Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ पंचम खण्ड |८० अर्चनार्चन शास्त्रयोगी की दूसरी विशेषता श्रद्धालुता है। वह परम श्रद्धावान् होता है। परमार्थ के प्रति, प्राप्त पुरुषों के प्रति, शास्त्र और सद्गुरु के प्रति उसके मन में अटल श्रद्धा होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में बतलाया गया है-- "मनुष्य-जन्म, श्रुति-धर्म-श्रवण, श्रद्धा तथा संयम में पराक्रम-चारित्र-पालन में तीव्र प्रयत्न-प्राणी को ये चार उत्तम संयोग प्राप्त होने बहुत दुर्लभ हैं।'' ये चारों ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनमें जीवन की सार्थकता समाहित है। इनमें भी श्रद्धा का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि श्रद्धा के अभाव में इन सबकी सार्थकता निरस्त हो जाती है। गीता में विभिन्न प्रसंगों पर श्रद्धा का बड़ा मार्मिक विश्लेषण हया है। गीताकार ने कहा है---ज्ञान-रहित, श्रद्धा-रहित और संशय-ग्रस्त पुरुष-ये तीनों विनष्ट हो जाते हैं, अर्थात् उनका उत्थान अवरुद्ध हो जाता है। उन्होंने संशयापन्नता को तो और भी बुरा बतलाया है। कहा है कि संशयात्मा का न यह लोक सधता है और न परलोक ही सधता है, उसे कहीं सुख प्राप्त नहीं होता।' आचार्य शंकर ने इस प्रसंग की व्याख्या में बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है "यद्यपि प्रज्ञ और श्रद्धाशून्य-ये दोनों नष्ट होते ही हैं, पर उस तरह नहीं, जिस तरह संशयात्मा । संशयात्मा तो सर्वाधिक पापिष्ठ है ।"3 वास्तव में प्राणी का जीवन श्रद्धा, प्रास्था और विश्वास पर टिका है। समग्र जीवनव्यवहार के मूल प्रेरक स्रोत यही हैं । श्रद्धा और विश्वास के सहारे व्यक्ति कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है, क्या से क्या कर डालता है । गीताकार ने "श्रद्धामयोयं पुरुष:"-यह पुरुष श्रद्धामय है, ऐसा जो उल्लेख किया है, बड़ा पारमार्थिक है। इसके साथ “यो यच्छद्धः स एव सः" गीताकार ने इतना और कहा है। अर्थात् जिस प्राणी की जैसी श्रद्धा है, वह स्वयं भी वही है, उस श्रद्धा के अनुरूप ही है। श्रद्धा से अन्त:शक्ति का उद्रेक होता है। महाभारत में वर्णित एकलव्य का वत्तान्त इसका साक्षी है । एकलव्य ने प्राचार्य द्रोण की मृत्तिकानिर्मित प्रतिमा में गुरुत्व की श्रद्धा कर धनुर्विद्या में अप्रतिम कौशल प्राप्त किया, जो द्रोण के परम प्रिय और योग्य शिष्य अर्जन के लिए भी ईर्ष्या का विषय बन गया। १. चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुइ सद्धा संजमम्मि य वीरियं ।। -उत्तराध्ययनसूत्र ३.१ प्रज्ञश्चाश्रद्धानश्च संशयात्मा विनश्यति । नायं लोकोऽस्ति न परोन सुखं संशयात्मनः ॥ -श्रीमद्भगवद्गीता ४.४० प्रज्ञाश्रद्धानौ यद्यपि विनश्यतः तथापि न तथा यथा संशयात्मा, संशयात्मा तु पापिष्ठः सर्वेषाम् ॥ ४. श्रीमद्भगवद्गीता १७.३, शांकरभाष्य ४.४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25