Book Title: Yoga drushtti samucchay ek Vishleshan
Author(s): C L Shastri
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 23
________________ पंचम खण्ड / ९६ त्याग, संन्यास आदि के सन्दर्भ में गीता के १८वें अध्याय में बहुत ही मार्मिक विवेचन हुआ है। कहा है ___ "काम्यकर्मों का त्याग संन्याय है, ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। सब कर्मों के फल का त्याग त्याग है, ऐसा विचारशील पुरुष बतलाते हैं।"१ धन, धान्य, स्त्री, पुत्र तथा अन्यान्य प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए एवं रोग, दुःख, विध्न, बाधा आदि की निवृत्ति के लिए जो उपासना, पूजा, तप, दान, यज्ञ आदि कर्म किए जाते हैं, उन्हें काम्यकर्म कहा जाता है। गीताकार द्वारा प्रतिपादित काम्यकर्मों के त्याग का आशय यह है कि इन धार्मिक कर्मों के साथ लौकिक सुख मिले, यह इच्छा करना, लौकिक कष्ट मिटें, ऐसी कामना करना, ऐसे भाव जो जुड़े हए हैं, वे अपगत हो जायं। वैसा होने पर ये सत्कार्य तो रहेंगे पर इनका काम्य विशेषण हट जायेगा। गीताकार ने यहाँ सब कर्मों के त्याग को त्याग नहीं कहा है, सब कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहा है। त्याग की बड़ी सूक्ष्म और गहन परिभाषा यह है। जब तक देह है, इन्द्रियां हैं, मन है, यह जागतिक जीवन है, कभी कर्म छुट सकता है ? कान्ता-दष्टि-प्राप्त साधक गीताकार के शब्दों में उत्तम, निष्काम कर्मयोगी की भूमिका का सम्यक् निर्वाह करता है। वैसी स्थिति प्राप्त कर लेने के कारण सत्-क्रिया के भावानुष्ठान में वह सोत्साह संलग्न रहता है। अनुष्ठान शब्द अपने आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण है। अनु उपसर्ग का अर्थ पीछे या अनुरूप है । सम्यक् ज्ञानी की क्रिया उस द्वारा प्राप्त प्रात्मा-ज्ञान के अनुरूप या उसका अनुसरण करती हुई गतिशील रहती है वह भाव-क्रिया है। वहाँ क्रियमाण कर्म में केवल दैहिकयोग नहीं होता, आत्मा का लगाव होता है। वैसा पुरुष अनवरत धर्म के आचरण या सच्चारित्र के अनुपालन में उद्यमशील रहता है। एक ऐसी अन्तर्जागृति साधक में पैदा हो जाती है कि वह स्वभाव में अनुरत और परभाव से विरत रहने में इच्छाशील तथा यत्नशील रहता है। परभाव से पृथक् रहने के समुद्यम का यह प्रतिफल है, उसके सद् प्राचरण में कोई अतिचार-प्रतिकल कर्म या दोष नहीं होता। अशुभ-पापमूलक, शुभ-पुण्यमूलक उपयोग से ऊंचा उठ वह साधक शुद्धोपयोग के अनुष्ठान की भूमिका में अवस्थित हो जाता है। आत्मा के निलिप्त, राग, द्वेष, मोह आदि से असंपृक्त शुद्ध स्वरूप की भव्य भावना का वह अनुचिन्तन करता है। ऐसे साधक की प्रमाद-रहित साधना-भूमि और विशिष्ट बनती जाती है। ऐसा अप्रमाद वह अधिगत कर लेता है कि फिर उसको उसके स्वरूप से भ्रष्ट या च्युत करने वाला प्रमाद वहाँ फटक नहीं सकता। __ऐसे साधक की एक विशेषता और होती है। साधना के अनुभव-रस का जो पान वह कर चुका होता है, ज्ञान एवं दर्शन का जैसा प्रत्यय, बोध, अनुभव वह पा चुका होता है, १. काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।। -श्रीमद्भगवद्गीता १८.२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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