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ज्ञानी श्रावक के बारह व्रत
वीतराग-विज्ञान भाग -३
गुणव्रत दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत - ये तीन गुणव्रत कहलाते हैं।
१. दिम्ब्रत - कषायांश कम हो जाने से गृहस्थ दशों दिशाओं में प्रसिद्ध स्थानों के आधार पर अपने आवागमन की सीमा निश्चित कर लेता है और जीवनपर्यन्त उसका उल्लंघन नहीं करता, इसे दिव्रत कहते हैं।
२. देशव्रत - दिग्वत की बाँधी हुई विशाल सीमा को घड़ी, घंटा, दिन, सप्ताह, माह आदि काल की मर्यादापूर्वक और भी सीमित (कम) कर लेना देशव्रत है।
३. अनर्थदण्डव्रत - बिना प्रयोजन हिंसादि पापों में प्रवृत्ति करना या उस रूप भाव करना अनर्थदण्ड है और उसके त्याग को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। व्रती श्रावक बिना प्रयोजन जमीन खोदना, पानी ढोलना, अग्नि जलाना, वायु संचार करना, वनस्पति छेदन करना आदि कार्य नहीं करता अर्थात् त्रसहिंसा का तो वह त्यागी है ही, पर अप्रयोजनीय स्थावरहिंसा का भी त्याग करता है । तथा रागद्वेषादिक प्रवृत्तियों में भी उनकी वृत्ति नहीं रमती, वह इनसे विरक्त रहता है। इसी व्रत को अनर्थदण्डव्रत कहते हैं।
शिक्षाव्रत सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत, भोगोपभोगपरिमाणव्रत और अतिथिसंविभागवत - ये चार शिक्षाव्रत हैं।
१.सामायिकव्रत - सम्पूर्ण द्रव्यों में राग-द्वेष के त्यागपूर्वक समता भाव का अवलम्बन करके आत्मभाव की प्राप्ति करना ही सामायिक है। व्रती श्रावकों द्वारा प्रातः, दोपहर, सायं - कम से कम अन्तर्मुहूर्त एकान्त स्थान में सामायिक करना सामायिकव्रत है।
२. प्रोषधोपवासव्रत - कषाय, विषय और आहार का त्याग कर आत्मस्वभाव के समीप ठहरना उपवास है। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को सर्वारम्भ छोड़कर उपवास करना ही प्रोषधोपवास है।
यह तीन प्रकार से किया जाता है - उत्तम, मध्यम और जघन्य ।
उत्तम - पर्व के एक दिन पूर्व व एक दिन बाद एकासनपर्वक व पर्व के दिन पूर्ण उपवास करना उत्तम प्रोषधोपवास है।
मध्यम - केवल पर्व के दिन उपवास करना मध्यम प्रोषधोपवास है। जघन्य - पर्व के दिन केवल एकासन करना जघन्य प्रोषधोपवास है।
३. भोगोपभोगपरिमाणव्रत - प्रयोजनभूत सीमित परिग्रह के भीतर भी कषाय कम करके भोग और उपभोग का परिमाण घटाना भोगोपभोगपरिमाणव्रत है। पंचेन्द्रिय के विषयों में जो एकबार भोगने में आ सकें, उन्हें भोग और बार-बार भोगने में आवें, उन्हें उपभोग कहते हैं।
४. अतिथिसंविभागवत - मुनि, व्रती श्रावक और अव्रती श्रावक - इन तीन प्रकार के पात्रों को अपने भोजन में से विभाग करके विधिपूर्वक दान देना अतिथिसंविभागवत है।
निश्चय सम्यग्दर्शनपूर्वक उक्त बारह व्रतों को निरतिचार धारण करनेवाला श्रावक ही व्रती श्रावक कहलाता है; क्योंकि बिना सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के सच्चे व्रतादि होते ही नहीं हैं। तथा निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानपूर्वक अनंतानुबंधी
और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव होने पर प्रकट होनेवाली आत्मशुद्धि केसाथ सहज ही ज्ञानी श्रावक के उक्त व्रतादिरूप भाव होते हैं। आत्मज्ञान बिना जो व्रतादिरूप शुभभाव होते हैं, वे सच्चे व्रत नहीं हैं। प्रश्न - १. व्रती श्रावक किसे कहते हैं ? श्रावक के व्रत क्या हैं? वे कितने प्रकार के होते हैं ?
नाम सहित गिनाइये? २. अहिंसाणुव्रत और सत्याणुव्रत का विस्तार से विवेचन कीजिए? ३. निम्नांकितों में से किन्हीं तीन की परिभाषाएँ दीजिए :
हिंसा, अनर्थदण्डव्रत, सामायिक शिक्षाव्रत, अचौर्याणुव्रत? ४. निम्नलिखित में परस्पर अन्तर बताइये :
(क) भोग और उपभोग (ख) दिव्रत और देशव्रत
(ग) परिग्रहपरिमाणव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत ५. 'ज्ञानी श्रावक के बारह व्रत' विषय पर अपनी भाषा में एक निबंध लिखिए ?
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