपनेपन की बुद्धि से प्रवृत्ति करता है अर्थात् पर में अपनत्व की मान्यता रखता है, तबतक अष्ट कर्मों के आस्रव को रोका नहीं जा सकता । (९४) पर से सुख-दुःख की मान्यता से निरन्तर आस्रव - परेभ्य: सुख-दुःखानि द्रव्येभ्यो यावदिच्छति । तावदास्रव-विच्छेदो न मनागपि जायते ।। १२६ ।। जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दुःख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दुःख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है। (९५) व्यवहार चारित्र से मुक्ति नहीं पापारम्भं परित्यज्य शस्तं वृत्तं चरन्नपि । वर्तमानः कषायेन कल्मषेभ्यो न मुच्यते । ।१४७।। हिंसादि पाँच पाप और पापजनक आरम्भ को छोड़कर (२८ मूलगुणरूप) पुण्यमय आचरण करता हुआ भी (मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि) योगसारप्राभूत शतक ३१ यदि (पुण्य-पाप को उपादेय माननेरूप) कषाय अर्थात् मिथ्यात्व के साथ वर्त रहा है तो वह मिथ्यात्वरूप पाप से नहीं छूटता । (९६) कर्मबंध में बाह्य वस्तु अकिंचित्कर जायन्ते मोह-लोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुत: । तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुत: ।। १४८ ।। यद्यपि वस्तु के अर्थात् बाह्य परपदार्थ के निमित्त से मोह तथा लोभादिक दोष उत्पन्न होते हैं; तथापि कर्म का बन्ध, उत्पन्न हुए दोषों के कारण होता है, न कि वस्तु के कारण अर्थात् परपदार्थ बन्ध का कारण नहीं है। (९७) कर्मबन्ध का स्वामी - रागद्वेषद्वयालीढः कर्म बध्नाति चेतनः । व्यापारं विदधानोऽपि तदपोढ़ो न सर्वथा । । १५३ ।। राग-द्वेष- दोनों से सहित चेतन / आत्मा कर्म को बांधता है और राग-द्वेष से रहित आत्मा मन-वचन-काय की क्रिया को करता हुआ भी कर्म का बन्ध किंचित् मात्र भी नहीं करता । ( ९८-९९ ) कर्मबन्ध का कारण कषायों से आकुलित चित्त - सर्वव्यापारहीनोऽपि कर्ममध्ये व्यवस्थितः । रेणुभिर्व्याप्यते चित्रैः स्नेहाभ्यक्ततनुर्यथा । । १५६ ।। समस्तारम्भ - हीनोऽ पि कर्ममध्ये व्यवस्थितः । कषायाकुलितस्वान्तो व्याप्यते दुरितैस्तथा । । १५७ ।। जिसप्रकार शरीर में तैलादि की मालिश किया हुआ पुरुष धूलि से व्याप्त कर्मक्षेत्र में बैठा हुआ समस्त व्यापार से हीन होता हुआ अर्थात्

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