Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 1
________________ योग-वाङ्मय के महान् प्रणेता आचार्य हरिभद्र रचित योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण o आचार्य डॉ. सी. एल. शास्त्री, एम. ए. 'त्रय', पी-एच. डी., काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि अर्चनार्चन प्राचार्य हरिभद्र सूरि अपने युग के महान् प्रतिभाशाली विद्वान तथा मौलिक चिन्तक थे। वे बहुश्रुत थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थ्य-वृत्ति के थे । उनकी प्रतिभा उन द्वारा रचित अनुयोगचतुष्टय विषयक धर्म-संग्रहणी "द्रव्यानुयोग", क्षेत्र-समास-टीका "गणितानुयोग", पंचवस्तु, धर्म-बिन्दु "चरणकरणानुयोग", समराइच्चकहा "धर्मकथानुयोग", अनेकान्त-जयपताका "न्याय" तथा भारत के तत्कालीन दर्शन-पाम्नायों से सम्बद्ध षड्दर्शनसमुच्चय आदि ग्रन्थों से प्रकट है। योग के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह न केवल जैन योग-साहित्य में, वरन पार्यों के समग्र योगविषयक चिन्तन में एक अनुपम मौलिक वस्तु है। उनकी योग विषयक रचनाओं में योगदृष्टिसमुच्चय का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह प्रसादपूर्ण प्रांजल संस्कृत के दो सौ अट्ठाईस अनुष्टुप श्लोकों में है। प्राचार्य ने इसमें योग के सन्दर्भ में सर्वथा मौलिक और अभिनव चिन्तन दिया है। जैन शास्त्रों में प्राध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थान के रूप में किया गया है। प्राचार्य हरिभद्र ने प्रात्मा के विकास-क्रम को योग की पद्धति पर एक नये रूप में विश्लेषित किया। उन्होंने ऐसा करने में जिस शैली का उपयोग किया, वह संभवतः अब तक उपलब्ध योगविषयक ग्रन्थों में अन्यत्र प्राप्त नहीं है। उन्होंने इस क्रम को आठ योग दृष्टियों के रूप में विभक्त किया। मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा तथा परा, प्राचार्य हरिभद्र द्वारा निरूपित आठ योग दृष्टियां हैं।' इन दृष्टियों का विवेचन करने से पूर्व प्राचार्य ने योग के सम्बन्ध में एक और विवेचन दिया है, जिसे उन्होंने इन दृष्टियों को समझने से पूर्व समझ लेना उपयोगी माना है। उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्य योग के रूप में योग के तीन भेद किये हैं। उन्होंने लिखा है कि योग-साधकों के उपकार हेतु मैं इच्छायोग आदि का स्वरूप व्यक्त कर रहा हूँ। इनका योग से निकटता का सम्बन्ध है ।। १. मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा कान्ता प्रभा परा। नामानि योगदृष्टीनां लक्षणं च निबोधता ।। -~-योगदृष्टिसमुच्चय १३ २. इहैवेच्छादियोगानां स्वरूपमभिधीयते । योगिनामुपकाराय व्यक्तं योगप्रसंगतः ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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