Book Title: Vyutpatti Dipikabhidhan Dhundikaya Samarthitam Siddha Hem Prakrit Vyakaranam Part 02
Author(s): Vimalkirtivijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 338
________________ आदेशः सानुबन्धः शल गती उत्थल्ल उद्धमा क्रम पादविक्षेपे उद्दाल छिपी द्वैधीकरणे पूरण पूरणे (आप्यायने) उप्पाल कथण वाक्यप्रबन्ध उप्पेल णमं प्रह्लत्वे उब्माव रमि क्रीडायाम् उतभुत्त क्षिपीत् प्रेरणे उमच्छ वञ्चिण् प्रलम्भने उम्मत्थ गम्लं गतौ उम्मिल्ल मील निमेषणे उल्लाल णमं प्रहृत्वे अकारादिवर्णक्रमेण चतुर्थपादान्तर्गता धात्वादेशाः ४५८ | निरनुबन्धः सूत्राक-धात्वक गणः पत्रातः । पदम् | अर्थः उत्+शल् १७४ ४६४ परस्मै | [सक.] उछलना। आ+क्रम् ४६१] [सक.] आक्रमण करना । आ+छिद् | [सक.] हाथ से छीन लेना। [सक.] पूर्ण करना। कथ [सक.] कहना, बोलना। उद्+नमय | ३६ [सक.] ऊंचा करना। रम् १६८ ४६३] [सक.] क्रीडा करना। उत्+क्षिप् | १४४ उभय | [सक.] ऊंचा फेंकना । वञ्च् |९३ ४४८ आत्मने [सक.] ठगना । अभि+आ+गम्, १६५ ४६३] परस्मै | [सक.] सामने आना। उद्+मील् | २३२ [अक.] विकसित होना, प्रकाशित होना । उद्+नमय | ३६ [सक.] ऊंचा करना, ऊपर फेंकना । [सक.] तोडना । वि+रिन् । परस्मै | [अक.] झरना, बाहर निकलना । तुड् |११६ [सक.] तोडना, नाश करना । सम् आ+रच ९५ | [सक.] रचना, उत्तेजित करना । प्र+स् ७७ | [अक.] फैलना, प्रसारित होना । उद्+विज् | २२७ ४७८ आत्मने [अक.] द्धेग करना, खिन्न होना । उद्वे ष्ट | २२३ ४७७/ आत्मने | [सक.] बांधना, बन्धन मुक्त करना । उद्+वेष्ट | २२३ ४७७/ आत्मने | [सक.] बाँधना, बन्धन मुक्त करना । तुडत् तोडने ४८ अल्लुक्क उल्लुण्ड रिचण् वियोजने च तुडत् तोडने उवहत्थ रचण् प्रतियत्ने उवेल्ल सं गतौ उव्विव ओविजैति भय-चलनयोः उब्वेढवेष्टि वेष्टने उठवेल्ल वेष्टि वेष्टने ७५९

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