Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ योगसारप्राभृत शतक (६०) सर्वोत्तम निर्जरा का स्वामी - आत्मतत्त्वरतो योगी कृत-कल्मष-संवरः। यो ध्याने वर्तते नित्यं कर्म निर्जीर्यतेऽमुना ।।२५७।। जो मुनिराज निज शुद्ध आत्मतत्त्व में सदा लवलीन रहते हैं, जिन्होंने सकल कषाय-नोकषायरूप पाप का संवर किया है तथा जो सदा मात्र ध्यान में प्रवृत्त रहते हैं, वे ही कर्मों की उत्कृष्ट निर्जरा करते हैं, अन्य कोई नहीं। (६१) शुद्धात्मध्यान से मोह का नाश - न मोह-प्रभृति-च्छेदः शुद्धात्मध्यानतो बिना। कुलिशेन बिना येन भूधरो भिद्यते न हि ।।३०६।। जिसप्रकार वज्र के बिना पर्वत नहीं भेदा जाता, उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के ध्यान के बिना मोहादि कर्मों का छेद अर्थात् नाश नहीं होता। योगसारप्राभृत शतक जिसप्रकार चलने में विलंब करनेवाला प्रमादी मनुष्य अपने इच्छित स्थान पर्यंत नहीं पहुँच पाता; उसीप्रकार जो कोई साधक, वाद-प्रतिवाद के चक्कर में पड़े रहते हैं; वे निश्चितरूप से तत्त्व के अंत को अर्थात् परमात्म पद को प्राप्त नहीं होते अर्थात् संसार में ही भटकते रहते हैं। (६४) शुद्धात्मा का ध्यान अलौकिक फलदाता - चिन्त्यं चिन्तामणिदत्ते कल्पितं कल्पपादपः । अविचिन्त्यमसंकल्प्यं विविक्तात्मानुचिन्तितः ।।३३८।। चिंतामणि रत्न के सामने बैठकर जीव जिन वस्तुओं का चिंतन करता है, चिंतामणि रत्न उन वस्तुओं को जीव को देता है और कल्पवृक्ष कल्पित पदार्थों को देता है; परंतु त्रिकाली निज शुद्धात्मा का ध्यान जीव के लिये अचिंत्य और अकल्पित पदार्थों को देता है। ध्यान के लिए प्रेरणा - अतोऽत्रैव महान् यत्नस्तत्त्वतः प्रतिपत्तये । प्रेक्षावता सदा कार्यो मुक्त्वा वादादिवासनाम् ।।३३३।। इसलिए विचारशील भव्य जीवों को वास्तविक देखा जाय तो वादविवाद, चर्चा, उहापोह, प्रश्नोत्तर, उपदेश करना आदि सब छोडकर निरंतर इस अत्यंत उपकारक ध्यान के लिए ही महान प्रयास करना चाहिए। शुद्धात्म-ध्यान से कामदेव का सहज नाश - जन्म-मृत्यु-जरा-रोगा हन्यन्ते येन दुर्जयाः। मनोभू-हनने तस्य नायासः कोऽपि विद्यते ।।३३९।। जिस शुद्धात्मा के ध्यान से दुर्जय अर्थात् जीतने के लिये कठिन जन्म, जरा, मरण, रोग आदि जीव के विकार नाश को प्राप्त होते हैं, उस शुद्धात्मा को काम विकार के हनन में कोई भी नया श्रम करना नहीं पड़ता - वह तो उससे सहज ही विनाश को प्राप्त हो जाता है। वाद-विवाद का फल - वादानां प्रतिवादानां भाषितारो विनिश्चितम् । नैव गच्छन्ति तत्त्वान्तं गतेरिव विलम्बिनः ।।३३५।। समीचीन साधनों में आदर आवश्यक - उपेयस्य यतः प्राप्तिर्जायते सदुपायतः । सदुपाये ततः प्राज्ञैर्विधातव्यो महादरः।।३४१।। क्योंकि उपेय अर्थात् मोक्षरूप साध्य की सिद्धि समीचीन साधनों

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