Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 3
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ वीतराग-विज्ञान भाग -३ पाठ८ दशलक्षण महापर्व जिनेश - कहो भाई विनोद ! मन्दिर चलोगे? विनोद - नहीं भाई! आज तो सिनेमा जाने का विचार है। जिनेश- क्यों? विनोद - क्योंकि आज आत्मा में शान्ति नहीं है, कुछ मनोविनोद हो जायेगा। जिनेश-वाह भाई ! सिनेमा में शान्ति खोजने चले हो ? सिनेमा तो रागद्वेष (अशांति) का ही वर्द्धक है और अब तो दशलक्षण महापर्व प्रारंभ हो गया है। ये दिन तो धर्म-आराधना के हैं। इन दिनों सब लोग आत्मचिंतन, पूजन-पाठ, व्रत-उपवास आदि करते हैं एवं पूरा दिन स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा आदि में बिताते हैं। वैसे तो प्रत्येक धार्मिक पर्व का प्रयोजन आत्मा में वीतराग भाव की वृद्धि करने का ही होता है, किन्तु इस पर्व का संबंध विशेष रूप से आत्म-गुणों की आराधना से है। अत: यह वीतरागी पर्व संयम और साधना का पर्व है। पर्व अर्थात् मंगल काल, पवित्र अवसर । वास्तव में तो अपने आत्म-स्वभाव की प्रतीतिपूर्वक वीतरागी दशा का प्रकट होना ही यथार्थ पर्व है; क्योंकि वही आत्मा का मंगलकारी है और पवित्र अवसर है। उत्तमक्षमादि दशलक्षण धर्म से संबंधित होने से इसे दशलक्षण महापर्व कहते हैं। विनोद - यह दशलक्षण धर्म क्या है ? जिनेश-आत्मस्वभाव की प्रतीतिपूर्वक चारित्र (धर्म) की दश प्रकार से आराधना करना ही दशलक्षण धर्म है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा है: "उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥९॥६॥" अर्थात् उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन और उत्तम ब्रह्मचर्य - ये धर्म के दशप्रकार हैं। विनोद - इन दश धर्मों को थोडा स्पष्ट करके समझा सकते हो? जिनेश - क्यों नहीं ? सुनो। अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय के अभाव में ज्ञानी मनिवरों को जो विशिष्ट चारित्र की शुद्ध परिणति होती है, निश्चय से उसे उत्तम क्षमा मार्दव आदि दश धर्म कहते हैं और उस भूमिका में मुनिवरों को सहज रूप से जो क्षमादि रूप शुभभाव होते हैं, उन्हें व्यवहार से उत्तम क्षमादि दश धर्म कहते हैं, जो कि पुण्यरूप हैं। 'उत्तम' शब्द 'निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक' के अर्थ में आता है। निश्चय से तो त्रैकालिक क्षमास्वभावी आत्मा के आश्रय से अनंतानुबंधी आदि तीन प्रकार के क्रोध के त्यागरूप शुद्धि ही उत्तम क्षमा है। निश्चय क्षमा के साथ होनेवाली निंदा और शरीरघात आदि अनेक प्रतिकूल संयोगों के आ पड़ने पर भी क्रोधरूप अशुभभाव न होकर शुभभावरूप क्षमा होना व्यवहार से उत्तम क्षमा है। इसीप्रकार निश्चय से तो त्रैकालिक मार्दवस्वभावी आत्मा के आश्रय से अनंतानुबंधी आदि तीन प्रकार के मान के त्यागरूप शुद्धि ही उत्तम मार्दव धर्म है तथा निश्चय मार्दव के साथ होनेवाले जाति आदि के लक्ष्य से उत्पन्न आठ मदरूप अशुभभाव न होकर निरभिमानरूप शुभभाव होना व्यवहार से उत्तम मार्दव धर्म है। 20

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