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निश्चय और व्यवहार
वीतराग-विज्ञान भाग -३
तथा निश्चय नय उन्हीं को यथावत् निरूपित करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है, ऐसे श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है; अत: उसका श्रद्धान करना।
गुमानीराम - तो फिर जैन शास्त्रों में दोनों नयों को ग्रहण करना क्यों कहा
है, वह वास्तविक नहीं है; उससे तो मात्र गंगा को समझा जा सकता है, उससे कोई पथिक प्यास नहीं बुझा सकता है। प्यास बुझाने के लिए असली गंगा के किनारे ही जाना होगा; उसीप्रकार व्यवहार द्वारा कथित वचन नक्शे की गंगा के समान हैं, उनसे समझा जा सकता है; पर उनके आश्रय से आत्मानुभूति प्राप्त नहीं की जा सकती है। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए तो निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मा का ही आश्रय लेना आवश्यक है। अत: व्यवहारनय तो मात्र जानने (समझने) के लिए प्रयोजनवान है। प्रश्न - १. मुक्ति का मार्ग (मोक्षमार्ग) क्या है ? क्या वह दो प्रकार का है ? स्पष्ट कीजिये? २. निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग में क्या अन्तर है ? स्पष्ट कीजिये? ३. निश्चय और व्यवहार की परिभाषायें दीजिये? ४. निम्न उक्ति में क्या दोष है ? समझाइये। “सिद्ध समान शुद्धात्मा का अनुभव करना निश्चय
और व्रत-शील-संयमादि प्रवृत्ति व्यवहार है।" ५. जिनवाणी में व्यवहार का उपदेश दिया ही क्यों है ? ६. दोनों नयों का ग्रहण करने से क्या आशय है ? ७. व्यवहार निश्चय का प्रतिपादक कैसे है?
__पं. टोडरमलजी - जहाँ निश्चय नय का कथन हो उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही हैं' - ऐसा मानना; जहाँ व्यवहार की मुख्यता से कथन हो, उसे ऐसा है नहीं, निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार से कथन किया है - ऐसा मानना ही दोनों नयों का ग्रहण है।
गुमानीराम - यदि व्यवहार को हेय कहोगे तो लोग व्रत, शील, संयमादि को छोड़ देंगे।
पं. टोडरमलजी- कुछ व्रत, शील, संयमादि का नाम तो व्यवहार है नहीं, इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है। इनको सच्चा मोक्षमार्ग मानना तो छोड़ना ही चाहिए। तथा यदि व्रतादिक को छोड़ोगे तो क्या हिंसादि रूप प्रवर्तोगे, तो फिर
और भी बुरा होगा। अत: व्रतादिक को छोड़ना भी ठीक नहीं और उन्हें सच्चा मोक्षमार्ग मानना भी ठीक नहीं।
गुमानीराम - यदि ऐसा है तो फिर जिनवाणी में व्यवहार का कथन ही क्यों किया?
पं. टोडरमलजी-जिसप्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता है। अत: जिनवाणी में व्यवहार का कथन आया है। जैसे म्लेच्छ को समझाने के लिए भले ही म्लेच्छ भाषा का आश्रय लेना पड़े, पर म्लेच्छ हो जाना तो ठीक नहीं; उसीप्रकार परमार्थ का प्रतिपादक होने से भले ही उसका कथन हो, पर वह अनुसरण करने योग्य नहीं।
गुमानीराम - व्यवहार निश्चय का प्रतिपादक कैसे है ?
पं. टोडरमलजी-जैसे हिमालय पर्वत से निकल कर बंगाल की खाड़ी में गिरनेवाली सैकड़ों मील लम्बी गंगा की लम्बाई को तो क्या चौड़ाई को भी आँख से नहीं देखा जा सकता है, अत: उसकी लम्बाई और चौड़ाई और बहाव के मोड़ों को जानने के लिए हमें नक्शे का सहारा लेना पड़ता है। पर जो गंगा नक्शे में
पूजनादिक कार्यों में उपदेश तो यह था कि -'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ दोषाय नाल, बहुत पुण्यसमूह में पाप का अंश दोष के अर्थ नहीं है। इस छल द्वारा पूजा-प्रभावनादि कार्यों में रात्रि में दीपक से व अनन्तकायादिक के संग्रह द्वारा व अयलाचार प्रवृत्ति से हिंसादिरूप पाप तो बहुत उत्पन्न करते हैं और स्तुति, भक्ति आदि शुभ परिणामों में नहीं प्रवर्तते व थोड़े प्रवर्तते हैं; सो वहाँ नुकसान बहुत, नफा थोड़ा या कुछ नहीं। ऐसे कार्य करने में तो बुरा ही दिखना होता है।
पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्व सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ। दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ।।५८।।
(वृहत्स्वयंभू स्तोत्र : आचार्य समन्तभद्र)
मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ १९०