Book Title: Vasudev Chupai
Author(s): Rasila Kadia
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 38
________________ 88 अनुसंधान-२८ हिव हरि मदवंता माधवना पूत, नगरी बाहरि गया बहूत द्विपायन रिषि आकुल कीड, करीय नीयाणउं व्यंतर हूउ ॥३३९।। नगर माहिं तपतणउ विभाग, बार वरस नवि लाधउ लाग पुण्य जव समतां होइ, द्वारिकादाह करइ तव सोइ ॥३४०॥ बहु यादव व्रत अंगीकरइ, सयल उपद्रव ते ऊतरइ केता सुर रमणी वर थया, के आराधी शिवपुरी गया ॥३४१॥ शुभ ध्यानइ वसुदेव कुमार, अणसण लीइ नारी परिवार पुण्य प्रभावइ सुरलोक पहूत, लीला सुख भोगवइ बहूत ॥३४२।। केसव राम गया वन माहि, तृषा लागीनइ करइ आणाही वनि बलदेव गयउ जल काजि, तव तिहां सूतु केशव राजि ॥३४३॥ हरि बंधव तिहां जराकुमार, हरिनइ लागु बाण प्रहार जिनभाषित गति पहुतु खेव, देखी शोक धरइ बलदेव ॥३४४ कधि वहिउँ छ मास शरीर, सुर प्रतिबोधि जागीउ वीर नेमि पासि चारित्र आदरइ, निय काया तपि निरमल करइ ॥३४५।। मोह धरइ स्त्री देखी रूप, नगरमाहि नावई रिखिभूप वनि निवसई मनि नही विकार, सपरिवार आविउं रथकार ॥३४६।। मुनिवर तिहां विहरणि आवीउ, भाव धरी तिणि विहराविउ रिषिभ तिहां करतुं सेवना, देखी हरिण धरई भावना ॥३४७॥ दूहा भावण भावइ हरिणलु, नयणे नीर भरंति मुनि विहरावत करि करी, जउ हुं माणस हुँत ।।३४८॥ ततखिणि वडतरु अरणी, अधछेदी छइ डाल पवनवेगि उपरि पड़ी, त्रिहूं पहूतुं काल ॥३४९।। सूत्रहारनइ हरिणलउं, बलदेव हरिखी राय देवलोकि पंचमि गया, त्रिणिइ पुण्य पसाय ॥३५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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