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मुक्ति का मार्ग
मुक्ति का मार्ग प्रवचनकार - यह तो सर्वमान्य एवं सर्वानुभूत तथ्य है कि संसार में सब प्राणी दुःखी हैं और सब दुःख से मुक्ति चाहते हैं, तदर्थ यत्न भी करते हैं; पर उस मुक्ति का सही मार्ग पता न होने से उनका किया गया सारा ही प्रयत्न व्यर्थ जाता है। अत: मूलभूत प्रश्न तो यह है कि वास्तविक मुक्ति का मार्ग क्या है ?
मुक्ति का मार्ग क्या है ? इस प्रश्न के पूर्व वास्तविक मुक्ति क्या है - इस समस्या का समाधान अपेक्षित है। मुक्ति का आशय दु:खों से पूर्णत: मुक्ति से है। दुःख आकुलतारूप हैं, अत: मुक्ति पूर्ण निराकुल होना चाहिए। जहाँ रंचमात्र भी आकुलता रहे, वह परिपूर्ण सुख नहीं अर्थात् मुक्ति नहीं है। ___ मुक्ति का मार्ग क्या है ? इसका निरूपण करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
एवं सम्यग्दर्शनबोधचरित्रत्रयात्मको नित्यम् ।
तस्यापि मोक्षमार्गो भवति निषेव्यो यथाशक्ति ।।२०।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। प्रत्येक जीव को इसका सेवन यथाशक्ति करना चाहिए।
अत: यह तो निश्चित हुआ कि सम्यग्दर्शन अर्थात् सच्ची श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान अर्थात् सच्चा ज्ञान और सम्यक्चारित्र अर्थात् सच्चा चारित्र - तीनों की एकता ही सच्चा मुक्ति का मार्ग है । पर प्रश्न उठता है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र क्या हैं ?
निश्चय से तो तीनों आत्मरूप ही हैं अर्थात् आत्मा की शुद्ध पर्यायें ही हैं। पर-पदार्थों से भिन्न अपनी आत्मा का वास्तविक स्वरूप स्वसन्मुख होकर समझकर उसमें आत्मपने की श्रद्धासम्यग्दर्शन, पर-पदार्थों से भिन्न अपनी आत्मा की तथा पर-पदार्थों की स्वसन्मुख होकर यथार्थ जानकारी सम्यग्ज्ञान और परपदार्थों एवं पर-भावों से भिन्न अपने ज्ञान-स्वभावी आत्मस्वरूप में लीन होते जाना ही सम्यक्चारित्र है। इनका विशेष खुलासा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं - जीवाजीवादीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धानं विपरीताऽभिनिवेशविविक्तमात्मरूपं तत् ।।२२।।
वीतराग-विज्ञान भाग -३
२७ विपरीत मान्यता से रहित जीवादिक तत्त्वार्थों का श्रद्धान (प्रतीति) करना ही सम्यग्दर्शन है। इसे प्राप्त करने का नित्य प्रयत्न करना चाहिए; क्योंकि वह आत्मरूपही है।
हमें सबसे पहले सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का यत्न करना चाहिए; क्योंकि इसके प्राप्त किये बिना मोक्षमार्ग का आरम्भ ही नहीं होता है। कहा भी है -
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।२१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों में सबसे पहले सम्यग्दर्शन को पूर्ण प्रयत्न करके प्राप्त करना चाहिए; क्योंकि इसके होने पर, ज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप और चारित्र सम्यक्चारित्ररूप परिणत होता है।
सम्यग्दर्शन के बिना समस्त ज्ञान अज्ञान और समस्त महाव्रतादिरूप शुभाचरण मिथ्याचारित्ररूप ही रहता है।
मुमुक्षु- यह सम्यग्दर्शन प्राप्त कैसे होता है?
प्रवचनकार - सर्वप्रथम तत्त्वाभ्यास से सप्त तत्त्व का यथार्थ स्वरूप समझने का तथा परपदार्थ और परभावों में परबुद्धि और उनसे भिन्न अपने आत्मा में आत्मबुद्धिपूर्वक त्रिकाली आत्मा के सन्मुख होकर आत्मानुभूति प्राप्त करने का उद्यम करना ही सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का उपाय है।
प्रश्नकार - और सम्यग्ज्ञान ..........? प्रवचनकार -
कर्तव्योऽध्यवसाय: सदनेकान्तात्मकेषु तत्त्वेषु ।
संशयविपर्ययानध्यवसायविविक्तमात्मरूपं तत् ।।३५।। संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित एवं अनेकान्तात्मक प्रयोजनभूत तत्त्व की सही जानकारी ही सम्यग्ज्ञान है। इस सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का भी सदा प्रयत्न करना चाहिए।
जिज्ञासु-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय किसे कहते हैं ?
प्रवचनकार - परस्पर विरुद्ध अनेक कोटि को स्पर्श करनेवाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे- शुभराग पुण्य है या धर्म अथवा यह सीप है या चाँदी।
विपर्यय - विपरीत एक कोटि के निश्चय करनेवाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे - शुभराग को धर्म मानना, सीप को चाँदी जान लेना ।
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