Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ योगदृष्टिसमुच्चय एक विश्लेषण / ९५ उसके मन को अपने में उलझाए रखेंगे। पोर परिश्रमपूर्वक कर्म करने पर भी यदि कर्ता को समुचित फल नहीं मिलेगा तो उसके मन में खीझ उत्पन्न होगी, क्रोध उत्पन्न होगा, अपेक्षित से अधिक फल मिलेगा तो वह अत्यन्त हर्षित होगा । जैसे अल्प या अधिक परिश्रम से कर्म किया गया, निश्चित रूप से सर्वत्र वैसा ही फल प्राप्त हो, यह असंभव है। फल निष्पन्नता में श्रम स्थिति, सम्बद्ध व्यक्ति, क्षेत्र व्यवहार, भावी सम्भावना आदि अनेक हेतु हैं । इसलिए अमुक कर्म का फल अमुक हो ही, यह बात बनती नहीं । दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि कर्म करना व्यक्ति के अपने हाथ की बात है, फल उसके हाथ में नहीं है । यही कारण है, गीताकार ने व्यक्ति को फल की कामना करने का अधिकारी नहीं बताया है। वह तो मिलेगा ही, कोई कामना करे या न करे, अतः पर कामना छोड़ देने से बहुत कुछ बनता है । वैसे विषाद नहीं होता, कर्मानुरूप या अधिक फल मिलने पर न मिलना, कम मिलना, ज्यादा मिलना - ऐसी स्थितियाँ उसके मन को पाती, उसकी शान्ति को भंग नहीं कर पातीं। यदि मनोवृत्ति को यों कितना आनन्द हो जाय । कर्म का जैसा जो फल मिलता है, कामना करने से कुछ बनता भी नहीं व्यक्ति को समुचित फल न मिलने से प्रमाद नहीं होता । फल का मिलना, विचलित नहीं कर साध लिया जाय तो प्रस्तुत श्लोक के उत्तरार्द्ध में गीताकार ने और स्पष्ट किया है कि कर्मों के फल को अपने उद्यम का हेतु मत मानो, कर्म के फल की वासना को छोड़ दो । इतना जोर देकर कहे जाने से कहीं सुनने वाले का कर्म से ही विराग न हो जाय, गीताकार ने उसे और सावधान किया कि तुम कहीं " अकर्मा" - कर्म न करने वाला मत बन जाना । जब कर्म ही नहीं करूंगा तो फल की कामना का प्रश्न ही समाप्त हो जायगा, ऐसा सोचकर कमों से मुंह मोड़ लेना भ्रान्ति है यों कर्म न करने का मानस भी एक प्रासक्ति है - यह न करने की आसक्ति है न करने के दुर्बन्ध में उलझाव है, इससे भी बचना होगा । इसलिए उन्होंने कर्ममय जीवन से पृथक् होने से मनुष्य को रोका। इसी तथ्य का स्पष्टीकरण वे मागे करते हैं--- "आसक्ति का परित्याग कर, सिद्धि - सफलता, प्रसिद्धि - असफलता में समान बनकर, योग में स्थित होकर तुम कर्म करो । यह समत्व ही योग है ।" आगे कहा गया है "उपर्युक्त बुद्धियोग से फल के प्रति निष्काम रहते हुए किए जाने वाले कर्म की में फल की कामना के साथ किया जाने वाला कर्म तुच्छ है तुलना इसलिए तुम बुद्धियोगसमत्वयोग का आश्रय लो। वास्तव में फल की कामना करने वाले व्यक्ति प्रत्यन्त कृपणदीन हैं। १. योगस्यः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय | • सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ २. दूरेण हावरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय | बुद्धी शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥ Jain Education International - श्रीमद्भगवद्गीता २. ४८ - श्रीमद्भगवद्गीता २.४९ For Private & Personal Use Only आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25