Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 4
________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक (४) एक निज परम तत्त्व ही उपादेय - विविक्तमान्तरं ज्योतिर्निराबाधमनामयम् । यदेतत् तत्परं तत्त्वं तस्यापरमुपद्रवः ।।४८९।। यह जो विविक्त अर्थात् कर्मरूपी कलंक से रहित-अनादि अनंत, स्वभाव से सर्वथा शुद्ध, निर्भय, निरामय/निर्विकार अंतरंग ज्योति अर्थात् ज्ञानमय आत्मतत्त्व है, वही परम तत्त्व है, उससे भिन्न अन्य सब उपद्रव है। वीतरागता से विवाद का अभाव - ज्ञाते निर्वाण-तत्त्वेऽस्मिन्नसंमोहेन तत्त्वतः। मुमुक्षूणां न तद्युक्तौ विवाद उपपद्यते ॥४४८।। जिनेन्द्रदेव ने मोक्षतत्त्व का कथन असंमोहरूप से अर्थात् वीतरागतापूर्वक जानकर किया है; अतः मुमुक्षुओं के लिये किये गये मोक्षसंबंधी कथन में विवाद अर्थात् मतभेद नहीं हो सकता। (८) आत्मा भी अपने स्वभाव में स्थित - नान्यथा शक्यते कर्तुं मिलद्भिरिव निर्मलः। आत्माकाशमिवामूर्तः परद्रव्यैरनश्वरः ।।५०३।। जिसप्रकार आकाशद्रव्य स्वभाव से निर्मल, अमूर्त तथा अविनश्वर है, वह उसमें अवगाहन प्राप्त करनेवाले जीवादि अनंतानंत द्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता; उसी प्रकार स्वभाव से निर्मल, अमूर्तिक अविनश्वर आत्मा उसके संयोग में आनेवाले अनंतानंत द्रव्यों के द्वारा अन्यथारूप नहीं किया जा सकता, वह ज्ञानस्वभावी ही रहता है। सर्वज्ञता से मोक्षमार्ग में एकरूपता - सर्वज्ञेन यतो दृष्टो मार्गो मुक्तिप्रवेशकः । प्राञ्जलोऽयं ततो भेदः कदाचिन्नात्र विद्यते ।।४४९।। क्योंकि केवलज्ञान से देखा अर्थात् जाना गया मुक्तिप्रवेशमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग प्रांजल अर्थात् स्पष्ट एवं निर्दोष है; इसलिए मोक्षमार्ग के स्वरूप में तथा कथन में कभी कोई मतभेद नहीं होता; इसका अर्थ मोक्षमार्ग में नियम से एकरूपता रहती है। सम्यक्त्व का स्वरूप - यथा वस्तु तथा ज्ञानं संभवत्यात्मनो यतः। जिनैरभाणि सम्यक्त्वं तत्क्षमं सिद्धिसाधने।।१६।। आत्मवस्तु जिस रूप में है, उसको उसी रूप में जानना जिस कारण से होता है, उसको जिनेन्द्र देव ने सम्यक्त्व कहा है। वह सम्यक्त्व आत्मसिद्धि का साधन है। शास्त्र संबंधी आदर का सहेतुक कथन - उपदेशं विनाप्यङ्गी पटीयानर्थकामयोः । धर्मे तु न विना शास्त्रादिति तत्रादरो हितः ।।४२६।। चतुर्गतिरूप दु:खद संसार में स्थित मनुष्यादि सब जीव अर्थ और काम पुरुषार्थों के साधनों में उपदेश के बिना भी निपुण रहते हैं अर्थात् प्रवृत्ति करते ही हैं, परन्तु धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ के साधनों में शास्त्र के बिना अनादिकाल से कोई भी जीव प्रवृत्त नहीं होता; इसलिए शास्त्रसंबंधी आदर होना अतिशय हितकारक है।Page Navigation
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