Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ २२ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक से होती है; इसलिए विद्वानों को समीचीन साधनों अर्थात् सम्यक् उपाय करने में अतिशय आदर रखना चाहिए। (७०) आत्मध्यान की बाह्य सामग्री - उत्साहो निश्चयो धैर्य संतोषस्तत्त्वदर्शनम् । जनपदात्ययः षोढा सामग्रीयं बहिर्भवा ।।३४३।। अध्यात्मचिंतन अर्थात् निज शुद्धात्मध्यान के लिये उत्साह, निश्चय अर्थात् स्थिर विचार, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन, जनपद-त्याग अर्थात् सामान्यजनों से संपर्क का त्याग यह छह प्रकार की बाह्य सामग्री है। विद्वानों का संसार - संसारः पुत्र-दारादिः पुंसां संमूढचेतसाम् । संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितात्मनाम्।।३४६।। जो मनुष्य स्त्री-पुत्रादिक परद्रव्य में आसक्त होने से अच्छी तरह मूढचित्त अर्थात् अज्ञानी हैं, उनका संसार स्त्री-पुत्रादिक है। जो विद्वान शास्त्रार्थ को जानते हुए भी अध्यात्म से अर्थात् आत्मलीनता से रहित हैं, उनका संसार शास्त्र है। (७१) (६८) सध्यानरूपी खेती करने की प्रेरणा - ज्ञान-बीजं परं प्राप्य मानुष्यं कर्मभूमिषु । न सद्ध्यानकृषेरन्तः प्रवर्तन्तेऽल्पमेधसः ।।३४७।। कर्मभूमियों में दुर्लभ मनुष्यता और सर्वोत्तम ज्ञानरूपी बीज को पाकर भी जो मनुष्य प्रशस्त ध्यानरूप खेती के भीतर प्रवृत्त नहीं होते अर्थात् मोक्षप्रदाता सम्यग्ध्यान की खेती नहीं करते, वे मनुष्य अल्पबुद्धि अर्थात् अज्ञानी है। आत्मध्यान की अंतरंग सामग्री - आगमेनानुमानेन ध्यानाभ्यास-रसेन च । त्रेधा विशोधयन् बुद्धिं ध्यानमाप्नोति पावनम्।।३४४।। आगम से, अनुमान ज्ञान से और ध्यानाभ्यासरूप रस से - इन तीन प्रकार की पद्धति से अपनी बुद्धि को विशुद्ध करनेवाला ध्याता/साधक, पवित्र आत्मध्यान को प्राप्त होता है। (६९) विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल - आत्म-ध्यान-रति यं विद्वत्तायाः परं फलम् । अशेष-शास्त्र-शास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनैः।।३४५।। विद्वत्ता का सर्वोत्तम फल निज शुद्धात्म ध्यान में रति अर्थात् आत्मलीनता ही जानना चाहिए। यदि विद्वत्ता प्राप्त होने पर भी वह विद्वान मनुष्य आत्म-मग्नतारूप कार्य न करे तो संपूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना अर्थात् जानना भी संसार ही है; ऐसा बुद्धिधनधारकों ने अर्थात् महान विद्वानों ने कहा है। मुक्ति का कारण - कारणं निर्वृतेरेतच्चारित्रं व्यवहारतः । विविक्तचेतनध्यानं जायते परमार्थतः ।।४५१।। इस चारित्र अधिकार में २८ मूलगुणों की मुख्यता से कहा हुआ चारित्र व्यवहारनय से निर्वाण/मुक्ति का कारण है। निश्चयनय से कर्मरूपी कलंक से रहित निज शुद्धात्मा का ध्यान ही निर्वाण का कारण है।

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