Book Title: Yogasara Prabhrut Shatak Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 8
________________ योगसारप्राभृत शतक योगसारप्राभृत शतक निज आत्मा के विचार में निपुण रागरहित जीव (साम्यभावरूप परिणमित सम्यग्दृष्टि) निर्दोष श्रुतज्ञान से भी आत्मा को केवलज्ञान के समान जानते हैं। (३२) सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति का काल - रागद्वेषापराधीनं यदा ज्ञानं प्रवर्तते। तदाभ्यधायि चारित्रमात्मनो मलसूदनम् ।।३५ ।। जब ज्ञान अर्थात् आत्मा राग-द्वेष की पराधीनता से रहित प्रवर्तता है, तब आत्मा के कर्मरूपी मल का नाशक चारित्र होता है, ऐसा कहा है। (२८) कर्ताबुद्धि मिथ्या है - कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयोः। उपकुर्वेऽपकुर्वेऽहं मिथ्येति क्रियते मतिः ।।१६२।। कोई भी द्रव्य अन्य किसी भी द्रव्य का उपकार तथा अपकार करनेवाला नहीं है। व्यावहारिक जीवन में मैं दूसरों का कल्याण/अच्छा करता हूँ अथवा मैं अकल्याण/बुरा करता हूँ; यह मान्यता मिथ्या/ खोटी है। (२९) ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता - चक्षुर्गुण्ाद्यथारूपं रूपरूपं न जायते । ज्ञानं जानत्तथा ज्ञेयं ज्ञेयरूपं न जायते ।।२२।। जिसप्रकार आँख रंग-रूप को ग्रहण करती/जानती हुई रंग-रूपमय नहीं हो जाती, उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता हुआज्ञेयरूप नहीं होता; परन्तु ज्ञानरूप ही रहता है। (३०) ज्ञान, स्वभाव से ही स्व-पर प्रकाशक है - ज्ञानमात्मानमर्थं च परिच्छित्ते स्वभावतः। दीप उद्योतयत्यर्थं स्वस्मिन्नान्यमपेक्षते।।२४ ।। ज्ञान अपने को और पदार्थ को स्वभाव से जानता है। जैसे - दीपक पदार्थ को प्रकाशित करता है, उसे अपने को प्रकाशित करने में भी किसी अन्य की अपेक्षा नहीं होती है। आत्मरमणता से पापों का पलायन - हिंसत्वं वितथं स्तेयं मैथुनं सङ्गसंग्रहः । आत्मरूपगते ज्ञाने नि:शेषं प्रपलायते ।।३७ ।। ज्ञान के आत्मरूप में परिणत होने पर अर्थात् आत्मा के आत्मस्वरूप में लीन होने पर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह - ये पाँचों पाप भाग जाते हैं अर्थात् कोई भी पाप नहीं रहता। (३४) ज्ञान और वेदन की परिभाषा - यथावस्तुपरिज्ञानं ज्ञानं ज्ञानिभिरुच्यते । राग-द्वेष-मद-क्रोधैः सहितं वेदनं पुनः ।।१७३।। जो वस्तु जिस रूप में स्थित है, उसे उसी रूप में जानने को ज्ञानीजनों ने ज्ञान कहा है और जो जानना राग-द्वेष, मद, क्रोध सहित होता है, उसे वेदन कहते हैं। श्रुतज्ञान से भी केवलज्ञान के समान आत्मबोध की प्राप्ति - आत्मा स्वात्मविचारहीरागीभूतचेतनैः । निरवद्यश्रुतेनापि केवलेनेव बुध्यते ।।३४ ।।Page Navigation
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