Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf
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योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण | ८३
साधन, उपक्रम, प्राधार प्रकृतकार्य रहते हैं । सामर्थ्य योग प्रान्तरिक शक्ति या ऊर्जा के उद्रेक पर प्राधत है। प्राचार्य हरिभद्र ने इसे परिभाषित करते हुए लिखा है
"शास्त्र में जिसका उपाय तो बतलाया गया है, पर जो उसको अतिक्रान्त कर शक्ति के उद्रेक पर टिका है, इस विशेषता के कारण जो शास्त्रीय परिधि से प्रतीत है, वह सामर्थ्य योग है, उत्तम है।""
शास्त्र किसी भी विषय में सामान्यतया मार्गदर्शन करता है। शास्त्र को पढ़कर व्यक्ति मार्ग का ज्ञान प्राप्त करता है। पर, जब वह शास्त्र संशित मार्ग पर प्रागे बढ़ता है,
आगे बढ़ने में शक्ति लगाता है, तो उसकी गति विशेष तीव्रता पकड़ती है और उसे नये-नये अनुभव प्राप्त होते हैं। ये नये-नये अनुभव प्रात्म-शक्ति के उद्रेक के कारण होते हैं। उन्होंने विशेष तौर से सामर्थ्य योग के साथ "उत्तम" विशेषण दिया है। उसका प्राशय यह है कि साधक योग-साधना द्वारा जिस लक्ष्य को हस्तगत करना चाहता है, वह शास्त्र के पढ़ने-सुनने मात्र से सिद्ध नहीं होता। वह शक्ति या सामर्थ्य का उपयोग करने से ही सिद्ध होता है । इसलिए सामर्थ्ययोग को "उत्तम" कहा गया है।
प्राचार्य इसी तथ्य को कुछ और स्पष्ट करना चाहते हैं। वे लिखते हैं
"सिद्धि पद या मोक्ष की प्राप्ति के जो कारण-विशेष हैं, योगियों को तत्त्वत: उनका बोध शास्त्र द्वारा सर्वथा हो सके, यह संभव नहीं है ।"
शास्त्र की एक सीमा है। अतः शास्त्र द्वारा तत्त्वों का एक सीमा-विशेष तक ही अवबोध हो सकता है, वह भी उनके स्थल रूप का। सूक्ष्म तो शब्द या वाणी का विषय ही नहीं । इसीलिए उपनिषद के ऋषि स्थान-स्थान पर "यतो वाचो निवर्तन्ते" का उद्घोष करते देखे जाते हैं। मोक्ष जीवन का परम दिव्य, परम निर्मल, परम उज्ज्वल स्वरूपावबोध या स्वरूपाधिकार की स्थिति है, जो स्वानुभूति का विषय है। जिनसे वह फलित होता है, सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र आदि आत्मिक भाव भी शाब्दिक व्याख्या की पकड़ में नहीं पाते । अन्तर्मन्थन में साधक को उनकी दिव्यता की झलक कभी-कभी अनुभूत हो जाती है। इसलिए यहाँ प्राचार्य ने सिद्धि-प्राप्ति के हेतु-विशेष शास्त्र के सहारे अवगत नहीं हो पाते, ऐसा जो कहा है, उसका यही अभिप्राय है कि ये जागरित शक्ति की अनुभूति के विषय
प्रस्तुत विषय को और अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से प्राचार्य लिखते हैं
"यदि सर्वथा शास्त्र द्वारा ही सम्यक् दर्शन आदि का परिच्छेद-परिज्ञान हो जाय तो इससे उन विषयों के साक्षात्कारित्व या प्रत्यक्ष आत्मसात् होने की बात बनती है। ऐसा हो
-योगदृष्टिसमुच्चय ५
१. शास्त्रसंदशितोपायस्तदतिक्रान्तगोचरः ।
शक्त्युद्रेकाद् विशेषेण सामर्थ्याख्योऽयमुत्तमः ।। २. सिद्धयाख्यपदसंप्राप्तिहेतुभेदा न तत्वतः ।
शास्त्रादेवावगम्यन्ते सर्वथैवेह योगिभिः ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय ६
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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