Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक सर्व पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में मग्न/लीन हैं; इसकारण निश्चयनय से कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ का कुछ भी कार्य नहीं कर सकता। (८०) प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र नान्यद्रव्य-परीणाममन्य-द्रव्यं प्रपद्यते । स्वान्य-द्रव्य-व्यवस्थेयं परस्य घटते कथम् ।।१२५।। अन्य द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य को प्राप्त नहीं होता अर्थात् एक द्रव्य का परिणमन दूसरे द्रव्य के परिणमनरूप कभी नहीं होता, यदि ऐसा न माना जाय तो यह स्वद्रव्य-परद्रव्य की व्यवस्था कैसे बन सकती है? अर्थात् नहीं बन सकती। सब द्रव्य स्वस्वभाव में स्थित - सर्वे भावा:स्वभावेन स्वस्वभाव-व्यवस्थिताः । न शक्यन्तेऽन्यथाकर्तुं ते परेण कदाचन ।।५०२।। (जाति की अपेक्षा जीवादि छह द्रव्य और संख्या की अपेक्षा अनंतानंत) सब द्रव्य स्वभाव से अपने-अपने स्वभाव अर्थात् स्वरूप में सदा स्थित रहते हैं; वे सभी द्रव्य पर के द्वारा कभी अन्यथारूप नहीं किये जा सकते। (८४) नय-सापेक्ष आत्मा का कर्तापना - शुभाशुभस्य भावस्य कर्तात्मीयस्य वस्तुतः। कर्तात्मा पुनरन्यस्य भावस्य व्यवहारतः ।।११७।। आत्मा निश्चय से अपने शुभ तथा अशुभ भाव/परिणाम का कर्ता है और व्यवहार से पर द्रव्य के भाव का कर्ता है। (८१) सब स्वतंत्र एवं स्वाधीन - कषाया नोपयोगेभ्यो नोपयोगाः कषायतः। न मूर्तामूर्तयोरस्ति संभवो हि परस्परम् ।।१३०।। ज्ञान-दर्शनरूप उपयोगों से क्रोधादि कषाय उत्पन्न नहीं होते और कषायों से ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग उत्पन्न नहीं होता। अमूर्तिक द्रव्य से मूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो और मूर्तिक द्रव्य से अमूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो - ऐसी परस्पर उत्पत्ति संभव ही नहीं है। सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का कोई भी कर्ता-हर्ता नहीं - उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति जीवस्य परिणामिनः । ततः स्वयं स दाता न, परतो न कदाचन ।।२०९।। परिणमनशील जीव की ये सम्यग्दर्शनादि पर्यायें स्वयं से उत्पन्न होती हैं और स्वयं विनाश को प्राप्त होती हैं। इसलिए जीव द्रव्य भी इन सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का दाता अर्थात् कर्ता-हर्ता नहीं है और कोई परद्रव्य भी सम्यग्दर्शनादि पर्यायों का उत्पाद तथा व्यय कभी भी नहीं करते। सर्व परद्रव्यों से आत्मा का संबंध नहीं - स्पृश्यते शोध्यते नात्मा मलिनेनामलेन वा। पर-द्रव्य-बहिर्भूतः परद्रव्येण सर्वथा ।।२८१।। समल अथवा निर्मल कोई भी परद्रव्य आत्मा को स्पर्श नहीं कर सकता और आत्मा को शुद्ध भी नहीं कर सकता; क्योंकि आत्मा परद्रव्यों से सर्वथा बहिर्भूत अर्थात् भिन्न है। सम्यक् श्रद्धानादि में जीव स्वयं प्रवृत्त होता है - रत्नत्रये स्वयं जीवः पावने परिवर्तते । निसर्गनिर्मलः शङ्ख: शुक्लत्वे केन वर्त्यते ।।२२७।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19