Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ योगसारप्राभृत शतक जैसे स्वभाव से निर्मल शंख स्वयं अपने स्वभाव से ही शुक्लता में परिवर्तित होता है, अन्य किसी से नहीं; वैसे जीव पवित्र रत्नत्रय की आराधना में स्वयं प्रवृत्त होता है; अन्य किसी से नहीं। (८७) योगसारप्राभृत शतक समस्त प्रकार के आग्रहों से/एकांत अभिनिवेशों से रहित हो जाते हैं अर्थात् मध्यस्थ/सहज रहते हैं वे ही सिद्धपद को प्राप्त करते हैं। (९०) जीव के भाव एवं उनका कार्य भावः शुभोऽशुभ: शुद्धोधा जीवस्य जायते । । यतः पुण्यस्य पापस्य निर्वृतेरस्ति कारणम् ।।५१८।। अनेक जीवों की अपेक्षा से जीव के भाव तीन प्रकार के होते हैं - एक शुभ, दूसरा अशुभ और तीसरा शुद्ध । इनमें से शुभभाव पुण्य का कारण है, अशुभभाव पाप का और शुद्धभाव निर्वृति अर्थात् मोक्ष का कारण है। मिथ्याश्रद्धादि में जीव, स्वयं प्रवृत्त होता है - स्वयमात्मा परं द्रव्यं श्रद्धते वेत्ति पश्यति । शख-चूर्ण: किमाश्रित्य धवलीकुरुते परम् ।।२२८।। जैसे शंख का चूर्ण किसी भी अन्य का आश्रय न लेकर स्वयं दूसरे को धवल करता है; वैसे आत्मा स्वयं परद्रव्य को देखता, जानता और श्रद्धान करता है। (८८) विशुद्धभावधारी कर्मक्षय का अधिकारी - शुभाशुभ-विशुद्धेषु भावेषु प्रथम-द्वयम् । यो विहायान्तिमं धत्ते क्षीयते तस्य कल्मषम् ।।२६१।। जीव के शुभ, अशुभ एवं विशुद्ध इसतरह तीन भाव हैं। इनमें से पहले शुभ-अशुभ-इन दो भावों को छोड़कर अर्थात् हेय मानते हुए/ गौण कर अंतिम अर्थात् तीसरे विशुद्ध भावों को जो धारण करते हैं, वे साधक कषायों का नाश करते हैं। मोक्ष के उपाय का उपदेश - ततः शुभाशुभौ हित्वा शुद्ध भावमधिष्ठितः। निर्वृतो जायते योगी कर्मागमनिवर्तकः ।।५१९।। इस कारण जो योगी कर्मों के आस्रव का निरोधक है, वह शुभअशुभ भावों को छोड़कर शुद्धभाव/वीतराग भाव में अधिष्ठित अर्थात् विराजमान होता हुआ मुक्ति को प्राप्त होता है। मुमुक्षुओं का स्वरूप - न कुत्राप्याग्रहस्तत्त्वे विधातव्यो मुमुक्षुभिः । निर्वाणं साध्यते यस्मात् समस्ताग्रहवर्जितैः ।।४९०।। जो मोक्ष के अभिलाषी/इच्छुक जीव हैं, उन्हें अन्य किसी भी तत्त्व का अर्थात् व्यवहार धर्म के साधन/निमित्तरूप पुण्यपरिणामों का अथवा शुभ क्रियाओं का आग्रह/हठ नहीं रखना चाहिए; क्योंकि जो स्पर्शादि विषयों को जानने से कर्मबंध नहीं - विषयं पञ्चधा ज्ञानी बुध्यमानो न बध्यते। त्रिलोकं केवली किं न जानानो बध्यतेऽन्यथा ।।५२५।। ज्ञानी पाँच प्रकार के इन्द्रिय विषयों (स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण-शब्द) को जानते हुए भी कर्मबन्ध को प्राप्त नहीं होते। (यदि विषयों को जानने से ज्ञानी बन्ध को प्राप्त हो तो) तीन लोक को जाननेवाले केवली भगवान क्या बन्ध को प्राप्त नहीं होंगे? (अवश्य बन्धेगे, किन्तु वे तो नहीं बन्धते

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19