Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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पंचम खण्ड / ९२
अन्तर नहीं होता, इसलिए उससे भी साधक का कोई विशेष काम नहीं बनता । इतना सा है, मित्रा दृष्टि में जो दिव्य झलक मिली थी, वह कुछ अधिक ज्योतिर्मयता के साथ साधक को तारा दृष्टि में प्राप्त होती है। क्षणिक, मन्द, अस्थायी तथा अल्पशक्तिक होते हुए भी तरतमता की दृष्टि से मित्रा की अपेक्षा इसमें न्यून ही सही, पर बोधज्योति का थोड़ा फर्क श्रवश्य रहता है, जो साधक को सहसा अध्यात्म - उद्बोध की कुछ विशद झलक दे जाता है, पर उसका भी पीछे कोई संस्कार नहीं छूट पाता, इसलिए साधक के कार्य - व्यापार में द्रव्यात्मकता से अधिक विकास नहीं होता ।
बला
बला तीसरी दृष्टि है। आचार्य ने इस दृष्टि में उद्भव पाने वाले बोध को काठ के अग्नि- कणों की उपमा दी है । काठ की अग्नि का प्रकाश कुछ स्थिर होता है, अधिक समय टिकता है, कुछ शक्तिमान् भी होता है। इसी प्रकार बला दृष्टि में उत्पन्न बोध आया और गया ऐसा नहीं होता। यह कुछ टिकता भी है सशक्त भी होता है, इसलिए वह संस्कार भी छोड़ता है । छोड़ा हुआ संस्कार ऐसा होता है, जो तत्काल मिटता नहीं । स्मृति में श्रास्थित हो जाता है । वैसे संस्कार की विद्यमानता साधक को जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर उबुद्ध किए रहने का प्रयास करती है, जिससे साधक में सत्कर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न होती है । प्रीति की परिणति चेष्टा या प्रयत्न में होती है।
दीप्रा
दीपा चौथी दृष्टि है । इसमें होने वाला बोध दीपक की प्रभा से उपमित किया गया है । पूर्वोक्त तीन दृष्टियों में उपमान के रूप में जिन-जिन प्रकाशों का उल्लेख हुआ है, दीपक का प्रकाश उनसे विशिष्ट है । वह लम्बे समय तक टिकता है । उसमें अपेक्षाकृत स्थिरता होती है, सर्वथा अल्पबल नहीं होता। उसके सहारे पदार्थ को देखा जा सकता है। उसी प्रकार दीप्रा दृष्टि में होने वाला बोध उपर्युक्त दृष्टियों के बोध को अपेक्षा दीर्घ समय तक टिकता है, अधिक शक्तिमान् होता है। बला दृष्टि की अपेक्षा कुछ और वृद्ध संस्कार छोड़ता है, जिससे साधक की अन्तः स्फूर्ति, सत्क्रिया के प्रति प्रीति और तदुन्मुख चेष्टा की स्थिति बनी रहती है। इतना तो होता है, पर साधक के क्रिया-कलाप में अब तक सर्वथा भावात्मकता नहीं था पाती, द्रव्यात्मकता ही रहती है। वन्दन, नमस्कार, सेवा, उपासना, प्रचंना जो कुछ यह करता है, वह द्रव्यात्मक यांत्रिक या बाह्य ही होती है सत्क्रिया में सम्पूर्ण तन्मयता का भाव उस पुरुष में आ नहीं पाता । इसलिए वह क्रिया भावात्मक नहीं होती ।
स्थिरा
स्थिरा पांचवी दृष्टि है। इसे रत्न की प्रभा से उपमित किया गया है। साधक की यह वह स्थिति है, जहाँ उसे प्राप्त बोध-ज्योति स्थिर हो जाती हैं। रत्न की प्रभा कभी मिटती नहीं, सहजतया उद्दीप्त रहती है । वैसे ही स्थिरा दृष्टि में प्राप्त बोधमय उद्योत स्थिर रहता है क्योंकि तब तक साधक का ग्रन्थिभेद हो चुकता है। राग-द्वेषादि विभाव-प्रथित दुरूह कर्म-ग्रन्थि वहाँ खुल चुकती है। दृष्टि सम्यक् हो जाती है, मिथ्या अध्यास मिट जाता है ।
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