Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 17
________________ पंचम खण्ड / ९० आदि ग्रस्त पुरुष, उनसे अग्रस्त पुरुष, बालक, वयस्क, मोतियाबिन्द प्रादि से विकृत, मोतियाबिन्द आदि रहित इनकी दृष्टि के समान प्रोघ-दृष्टि समझनी चाहिए।"" प्रोध-दृष्टि का तात्पर्य लोक-प्रवाह का अनुसरण करते हए साधारण जनों का लौकिक पदार्थोन्मुख सामान्य दर्शन या दृष्टिकोण है। दूसरे शब्दों में इसे यों प्रतिपादित किया जा सकता है कि सांसारिक भाव, सांसारिक सुख, सांसारिक पदार्थ तथा क्रियाकलाप में जो दृष्टि रची-पची रहती है, वह अोघ-दृष्टि है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में प्रात्म-शक्ति के आवरक कर्मों का क्षयोपशम भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । जिस सीमा या परिमाण तक बाधक कर्म-प्रावरण क्षीण व उपशान्त होते हैं, उसके अनुरूप दष्टि का विकास या विस्तार होता है, इसलिए तरतमता की अपेक्षा से वह भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। प्राचार्य ने कुछ उदाहरण देकर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है । जैसे-वह रात, जिसमें प्राकाश बादलों से ढका है, अधिक धुंधली और अंधेरी होती है, बादल-रहित रात कम धुंधली होती है। उसी प्रकार बादलों से घिरा दिन अंधकाराच्छन्न होता है तथा बादलरहित दिन साफ होता है। अंधेरी रात और अंधेरे दिन में कोई वस्तु उतनी स्पष्ट दिखाई नहीं देती, जितनी साफ रात और साफ दिन में दिखाई देती है। भूत, प्रेत आदि से ग्रस्त व्यक्ति की दृष्टि एवं बुद्धि अधिक प्रविशद, अस्पष्ट या विकृत होती है । जो भूत, प्रेत आदि से ग्रस्त नहीं है, उसकी दृष्टि उतनी अविशद नहीं होती । बालक की दृष्टि कम स्पष्ट होती है । वयस्क की दृष्टि अधिक स्पष्ट होती है। जिसकी आंखों में मोतियाबिन्द, जाला आदि होता है, उसे कम दीखता है। जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ उसकी अपेक्षा साफ दीखता है। बालक का दृष्टिकोण कम स्पष्ट होता है । वयस्क का दृष्टिकोण तदपेक्षया अधिक स्पष्ट होता है । इसी प्रकार कर्मसंबंधी क्षयोपशम की न्यूनता-अधिकता आदि के कारण दृष्टि के वैशद्य में भी तरतमता होती है। तदनुसार लौकिक पदार्थों एवं भावों को भिन्न-भिन्न प्रकार से लोकोन्मुख दष्टि द्वारा देखने व अधिगत करने के जो भेद हैं, वे अोघ-दृष्टि के अन्तर्गत आते हैं। अोघ-दष्टि प्रतात्त्विक, सर्वथा व्यावहारिक, मात्र लोकजनीन होती है । जीवन के अन्तः सत्त्व की ओर इसका रुझान नहीं होता। योग-दृष्टि प्रात्म-तत्त्व, जीवन के सत्य-स्वरूप अथवा अध्यात्म-दष्ट्या ज्ञेय, उपादेय विषयों को देखने की दृष्टि योग-दष्टि कही जाती है। यह भी द्रष्टा के कर्म-सम्बन्धी क्षयोपशम की तरतमता से, भिन्नकोटिकता से जनित अधिक स्पष्टता, कम स्पष्टता के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। यह योग-मार्ग-प्रात्म-स्वरूप से जोड़ने वाले साधना-पथ का अनुसरण कर चलती है, इसलिए इसे योग-दृष्टि, योगी या साधक की दृष्टि कहा जाता है। १. समेघामेघरात्यादौ सग्रहाद्यर्भकादिवत् । प्रोघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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