Book Title: Vasudev Chupai
Author(s): Rasila Kadia
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 32
________________ 82 अनुसंधान-२८ हरि बोलइ ए साचुं मेल, नगर माहि पडसिइ पणि भेल । कहइ नेमि तुम्हि म करु खोह, जरासिंधु दल करिसुं निरोह ॥२६९।। इम कही तप कीआ गोविंद, पुण्यभावि आविउं खा(धर)णंद वात कही ते जलनी इसी, सुरवर बोलइ इम तव हसी ॥२७०।। कांइ कीधु एवडु उपाय, एह जि जिनना उहली (?) खाय काई न छांटउं सेना सवे, विघन रोग नवि आवइ भवे ॥२७१।। लाख राय जिणि रुंध्या जोइ, सोइ पुरुष सामान्य न होइ एह वातनुं न लहइ थाय, ते तु कहीइ मूरख राय ॥२७२।। अनंत बल जिनवर देव, चउसट्ठि इंद्र करइ पयसेव विधन सवे दूरइ नीगमइ, रोग शोक नामई उपशमई ॥२७३॥ हरि बोलई अह्मि न लहउ सार, तु सुर आणी आपिउ वारि छाटिउ सेन निराकुल अंग, तु वली सुभट धरइ रणरंग ॥२७४॥ एक निरता वीजोइ वाह, लीधई टोप अन्नइ सन्नाह बाण तणी धारा धारणी, तिणि वयरी कीधा रेवणी ॥२७५।। समरभूमि दीसई अति क्रूर, रुधिर नदीना पसरियां पूर जरह जीणनइ चूटइ जोड, वीर सवे तिहां पूरई कोड ॥२७६।। समरांगण जोवा सुर मिलई, सिंहनादि तेहूं खलभलई वेणिधर इक नाखई दूरि, सुभट तिहां मचकोडिआ भूरि ॥२७७।। बिहुँ कटक करतां संग्राम, छ मास हुआ जिम रावण राम जरासंध नारायण तेउ, युध करइ हिव साथइ बेउ ।।२७८।। पंचायण परि बिहु बलवंत, विविध परई दीसई झूझंत मुष्टि धाय पर्वत चूरंति, दंडायुध छत्रीस धरंति ॥२७९।। ए वयरी दुर्जेय अभंग, जरासिंध चिंतइ मनभंग अगनिझाल झलकति विशाल, चक्ररयण मूकिउ ततकाल ।।२८०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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